Discussion of the Shakti form of Sita and the worldly form of the householder in Uttarramcharitam in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | उत्तररामचरितम् मे सीता के शक्ति रूप एवं गृहस्थ सांसारिक रूप का विवेचन

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उत्तररामचरितम् मे सीता के शक्ति रूप एवं गृहस्थ सांसारिक रूप का विवेचन

हर युग का ज्ञान कला देती रहती है।
हर युग की शोभा संस्कृति लेती रहती है।
इन दोनों से भूषित वेशित और मंडित।
हर युग की नारी एक दिव्य कथा कहती है।

सृष्टि की सृजनकर्त्री नारी की ऐसी ही दिव्य कथारओं से भारतीय संस्कृति के अनेकों ग्रंथ सुशोभित हैं। नारी पात्र सदैव ही काव्य के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। वस्तुतः नारी पात्र काव्य की वह प्राण वाहिनी धारा है जिसमें जीवन का मर्मस्पर्शी मधुर रस लहलहाता रहता है।

आचार्य भवभू अविश्वास व आक्रोश के ति के सुप्रसिद्ध ग्रंथ उत्तररामचरितम् मभी सीता को जहां एक और शक्ति स्वरूपा मानकर स्तुति की गई है वहीं दूसरी ओर नाटक की कलात्मक मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर उनके हृदय के कोमलतम भावों के स्पर्श द्वारा उनके गृहस्थ एवं सांसारिक रूप को भी स्पष्ट किया गया है। सर्वप्रथम उत्तररामचरितम् के प्रारंभ में सीता आदि शक्ति के रूप में सामने आती हैं। नाटक के प्रथम अंक में ही सीता की स्तुति में अष्टावक्र ऋषि वशिष्ठ का संदेश कहते हैं

विश्वमभरा भगवती भवतीमसूत
राजा प्रजापति समो जनक : पिता ते।
तेषाम वधूस्त्वमसि नंदिनी ! पार्थिवानाम्
येषाम् कुलेष सविता चर गुरुर वयं च। । उत्तररामचरित 19

अर्थात भगवती पृथ्वी ने आप को जन्म दिया है ,ब्रह्मा जी के समान राजर्ष जनक आपके पिता हैं। हे सर्वगुण संपन्ने ! जिन राजाओं के कुल में भगवान सूर्य देव स्वयं वंश प्रवर्तक हैं तथा हम शिक्षक हैं, तुम उन राजाओं की पुत्रवधू हो।


ऋषि वशिष्ठ के संदेश के माध्यम से ही भवभूति ने सीता को गौरवशाली पुत्री एवं आदर्श कुलवधू के रूप में प्रस्तुत किया है। उत्तररामचरितम् में सीता का चरित्र एक आदर्श पत्नी व आदर्श सती के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। उनका शील एवं सदाचार विश्व साहित्य में विदित एवं प्रशंसनीय है। प्रजा पालक राम जब कहते हैं

स्नेहम् दयाम् च सौख्यं च , यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकानाम , मुंचतो नास्ति मैं व्यथा।।

सीता को छोड़ने की बात की स्वयं सीता ही प्रशंसा करती हुई कहती है

अतएव राघव कुल धुरंधर: आर्यपुत्र:

वास्तव में उदात्त चरिता सीता का आदर्श सतीत्व यहां दर्शनीय एवं अनुकरणीय है । यद्यपि नाटक में सीता के दुखमय अंश को ही चित्रित किया गया है किंतु सीता का चरित्र आग में तपे हुए स्वर्ण की तरह निखर कर विशुद्ध एवं उज्जवल रूप में प्रस्तुत हो सका है। देवराम प्रशंसा करते हुए कहते हैं

उत्पत्ति परिपूताया: किमस्या: पावनान्तरै: ।
तीर्थोदकम, च वहिनश्च नान्यत: शुद्धिमर्हत:।।

सीता की तुलना में अग्नि को भी अति तुच्छ मानती हुई अरुंधति कहती है


शिशुर्वा शिष्या वा यदसि मम तत्तिष्ठतु तथा।
विशुद्धेरुत्कर्ष : त्व यि तु, मम भक्ति दृढ़यति ।
शिशुत्व स्त्रैणम वा भवतु ननु वन्द्यासि जगताम ।
गुणा : पूजा स्थानम गुणीषु न च लिंगम न च वय :।।

