India - 4 in Hindi Poems by नन्दलाल सुथार राही books and stories PDF | भारत - 4

Featured Books
  • خواہش

    محبت کی چادر جوان کلیاں محبت کی چادر میں لپٹی ہوئی نکلی ہیں۔...

  • Akhir Kun

                  Hello dear readers please follow me on Instagr...

  • وقت

    وقت برف کا گھنا بادل جلد ہی منتشر ہو جائے گا۔ سورج یہاں نہیں...

  • افسوس باب 1

    افسوسپیش لفظ:زندگی کے سفر میں بعض لمحے ایسے آتے ہیں جو ایک پ...

  • کیا آپ جھانک رہے ہیں؟

    مجھے نہیں معلوم کیوں   پتہ نہیں ان دنوں حکومت کیوں پریش...

Categories
Share

भारत - 4

जय हिन्द

'भारत' काव्य संग्रह के अंतर्गत भाग तीन में भारत की सगुण भक्ति धारा के प्रमुख एवं भारत की सांस्कृतिक धारा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभु श्रीराम एवं श्री कृष्ण से सम्बंधित काव्य रचनाएं प्रस्तुत की गई थी और अब भारत काव्य संग्रह भाग चार के अंतर्गत प्रस्तुत है निर्गुण धारा की काव्य रचनाएं ।
आशा है आप पढ़ने के पश्चात उचित प्रोत्साहन के रूप में अपने अनमोल वाक्य द्वारा मेरे मनोबल में वृद्धि करेंगे।
इस भाग की पहली कविता और 'भारत' काव्य संग्रह के अंतर्गत नोवीं रचना 'तुम कौन हो?' है। जिसमें आत्म साक्षात्कार की बात कही गयी है।
भाग चार की दूसरी कविता "तुम्हें इक दिन तो जाना है" है । इसमें इस जगत में हमारे जन्म लेने एवं यहाँ से जाने की बात कही गयी है, इस जगत की रोशनी में हम ऐसे ही खोए रहते है और हमें एक दिन इस जगत से विदा लेना है ये हम भूल ही जाते है। वासना में डूबे हम स्वयं को भूल ही जाते है और यह भी कि एक दिन सिर्फ हमारे कर्म ही रह जाएंगे।

आशा है आप इन दोनों काव्य रचनाओं का रस के साथ आनन्द लेंगे एवं उचित प्रतिक्रिया देंगे जिससे प्रेरणा लेकर मैं इसका अगला भाग भी प्रकाशित कर सकूं।

- नन्दलाल सुथार"राही"





9

(तुम कौन हो?)

तुम कौन हो?

तुम कौन हो?
किया है कभी
प्रयास जानने का,
किया है कभी ,
स्वयं से प्रश्न कभी कि
तुम कौन हो?

गुम हो तुम
गुमशुदा
गुमराह हो
सदियों के तुम
हो महज वपूधारी ही।

जानो कैसे?
तुम कौन हो?
गुरु ही है जो
तुम को बतावें
पर गुरु से भी तुम
अंजान हो।

क्या राह है?
जाना कहां?
इसका तुम्हें है
बोध कहां।
तुम जान लो
इन जनम में
अगले जनम
का क्या पता?

तुम बून्द हो
सागर की एक,
सागर है ईश्वर
का रूप यहाँ,
तू हो विलीन
सागर में जब,
तब गहराई का
तुम्हे बोध हो।

आनंद है
जो सबसे बड़ा
न उससे तुम
वंचित रहो,
जाना नहीं
तुम्हें हिमालय
हृदय में अपने
ध्यान दो।

वो निराकार
सर्वव्याप है
हर कण में जो
आप्त है
न मंदिर में
न मस्जिद में
अपने हृदय के देश में।

वो है तुझमें
तू है उनमें
पर तुम अभी
अनजान हो
बातों से ना
मान लो
अनुभव से उसको
जान लो।

तुम जान लो
पहचान लो
तुम कौन हो?
तुम कौन हो?

नन्दलाल सुथार "राही"



(10)


(तुम्हें इक तो जाना है।)


जन्म जो लिया तुम्हें इक दिन तो जाना है

कोई ना तेरा नहीं कोई ठिकाना है

इस जगत की रोशनी में, तू क्यों खोया रहता है

बहती है गंगा, तुम्हें भी उसमें जाना है।


कर रहा क्या काम तू, जरा देख अपने आप को

सर्व का सम्मान कर , तू छोड़ अहंकार को

धन व बल से क्या मिलेगा, क्या पायेगा भगवान को

भक्ति की इक बूँद ले ले, जाएगा अभिमान तो।


वासना से ही ढका है, ज्ञान तो भीतर पड़ा है

तू भटकता फिर रहा है, मंदिरो में खोजता है

अब भी देख निज आत्मा को, क्यों देह के पीछे पड़ा

काया का है जलना, बस तेरा कर्म ही रह जाना है।


नन्दलाल सुथार"राही"