Kalvachi-Pretni Rahashy - 9 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(९)

Featured Books
  • انکہی محبت

    ️ نورِ حیاتحصہ اول: الماس… خاموش محبت کا آئینہکالج کی پہلی ص...

  • شور

    شاعری کا سفر شاعری کے سفر میں شاعر چاند ستاروں سے آگے نکل گی...

  • Murda Khat

    صبح کے پانچ بج رہے تھے۔ سفید دیوار پر لگی گھڑی کی سوئیاں تھک...

  • پاپا کی سیٹی

    پاپا کی سیٹییہ کہانی میں نے اُس لمحے شروع کی تھی،جب ایک ورکش...

  • Khak O Khwab

    خاک و خواب"(خواب جو خاک میں ملے، اور خاک سے جنم لینے والی نئ...

Categories
Share

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(९)

योजना पर सभी का विचार विमर्श होने के पश्चात सेनापति व्योमकेश एवं राजनर्तकी मत्स्यगन्धा दोनों ही अपने अपने निवासस्थान लौट गए,रानी कुमुदिनी एवं राजा कुशाग्रसेन भी अपने कक्ष में रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगे,रात्रि हुई तो रानी कुमुदिनी ने दासी से राजा कुशाग्रसेन के लिए भोजन परोसने को कहा,राजा कुशाग्रसेन भोजन करने बैठे एवं रानी कुमुदिनी उन्हें बेनवा(पंखा)झलने लगी,महाराज कुशाग्रसेन ने शीघ्रतापूर्वक भोजन ग्रहण किया एवं रानी कुमुदिनी को अपनी योजनानुसार किसी कार्य को पूर्ण करने हेतु संकेत दिया,रानी कुमुदिनी शीघ्र ही राजभोजनालय पहुँची एवं वें कुछ भोजन पत्रको में लपेटकर राजा कुशाग्रसेन के समक्ष उपस्थित हुईं,राजा कुशाग्रसेन ने पत्रकों में लिपटा हुआ भोजन लिया एवं वें राजमहल से बाहर आकर शीशमहल वाले मार्ग की ओर चल पड़े,अँधेरा गहराया हुआ था ,अपने अपने कोटरों में उलूक(उल्लू) बोल रहे थे एवं राजा कुशाग्रसेन बिना भयभीत हुए शीशमहल की ओर बढ़े चले जा रहे थे,कुछ समय पश्चात वें शीशमहल पहुँच गए एवं वें कालिन्दी के कक्ष में पहुँचें,एकाएक महाराज कुशाग्रसेन को अपने कक्ष में उपस्थित देखकर कालिन्दी को कुछ आश्चर्य हुआ और उसने महाराज कुशाग्रसेन से पूछा....
महाराज!आप यहाँ!कहें कैसें आना हुआ?यदि कोई आवश्यक कार्य था आपने मुझे बुलवा लिया होता,यहाँ आने का कष्ट क्यों किया...?
कालिन्दी की बात सुनकर कुशाग्रसेन बोलें....
कष्ट कैसा कालिन्दी?अब तुम्हारे लिए इतना तो कर ही सकता हूँ,तुम्हारे जैसी सुशील एवं सुन्दर युवती से वार्तालाप करने का अवसर ढूढ़ रहा था जो आज मिल गया और मैं यहाँ तुमसे भेट करने चला आया....
अवसर....आप को मुझसे भेट करने हेतु अवसर खोजने की क्या आवश्यकता है महाराज?कालिन्दी ने पूछा....
बस ऐसे ही कालिन्दी!जबसे तुम्हें देखा है तो रात्रि को निंद्रा नहीं आती,हृदय में एक अद्भुत सी पीड़ा का अनुभव होता है,कोई कार्य करने बैठता हूँ तो तुम्हारी सुन्दर छवि मेरे समक्ष घूमने लगती है,कुशाग्रसेन बोलें....
ये कैसीं बातें कर रहे हैं महाराज?कालिन्दी लजाते हुए बोली....
जो भाव मेरे मन एवं मस्तिष्क में आवागमन कर रहे हैं वही तुमसे कह रहा हूँ,कालिन्दी!कुशाग्रसेन बोलें....
ये अपने भाव आपने कहीं अपनी रानी से तो नहीं कहें,नहीं तो वें ना जाने क्या समझें?कालिन्दी बोली....
ऐसे भाव किसी और से स्पष्ट नहीं किए जाते,ये भाव तो उन्हीं से कहे जाते हैं जो इसका कारण होता है,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
