Bad luck vermilion - (Story of Saratchandra Chattopadhyay) in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अभागी का सिन्दूर - (शरतचन्द्र चटोपाध्याय की कहानी)

Featured Books
  • ભાગવત રહસ્ય - 279

    ભાગવત રહસ્ય -૨૭૯   ઇશ્વરને જગાડવાના છે.શ્રીકૃષ્ણ તો સર્વવ્યા...

  • આત્મનિર્ભર નારી

    આત્મનિર્ભર નારી નારીની ગરિમા: "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन...

  • ધ વેલાક

    ભૂતિયા નન - વડતાલના મઠની શાપિત વાર્તાવડતાલ ગામ, ગુજરાતનું એક...

  • શેરડી

                         શેરડી એ ઊંચા, બારમાસી ઘાસની એક પ્રજાતિ...

  • પ્રેમ અને મિત્રતા - ભાગ 11

    (નીરજા, ધૈર્ય , નિકિતા અને નયન..) નીરજા : બોલો...પણ શું ?? ધ...

Categories
Share

अभागी का सिन्दूर - (शरतचन्द्र चटोपाध्याय की कहानी)

लेखक: शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

सात दिनों तक ज्वरग्रस्त रहने के बाद ठाकुरदास मुखोपाध्याय की वृद्धा पत्नी की मृत्यु हो गई. मुखोपाध्याय महाशय अपने धान के व्यापार से काफ़ी समृद्ध थे. उनके चार पुत्र, चार पुत्रियां और पुत्र-पुत्रियों के भी बच्चे, दामाद, पड़ोसियों का समूह, नौकर-चाकर थे-मानो यहां कोई उत्सव हो रहा हो.
धूमधाम से निकलनेवाली शव-यात्रा को देखने के लिए गांववालों की काफ़ी भीड़ इकट्ठी हो गई. लड़कियों ने रोते-रोते माता के दोनों पांवों में गहरा आलता और मस्तक पर बहुत-सा सिंदूर लगा दिया. बहुओं ने ललाट पर चंदन लगाकर बहुमूल्य वस्त्रों से सास की देह को ढंक दिया और अपने आंचल के कोने से उनकी पद-धूलि झाड़ दी. पत्र, पुष्प, गंध, माला और कलरव से मन को यह लगा ही नहीं कि यहां कोई शोक की घटना हुई है-ऐसा लगा जैसे बड़े घर की गृहिणी, पचास वर्षों बाद पुन: एक बार, नई तरह से अपने पति के घर जा रही हो.
शांत मुख से वृद्ध मुखोपाध्याय अपनी चिर-संगिनी को अंतिम विदा देकर, छिपे-छिपे दोनों आंखों के आंसू पोंछकर, शोकार्त कन्या और बहुओं को सान्त्वना देने लगे. प्रबल हरि-ध्वनि (राम नाम सत्य है) से प्रात:कालीन आकाश को गुंजित कर सारा गांव साथ-साथ चल दिया.
एक दूसरा प्राणी भी थोड़ी दूर से इस दल का साथी बन गया-वह थी कंगाली की मां. वह अपनी झोपड़ी के आंगन में पैदा हुए बैंगन तोड़कर, इस रास्ते से हाट जा रही थी. इस दृश्य को देखकर उसके पग हाट की ओर नहीं बढ़े. उसका हाट जाना रुक गया और उसके आंचल में बैंगन बंधे रह गए. आंखों से आंसू बहाती हुई-वह सबसे पीछे श्मशान में आ उपस्थित हुई. श्मशान गांव के एकांत कोने में गरुड़ नदी के तट पर था. वहां पहले से ही लकडि़यों का ढेर, चंदन के टुकड़े, घी, धूप, धूनी आदि उपकरण एकत्र कर दिए गए थे. कंगाली की मां को निकट जाने का साहस नहीं हुआ. अत: वह एक ऊंचे टीले पर खड़ी होकर शुरू से अंत तक सारी अंत्येष्टि क्रिया को उत्सुक नेत्रों से देखने लगी.

