khand kavy ratnavali - 4 in Hindi Poems by ramgopal bhavuk books and stories PDF | खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 4

Featured Books
  • જીંદગી - એક આઇસક્રીમ - 3

    Recap : કામિની અને નરીયાની પ્રેમ કહાનીમાં કામિનીની મા એ આવીન...

  • રહસ્ય - 4

    અધ્યાય ૯ – “સજા”કાવ્યા ના શબ્દો મારા કાનમાં ગૂંજી રહ્યા હતા—...

  • Mindset

    Mindset - a small storyPart 1 - The introduction :કોઈ પણ માણ...

  • એકાંત - 44

    પ્રવિણના કોલેજમાં સ્વાતંત્ર્ય દિનનો ઉત્સવ ખૂબ સુંદર રીતે ઊજવ...

  • રેડહેટ-સ્ટોરી એક હેકરની - 43

            રેડ હેટ:સ્ટોરી એક હેકરની        પ્રકરણ:43     સૂર્યા...

Categories
Share

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 4

 

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 4

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

चतुर्थ अध्‍याय – पण्डित सीताराम

दोहा – पझित सीताराम जी, चौबे जी कहलायँ।

धोती वाले पंडित हू, कह कर उन्‍हैं बुलायँ।। 1 ।।

धोती ढंग विचित्र पहनते। आधी होढ़ें आधी कछते।।

शकर जी के पूरे भक्‍ता। जजमानन में जिनकी सत्‍ता।।

आस पास के सब जजमाना। कुसुवन प्रोहित कर जिन माना।।

अधिक लालची रहे सुभाऊ। जजमानी से करै निभाऊ।।

इनकी जजमानी ही खेती। घूमत नित धन पाने हेती।।

क‍बहूं लौट चार दिन आवैं। कबहूं आठक  दिवस लगावैं।।

अबकी पंडित जी घर आये। बांध पुटरिया सामॉं लाये।।

निरख पंडितानी मुसकाई। देखन लागी भेंट विदाईं।।

दोहा – वेदबती के नाम से, पूरे गॉंव प्रसिद्ध।

अपनो काम बनायबे, चतुराई में सिद्ध।। 2 ।।

धोती निरख जनानी फूली। खूब लाय कर आज वसूली।।

यह धोती तो में पहनूंगी। मन में बसी काहु नहिं दूंगी।।

पंडित देख मनहि मुस्‍कावैं। बार बार चित उन तन लावैं।।

चौबे हू सब मन की जाने। आज कृपा की कोर निभाने।।

एक दोइ दिन स्थिति ऐसी। पुन बड़ बड़़ वहि नित प्रति जैसी।।

पंडित जी मजबूरी जाते। उरका क्रोध न कह ही पाते।।

कभी याद तुलसी की आती। दें उलाहना, तबडर जाती।।

खबर लगी पुत्री जब आई। नाम रहौ कोशिल्‍या बाई।।

दोहा – चौबे जी के प्रवचन, जजमानी संबंध।

बीते सोई सुनात हैं, कह प्रसंग अनुबंध।। 3 ।।

हैं अब भये चतुर सब लोगा। बन कंजूस धर्म के ढोंगा।।

क्‍या क्‍या कह उनको समझाता। तब ही उनका मन भर पाता।।

ठाकुर कह उन पद बैठारें। आशिष दै शुभ वचन उचारें।।

उनके दुख की बातें सुनता। वाधा हरण युक्ति भी गुनता।।

वो भी सब घर ग्रहा दिखाते। दान दक्षिणा तब ले पाते।।

सुन बोलीं तबही पंडितानी। यह तो री‍ती रही पुरानी।।

इससे लोग दक्षिणा देते। कर्ज नहीं जो तुम ले लेते।।

यह सुन पंडितजी भर्राये। तू क्‍या जाने बात बनाये।।

दोहा – वेदवती वोली तबै, सब जानूं महाराज।

वेवकूफ लोगन बना, ठग लाते हो साज।। 4 ।।

