Namo Arihanta - 8 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 8

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नमो अरिहंता - भाग 8

(8)

नए द्वार

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अहमदनगर जेल से छूटने के बाद वे पुणे-थाणे या मनमांड़ की तरफ भी नहीं गये। रेलवे स्टेशन ही नहीं पहुंचे आनंद बिहारी! क्या करते जाकर? लश्कर तो अब जाना था नहीं उन्हें! कौन-सा मुँह लेकर जाते?...

जिस तरह अंग्रेज सरकार ने बागियों (स्वतंत्रता सेनानियों) को प्रख्यात जेलों में ठँस रखा था, जिसमें महाराष्ट्र में अहमदनगर की जेल भी एक नामवर जेल है।

उसी तरह देसी सरकार ने उन्हें बागियों की तरह ही रातों-रात धर-दबोचकर इतनी दूर परदेस की जेल में ठूँस दिया! बिना कोई कारण, बिना किसी अपराध के । जबकि राजनीति से वे कोसों दूर थे, नेताओं से चिढ़ थी उन्हें सो, वे खुद को बहुत अपमानित महसूस कर उठे थे। और धीरे-धीरे एक अपराधबोध उनमें स्वयं के प्रति पनपता गया था कि वे क्यों आरएसऐसी हुए? एक अतिवादी-उग्रवादी संस्था के सदस्य! कि जिसे पहले ही, आजादी के श्रीगणेश के साथ ही सन् 1948 में गाँधी हत्या कांड में लिप्त होने के कारण प्रतिबंधित कर दिया गया था। और इस हत्या पर संघियों को शर्म नहीं, गर्क था। इसे उन्होंने हत्या की नहीं ‘वध’ की संज्ञा से नवाजा था। गोया ‘वध’ धर्म सम्मत हो यह उनके लिये शोभनीय नहीं था। उनके बापदादे तो कभी जेल-हवालात का मुँह नहीं देख पाये! वर्दी सातो साख में भी कभी उनके द्वार पर न आई थी। कि ‘कोउ नृप होइ हमें का हानि’ की नीति के हामी, कतई सहिष्णु भारतीय रहे आये थे उनके पुरखे। राजाज्ञा देशी हो या विदेशी, नस्ली हो या गैर नस्ली, वे उसका पालन सदा नतसिर होकर करते रहे थे।और ऐसे वफादार-बेदाग खानदान में आनंद ने अपनी बेवकूफ भावुकता से टाँका लगवा दिया।...

इस तरह वे इस गिरफ्तारी कांड से इतने शर्मसार हुए कि अपने घर-गाँव, स्वजन-परिजन को कभी मुँह न दिखाने का हठ ठान बैठे।

अहमदनगर उनके लश्कर-ग्वालियर जैसा प्रख्यात और ऐतिहासिक नगर न था। यहाँ न तो सिंधिया महाराज का बनवाया हुआ महाराज बाड़ा था और न राजा मानसिंह का प्रसिद्ध किला। मोतीमहल, मोतीझील, फूलबाग-चिड़ियाघर भी नहीं था यहाँ। पर आनंद बिहारी को इस सबसे क्या लेना-देना था। वे खंडहरनुमा किले की जेल से छूटकर अन्यमनस्क और दिशाहीन से व्यस्ततम् बाजारों में टहलते-टहलते शाम तक एक अपरिचित मंदिर में पहुँच गये। मन में दर्शन की लालसा न थी, और ना ही प्रतिमाओं के बारे में जानने की कोई जिज्ञासा। ड्योढ़ी की सीढ़ियों पर घुटने पर कुहनी टेके और हथेली पर कनपटी टिकाये सूनी-सूनी आँखों से दर्शनार्थियों के चेहरों के पार न जाने क्या खोज रहे थे!

