Kshitij - 2 in Hindi Poems by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | क्षितिज (काव्य संकलन) - 2

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क्षितिज (काव्य संकलन) - 2

जन्मदिन

आज मेरा जन्मदिवस है

उम्र एक वर्ष और बढ गई

मृत्यु और करीब आ गई

जन्म के साथ ही

निश्चित हो जाती है मृत्यु

मृत्यु से क्या डरना

मृत्यु का अर्थ है

एक जीवन का अंत

और दूसरे का प्रारंभ।

बीत गये जो वर्ष उनमे

हम अपनी सेवा, समर्पण, त्याग

और सद्कर्मों को देखे

फिर जलाए सद्भावों के दीप

इन दीपों की रोशनी से

जगमग करे स्वयं को भी

और दूसरों को भी।

और मनाएं अपना जन्मदिन।

आभार

शिशु का जन्म हुआ

मन में प्रश्न उठा

हम किसके प्रति आभारी हों ?

माता पिता के प्रति

जिनके कारण यह जीवन मिला।

वसुधा के प्रति

जो करती है शिशु का लालन पालन।

ईश्वर के प्रति

जिसकी कृपा के बिना

संभव ही नही है

जन्म भी और लालन पालन भी।

विज्ञान तो कहता है

किसी के भी प्रति

आभार की आवश्यकता नही हैं।

यह संस्कार तो बस

क्रिया की प्रतिक्रिया है।

संतो का कहना

गुरू आपकी बलिहारी है।

इसीलिये हम आभारी है

जन्म दाता माता पिता के

पोषणकर्ता आकाश और धरा के

मार्गदर्शक गुरू के और

कृपा बरसाने वाले प्रभु के।

दोस्ती

न तख्त है

न ताज है

बस दोस्तों का साथ है।

कोमल सुमन है देास्ती,

शीतल पवन है दोस्ती।

है तरल सरिता दोस्ती,

पूजा की थाली दोस्ती।

बिछुडे अगर हम दोस्त से

तो दोस्ती कायम रहे।

होंठो पे हो मुस्कान

अपनी आँख चाहे नम रहे।

क्या पता किस मोड पर

शायद कभी मिल जाए हम।

तब काम शायद आ सकें

कठिनाई हो या कोई गम।

ऐसी दोस्ती रखे हम l

योग और खुशी

तनावग्रस्त मानव

खो देता है स्वयं पर नियंत्रण

नही पहचान पाता है

विपरीत परिस्थितियों को

हो जाता है दिग्भ्रमित

बदल जाता है उसका व्यवहार

दूर होते जाते है उसके अपने

चिंता ले जाने लगती है

उसे चिता की ओर

तब उसे आवश्यकता होती है

तनाव से मुक्ति की

भारतीय दर्शन ने

इसके लिए दिया है योग।

येाग एक माध्यम और साधन है

तनाव से मुक्ति का

इससे बढती है

चिंतन, मनन और निर्णय लेने की क्षमता

यह दिखलाता है

जीवन में सफलता का रास्ता।

इसीलिये कहते है येाग करो

स्वयं भी खुश रहो और

परिवार को भी खुश रखो।

अंतिम रात

आज की रात मुझे

गहरी नींद में सोने दो

क्या जाने

कल का सूरज देखूं

या ना देख सकूं

चांद के दूधिया प्रकाश को

दस्तक देने दो

मेरी आत्मा के द्वार पर।

जा रहा हूँ -

अंधकार से प्रकाश की ओर

जाग रहा है -

भूत, वर्तमान और भविष्य का अहसास।

हो जाने दो -

पाप और पुण्य का हिसाब।

आ गया है अंत -

आ जाने दो।

बरसने दो उस अनंत की कृपा

जगमगाने देा आत्मा

मैंने किये जो धर्म से कर्म

स्थापित रहें।

उनका फल मिले

परिवार और समाज को

ऐसी प्रार्थना करते करते ही

गहरी नींद में सो गया।

प्रारंभ से अंत नही

अंत से प्रारंभ हो गया।

सोने की चिडिया

पक्षी सूर्योदय के साथ

अपने दलों में निकलते है

सूर्यास्त पर वापिस लौटते है

एक साथ रहकर जीते है

सुखी और प्रेमपूर्ण जीवन

लेकिन हम

अहं में ही जीते है

और अहं में ही मरते है

यदि हमारे मैं की जगह

हम का भाव आ जाए

समाज में क्रांति हो जाए

इस क्रांति से धन, संपदा,

वैभव व प्रगति पाकर

व्यक्ति ही नही पूरा समाज

लाभान्वित हो जाए

सुख व प्रेम से आप्लावित होकर

सुदृढ राष्ट्र का निर्माण हो जाए

देश पुनः सोने की चिडिया

बनकर महान कहलाये l

स्वतंत्रता दिवस और हम

स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर

शहीदों की शहादत को

और सीमा पर डटे हुये सैनिकों को

हमारा सलाम !

