Anuthi Pahal - 23 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अनूठी पहल - 23

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अनूठी पहल - 23

- 23 -

प्रवीण पाँच-छह साल का था। एक साल से स्कूल जाने लगा था। स्कूल में बच्चों के साथ मिलते-जुलते तथा अध्यापिका के पढ़ाने के ढंग ने उसकी जिज्ञासा को बहुत तीव्र कर दिया था। रात को जब प्रभुदास बिस्तर पर पहुँचता तो प्रवीण आ धमकता और दिन में सीखी हुई नई-नई बातें अपने दादा को बताता और मन में उठे सवाल भी पूछता।

एक दिन शाम को प्रवीण भी प्रभुदास के साथ दुकान पर बैठा था कि ‘बाबा बर्फ़ानी सेवा मंडल’ के दो लोग दुकान पर आए और प्रभुदास से अमरनाथ यात्रा के दौरान लगने वाले वार्षिक भण्डारे के लिए चंदा माँगा। प्रभुदास ने गल्ले में से इक्कीस सौ रुपये निकाले और उन्हें देकर उनसे चाय के लिए पूछा। चंदा उगाहने वालों को उम्मीद से अधिक चंदा मिल गया था, इसलिए उन्होंने धन्यवाद करते हुए कहा कि उन्हें अभी कई और लोगों के पास जाना है, चाय फिर कभी पीएँगे और विदा ली।

उनके जाने के बाद प्रवीण ने पूछा - ‘दादा जी, बाबा बर्फ़ानी कौन हैं, जिनके भण्डारे के लिए ये लोग चंदा इकट्ठा कर रहे थे?’

‘बेटे, बाबा बर्फ़ानी अमरनाथ गुफा में रहने वाले शिव बाबा का दूसरा नाम है।’

‘यह अमरनाथ गुफा कहाँ है?’

‘अमरनाथ गुफा कश्मीर में है। आज रात को तुझे बाबा बर्फ़ानी और अमरनाथ गुफा की कहानी सुनाऊँगा।’

‘फिर तो बड़ा मज़ा आएगा। मैं घर जाता हूँ, आप भी जल्दी आ जाना।’

‘ठीक है, तू घर चल। मैं भी जल्दी आता हूँ। खाना खाकर तुझे पूरी कहानी सुनाऊँगा।’

प्रवीण को आज नई कहानी सुनने को मिलने वाली थी, इसलिए उसने घर आते ही कृष्णा को कहा - ‘मम्मी, आपने अभी तक खाना बनाना शुरू नहीं किया?’

‘आज इतनी जल्दी भूख कैसे लग गई मेरे राजा बेटे को?’

‘मम्मी, भूख तो नहीं लगी, किन्तु मुझे खाना जल्दी चाहिए।’

‘क्यों ?’

‘क्योंकि आज दादा जी मुझे खाने के बाद बाबा बर्फ़ानी की कहानी सुनाएँगे।’

‘लेकिन, पापा तो अभी आए नहीं।’

‘मैं उनको जल्दी आने के लिए कह कर आया हूँ, वे आते ही होंगे।’

प्रभुदास के जल्दी आने की सुनकर कृष्णा फुर्ती से रसोई में जुट गई।

प्रभुदास के खाना खाते ही प्रवीण ने रट लगा दी, दादा जी बाबा बर्फ़ानी की कहानी सुनाओ।

प्रभुदास - ‘चल अन्दर चल। यहाँ ठंड है। रज़ाई में बैठकर सुनाता हूँ।’

जब वे रज़ाई में बैठ गए तो प्रभुदास ने बोलना आरम्भ किया - ‘बाबा बर्फ़ानी, बेटे, भगवान् शिव का एक नाम है, क्योंकि वे अमरनाथ गुफा में बर्फ़ के शिवलिंग रूप में प्रकट हैं।’

‘दादा जी, बर्फ़ का शिवलिंग पिघलता नहीं?’

‘बेटे, अमरनाथ गुफा पहाड़ों में लगभग चार हज़ार मीटर की ऊँचाई पर है, वहाँ सारा साल बहुत ठंड रहती है। गर्मियों में डेढ़-दो महीने के लिए जब लोग बाबा बर्फ़ानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं तो लोगों के आवागमन से तापमान बढ़ जाता है और शिवलिंग गर्मी की वजह से थोड़ा पिघल जाता है, लेकिन बिल्कुल कभी नहीं पिघलता।’

‘लोग सारा साल नहीं दर्शन कर सकते?’