अपने उच्च आदर्श गुणों के कारण वंदनीय देवी सीता के आदर्श सतीत्व व महान नारीत्व का चित्रांकन करने के साथ ही आचार्य भवभूति उनके गृहस्थ एवं सांसारिक नारी सुलभ कोमल हृदय की कठोर वेदना एवं विरह अनुभूति के अभिव्यक्ति कराने में भी सफल सिद्ध हुए है। भवभूति के काव्य में सीता के केवल शक्ति संपन्न रूप के ही दर्शन नहीं होते, बल्कि उनके पुत्री, पत्नी एवं मातृत्व--- यह तीनों ही सांसारिक रूप पूर्णरूपेण निखार उठे हैं। सीता पहले तो माता पिता के उमड़ते हुए वात्सल्य का विषय बनती है और बाद में राम जैसे पति की उदात्त प्रेयसी एवं परित्यक्ता बनकर अंत में मातृत्व का वरदान पाकर धन्य हो जाती है। यद्यपि त्याग और तपस्या में तपकर ही उनका चरित्र कंचन के समान निखर सका है तथापि समय-समय पर उनके अंतस की मूक वेदना अभिव्यक्त हो उठती है। जिसने उन्हें सांसारिक गृहस्थ की पृष्ठभूमि पर लाकर खड़ा कर दिया है। सीता के दारुण शोक की निरंतरता उनकी कोमल ह्रदय कुसुम को जलाती रही है । अपमान की कड़वी विशाग्नि ने प्रत्यक्षत: राम की ओर से उनके मन को पत्थर बना दिया है।


राम के राज धर्म के लिए चाहे सीता का निर्वासन कितना भी उचित क्यों ना दिखे , सीता की दृष्टि से वह एक घोर अधिक्षेप तथा अन्याय के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं था। उनके जैसी पति परायणा साध्वी पत्नी अपने ऊपर किए गए इस अन्याय का भले ही खुलकर विरोध ना करें, वह दूसरी बात है, किंतु उनके मन में उस महा अपमान की किंचित मात्र भी आग न सुलगती होगी, ऐसा सोचना मानव प्रकृति की स्वाभाविक वृत्तियो का निषेध करना है । सीता की परिस्थिति में रहकर कोई अलौकिक चरित्र या अ प्राकृत (अब नॉर्मल) मानव ही अपने भीतर और बाहर से संतुष्ट बैठा रह सकता है। भवभूति सीता के भारतीय नारीत्व के समग्र आदर्शों की रक्षा करते हुए भी उन्हें मानवीय धरातल पर लाते हैं और उनके सुख-दुख की वयक्तिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करते हैं। नाटककार ने अपने सारे नाटकीय प्रयोग सीता के दृष्टिकोण को सामने रखकर ही किए हैं, यही उसका परम उद्देश्य भी रहा है। अर्थात यहां छाया दृश्य में सीता के मानसिक क्षितिज का ही एक विशिष्ट दिशा में विकास दिखाया गया है। अत: राम यहां यदि स्वत : प्रकाशित स्थिर केंद्र है तो सीता उसी केंद्र के इर्द गिर्द चक्कर काटने वाली कोई वृत्त ,जो उस केंद्र के साथ अपना संतुलन बनाए रखने के लिए आदि से अंत तक गतिशील दिखाई देती है।

तृतीय अंक के जिस स्थान पर छाया सीता एवं राम को एकत्र दिखाया जाता है ,गवह नाटकीय एवं भावात्मक दृष्टि से भवभूति की एक विलक्षण सूझ कही जा सकती है। 12 वर्षों की लंबी वियोगअवधि के पश्चात राम एवं सीता का दो बार , दो अवसरों पर मिलन कराए जाता है--- पहला तृतीय अंक में तथा दूसरा और अंतिम मिलन सातवें अंक मैं । पहला मिलन वस्तुतः मिलन ना होकर एकपक्षीय दर्शन मात्र है क्योंकि राम तो अदृश्य सीता को देख नहीं पाते , हां सीता उन्हें अवश्य देखती हैं और एक बार तो दांपत्य प्रेम के तीव्र उफान मैं राम के साथ होने पर वे अपने को, क्षण मात्र के लिए ही सही, संसारणी सा अनुभव करने लग जाती हैं। उत्तररामचरित पृष्ठ 64 यह मिलन चाहे कितना भी अपूर्ण क्यों ना हो, नारी सुनो कोमल भावनाओं की संतुष्टि हेतु, सप्तम अंक के पूर्ण मिलन की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण भावपूर्ण, तुष्टि पूर्ण ,खनाटकीय तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी कलापूर्ण है। क्योंकि यह क्षणिक मिलन ही नारी सुलभ वेदना को शीतलता प्रदान कर मानसिक संतुष्टि दे सका है। इसी के माध्यम से सीता राम के अंतर्निहित प्रेम को अनुभूत करती हैं।