इस वर्ष भी

जगह-जगह ध्वजारोहण

नेताओें के लम्बे-चौडे़ भाषण

शालाओं में मिष्ठान्न वितरण

गली-गली में लाउड स्पीकर पर गूंजते

फिल्मी राष्ट्रीय गीत।

हो गया स्वतंत्रता-दिवस का समापन।

स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है

तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा

जय जवान-जय किसान और सत्यमेव जयते जैसे

देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत

राष्ट्र के लिये समर्पण का उद्घोष गुंजाने वाले

नारे जाने कहाँ खो गये।

शायद इतिहास का पन्ना हो गये।

आज भी भारत माता के

कुछ भाग पर पाकिस्तान

और कुछ भाग पर काबिज है चीन।

भारत माता का वह अंग

आज भी है पराधीन

आज भी वह भू-भाग

कर रहा है प्रतीक्षा स्वतंत्रता की।

फिर हम कैसे स्वतंत्र हैं

और कैसा है हमारा स्वतंत्रता-दिवस।

जनता है तैयार

सैनिकों को है आदेश का इंतजार

परंतु हमारे नेता

शांति वार्ताओं के नाम पर

समय गंवा रहें हैं।

जनता को बेवकूफ बना रहे हैं।

आज हमारे देश में

भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद तथा रिश्वतखोरी

निर्माण और विकास को खोखला बना रहे हैं।

हमारे नेता इन्हें मिटाने के स्थान पर

इन्हीं के साथ रंगरलियां रचा रहे हैं।

केवल अपनी कुर्सी बचा रहे हैं।

चीन और पाकिस्तान

देश में आतंकवाद और

नक्सलवाद फैला रहे हैं।

सारा देश इनसे निपटने में व्यस्त है

और वे इसे देख-देखकर मद मस्त हैं।

जागना होगा नई पीढी को

लेना होगा अपने कंधों पर देश का भार।

देश भक्ति जनसेवा को करना होगा साकार।

लेना होगा संकल्प

अपनी धरती को मुक्त कराने का

करना होगा प्रण

अन्याय और शोषण को मिटाने का।

जिस दिन यह सब हो जायेगा

उस दिन असली स्वतंत्रता दिवस आयेगा।

तब हम गर्व से कह पायेंगे,

हम हैं स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक।

तभी झलकेगा देश का स्वाभिमान

और तब पूरे विश्व में मिलेगा

हमारे देश को

यश और सम्मान।

भीष्म

जीवन की राहों में

फूल हैं कम

कांटे हैं ज्यादा।

हम जिन्हें समझते हैं फूल

वे ही चुभते हैं बनकर शूल।

कांटे तो कांटे हैं

उनसे हम रहते हैं सावधान,

धोखा वहीं खाते हैं

जहाँ बस फूल नजर आते हैं।

पितामह भीष्म का मन था

कृष्ण के साथ

लेकिन वे

तन से

जीवन भर कांटों के साथ रहे

और

कांटों की सेज पर ही मरे।

भीष्म जब संसार से विदा हुए

तो अपने साथ ले गए

धरती के ढेर से कांटे

और अपनी जन्मभूमि पर

छोड़ गए श्रीकृष्ण को

और पाण्डवों सहित उन वीरों को

जिनका चरित्र था

फूलों सा,

वे स्वयं अधर्म के कांटों पर सोये

और जनता को दिये

धर्म के फूल।

आज नेता

सो रहे हैं फूलों की सेज पर

और जनता को दे रहे हैं

मंइगाई और भ्रष्टाचार के कांटे।

जनता का दुख-दर्द

उन्हें नजर नहीं आता,

इसीलिये उनमें कोई भी

भीष्म पितामह नहीं बन पाता।

सच्चा लोकतंत्र

पहले था राजतंत्र

अब आ गया है लोकतंत्र।

पहले राजा शोषण कर रहा था

अब नेता शोषण कर रहा है।

जनता पहले भी गरीब थी

आज भी गरीब है।

कोई ईमान बेचकर,

कोई खून बेचकर

और कोई बेचकर तन

कमा रहा है धन।

तब भी नही कर पा रहा है

अपने परिवार का पालन।

कोई नहीं है

गरीब के साथ,

गरीबी करवा रही है

प्रतिदिन नए-नए पाप और अपराध ।

खोजना पड़ेगा कोई ऐसा मंत्र

जिससे आ पाये सच्चा लोकतंत्र।