मैं आपकी इन बातों का आशय नहीं समझी महाराज!कालिन्दी सकुचाती सी बोली....
मेरी आँखों में झाँककर देखो कालिन्दी! तुम्हें सब ज्ञात हो जाएगा,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
नहीं!महाराज!मैं ऐसी भूल नहीं कर सकती,आप का विवाह हो चुका है,आपकी रानी है,मुझे ऐसी दुविधा में मत डालिए,कालिन्दी बोली....
ये दुविधा नहीं कालिन्दी !प्रेम है......प्रेम,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
क्या आप अपनी रानी से प्रेम नहीं करते महाराज?कालिन्दी ने पूछा....
तब राजा कुशाग्रसेन बोले...
अब क्या कहूँ कालिन्दी?उससे तो मेरा विवाह राजनैतिक कारणों के कारण हुआ था,उसके पिता एक बलशाली राजा थे,उन्होंने हमारे राज्य पर चढ़ाई कर दी एवं मेरे पिताश्री को हरा दिया,तब उन्होंने मेरे पिता से कहा कि यदि वें इस विवाह हेतु तत्पर हो जाते हैं तो वें उनका राज्य वापस कर देगें,तब मेरे पिताश्री ने विवशता वश इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया एवं कुमुदिनी को बरबस मुझे अपनी धर्मपत्नी बनाना पड़ा,ईश्वर साक्षी है कालिन्दी कि मैनें कभी उससे प्रेम नहीं किया.....
ओह....महाराज!आपके हृदय पर तो गहरी पीड़ा है,क्षमा कीजिए मुझे आपका दुख उकेरना नहीं चाहिए था,कालिन्दी बोली.....
मुझे इसलिए तुमसे सब कहना पड़ा ताकि तुम मेरी पीड़ा समझ सको एवं मेरी आँखों में तुम्हारे प्रति अथाह प्रेम को अनुभव कर सको,जब तुम मुझे पहली रात्रि मिली थी तो उसी रात्रि ही तुमने एवं तुम्हारी मृदु वाणी ने मुझे मोह लिया था,पहली बार मुझे किसी से प्रेम का अनुभव हुआ है,तुम्हारी ये कजरारी आँखें,ये कमल की पंखुड़ी समान होंठ,ये बादलों की भाँति घने काले केश,ये छरहरी काया एवं मधु के समान मीठा यौवन,कहीं मेरे प्राण ही ना हर ले....प्रिए....!,मैं तुम्हारे प्रेम में अचेत हो चुका हूँ,अब मैं इससे अधिक क्या बोलूँ?तुम एक सुन्दर से पुष्प समान हो एवं मैं उस पुष्प का अर्क(रस) पीने वाला भ्रमर(भँवरा) बनना चाहता हूँ, क्या मुझे अनुमति है?यदि इस जीवन में तुम मुझे ना मिली तो मेरा जीवन नीरस हो जाएगा,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
ओह....महाराज!आप मुझसे इतना प्रेम करते हैं,कालिन्दी ने पूछा....
हाँ!प्रिऐ!क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती,कुशाग्रसेन ने पूछा...
महाराज!आप मुझसे ये ना पूछें,मैं आपसे सच ना कह पाऊँगी,कालिन्दी ने अपना मुँख दूसरी ओर फेरते हुए कहा...
तब महाराज कुशाग्रसेन ने कालिन्दी के मुँख को अपनी दोनों हथेलियों में लिया एवं बोलें....
कालिन्दी!मेरी आँखों में देखकर कहो कि तुम मुझसे प्रेम नहीं करती हो....
महाराज !मैं ये ना कर सकूँगी,कालिन्दी ने अपनी आँखें मीचे हुए कहा....
क्यों ना कह सकोगी कालिन्दी?महाराज कुशाग्रसेन ने मद्धम स्वर में कालिन्दी से पूछा....
बस!नहीं कह सकूँगी!महाराज!मुझे विवश मत कीजिए,कालिन्दी ने कहा....