ये तो हैं धन्‍धे की बातें। खोजो घर वर विटिया नातें।।

विटिया भई सयानी तुमरी। रतना ढि़ंग जाती नित बिगरी।।

जो कछु कहौं तो मुझसे इठती। सुने शिकायत चल भइ उठती।।

वेद वती की वेद रिचाऐं। भई शुरु वर पता लगायें।।

पंडित कहें कई घर देखे। नहीं कुंडली मिलती लेखे।।

अपनी विटिया मंगल लाई। लड़का मिले मंगली भाई।।

वेदवती कह ग्रहा न जानूं। इसी वर्ष व्‍याह को ठानूं।।

कह पंडित पाठक अज्ञानी। चमक दमक के धोखे आनी।।

दोहा – मिला न जानें कुंडली, बांधे झूठी शान।

दुनियां का ठेका लिया, कर्म धर्म अज्ञान।। 5 ।।

काटत बात वेदवति बोली। काम अधिक आता उन ओली।।

सुन चौबे क्रोधित है बोले। काम धाम की महिमा तौले।।

कब से भये सुखी पाठक जी। पुत्री एक सोउ नाटक जी।।

भ्रात पुत्र गंगेश्‍वर नामा। मुंह देखे करते सब कामा।।

वेदवती कहि क्‍या जग दुर्लभ। कौशिल्‍या विवाह हो सुरलभ।।

सुन पंडितजी झट से बोले। विना मिलें ग्रह जोखम को ले।।

दोहा – वैजू ने आते सुना, पंडित का संवाद।

कर पालागन वैठ गऔ, लीनो आशिरबाद।। 6 ।।

बोला वह सच ही सब बाता। मैं कहता तो नहीं सुहाता।।

जिन बातों को जो नहिं जाने। टांग अड़ाये मिलते ताने।।

दशा बिगड़ गई यों विप्रन की। धाक जमाय बात कह मन की।।

पूत पांव पलना दिख जाते। जनमत मात पिता मर जाते।।

तब भविष्‍य क्‍यों उज्‍जवल होई। शास्‍त्र वचन सब सांचे सोई।।

जानन हित तुलसी जीवन की। बात चलाई जजमानन की।।

चौबे समझ लई सब मन की। कथा कही तुलसी जीवन की।।

तुलसी नरहरि गुरु का चेला। घूमा फिरा देखता मेला।।

दोहा – विद्वता पर रीझ कर, झट कर दीना व्‍याह।

आगा पीछा गुना नहिं, अब पीछे पछताह।। 7 ।।

एक बात औरौ सुन पाई। झट से बोला बैजू नाई।।

जौन रात तुलसी यहँ आये। बाढ़ चढ़ी यमुना अधिकाये।।

मुर्दा एक बहत चल आबै। ताहि पकर पार हो जाबै।।

पंडित कही कहां सुन पाई। जिन देखा तिन मोय सुनाई।।

सूना घाट कवहुं नहिं रहही। पंडित मानी सत्‍य बतकही।।

ढिंग बैठी पंडितानी बोली। रतना मां तो हौंसी डोली।।

खूब बड़ाई करती उनकी। मोर दमाद खान है गुनकी।।

अब क्‍यों फुसक फुसक कर रोती। पहले गुनती क्‍यों यह होती।।

दोहा – बैजू भी सुन बात को, कहन लगा निज बात।

मन मिलता उससे नहीं, कोई बात छुपात।। 8 ।।

जिन दिन की यह बात रहावै। ता दिन पेट मरोरी आवै।।

आधी रात गयो मैदाना। चमकत बिजली पुरूष दिखाना।।

भूत प्रेत चोर कोउ जानी। झटपट लै चल दीनो पानी।।

पाठक के घर पीछे देखा। रस्‍सी से चढ़ते जन पेखा।।

पंडितानि सुन कीनी शंका। रस्‍सी कौन डाल गयो बंका।।

हो सकता है सांप लटकता। चढ़ गया हो यों पाकर रस्‍ता।।

यह सुन पंडितानि जी चाली। पुरा परोसिन कानों डाली।।

कर प्रचार घर वापस आई। वामन को वामन नहिं भाई।।

दोहा – नारी जाति स्‍वभाव यह, सुन अचरज की बात।

एक दूसरे से कहें, घर घर फैलत जात।। 9 ।।