मिटे गरीब और अमीर की खाई।

क्या तुम्हारे पास है कोई

ऐसा इलाज मेरे भाई।

अर्थ

ईश्वर की रचित सृष्टि में

सर्वश्रेष्ठ कृति है मानव

मानव जिसमें क्षमता है

सृजन और विकास की

अविष्कार की और

समस्याओं के समाधान की

वस्तु विनिमय का समाधान था

मुद्रा का जन्म।

मुद्रा अर्थात अर्थ

अर्थ में छुपी हुई थी क्रय शक्ति

इसी क्रय शक्ति ने

बांट दिया मानव को

अमीर और गरीब में

अर्थ की धुरी पर घूमती हुई व्यवस्था ने

निर्मित कर दी

अमीर और गरीब के बीच

एक गहरी खाई।

अमीर हेाता जा रहा और अमीर

गरीब होता जा रहा और गरीब।

डगमगा रहा है सामाजिक संतुलन

असंतुलन से बढ रहा है असंतोष

असंतोष जिस दिन पार कर जाएगा अपनी सीमा

फैल जाएगी अराजकता जो करेगी विध्वंस

हमारे सृजन और विकास का।

यदि कायम रखना है अपनी प्रगति

जारी रखना है अपना सृजन

तो जगाना पडेगी सामाजिक चेतना

पाटना पडेगी अमीर और गरीब

के बीच की खाई

देना होगा सबको

आर्थिक विकास का लाभ।

पूरी करना होगी

सबकी भौतिक आवश्यकताएँ।

हर अमीर दे

किसी गरीब को सहारा

बनाए उसे स्वावलंबी

कम होगी बेकारी तो कम होगा

समाज का अपराधीकरण

और बढेगी राष्ट्रीय आय।

इस संकल्प की पूर्णता के लिये

सबको करना होगा प्रयत्न

तभी सच्चा होगा

सशक्त भारत के निर्माण का स्वप्न ।

सरकार

सरकार तेजी से चल रही है।

जनता नाहक डर रही है।

सर के ऊपर से कार निकल रही है।

सर को कार का पता नही

कार को सर का पता नही

पर सरकार चल रही है।

हर पाँच साल में जनता

सर को बदल देती है।

कार जैसी थी

वैसी ही रहती है।

सर बदल गया है

कार भी बदल गई है

आ गई है नई मुसीबत

सर और कार में

नही हो पा रहा है ताल मेल

लेकिन सरकार

फिर भी चल रही है।

जनता जहाँ थी वही है

परिवर्तन की चाहत में

सर धुन रही है।

मदिरा और मँहगाई

मँहगाई लगातार बढती जा रही है

और बढती जा रही है

मदिरा की खपत।

दोनो का नीतियों से है गहरा संबंध

दोनो का सत्ता से है

सीधा अनुबंध।

खोल दिये है

विदेशी कंपनियों के लिये

भारत के बाजार।

हो गई है -

विदेशी वस्तुओं की बाजार में भरमार।

बढा रही है उपभोक्तावाद को

लगातार सरकार।

बढता ही जा रहा है

जनता पर भार।

सभी को चाहिए

जीने के लिये अधिक कमाई।

इसी चक्र में फंसकर

बढ रही है मँहगाई।

उपभोगवादी प्रवृत्ति

बढा रही है सरकार का खर्चा।

सत्र खत्म हो जाता है

बिना किए कोई चर्चा।

मंत्री जी कमाई के लिए

बांट रहे परमीशन

अफसर और नेता मिलकर

खा रहे कमीशन।

प्रतिदिन होती है एक्सरसाइज

कमाई का सर्वोत्तम साधन है एक्ससाइज।

इसके लिए कदम कदम पर

खुल रहे है मदिरालय,

मदिरालय संरक्षित है पर

टूट रहे देवालय।

मँहगाई और मदिरा से

गृहलक्ष्मी है परेशान।

इस समस्या का कही भी

नजर नही आता है समाधान।

सरकार यदि करे नीतियाँ परिवर्तित

तो इन्हें भी किया जा सकता है नियंत्रित।

इसके सिवा नही है कोई विकल्प

इसके लिये शासन को ही

लेना होगा दृढ संकल्प।

एक भिखारी

एक भिखारी मैला कुचैला

दीन भाव से आया।

मेरे सामने हाथ फैलाया।

जेब से कुछ निकालते निकालते

मैं उससे पूछा बाबा !

तुम अन्ना या प्रधानमंत्री को जानते हो ?

वह बोला - बाबू जी।

मैं तो सिर्फ रोटी और कपडे को जानता हूँ।

जो मुझे कुछ देते है

और जो कुछ नही देते है

उन दोनो के लिये दुआ माँगता हूँ।

मैंने फिर पूछा, क्या तुम्हें पता है ?