उस वक्त मंदिर में काफी चहल-पहल थी। आरती की घड़ी जो ठहरी! आनंद की आँखों में अपना अतीत, घर-द्वार घूम रहा था। मन-ही-मन उन्होंने अम्मा को, बाबूजी को, दादा को और भाभी को कई चिट्ठियाँ लिख डालीं! पर सबका सारांश हर बार एक ही होता मसलन, आदरणीय, अम्मा जी! आदरणीय बाबूजी! आदरणीय दादा! आदरणीय भाभीजी! अब तो संसार से मन ऊब गया है। अब तो देवताओं की घाटी में रमने को जी मचल रहा है। पर हम नहीं जानते कि हमारा धर्म क्या है, उसकी पहचान अभी नहीं हो पायी है हमें! किस परीक्षा में बैठें? कौन-सा कोर्स करें, इसका सर्टीफिके ट कौन देगा? कहीं मौत ही तो नहीं देगी इसका सर्टीफिकेट कि हम धार्मिक हैं, कि नहीं! कि हमारा अमुक धर्म है- अमुक नहीं! किस शास्त्र में लिखा है इसका विवरण हम नहीं जानते। कौन-सा पंडित, कौन-सा गुरु हमें बतायेगा यह सब! आखिर यह जीवन है क्या! आखिर इसकी रेल कहाँ जाकर रुकेगी घर-संसार बसाकर, लड़के -बच्चे पैदा कर, कोठी-बंगला खड़ा कर, ओहदा-आबरू पाकर क्या सचमुच भीतर तक भर जायेंगे हम! फिर नहीं भटकना पड़ेगा! कि जीवन के अंतिम क्षणों में, मौत की बेला में सर्वथा तृप्त और आनंदित हो उठेंगे हम राग-द्वेष से मुक्त और सर्वथा निर्विकार। एक अबोध शिशु से उत्फुल्ल और निष्पाप-निर्दोष।’

और न जाने कब मंदिर में घंटा-शंख-झालर बज उठे थे। सैकड़ों कंठों से आरती का समूह-स्वर फूट रहा था। आनंद बिहारी के मुख पर मरकरी लाइट का चौदहवीं के चाँद-सा निर्मल उजास झर रहा था कि वे अपनी सुध-बुध बिसार बैठे थे, उन क्षणों में। हृदय पुलकित और विभोर हो उठा था।

आरती के पश्चात् तनिक देर में ही एक भीड़, भीतर से बाहर की ओर लपकी, कि एक पहली स्त्री ने सीढ़ियों पर विराजमान आनंद बिहारी के पग छू लिये। वे सहसा चौंक गये। संभलते और पहचान खोज पाते तब तक कई एक भक्तों ने उनके चरण स्पर्श कर लिये थे। वे बड़ी हैरत में थे कि क्या चमत्कार है! तभी उनकी शंका मिट गयी। वहाँ उपस्थित सभी जन एक-दूसरे के चरण स्पर्श कर रहे थे। यह देख अपने प्रति वे संकोच और घृणा से भर उठे। और फिर किसी अन्य को अपने पगों में झुकने का मौका दिऐ बगैर उन्होंने अधिकाधिक देवियों और सज्जनों के चरण स्पर्श करने आरंभ कर दिए। और तब तक करते रहे जब तक कि प्रसाद लेकर पूरी भीड़ तिरोहित न हो गई।

फिर उनके मन में देव-दर्शन की जिज्ञासा हुई सो, भीतर गये। वहाँ वे ही पारंपरिक प्रतिमायें थीं हिंदू देवी-देवताओं की। आनंद बिहारी चौक में आसन मार कर बैठ गये। संगमरमर का फर्श अत्यंत शीतल और सुखद लगा उन्हें। उन्हें लगा कि वे ध्यानस्थ होते जा रहे हैं। अपने भीतर के गहन अंधकार में उतरते जा रहे हैं। यानी प्रेम से लबालब हुए जा रहे हैं। उन्हें रोमांच हो आया, यह कैसा चमत्कार है। जीवन के इस रहस्यमयी आनंद को अब तक क्यों नहीं जान पाये वे! समय चूका कि सब चूका! हाय! यह क्या कर डाला उन्होंने? व्यर्थ ही गवाँ दिए 26 वर्ष यानी पूरा एक आश्रम पर तत्काल ही इस समीक्षा के साथ गहरा संतोष हो आया उन्हें कि इस प्रथम आश्रम की संपूर्ण अवधि में ब्रह्मचर्य व्रत का तो समग्र तल्लीनता से पालन करते आये हैं वे! विषय-वासना यानी स्त्री-संसर्ग से कतई मुक्त रहे आये हैं। यानी डूबते-डूबते किनारा पा गये हैं, आनंद बिहारी बच गये एक भ्रम जाल से!