चौड़ी और बड़ी चिता पर जब शव रखा गया, उस समय शव के दोनों रंगे हुए पांव देखकर उसके दोनों नेत्र शीतल हो गए. उसकी इच्छा होने लगी कि दौड़कर मृतक के पांवों से एक बूंद आलता लेकर वह अपने मस्तक पर लगा ले. अनेक कण्ठों की हरिध्वनि के साथ पुत्र के हाथों में जब मंत्रपूत अग्नि जलाई गई, उस समय उसके नेत्रों से झर-झर पानी बरसने लगा. वह मन-ही-मन कहने लगी,‘सौभाग्यवती मां, तुम स्वर्ग जा रही हो-मुझे भी आशीर्वाद देती जाओ कि मैं भी इसी तरह कंगाली के हाथों अग्नि प्राप्त करूं.’ लड़के के हाथ की अग्नि! यह कोई साधारण बात नहीं. पति, पुत्र, कन्या, नाती, नातिन, दास, दासी, परिजन-सम्पूर्ण गृहस्थी को उज्जवल करते हुए यह स्वर्गारोहण देखकर उसकी छाती फूलने लगी-जैसे इस सौभाग्य की वह फिर गणना ही नहीं कर सकी. सद्य प्रज्वलित चिता का धुआं नीले रंग की छाया फेंकता हुआ घूम-घूमकर आकाश में उठ रहा था. कंगाली की मां को उसके बीच एक छोटे-से रथ की आकृति जैसे स्पष्ट दिखाई दे गई. उस रथ के चारों ओर कितने ही चित्र अंकित थे.
उसके शिखर पर बहुत से लता-पत्र जड़े हुए थे. भीतर जैसे कोई बैठा हुआ था-उसका मुंह पहचान में नहीं आता, परंतु उसकी मांग में सिंदूर की रेखा थी और दोनों पदतल आलता से रंगे हुए थे. ऊपर देखती हुई कंगाली की मां की दोनों आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. इसी बीच एक पंद्रह-सोलह वर्ष की उम्र के बालक ने उसके आंचल को खींचते हुए कहा,‘तू यहां आकर खड़ी है, मां, भात नहीं रांधेगी?’
चौंकते हुए पीछे मुड़कर मां ने कहा,‘राधूंगी रे!’ फिर अचानक ऊपर की ओर अंगुली उठाकर व्यग्र स्वर में कहा,‘देख, देख बेटा ब्राह्मणी मां उस रथ पर चढ़कर स्वर्ग जा रही हैं!’
लड़के ने आश्चर्य से मुंह उठाकर कहा,‘कहां?’
फिर क्षणभर निरीक्षण करने के बाद बोला,‘तू पागल हो गई है मां! वह तो धुआं है.’
फिर ग़ुस्सा होकर बोला,‘दोपहर का समय हो गया, मुझे भूख नहीं लगती है क्या?’
पर मां की आंखों में आंसू देखकर बोला,‘ब्राह्मणों की बहू मर गई है, तो तू क्यों रो रही है, मां?’
कंगाली की मां को अब होश आया. दूसरे के लिए श्मशान में खड़े होकर इस प्रकार आंसू बहाने पर वह मन-ही-मन लज्जित हो उठी. यही नहीं, बालक के अकल्याण की आशंका से तुरंत ही आंखें पोंछकर तनिक सावधान-संयत होकर बोली,‘रोऊंगी किसके लिए रे-आंखों में धुआं लग गया. यही तो!’
‘हां, धुआं तो लग ही गया था! तू रो रही थी.’
मां ने और प्रतिवाद नहीं किया. लड़के का हाथ पकड़कर घाट पर पहुंची; स्वयं भी स्नान किया और कंगाली को भी स्नान कराकर घर लौट आई.
श्मशान पर होने वाले संस्कार के अंतिम भाग को देखना उसके भाग्य में नहीं बदा था.

समाप्त....
शरतचन्द्र चटोपाध्याय...