‘बेटे, आम पब्लिक के लिए रक्षाबंधन के बाद वहाँ जाना बन्द हो जाता है, क्योंकि रक्षाबंधन वाले दिन ‘छड़ी मुबारक’ वहाँ पहुँचती है और संत-महात्मा पूजा-अर्चना के पश्चात् भगवान शिव से अगले साल आने की प्रार्थना करके आज्ञा लेते हैं।’

‘आपने कहा था कि बाबा बर्फ़ानी की कहानी सुनाऊँगा, कहानी सुनाइए ना, दादा जी!’

‘बेटे, तूने मन्दिर में देखा है ना कि अकेले शिव जी ऐसे भगवान् या देवता हैं जो अपने परिवार सहित विद्यमान होते हैं। तूने शिव जी की मूर्ति तो अच्छी तरह देखी होगी?’

‘हाँ, दादा जी। मैंने शिव जी भगवान की मूर्ति को बड़ी अच्छी तरह देखा है। उनकी जटाओं से गंगा की धारा निकल रही होती है, माथे पर चन्द्रमा मुकुट की तरह लगा होता है, गले में नर-मुंड माला तथा साँप होते हैं, एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरु होता है।’

‘वाह बेटे, तुझे बहुत कुछ पता है!’

‘दादा जी, ये सारी बातें मुझे दादी जी ने मन्दिर में खड़े होकर बताई थीं।’

‘तुझे इतनी बातें पता हैं तो तुझे कहानी सुनने में मज़ा आएगा। … एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा - आपके गले में जो यह नर-मुंड माला है, इसका क्या रहस्य है? तो शिव जी बोले - पार्वती, तुमने जितने जन्म लिए हैं, यह उनको दर्शाती है यानी कि यह तुम्हारा एक सौ आठवाँ जन्म है। इस पर माता पार्वती ने कहा - भगवन्, आप अजर-अमर हैं। मुझे बार-बार जन्म लेकर घोर तपस्या करनी पड़ती है, तब जाकर आपको प्राप्त कर पाती हूँ। मैं भी आपकी तरह अजर-अमर होना चाहती हूँ। पहले तो शिव जी उसे टालते रहे, लेकिन आख़िरकार उन्होंने कहा कि हे पार्वती, इसके लिए तुम्हें अमरकथा का श्रवण करना होगा। पार्वती ने कहा - भगवन्, फिर तो बिना देरी किए मुझे अमरकथा सुनाओ। शिव जी बोले - पार्वती, यह कथा ऐसी जगह सुनानी पड़ेगी जहाँ कोई जीव या प्राणी न हो। ऐसी जगह पहाड़ों में ही मिल सकती है, कहकर शिव जी पार्वती जी को लेकर उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। रास्ते में जगह-जगह अपने शरीर पर धारण किए जीवों को भी त्यागते गए। सबसे पहले उन्होंने अपने नंदी को पहलगाम में छोड़ा। फिर चन्दनबाड़ी में जटाओं में धारण किए चन्द्रमा को, पिस्सू टॉप पर पिस्सूओं को, शेषनाग झील में साँपों को और पंचतरणी में गंगा मैया को त्याग दिया। आगे जाने पर सिन्धु नदी के किनारे एक विशाल पर्वत श्रृंखला में एक गुफा थी, जहाँ उन्होंने माता पार्वती को कथा सुनाई।

‘जैसे मैं तुझे कोई कहानी सुनाता हूँ तो तू हुंकारा भरता रहता है, उसी तरह जब शिव जी कथा सुना रहे थे तो माता पार्वती हुंकारा भर रही थी, लेकिन लम्बी यात्रा करने के कारण वे थक गई थीं, सो कथा सुनते-सुनते उन्हें नींद आने लगी। एक तोता पता नहीं कहाँ से वहाँ आ पहुँचा था, उसने जब देखा कि शिव जी आँखें बंद किए कथा सुना रहे हैं और माता पार्वती को नींद आ रही है तो उसने माता पार्वती की जगह कथा के दौरान हुंकारा भरना जारी रखा।

‘कथा समाप्ति पर शिव जी ने देखा कि पार्वती तो सोई हुई है और एक तोते ने कथा सुन ली है तो वे उस तोते को मारने के लिए दौड़े। तीनों लोकों में तोते का पीछा किया, लेकिन वह तोता तो अमरकथा सुन चुका था, वह शिव जी के हाथ नहीं आया। अन्ततः वह ऋषि व्यासजी के आश्रम में पहुँचा और सूक्ष्म रूप धारण कर उनकी पत्नी के मुँह के ज़रिए उनके गर्भ में पहुँच गया। कहते हैं कि बारह वर्ष तक वह बाहर नहीं आया। बारह वर्ष बीतने पर भगवान् श्री कृष्ण द्वारा आश्वासन दिए जाने पर कि उसे कोई क्षति नहीं होगी, उसने जन्म लिया। बेटे, तोते को शुक भी कहते हैं तो जन्म के बाद उनका नाम रखा गया शुकदेव। शुकदेव ने माता के गर्भ में ही वेदों, उपनिषदों, पुराणों, दर्शन आदि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, इसलिए वे बहुत बड़े ऋषि बने।’

‘दादा जी, यह तो बहुत बढ़िया कहानी सुनाई आपने। क्या आपने भी कभी अमरनाथ यात्रा की है?’