पंचवटी के सुपरिचित आंचलिक परिवेश मैं विरही राम के आकुल हृदय को सीता द्वारा अपनी अदृश्य उपस्थिति से आश्वस्त करना ही इस छाया अंक का प्रत्यक्ष प्रयोजन है, किंतु इस प्रयोजन के अंतस् में जाने पर वास्तविकता कुछ दूसरी ही दृष्टिगोचर होती है। जब से राम ने सीता का त्याग किया है, सीता अपने पति राम के कठोर व्यवहार को एक प्रश्न चिन्ह के रूप तोमें ग्रहण करती रही है । यदि उनके प्रति राम का प्रेम सच्चा होता , तो राम उन्हें निर्दोष जानकारी इतनी निष्ठुरता से निर्वासित नहीं करते---सीता के अंतर्मन में इस विश्वास में जड़ जमा ली है। कवि भवभूति , सांसारिक सीता के मन से संताप वह अधिक्षेप की इसी जड़ को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। अपनी सांसारिक पृष्ठभूमि में सीता तो अब तक यही सोचती रही है कि दुखों एवं वेदना की तेज आच मैं झुलसने वाली केवल वे ही है, राम तो उनका परित्याग करके प्रसन्न हो जीवन यापन कर रहे होंगे। अब यदि राम प्रत्यक्ष रूप से सीता को अपने दुख की बात कहते, तो ना तो यह व्यावहारिक होता और ना स्वयं सीता के मन पर इसका वांछित प्रभाव पड़ता । सीता ने अपमान के कड़वे घूट पिए हैं, उसके प्रकाश में अब उनके प्रति राम का कोई भी प्रत्यक्ष प्रणय निवेदन चाटुकारिता सा प्रतीत हो सकता था। इस संभावित भाव संकट से पति पत्नी राम सीता दोनों को ही बचाने के लिए ही कवि ने इस छाया---अंक का प्रयोग किया है।


पुष्प चयन के लिए पंचवटी में समागत सीता के कोमल नारी ह्रदय में मातृत्व भाव का संचरण करना भी महाकवि भवभूति की अनोखी विशेषता है। कवि की दृष्टि में संतान न केवल प्राणी स्नेह की चरम सीमा होती है बल्कि यह माता-पिता को परस्पर आबद्ध रखने वाला परम बंधन भी है। यह माता पिता के अंतरतम को जोड़ने वाली आनंद ग्रंथि है । उत्तररामचरित 3/17
इस परिवेश में देखने पर पंचवटी प्रविष्ट सीता के पति क्षुप्ब्ध ह्रदय पर संकटापन्न गज शावक के प्रति जो मातृ सुलभ करुणा जगाई जाती है उसका बड़ा ही अनुकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। स्वभावत : गज पोत के प्रति उमड़ा हुआ सीता का मातृ स्नेह अंततोगत्वा लव-कुश के प्रति प्रगाढ़ स्नेह मैं परिणत हो जाता है। (उत्तररामचरित पृष्ठ 63) उनके पुत्र स्नेह का यह परिणाम राम के विरुद्ध वर्षों पहले से जमे हुए उनके मानसिक विकारों को प्रक्षालित करने में एक विशिष्ट साधन बन जाता है, बल्कि वह अपने पति राम के सानिध्य के कारण अपने को क्षण मात्र के लिए संसारणी सी अनुभव करने लगते हैं। (उत्तररामचरित पृष्ठ 64) सीता के मन की गति, जब उन्हें खींचकर संसारणी की अवस्था तक पहुंचा देती है ,तो निश्चय ही इस अनुभूति का उनके विकृत चित्त्त पर बड़ा ही प्रशमन कारी प्रभाव पड़ता है--- राम अब न केवल सीता के पति मात्र हैं अपितु उनके दो बच्चों के पिता भी हैं। कौन ऐसी पत्नी होगी जो अपने प्यारे बच्चों के कोमल मुखड़े को अपने स्नेही पति द्वारा चूमे जाते हुए देख कर अपार प्रीति एवं हर्ष का बोध नहीं करेगी? किंतु पुत्रवती सीता को अभी यह सौभाग्य मिला कहां है? सीता की यह अतृप्त मधुर आकांक्षा उन्हें उनके पति की ओर आवेग पूर्वक खींचने में सक्षम होती है। इस प्रकार गजपोत का जो प्रसंग ऊपर ऊपर सामान्य सा प्रतीत होता है, वह अंततः सीता की उद्दीपित अंतः वृत्तियों को वहां तक मोड़ देता है, जहां वे संसारणी की मधुर अनुभूति में डूब जाती हैं। यहां भवभूति ने मात्तृ हृदय के मर्म को जितनी गहराई से पहचाना है तथा उसे जैसी भाषा प्रदान की है वैसा संपूर्ण संस्कृत साहित्य में कदाचित दूसरा कोई भी कवि नहीं कर पाया है।


