aaj sabji kya banaun in Hindi Comedy stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | आज क्या सब्जी बनाऊं’ ?

Featured Books
  • DIARY - 6

    In the language of the heart, words sometimes spill over wit...

  • Fruit of Hard Work

    This story, Fruit of Hard Work, is written by Ali Waris Alam...

  • Split Personality - 62

    Split Personality A romantic, paranormal and psychological t...

  • Unfathomable Heart - 29

    - 29 - Next morning, Rani was free from her morning routine...

  • Gyashran

                    Gyashran                                Pank...

Categories
Share

आज क्या सब्जी बनाऊं’ ?

चलो बहना, सब्जी लायें

यशवन्त कोठारी

 

‘‘‘आज क्या सब्जी बनाऊं’’

   इस शाश्वत सवाल का शाश्वत जवाब है।

   ‘‘जो तुम चाहो।’’ बस अब इस वाक्य का अर्थ है कि महाभारत शुरू होना ही चाहता है। मैं इस महाभारत से बचने के प्रयास करता हूं। और इसी बचाव की प्रक्रिया में उन्हें सब्जी मण्डी की सैर कराने ले जाता हूं। अब कुल मिलाकर सीन ये हैं भाई साहब कि मैं अपने दुपहिया वाहन पर बैठा हूं, पीछे वे बैठी हैं, कुछ थैले, झोले, टोकरियां आगे लटक रही हैं और हम दोनों सब्जी मण्डी की ओर अग्रसर हो रहे हैं। प्रति रविवार हम यह काम आनन्द से करते हैं ताकि पूरा सप्ताह ‘सब्जी क्या बनाऊं’ के महाभारत से बच सकें।

   सब्जी मण्डी के आस-पास माहौल काफी रोचक तथा उत्साहवर्धक दिखाई देता है। कुछ समझदार पति अपनी-अपनी पत्नियों को मण्डी के अन्दर भेज देते हैं और बाहर खड़े-खड़े अन्य महिलाओं के सब्जी लाने-ले जाने की प्रक्रिया का गंभीरता से अध्ययन करते हैं। कुछ बुद्धिजीवी किस्म के पति एक अखबार खरीद लाते हैं और वाहन पर बैठ कर पारायण करते हैं। कुछ पति अपनी पत्नी के साथ सब्जी मण्डी के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। भाव-ताव में पत्नी का निर्णय ही अंतिम और सच साबित होता है।

   कई बार मैं देखता हूं कि महिलाएं सब्जी मंडी में  ही अपनी सहेलियों, रिश्तेंदारों से गप्प मारने लग जाती हैं। उन्हें सब्जी से ज्यादा चिन्ता साड़ी की डिजाइन, जूड़े के आकार तथा लिपस्टिक की रहती है।

      सब्जी खरीदना, एक कला है। जो हर एक के बस की बात नहीं है। मैं इस कला में अनाड़ी हूं अतः सब्जी मण्डी के बाहर ही खड़ा रहता हूं। कभी-कभी एक अखबार भी खरीद लेता हूं। साप्ताहिक सब्जी खरीद कार्यक्रम सम्पन्न करने में मेरा योगदान वहीं है, जो घड़े के निर्माण में गधे का होता है।

   महंगे प्याज और सस्ती कार की चर्चा भी सब्जी मण्डी में अक्सर सुनाई पड़ती है। ये टमाटर कैसे दिये। अरे तुम्हारा लॉकेट तो बहुत चमक रहा है, कब खरीदा। सुनो, तुम्हारी उसके क्या हाल हैं आजकल। तुम तो दिखाई ही नहीं हो। हमारा क्या है भाईक हम तो एक खूटे से बंधे हैं। तुम ठहरी आजाद पंछी । तुम बताओ दफ्तर में कैसी कट रही है। ये सब बातचीत के टुकड़े मण्डी के अन्दर सुनाई पड़ते हैं।

   साड़ियों की डिजाइन की भी चर्चा चलती रहती है।

   ‘‘ये साड़ियों कब खरीदी?’’

   ‘‘वो दिल्ली गये थे तो लाये थे।’’

   ‘‘अच्छा और ये सोने की चैन कब ली?’’

   कहां प्याज और कहां सोना और  मगर सब्जी मण्डी में सब चलता है। जो पति मण्डी के बाहर रह जाते हैं, वे पत्नी के अन्दर जाने के बाद दूसरे रास्ते से मण्छी का एक चक्कर जरूर लगाते हैं पत्नी के आने से पहले यथा स्थान स्थापित  हो जाते हैं। सामान्यतया प्रौढ़ वय के ये पति बाहर ही खड़े-खड़े अपने परिचितों से घर, बाहर, दफ्तर, भावों की चर्चा करते हैं। चुनाव का मौसम हो तो राजनीति का जो विश्लेषण सब्जी मण्डी में प्राप्त होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। नेताओं की तरह सस्ते खरबूजे ले लो। सरकार बन गई तो माल नहीं मिलेगा। मेरी एक स्थाई सब्जी वाली कहती है- ‘रात को फोन आ गया, अब सब्जी महंगी मिलेगी।’

   सब्जी के इस प्रबंध में मोहल्लें तक आने वाले सब्जी वालों , ठेले वालों तथा मालियों का वर्णन भी आवश्यक है। ये गरीब अपनी दो जून की रोटी के लिए गली-गली सब्जी बेचते हैं और जो बची रहती है उसे ही रात को बनाकर अपना पेट भरते हैं।

   इधर एक शोध लेख मेरे दृष्टि-पथ से गुजरा है जो महिलाओं की पत्रिका में छपा है- ‘सब्जी कैसे खरीदें ?’ सब्जी खरीदने में सावधानी रखें। सब्जी के लिए थैला बनायें। अलग-अलग सब्जी के लिए अलग-अलग थैला ले जाये आदि आदि।

   सब्जी एक शाश्वत आवश्यकता है। रोटी के साथ साग या सब्जी या भाजी नहीं हो तो जीवन की कल्पना भी मुश्किल है लेकिन पत्नी फिर पूछ रही है-क्या सब्जी बनाऊं ?’

0 0 0

यशवन्त कोठारी

86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर

जयपुर 302002 फोन 9414461207