‘हाँ, मैंने की है। चार साल पहले मैं तेरे फूफा जी और बुआ जी के साथ गया था। हमारे ग्रुप में चालीस-पंतालीस लोग थे। हम एक बस में गए थे। हमारा पहला पड़ाव पहलगाम था जहाँ ‘बाबा बर्फ़ानी सेवा मंडल’ वालों के शिविर में हमने रात बिताई। वहाँ रुकने वालों के लिए खाने-पीने तथा सोने की बढ़िया व्यवस्था की हुई थी। वहाँ सेवा मंडल के कार्यकर्त्ता व सेवादार किसी भी यात्री से कोई सहयोग राशि नहीं लेते, बल्कि उनका नाम-पता रजिस्टर में लिखकर अगले साल शिविर लगाने से पहले चंदा इकट्ठा करते हैं, जैसा कि आज तूने देखा।’

‘दादा जी, यह शिविर डेढ़-दो महीने चलता है?’

‘हाँ बेटे।’

‘फिर तो बहुत ख़र्चा आता होगा?’

‘हाँ, लेकिन लोग दान भी बहुत देते हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के लोग बहुत से शिविर लगाते हैं।‘बाबा बर्फ़ानी सेवा मंडल’ जैसे कई ग्रुप हैं जो यात्रियों की यात्रा के दौरान सेवा करते हैं। मज़े की बात यह है कि सभी शिविरों में लाउडस्पीकर से यात्रियों को ठहरने तथा खाना खाने के लिए प्रार्थना की जाती है। नाश्ते के लिए सारा दिन कुछ-न-कुछ बनता रहता है जैसे पकोड़े, जलेबियाँ आदि।’

‘यह तो बहुत अच्छा काम है।….  पहलगाम में पहले पड़ाव से आगे की यात्रा के बारे में बताओ।’

‘दूसरे दिन सुबह नाश्ता करके हम आगे की यात्रा पर निकले। लिद्दड़ नदी जो पहलगाम के बीच से बहती है, के ऊपर बना पुल पार करके चंदनवाड़ी तक जीपों में गए। चंदनवाड़ी से आगे रास्ता पैदल या खच्चर की सवारी के सहारे करना पड़ता है। हम में से ज़्यादा लोग पैदल ही आगे बढ़े। पिस्सू टॉप की चढ़ाई ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी पत्थरों के बीच से है जो बहुत ही कठिन है, किन्तु उसके बाद पगडंडी का पहाड़ी रास्ता है। ऊँचाई होने से वहाँ थोड़ा-थोड़ा चलने के बाद ही रुकना पड़ता है, क्योंकि ऑक्सीजन की कमी के कारण साँस लेने में दिक़्क़त होने लगती है। जब हम शेषनाग पहुँचने वाले थे तो बूँदाबाँदी होने लगी। इस प्रकार शेषनाग में शिविर तक पहुँचते-पहुँचते हम भीग गए। एक तो कपड़े गीले हो गए थे, ऊपर से ठंड। टेंट में पहुँचकर सबसे पहले गीले कपड़े उतार कर सूखे कपड़े पहने, तब जाकर चैन आया।  …. प्रवीण, लोगों का मानना है कि शेषनाग झील में कभी-कभी सुबह के चार बजे के आसपास शेषनाग के दर्शन होते हैं, ….’

प्रभुदास को रोककर प्रवीण ने पूछा - ‘दादा जी, आपको शेषनाग के दर्शन हुए?’

‘नहीं बेटा। हम सारे दिन के थके हुए थे। नींद ही सात बजे खुली। हमें फ़ारिग होकर आगे के लिए भी निकलना था, इसलिए फुर्ती से तैयार हुए, नाश्ता किया और निकल लिए आगे की यात्रा पर। यहाँ से महागनुस पर्वत तक चढ़ाई थी, उसके बाद पंचतरणी तक लगभग उतराई थी। शाम होने से पहले हम पंचतरणी पहुँच गए। यहाँ सरकार की तरफ़ से टेंटों की व्यवस्था थी, जिसमें रुकने के लिए हर व्यक्ति से पचास रुपए लिए जाते थे। इतनी ऊँचाई पर इस तरह की व्यवस्था के लिए पचास रुपए कोई ज़्यादा नहीं थे।