कहो ना कालिन्दी!कहो ना कि तुम भी मुझसे प्रेम करती हो,आज सबकुछ कह दो जो तुम कहना चाहती हो,मुझे और विचलित मत करो,आज मेरे हृदय की अग्नि को शान्त कर दो,मुझे भी प्रेम का अनुभव कराओ एवं स्वयं भी प्रेम का अनुभव करो,अब और अधिक प्रतीक्षा मत कराओ प्रिऐ...!अब और प्रतीक्षा मत कराओं...प्रेम अत्यधिक अद्भुत वस्तु है,इसके अनुभव के पश्चात संसार की और किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं रहती,महाराज कुशाग्रसेन बोलें.....
जी!महाराज!मैं भी आपसे प्रेम करने लगी,मैं आपसे इतना प्रेम करने लगूँ हूँ कि अब मैं आपके बिना रहने का सोच भी नहीं सकती,कालिन्दी बोली....
ओह...ये जानकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई,अब मैं निश्चित हो चुका हूँ,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
सच!महाराज!आपको ये जानकर प्रसन्नता हुई,कालिन्दी ने पूछा...
हाँ....कालिन्दी....हाँ!महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
महाराज!आप यहाँ आएं एवं आप इतने समय से मेरे कक्ष में हैं,यदि राजनर्तकी मत्स्यगन्धा को ज्ञात हो गया एवं उसने आपकी रानी को बता दिया तो,कालिन्दी बोली...
मैं रानी से कहकर आया था कि मैं अपनी अतिथि हेतु भोजन लेकर जा रहा हूँ क्योंकि आज का भोजन अत्यधिक स्वादिष्ट था,तो मैनें सोचा कि इतना स्वादिष्ट भोजन तुम्हें और कौत्रेय को भी ग्रहण करना चाहिए,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
भोजन.....हम दोनों के लिए आप ने भोजन लाने का कष्ट क्यों किया महाराज?और आपकी रानी ने आपके अतिथि के विषय में नहीं पूछा,कालिन्दी बोली...
अपने प्रियजनों के लिए भोजन लाने में भला कैसा कष्ट कालिन्दी?और मैनें रानी से कहा कि विशेष प्रकार के अतिथि हैं,उनके लिए ही भोजन ले जा रहा हूँ,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
आप कितने दयालु हैं महाराज!किन्तु हम दोनों तो भोजन ग्रहण कर चुके हैं,कालिन्दी बोली...
कोई बात नहीं कालिन्दी!मैं अब कौत्रेय से भेट करना चाहूँगा,चलो उसके कक्ष में चलते हैं,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
किन्तु महाराज!यदि वो सो गया हो तो,कालिन्दी बोली...
कोई बात नहीं,उसे जगा लेगें,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
किन्तु इसकी क्या आवश्यकता है महाराज? कालिन्दी बोली...
अब मैं यहाँ तक आया हूँ एवं उससे भेट करके ना जाऊँ तो ये अनुचित होगा ना!,उसे ये बात ज्ञात हुई कि मैं यहाँ आया था और उससे भेट किए बिना ही चला गया तो उसे बुरा लगेगा,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
जैसी आपकी इच्छा और इतना कहकर कालिन्दी बनी कालवाची,महाराज कुशाग्रसेन के संग कौत्रेय के कक्ष की ओर चल पड़ी,कौत्रेय के कक्ष के समक्ष पहुँचकर महाराज कुशाग्रसेन ने कहा....
कौत्रेय!किवाड़ खोलों,मैं हूँ महाराज कुशाग्रसेन।
किन्तु महाराज कुशाग्रसेन का स्वर सुनकर किवाड़ के पीछे से कौत्रेय का कोई उत्तर ना आया,तब महाराज कुशाग्रसेन स्वयं ही किवाड़ खोलकर भीतर चले गए एवं उन्होंने देखा कि कौत्रेय के बिछोने पर तो कोई कठफोड़वा लेटा है,ये देखकर महाराज कुछ विचलित हुए और कालिन्दी से कहा...
ये तो कौत्रेय नहीं! यहाँ तो कोई कठफोड़वा है...
अब कालिन्दी भयभीत हो चुकी थी एवं उस समय उसे कोई उत्तर ना सूझा...

क्रमशः....
सरोज वर्मा....