इस प्रकार सीता के अंतर्मन में मातृ भाव का संचार करके तथा पुत्र संरक्षक राम की सजल स्मृतियों का दीप जलाकर, उनके नारी व पत्नी रूप के मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्पष्ट करने हेतु ,नाटककार नेपथ्य से राम की सहृदय वाणी को सीता के मृतप्राय कर्ण विवर मैं संप्रेषित करता है। राम की चिर परिचित गंभीर एवं मांसल ध्वनि जब सीता के मुरझाए कर्ण विवर में अपनी संजीवनी बिखेर देती है , तो सीता स्वभावत: ही अतिशय उत्कं त होकर अपनी सजल दृष्टि राम के दर्शन पथ पर बिछा देती है। जैसे ही उनकी उत्सुक दृष्टि राम पर जाती है, राम के अप्रत्याशित दुर्बल पीले शरीर को देखकर वे सन्न रह जाती हैं । सीता के मन में विश्वास और अविश्वास, प्रणय एवं आक्रोश के बीच संघर्ष होता है और देखते ही देखते प्रणय एवं विश्वास का तेज, अविश्वास व आक्रोश के अंधकार को पी जाता है, सीता मूर्छित हो जाती है। समाश्वस्त होने पर सीता पहली बार राम के मुख से उनकी अंतर्निहित दुखाग्नि के उद्ध म वेग की बात सुनती है )उत्तररामचरित 37) किंतु जब राम सीता के ही नाम का करुण जाप करते हुए उन्हीं के सामने अचेत हो जाते हैं, तो सीता के ह्रदय में अब तक बलात दबी हुई प्रणय की उद्दाम लहरें एक आकस्मिक ज्वार के रूप में उफन पडती है। वे अपने प्प्राणेश्वर की जीवन रक्षा के लिए दौड़ कर उनके शीतल ललाट का पुण्य स्पर्श करती हैं। इस स्पर्श तक सीता का मन पति की ओर से बहुत कुछ आश्वस्त हो चुका है---- एक वेद ना दूसरी वेदना से मिलकर सजल आल्हाद में परिणत हो जाती है। कौन ऐसी सहृदय पत्नी होगी जिसका कठिन से कठिन अभिमान भी पति के ऐसे स्निग्ध उदगारओ के सामने ढह नहीं जाएगा ? अभी तक उनके रोने के लिए मात्र अपने ही दुख वे, चिंता के लिए अपने ही करुण परिस्थितियां थी, अब दुख एवं चिंता के यह ही भाव ,दुखी पति राम के प्रति आद्र संवेदना में इस प्रकार अंतर भूत हो जाते हैं कि उनका सीतात्व उन्नयन होकर रामत्व बन जाता है।


अंततः हम कह सकते हैं कि आचार्य भवभूति के उत्तररामचरितम् के प्रारंभ में ही आद्यशक्ति सीता का गौरवान्वित रूप प्रस्तुत किया गया है वही तृतीय अंक तक आते-आते उनके गृहस्थ व सांसारिक रूप रूप के मनोवैज्ञानिक पक्ष को भी बखूबी प्रदर्शित किया गया है। सीता क्रमशः एक तटस्थ मूर्ति से करुणामयी नारी, करुणामयी नारी से शहर में पत्नी सहृदय पत्नी से स्नेह शीला जननी और स्नेह शीला जननी से गृहस्थ संसारणी के रूप में परिणत हो जाती है। नारी हृदय के विकास की विविध अवस्थाओं का इतना मनोवैज्ञानिक तथा कलात्मक चित्रण संपूर्ण विश्व वांग्मय की एक दुर्लभ देन है ।




इति