‘अगले दिन सुबह यात्रा के आख़िरी पड़ाव अर्थात् गुफा दर्शन के लिए निकले। इस रास्ते के बीच में ‘संगम’ आता है, जहाँ से एक रास्ता बालताल की ओर जाता है और दूसरा गुफा की ओर। दोपहर में बारह-साढ़े बारह के क़रीब लगभग दो किलोमीटर बर्फ़ की परत के ऊपर चलते हुए हम गुफा के आधार के पास पहुँच गए। यहाँ सिन्धु नदी के जल से किसी ने सिर्फ़ हाथ-मुँह धोए, लेकिन ज़्यादातर लोगों ने स्नान किया। पानी बर्फ़ जैसा ठंडा था।’

‘दादा जी, आप भी इतने ठंडे पानी में नहाए?’

‘हाँ बेटा, पहले तो पानी में हाथ डाला तो कंपकंपी छूट गई, लेकिन जब डोल भरकर शरीर पर डाला तो लगातार तीन डोल डाल लिए। सारी थकावट रफ़ूचक्कर हो गई।

‘प्रसाद लेकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए गुफा में पहुँच कर भोलेनाथ के बर्फ़ से बने शिवलिंग रूप में दर्शन किए और प्रसाद चढ़ाया। सीढ़ियों पर चढ़ते हुए भक्त ‘बम-बम भोले’, ‘जय बाबा बर्फ़ानी’ आदि जैकारे लगा रहे थे। कुछ देर वहाँ का कुदरती नजारा देखकर नीचे आकर खाना खाया और वापसी के लिए बालताल वाला रास्ता चुना।’

‘तो क्या आप वापस पहलगाम होकर नहीं आए? आपकी बस तो पहलगाम में थी।’

‘जब हम पहलगाम से चले थे तो बस के ड्राइवर-कंडक्टर को बोल दिया था कि बस बालताल ले जाएँ। गुफा से बालताल तक का रास्ता छोटा है, किन्तु है बहुत कठिन। यह रास्ता ख़तरनाक भी ज़्यादा है। तेरे फूफा जी मेरे साथ पैदल थे, बाक़ी लोग खच्चरों पर चढ़कर आगे निकल गए थे। बालताल पहुँचने से कुछ पहले मिलिटरी कैंप है। वहाँ तक पहुँचने में ही हमें रात होने लगी थी। हमारे बैग ‘पिट्ठू’ लेकर आगे निकल गया था। हमारे पास न टार्च थी और न ही बरसाती या छतरी। ऊपर से मौसम ऐसा बना हुआ था कि अब बरसा कि अब बरसा। मन में शिव भोले से प्रार्थना करते जा रहे थे कि पीछे से दो-तीन फ़ौजी आए। उनके पास टार्च भी थी। हम उनके साथ हो लिए। मिलिटरी कैंप में पहुँचे तो मिलिटरी की गाड़ी बालताल तक ले जाने के लिए तैयार थी। ज्यों ही हम गाड़ी में बैठे, मुसलाधार बरसात शुरू हो गई। उस समय अहसास हुआ भोलेनाथ की कृपा का। भगवान् को भक्त की अधिक चिंता रहती है, यदि भक्त अपनी चिंता भगवान् पर छोड़ देता है। बालताल रात बिताकर अगले दिन श्री नगर पहुँचे जहाँ ‘डल लेक’ में किश्तियों, जिन्हें वहाँ ‘शिकारा’ कहते हैं, में बोटिंग की और बाद में शंकराचार्य मन्दिर के दर्शन किए जहाँ से ‘छड़ी मुबारक’ को पूजा करने के बाद अमरनाथ गुफा तक ले ज़ाया जाता है।

‘दादा जी, जाते समय आपको पहलगाम के बाद रास्ते में दो रातें बितानी पड़ीं और वापसी पर केवल एक रात। फिर लोग बालताल के रास्ते आना-जाना क्यों नहीं करते?’

‘इस रास्ते से जाने और आने में थकान बहुत हो जाती है। जिन्होंने आना-जाना खच्चरों पर करना होता है, उनके लिए यह रास्ता ठीक है। जैसे मैंने पहले बताया, गुफा से बालताल तक का रास्ता बहुत ख़तरनाक है, बरसात में और स्लिपरी हो जाता है।’

‘दादा जी, आज तो बहुत बढ़िया नींद आएगी आपने जो इतनी अच्छी-अच्छी बातें बताई हैं।’

प्रभुदास को भी अमरनाथ यात्रा की यादों को दोहराना अच्छा लगा। उसे भी उस रात गहरी नींद आई।

*****