विदेशो से काला धन वापिस लाने के लिये

और भ्रष्टाचार मिटाने के लिये

चल रहा है एक बडा आंदोलन।

वह बोला- मैं तो केवल जानता हूँ

अपने शरीर को ढंकने वाले

इन फटे कपडों को

और जेब में पडे कुछ पैसों को

मैं क्या जानूँ -

कालाधन, भ्रष्टाचार या आंदोलन।

मैं कल भी भिखारी था आज भी हूँ

और कल भी रहूँगा।

टुकडे टुकडे बासी रोटी,

कट फटे कपडे और टूटा हुआ छप्पर ही

मेरी संपत्ति मेरा धन है।

ये तो बडों की बातें है काला धन आएगा

तो इन्ही में बंट जाएगा।

गरीब, गरीब ही रहेगा

उसका जीवन तो

रोटी और पानी में ही कट जाएगा।

मैं सोच में पड गया

क्या विदेशो में पडा

कालाधन आने पर ही

गरीब का पेट भर पाएगा।

क्या अभी हमारे पास नही है

इतना धन और सामान,

जिससे हर नागरिक को मिल सके

जीने लायक रोटी, कपडा और मकान।

मैंने अपना हाथ जेब से बाहर किया।

जो कुछ हाथ में आया

वह उसे सौंप दिया।

वह दुआएँ देता हुआ आगे बढ गया

और मैं देश के भविष्य पर

सोचता हुआ अपनी जगह पर

खडा रह गया।

पाकेट मार

एक जेब कतरे ने

राहगीर के जेब पर

अपना हाथ आजमाया

उसका धन अपना बनाया

दूसरे जेबकतरे ने

पहले जेबकतरे का

जेब साफ कर दिया

राहगीर के साथ-साथ

जेबकतरे का धन भी हथिया लिया

तीसरे जेब कतरे ने

दूसरे का जेब कतर लिया

राहगीर के साथ-साथ

दोनों जेबकतरों के धन पर भी

कब्जा जमा लिया।

राहगीर है जनता

पहला जेबकतरा है अधिकारी

दूसरा है व्यापारी

तीसरा है नेता

जनता का धन

अधिकारी व व्यापारी से छनता हुआ

नेताओ की जेब में जा रहा है

उनके घरों में

उनकी तिजोरियों में

या विदेशी बैंकों के खातों में

शोभा बढ़ा रहा है

राजनीति और व्यवस्था का दानव

कटी जेबों से झांकते हुए

अट्टहास लगा रहा है।

युद्ध विराम

दो देशो के बीच

हो गया युद्ध विराम

चिंतन का विषय हो गयी

युद्ध की वीभत्सता और विध्वंस।

अरबों की संपत्ति नष्ट हुई

हजारों घर हुए बर्बाद

