Anuthi Pahal - 5 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अनूठी पहल - 5

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अनूठी पहल - 5

- 5 -

विवाह के उपरान्त रामरतन और जमना जीवन की दुखद स्मृतियों को विस्मृत कर सुखद, प्रेममय जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ समय पहले तक भरे-पूरे परिवारों में रहने वाले इन दो प्राणियों को कभी-कभी बहुत अकेलापन महसूस होता। रामरतन तो फिर भी सारा दिन दुकान पर व्यस्त रहता और उसे अकेलेपन की टीस कम सालती, किन्तु रामरतन के दुकान पर जाने के बाद जमना के लिए समय व्यतीत करना बड़ा मुश्किल हो जाता। चाहे वह स्वयं को किसी-न-किसी काम में उलझाए रखती, फिर भी उसका मन कभी-कभार उचाट हो जाता। ऐसे में वह नीचे रामरतन के पास आ जाती, लेकिन एक तो छोटा क़स्बा, ऊपर से देहाती लोगों का आना-जाना, उसका दुकान पर रुकना रामरतन और जमना दोनों को ही अजीब-सा लगता। आमतौर पर तो रामरतन उसे बहलाकर ऊपर भेज देता, लेकिन इससे तो जमना और निराश हो जाती। आख़िर रामरतन ने फ़ैसला किया कि एक-आध दिन छोड़कर दिन में वह उसे पार्वती के पास छोड़ आया करेगा। पार्वती और सुशीला के पास जमना का दिल लगने लगा।

ऐसे ही एक दिन ठिठोली करते हुए सुशीला ने जमना से कहा - ‘जिठानी जी, प्रेम का आनन्द तो बहुत ले लिया, अब तो बाल-गोपाल को लाड़ लड़ाने की तैयारी करो।’

जमना सुशीला की मज़ाक़ में कही बात से भी उदास हो गई। उसने कहा - ‘सुशीला, हम भी चाहते हैं कि बाल-गोपाल आ जाए तो अकेलापन दूर हो, लेकिन शायद अभी ऊपरवाले को मंज़ूर नहीं। एक दिन ये मुझे शहर डॉक्टर के पास भी ले गए थे। डॉक्टर ने कहा, वैसे तो ठीक ही लगता है, लेकिन कुछ टेस्ट करवाने पड़ेंगे। …… उस दिन तो डॉक्टर की लिखी दवाई लेकर ही हम वापस आ गए थे। दवाई लेते तो महीना हो चला, लेकिन कोई फ़ायदा तो दिखाई नहीं देता। … अब सोचते हैं, किसी दिन टेस्ट करवा ही लें।’

‘हाँ, टेस्ट तो करवा ही लेना चाहिए ……’ सुशीला अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि पार्वती मन्दिर से वापस आ गई। जमना ने उठकर उसके चरणस्पर्श किए तो उसने आशीर्वाद दिया - ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ और उसकी हथेली पर मन्दिर का प्रसाद रखा।

सुशीला - ‘माँ जी, आपके आशीर्वाद का फल पाने के लिए जिठानी जी को कुछ टेस्ट करवाने पड़ेंगे, ऐसा शहर की डॉक्टर का कहना है।’

‘बहू, यदि तुम डॉक्टर से मिल आई हो तो उसके कहे अनुसार टेस्ट भी करवा लो। पहले बच्चे में देर नहीं होनी चाहिए। देर होने पर कई तरह की दिक़्क़तें आ जाती हैं पुत्तर। यदि ज़रूरत हुई तो मैं तुम्हारे साथ चली चलूँगी।’

‘ठीक है माँ जी। मैं आज ही इनसे बात करूँगी।’

इस प्रकार जमना की उत्कंठा और तीव्र हो गई। उसी रात को उसने रामरतन से इस विषय में बात की। फ़ैसला हुआ कि अगले ही दिन शहर जाकर आवश्यक टेस्ट करवाते हैं।

……..

तीन दिन बाद जब रामरतन रिपोर्ट लेने गया तो डॉक्टर ने उसे बताया कि बच्चेदानी में ज़ख़्म हैं, ज़ख़्म भी ऐसे हैं कि यदि दवाइयों से ज़ख़्म ठीक नहीं हुए तो बच्चेदानी निकालनी पड़ेगी। रिपोर्ट लेकर और डॉक्टर की बात सुनकर रामरतन बहुत निराश हुआ। सारी बातें तो उसने जमना को नहीं बताईं, केवल इतना ही कहा कि हमें इन्तज़ार करना पड़ेगा। उस दिन शाम को वह जमना को भी मन्दिर लेकर गया। भगवान् से प्रार्थना की।

इसके बाद रामरतन उदास रहने लगा। जमना बहुत कोशिश करती उसे ख़ुश रखने की, किन्तु जब स्वयं के मन में उत्साह न हो तो किसी बाह्य प्रयास से खुश होना मुश्किल हो जाता है। एक दिन अंतरंग क्षणों में जमना के आग्रह पर रामरतन ने उसे पूरी सच्चाई से अवगत कराया। जमना के मन को भी ठेस लगी। सोचने लगी कि यह हुआ है उस भयावह दुर्घटना के कारण ही, लेकिन किया भी क्या जा सकता है! उसने मन में निश्चय किया कि यदि ऐसा है तो साधु-सन्तों, पीरों-फ़क़ीरों के चक्कर में पड़ने की बजाय किसी अनाथ बच्चे को गोद लेना ही ठीक रहेगा। रामरतन भी जमना की सोच से सहमत था।

……..

एक दिन दोपहर में चन्द्रप्रकाश रामरतन के पास दुकान पर आया। नमस्ते प्रति-नमस्ते के बाद रामरतन ने पूछा - ‘चन्द्र भाई, आज इधर का रास्ता कैसे याद आ गया?’

