लघुकथा - गले की फाँस
" सुनते हो ! ऑफिस जाने से पहले तीन हजार रुपये ए टी एम से निकाल कर दे जाना!" रसोईघर से लगभग चिल्लाते हुए सुरेखा ने अपने पति नीरज से कहा ।
"क्यों?" चौंकते हुए नीरज ने पूछा ।
"अभी परसों ही तो दस हजार रुपये दिए थे सब खत्म हो गए क्या?" नीरज ने आगे कहा ।
"हाँ तो ! खत्म नहीं होंगे क्या ?" बर्तन वहीं स्लैब पर पटक कर दनदनाते हुए सुरेखा नीरज के पास पहुँची और कमर पर यों हाथ रखकर खड़ी हो गयी मानो अभी नीरज को काट खाएगी।
नीरज सकपकाते हुए बोला, "मेरी जान! इतनी जल्दी ऐसे पैसे खर्च करोगी तो कैसे काम चलेगा?"
सुरेखा तमतमाते हुए बोली, "तो कौन सा मैं अपने लिए मांग रही हूँ या जो अब तक पैसे दिए उन्हें ही कौन सा अपने या अपने बच्चों पर खर्च कर दिए!"
वो तो तुम्हारे बहनोई ने मांगे हैं पिछले हफ्ते हमने नया टीवी क्या ले लिया अब उनको भी वैसा ही चाहिए। गोलू के कपड़े लेकर आई थी तो उनको भी अपने चिंटू के लिए वैसे ही कपड़े खरीदने हैं ! हमने किचेन का काम करवा लिया तो अब उनको भी वैसा ही काम करना है पैसे चाहिए , पिछले बरस मैंने सोने की बालियाँ लीं थीं तो उनको भी लेना था शीलू के लिए । कह रहे थे भाभी जी शीलू का भी मन होता है , मैं दिला नहीं पाया । आप तो जानती ही हो कि कितनी मंहगाई है ऊपर तनख्वाह में घर का खर्चा पूरा नही होता।"
नीरज चुपचाप सुनता रहा उसका मन किया कि जाकर कह दे कि अपनी हैसियत भर खर्च करें , हम कहाँ तक पूरा करें। हमारा भी परिवार है बच्चे हैं ।
सुरेखा कलपते हुए बोली ,"क्या सोच रहे हो? और मजे की बात तो ये है कि शीलू भी कुछ नहीं कहती। अभी उस दिन गोलू को मेरी मम्मी ने कुछ खिलौने दिए थे उनके चिंटू ने ये कहकर ले लिए कि मुझे खिलौने से खेलना बहुत अच्छा लगता है। तुमको तो तुम्हारी नानी दिलवा देंगी। तू तो जनता है कि मेरे पास नानी भी नहीं है ये दोनों मियाँ बीबी चुपचाप मुस्कुराते हुए देखते रहे लेकिन मजाल है एक शब्द भी कहा हो !" हम उनके भाई भाभी होने का कर्जा कब तक भुगतेंगे?"
तब तक नंदोई रमेश पीछे से आ धमका! पड़ोस में रिश्तेदार बसे हों तो यही होता है जब तब आ धमकते हैं। और हर चीज उनकी निगाह में रहती है । दिनभर माँगों का पिटारा खुला ही रहता है।
सुरेखा ने उसको देखते हुए मुँह बनाया, " आ गए नंदोई जी! आप नौकरी कब करते हैं!"
रमेश ढीठ की तरह हँसते हुए बोला, " भाभी जी! आप भी बस मजाक किये रहती हैं। भई! भौजाई हो तो ऐसी! नंदोई का कितना ख्याल रखती हैं।"
हे! हे ! हे ! हे ! करके हँसने लगा रमेश।
सुरेखा झुँझलाते हुए किचेन में वापस चली गयी," आ गए भाड़े के मेहमान! कमबख्त कितना कुटिल है। हाथ फैलाने में जरा भी शर्म नहीं है ।" बोलते हुए वह चाय बनाने लगी।
लघुकथाकार
अन्नपूर्णा बाजपेयी
कानपुर