उनमें ईश्वर के प्रति असीम श्रद्धा और अमिट विश्वास तो आरंभ से ही था, किंतु जेल जीवन में वे हद तक दुःखी और निराश हो गये थे। सोचते रहते थे कि ईश्वर ने यह अन्याय क्यों कर डाला उनके साथ। किंतु तब भी उनके भीतर से प्रायः एक ही स्वर फूटता, ‘यह आपके पिछले जन्मों का पाप-भोग है, आनंद बिहारी! (अलबत्ता, प्रवहण द्वारा आविष्कृत मिथ्या पुनर्जन्म-सिद्धांत की कथा जानकर भी उनका विश्वास डिगा नहीं!) कि पूर्व भव के भोग को भोगे बिना तुम उबर नहीं सकते! पाप का कभी शमन नहीं होता, उसे तो जन्म-जन्मांतर तक भोगना ही पड़ता है। ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करता। तू आप ही अपनी अधोगति और आप ही अपनी ऊर्ध्वगति का हेतु है! और फिर दुर्दिन तो मनुष्य को उसकी आत्मा की पहचान कराते हैं। ईश्वर का बोध कराते हैं। उसकी विराट लीला का बोध! अगर सुख के ही दिन बने रहें सदा तो असावधान होता हुआ मानुष पाप कर्म में ही लिप्त होता चला जायेगा दिनोंदिन। उसे सांसारिक मिथ्यात्व और ईश्वरीय सत्ता का बोध तो तब होगा, जब पानी के बुलबुले की तरह क्षणांश में फूटकर अस्तित्वहीन हो जायेगा वह।’

सो अपनी स्थिति से पुलकित आनंद बिहारी अनायास इस ज्ञान से विभूषित हो उठे कि ईश्वर तीनों कालों में जो भी करता है, सदा-सर्वदा अच्छा ही करता है। न वे गिरफ्तार होते और न उस मोहफाँस से छूटते ‘हे ईश्वर आपकी जय हो, जय हो जय-जय हो!’

सन्निपातिक से आनंद बिहारी के गदगद कंठ से अत्यंत भावुक स्वर फूट पड़ा।

मंदिर में विराजमान अन्य साधु-संतों ने उनका परिचय जाना। फिर आहार दिया। पर रात्रि के समय मंदिर के बाहर सोने के लिये जगह बता दी। तब निश्छलमना आनंद बिहारी बाहर के चबूतरे पर आकर सो गये।

सुबह उठे तो शौचक्रिया, स्नान-ध्यान उपरांत फिर वही आरती और प्रसाद।

और दुपहर बाद आहार तथा देव दर्शन के बाद मंदिर के कपाट बंद। अब आनंद बिहारी कहाँ जायें और क्या करें!

कुछेक रोज तो उन्होंने इस रूटीन में काट लिये। पर यह रूटीन अब काटने को दौड़ने लगा था। दिन भर वे खुद को खाली-खाली और अतृप्त तथा रात को अनाथ-सा महसूस करते और कई बार तो लगता, कि वे मंदिर के सहारे रोटियाँ तोड़ रहे हैं।...

तब इसी खिन्नता में घूमते-घामते एक दिन शहर के दूसरे छोर पर स्थित एक आश्रम में जा पहुँचे थे। यह एक जैन आश्रम था। यहाँ एक बड़ी उम्र के गुरुजी चातुर्मास कर रहे थे। गुरु के साथ कई साधु-संत भी ठहरे हुए थे। आनंद बिहारी को यह स्थान उस मंदिर से अधिक उपयुक्त लगा। उन्होंने ठहरने की मंशा जाहिर की। आयोजन समिति के अध्यक्ष ने पूछा कि आप कहाँ से हैं, कौन हैं। आनंद बिहारी ने सोचा कि इस प्रश्न का उत्तर तो जन्म से अब तक खुद ही नहीं मिला उन्हें! पता ही नहीं कि वे कहाँ से आये हैं, कौन हैं और कहाँ चले जायेंगे? कि जैसे दीपक जगा देने से ज्योति जग जाती है, और बुझा देने पर बुझ जाती है।

अदृश्य हो जाती है कि उन्मूलित? वे क्या जानें! हंसा आये कहाँ से हंसा जाये कहाँ रे! यही जानते होते, तो यहाँ क्यों आते। पर युवा अध्यक्ष के सांसारिक प्रश्न का वैसा ही बनावटी उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, ‘लश्कर-ग्वालियर, मध्यप्रदेश से आये हैं। जन्म से सनाड्य ब्राह्मण जाति के हैं। कर्म-अकर्म से राजनैतिक कैदी बने

छूटे और वैराग्य भावना से ओत-प्रोत मन की भावभूमि को शुद्ध कर, क्षमा के द्वारा हृदय सागर को शांत कर, ब्रह्म की खोज में प्यासे इस तट तक आ गये हैं! आश्रय मिलेगा?’