‘भाई साहब, आज मुझे पता चला है कि भारत सरकार ने पुनर्वास मंत्रालय का गठन किया है,  जिसका क्षेत्रीय कार्यालय पटियाला में है। इस मंत्रालय का उद्देश्य है, जो लोग पश्चिमी पाकिस्तान से उजड़कर आए हैं, उन्हें उनकी वहाँ की जायदाद के बदले मुआवज़ा देना या यहाँ कोई जायदाद अलॉट करना। आपके पास सियालकोट की दुकान-मकान का कोई काग़ज़-पत्र है क्या?’

‘भइया, जिन हालात में वहाँ से निकल कर आया हूँ, ऐसे में जायदाद के काग़ज़ात मेरे पास कैसे हो सकते हैं? आपको तो पता ही है कि मेरी गैर-हाज़िरी में हमारे घर और दुकान लूटने के बाद आग के हवाले कर दिए गए थे।’

‘कोई बात नहीं। आप मुझे गली-मुहल्ले का नाम और घर का नंबर यदि कोई था, और बाज़ार जिसमें अपनी दुकान थी, का नाम बता दो, बाक़ी कार्रवाई मैं ख़ुद कर लूँगा। … आपकी अर्ज़ी दाखिल होने के बाद आपको, हो सकता है, पटियाला जाना पड़े।’

‘शुक्रिया चन्द्र भाई। पटियाला जाना पड़ेगा तो मैं चला जाऊँगा। पटियाला कौन-सा बहुत दूर है? वैसे दूर भी होता तो भी अपनी गर्ज में जाना ही पड़ता।’

‘सियालकोट की शहरी जायदाद होने के कारण, मेरा अनुमान है कि आपको पचास-एक हज़ार का मुआवज़ा ज़रूर मिल जाना चाहिए।’

अपनी वर्तमान स्थिति को देखते हुए रामरतन के लिए इतनी बड़ी रक़म की कल्पना बहुत आनन्द प्रदान करने वाली थी।

दो साल तो लगे, किन्तु चन्द्रप्रकाश की लिखा-पढ़ी और रामरतन की भागदौड़ के फलस्वरूप आख़िरकार मुआवज़े के रूप में पैंतालीस हज़ार पाँच सौ रुपए का चैक जिस दिन रजिस्टर्ड डाक से आया, रामरतन की ख़ुशी का पारावार न रहा। सबसे पहले उसने यह ख़ुशख़बरी जमना को दी और फिर पति-पत्नी मिठाई लेकर प्रभुदास के घर पहुँचे। पार्वती बैठक में बैठी पोते को खिला रही थी, इसलिए रामरतन और जमना बैठक में ही रुक गए। पार्वती को ‘पैरी पैना’ करके चन्द्रप्रकाश के बारे में पूछा, क्योंकि उसका आभार प्रकट करना बहुत ज़रूरी था। जमना ने लोटू (पवन) को पार्वती की गोद से ले लिया। पार्वती ने उन्हें बधाई दी और बताया कि चन्द्रप्रकाश तो गौ-सेवा तथा प्रचार के लिए कई दिनों से बाहर गया हुआ है। तब रामरतन ने कहा - ‘माँ जी, यह सब चन्द्रप्रकाश की मेहनत और आपके आशीर्वाद के कारण हुआ है …….’ रामरतन और जमना की आवाज़ें सुनकर सुशीला जो इस समय रसोई में दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थी, को अचम्भा हुआ कि इस समय ये लोग कैसे आए हैं! अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उसने रसोई का काम स्थगित किया और बैठक में आकर उन्हें नमस्ते करते हुए पूछा - ‘आज, इस समय? इस समय तो भाई साहब, आपको दुकान से फ़ुर्सत कहाँ मिलती है?’

रामरतन कुछ कहता, उससे पहले ही पार्वती ने कहा - ‘परमात्मा ने एक हाथ से राम से सब कुछ छीन लिया था तो अब मुआवज़े के रूप में कुछ भरपाई भी कर दी है। उसी ख़ुशी में मुँह मीठा करवाने आए हैं। ….. ले, तू भी मुँह मीठा कर।’

पार्वती ने मिठाई का डिब्बा सुशीला के आगे कर दिया। सुशीला ने एक लड्डू उठाते हुए पूछा - ‘कितना पैसा मिलेगा भाई साहब?’

‘भाभी, पैसा मिलेगा नहीं, आ गया है। पैंतालीस हज़ार पाँच सौ।’

‘वाह! बधाई आप दोनों को। अब तो भाई साहब, बढ़िया-सा घर ले लो या बनवा लो। जिठानी जी सारा दिन ऊपर टंगी रहती है, गली-मुहल्ले में घर होगा तो इनका दिल लगा रहेगा।’

‘भाभी, पैसा आया है तो आपकी सलाह पर ज़रूर अमल करूँगा।’

‘बहू, खाना बना ले। ये भी यहीं खा लेंगे।’

जमना - ‘माँ जी, खाना तो मैं बना के आई हूँ, अब तो हम चलेंगे।’

‘तो ठीक है। शाम को दुकान बन्द करने के बाद आना, खाना इकट्ठे ही खाएँगे।’

‘ठीक है माँ जी, आपका कहा सिर-माथे।’

घर से निकले तो रामरतन ने जमना को कहा - ‘जाते-जाते दो मिनट में प्रभु को सूचित कर देते हैं।’

‘भाई साहब को तो ज़रूर बताना चाहिए, उन्हें घर जाकर पता लगेगा तो उन्हें बुरा लग सकता है।’

‘ठीक कह रही हो, प्रभु को तो अभी बताना ही अच्छा रहेगा।’।

॰॰॰॰॰॰