सूनी हो गई माँ की गोद

बिछुड गया बहिन से भाई

उजड गया पत्नी की मांग का सिंदूर

सुखी जीवन जीने की कल्पना

युद्ध की वेदी में हो गई भस्म

बढ गई मंहगाई

किसने क्या खोया

किसने क्या पाया

हो गया शोध का विषय

दोनो देशो के बीच

खडा है एक प्रश्न चिन्ह

क्या युद्ध आवश्यक था

प्रश्न के उत्तर में

गूंज रहा प्रश्न

शांति का मसीहा

कहाँ खो गया ? कहाँ खो गया ?

जीवन ऐसा हो

युद्ध नही शांति, घृणा नही प्रेम

विध्वंस नही सृजन

लाएगा राष्ट्र में नया परिवर्तन

युवा आगे आए और लाए

कर्म और श्रम की बहारें।

युद्ध और आतंकवाद की विभीषिका,

कर रही है धन की बर्बादी

माँ से छीन रही है बेटा,

बहिन से उसका भाई

और पत्नी से उसका सौभाग्य।

शहीदों की विधवाओं को

दिया जा रहा है सम्मान,

क्या इससे मिल जाएगा

उनका बिछुडा हुआ अपना

जीवन का देखा हुआ सपना

सांप्रदायिकता और वैमनस्यता की जगह

आर्थिक क्रांति लाए।

बेरोजगारी का कलंक मिटाएं

स्वरोजगार की ध्वजा फहराए

एकता और सहयोग की मशाल उठाए

देश को उसका गौरव दिलवाए और

घर घर में सद्भावों के दीप जलाए।

बँटवारा

बढती ही जा रही है

जीवन में जटिलता।

बढती जा रही है

आदमी की व्यस्तता।

दूभर हो रहा है

संयुक्त परिवार का संचालन।

हो रहा है विघटन ।

जब होता है मनभेद

तब होता है बंट्वारा

बढते है मतभेद

आपस में हल नही होते विवाद।

न्यायालयों में होता है

कीमती समय बर्बाद।

पारिवारिक व्यापार

होने लगते है चौपट,

बढती है खटपट।

आर्थिक क्षति से बचाव,

सामाजिक शांति और

सद्भाव के लिये

बहुत आवश्यक है

एक तटस्थ न्यायालयीन निकाय।

जहाँ समस्या समय सीमा में

सुलझा ली जाय।

ऐसा होने पर रूकेगी आर्थिक क्षति

नही पनप सकेगा पारिवारिक विवाद

खण्डित नही होगी पारिवारिक एकता

सुदृढ बनेगा हमारा समाज

तब हर घर में चमकेगा

प्रेम और साहचर्य का ऐसा सूरज

जिसका सूर्यास्त कभी नही होगा।