अध्यक्ष उनके प्रस्ताव से प्रभावित हुआ। जैन तो अक्सर आते हैं, पर अजैन भी आने चाहिये! इनके लिये भी द्वार खुले रखना चाहिये। तभी तो इस धर्म को व्यापकता मिलेगी। नहीं तो यह एक जाति मात्र होकर रह जायेगा। कि इस तरह खिड़की-कपाट खोल देने पर ही यह संसार का सबसे बड़ी संख्या वाला धर्म हो पायेगा।

उसने सहर्ष अनुमति दे दी। आनंद आहार लेकर नियत स्थान पर श्रावकों के शिविर में जा मिले।

यह एक श्वेतांबरी जैनसमुदाय था। आश्रम में बड़े-बड़े हॉल थे। पुस्तकालय था। दीवारों पर जैन साधुओं के बड़े-छोटे सुंदर सुव्यवस्थित चित्र टंगे थे। आहार गृह, रसोई गृह पृथक्-पृथक् थे। साधुगण श्रावकों के घर आहार हेतु नहीं जाते थे। वहाँ चातुर्मास आयोजन समिति ही भोजन व्यवस्था किया करती थी। अगले दिन से पर्व राज पर्यूषण पर्व का आयोजन था। इस मौके पर एक श्रावक साधना-शिविर भी लगाया गया था। अतः सभी प्रातःकाल 4 बजे ही भजन के लिये उठ बैठे। भजन के बाद प्रतिक्रमण यानी आत्मालोचना कर उठे। आनंद बिहारी को यह क्रिया बहुत भायी। फिर शौच और स्नान आदि से निवृत्त हुए तो उन्हें आश्रम द्वारा श्वेत वस्त्र प्रदाय कर दिए गये। ये वस्त्र धारण करके तो आनंद का मन जैसे फूल सरीखा हलका होकर एकदम खिल ही गया। उस शिविर में उन्हीं की तरह श्वेत वस्त्रधारी सभी नर-नारी उन्हें श्वेत हंसों की भाँति प्रतीत हो रहे थे। लग रहा था कि वे एक विशाल जलाशय में मुक्त गगन के नीचे सहसा तैर उठे हैं! कि जैसे छोटे जलाशयों में अब उनका कोई प्रयोजन ही नहीं रह गया है।

गुरुजी एक बड़े हॉल में तख़्त पर रखी हुई गद्दी पर विराजमान थे। उनके मुँह पर एक श्वेत पट्टी सुशोभित हो रही थी। बगल के तख़्त पर रखी चौकी पर चौबीसवें तीर्थंकर की प्रेम की गई फोटो तथा जैन ग्रंथ रखे थे। कुछ देर में श्रावक-साधना-शिविर का उद्घाटन करते हुए गुरु ने भावपूर्ण स्वर में कहा, ‘आज पर्व का प्रथम दिन है। यह दिन आज 350 दिनों के बाद आया है।’

हॉल के सन्नाटे से आनंद चमत्कृत थे। सन्नाटा गुरु की वाणी से ही टूटता। और वाणी के टूटते ही फिर तारी हो जाता। गुरु कह उठे, ‘आत्मस्वरूप की प्रतीतपूर्वक चारित्र की दस प्रकार से आराधना करना ही दशलक्षण धर्म है। आत्मा के सद्भावों के विकास से संबंधित होने से ही इसे महापर्व कहते हैं। आदिकाल से प्रत्येक मानव आत्मा के ही विकारों यथाः क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य, असंयम आदि के कारण ही दुःखी और अशांत रहा आया है। इसे मिटाने का एकमात्र उपाय आत्मसाधना है। दस दिनों तक चलने वाले इन दस धर्मों में पहला धर्म उत्तम क्षमा है। क्रोध का विलोम क्षमा। क्षमा आत्मा का स्वभाव है, इसे सदा धारण रखें।’

उत्सुक आनंद ने अपने आगे-पीछे, दायें-बायें गर्दन मोड़कर देखा। जैसे कि वे एक निरे जिज्ञासु बालक बन बैठे थे। लोग दत्तचित्त थे। गुरु ने कहा, ‘इस दशलक्षण धर्म का दूसरा लक्षण उत्तम मार्दव है। यानी समर्पण का महासागर मार्दव धर्म! समर्पण के बिना परमात्मा की उपलब्धि असंभव! मार्दव का अर्थ है- मिट जाना! मिटना बुरा नहीं, पिटना बुरा नहीं! खूब मिटो, खूब पिटो! बूंद जब मिटती है- सागर बन जाती है माटी जब पिटती है- गागर बन जाती है!’

