The Author बिट्टू श्री दार्शनिक Follow Current Read दार्शनिक दृष्टि - भाग -6 - समुद्रमंथन - १ By बिट्टू श्री दार्शनिक Hindi Philosophy Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books Split Personality - 97 Split Personality A romantic, paranormal and psychological t... HAPPINESS - 119 This is what living is all about This is what living... The End of World The ImpactApril 13, 2029, was supposed to be a typical Frida... Disturbed - 40 Disturbed (An investigative, romantic and psychological thri... The Starry Night of Ruwa The Starry Night of RuwaThe dawn broke over the small town o... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by बिट्टू श्री दार्शनिक in Hindi Philosophy Total Episodes : 8 Share दार्शनिक दृष्टि - भाग -6 - समुद्रमंथन - १ (2) 2.4k 6.4k दोस्तो, आपने समुद्रमंथन वाली पौराणिक कथा तो सुनी ही होगी।जिसमे देवों और दानवों ने मिलकर पर्वत और शेषनाग जैसे बड़े सांप की मदद समुद्र को मथा था जिससे अमृत तथा लक्ष्मीजी की उत्पत्ति हुई थी। उसके साथ ही प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न विष को शिवजी ने पिया था और उन्हें निलकंठ कहा गया।दोस्तों यह कथा अक्सर हम सुनने के बाद दिमाग के किसी कोने में दफन कर देते है। क्योंकि यह कथा हमारे काम जरा भी नहीं आती। किंतु यह कथा क्यों बनाई गई, जिसमे इतने सारे किरदारों ने अलग महत्व पूर्ण कार्य करे थे? आखिर इतनी जटिल कहानी क्यों बनाई गई ? और हर बच्चों को अथवा परिवार को अलग अलग माध्यम से क्यों बताई जाती हैं? इन प्रश्नों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जाता।दोस्तों हमारा देश अच्छी संस्कृति का देश हैं। जहां लक्ष्मीवान अथवा श्रीमान केसे बना जाता है यह शिखाया जाता है। हमने पिछले भाग में "श्री" और "लक्ष्मी" का अर्थ वर्णित किया है।दोस्तों आज हमारे देश में तकरीबन हर समाज में तकरीबन हर एक व्यक्ति कहीं न कहीं नौकरी करता है। और हर किसी को यह ज्ञात होता है की नौकर व्यक्ति कभी धनी नहीं होता। क्योंकि किसी भी नौकर के पास स्वतंत्र निर्णय लेने की और उस पर अमल करने की सत्ता नहीं होती। और उसका वेतन भी कम ही रहता है। ऐसे में वह नौकर व्यक्ति के धैर्य, साहस, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, ख्याति आदि दिव्य गुणों का नाश हो जाता है। कम वेतन और अपने परिवार का पोषण न कर पाने के कारण वह व्यक्ति अपने स्नेही जनों को मदद न कर पाने के कारण उनसे भी तिरस्कार पाता है। जिससे नौकर बने व्यक्ति और उसके परिवार का अध: पतन निश्चित हो जाता है।आज अधिकतर समाज में और अधिकतर परिवार में यह मान्यता रहती है की पढ़ाई के बाद एक अच्छी नौकरी करना ही अच्छे जीवन का लक्षण है। और इसी को लोग "अपने पैरों पर खड़े होना" समझते हैं। किंतु वास्तविकता यह है की जो कोई व्यक्ति एक अथवा अन्य रूप से नौकर है वह स्वतंत्र जीवन कभी जी ही नही पाता। वह अपने पैरों पर खड़ा हो ही नहीं सकता। वो हमेशा अपनी नौकरी के आधीन जीवन जीता है।आज समाज में केवल नौकरी के कारण धीरे धीरे हर एक व्यक्ति नौकर बनता गया है। केवल कुछ डिग्री के काग़ज़ ले कर गुलाम बनाने की दौड़ में लग चुका है। जब की उसे स्वयं मालिक बनने का तरीका सिखना चाहिए।समुद्र मंथन में तीन तरह के लोग सामिल थे।१. देवता - अच्छे चरित्र के लोग जो सज्जन होते है किंतु नकारात्मकता के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि भाव रखते है।२. दानव - दुर्जन लोग जो सज्जनों की बुराई करते थकते नहीं।३. त्रिदेव और त्रिदेवी - यह वो लोग है जो आवश्यक वस्तुओं / नियमों / आविष्कार / सुविधाओं के एक साथ निर्माण से ले कर उसके एक साथ निकाल तक का कार्यभार देखते है।समुद्रमंथन करने का वास्तविक कारण था श्री विहीन हो चुके संसार में श्री की पुन:प्राप्ति। यहां भी श्री का वहीं अर्थ रहेगा जो इससे पहले के भाग में कहा गया है।- बिट्टू श्री दार्शनिक --------------------------------------------------------------#दार्शनिक_दृष्टिआप इसके विषय में अपना मत इंस्टाग्राम पर @bittushreedarshanik पर मेसेज कर के अवश्य बता सकते है।हमे इसके अलावा पढ़ने के लिए YourQuote अपलिकेशन में @bittushreedarshanik पर फोलो कर सकते है।यदि आप भी ऐसे कोई मुद्दे के विषय में विवरण चाहते है तो हमे इंस्टाग्राम पर जरूर बता सकते है। ‹ Previous Chapterदार्शनिक दृष्टि - भाग -5 - स्त्री द्वारा बाज़ार में आमदनी › Next Chapter दार्शनिक दृष्टि - भाग -7 - समुद्र मंथन -भाग २ Download Our App