वाह-वाह क्या बात है! आनंद की आत्मा प्रकट हो उठी गोया। गुरु के शब्द ऐसे गिर रहे थे-जैसे, चातक के कंठ में स्वाति की बूँद!

‘धर्म का तीसरा लक्षण है- उत्तम आर्जव! निश्छल प्रेम का नाम है उत्तम आर्जव! कि सहिष्णुता का भाव ही आर्जव है। अर्थात्-कायाकषाय का अभाव होकर आत्मा में स्वभावगत सरलता प्रकट हो जाना।’

गुरु! आप पहले क्यों नहीं मिले! आनंद पछताये, हाय! हमने 26 वर्ष खो दिए अपने! उन्होंने हीनता बोध के साथ साधुओं और श्रावक-श्राविकाओं की ओर देखा। गुरु आगे बोले-

‘और चौथा लक्षण-सत्य धर्म! सत्य तो जैसे प्राण ही है धर्म का. कि धर्म उसी पर चलकर उसी की खोज है कि सत्य को शूली पर चढ़ा दिया है लोगों ने असत्य को सिंहासन पर बिठा दिया है लोगों ने इन लोगों की बातों का कहना ही क्या है, भगवान् को मंदिरों में सजा दिया है लोगों ने!’

आनंद को लगा, जैसे सभी हाहाकार कर उठे हैं, बहुत अन्याय हैऽ बहुत असत्य हैऽ बचाओऽ प्रभु! सत्य का मार्ग सुझाओ आत्मा को परमात्मा से मिलाओ।...

गुरु आगे बोले, ‘उत्तम शौच अर्थात् शुचिता-पवित्रता और उत्तम संयम के द्वारा ही उत्तम तप किया जा सकता है कि इच्छाओं का निरोध तप है! इच्छाओं का निरोध कर, राग-द्वेष भावों से रहित होकर मन में वीतराग भाव लाना तप है। यह तप उत्तम त्याग के बिना कहाँ संभव है!’

आनंद की आँखों से प्रेमाश्रु चू पड़े। वे उठकर गुरु-चरणों में गिर जाना चाहते थे। पर समय और समाज का खयाल कर अपनी भावनाओं को रोक लिया उन्होंने। गुरु ने धर्म के दो अंतिम लक्षण उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य बताये। आकिंचन्य अर्थात् जो पराया, जिसे तुमने स्वयं का समझ लिया था, उसे अखेद के साथ त्याग देना ही उत्तम आकिंचन्य है और उत्तम ब्रह्मचर्य, यानी निष्क्रिय हो जाना, अपने आप में ठहर जाना बताया।

तब आनंद बिहारी को सहसा ही बी.ए. भाग द्वितीय के विषय सामान्य हिंदी की काव्य पुस्तक में दी गई अज्ञेय की एक कविता याद हो आई, ‘क्योंकि बहना रेत होना है!’

सच ही कहा गुरुजी ने, ब्रह्मचर्य की यात्रा, संयम की ओर बढ़ती आत्मा का विकास है कि जब तक असंयम से जुड़े रहेंगे, तब तक ब्रह्मलीन न हो सकेंगे। आत्मा परमात्मा नहीं बन सकेगी।

और आनंद बिहारी आहार के पश्चात् विश्रामकाल में भी यही उपदेश मन-ही-मन दुहराते रहे। कई श्रावक इच्छानुसार प्रतिमाधारी बन गये थे। उन्होंने वस्तु त्याग और विकार त्याग के व्रत ले रखे थे। आनंद उत्साहित और उत्सुक थे। वे पूरी तरह चैतन्य और सजग थे। मन से आलस्य और स्मृति से अतीत किसी ने कण-कण पोंछ लिया हो, जैसे! और इसीलिये साधुओं और आयोजकों की खास नजर भी हो गई थी उन पर कि उस शिविर में उन्हें दिनोंदिन खास महत्त्व दिया जाने लगा था।

(क्रमशः)