कलाकारों की अपनी ही दुनिया होती है। वे आम जनों की तरह पाना जीवन नहीं जीते हैं। मन में जो आ गया – सो आ गया। उसे बदलना आसान नहीं होता है। कितने कलाकारों के बारे में सुना है कि वे टूट गए मगर झुके नहीं। इसीलिए कलाकारों के सामने पुराने जमाने में राजे-महाराजे भी अदब से पेश आते हैं।
ऐसे ही एक कलाकार किशोर कुमार हुए हैं। वे अपने भाइयों समेत फ़िल्मी दुनिया में रहे। काफी नाम कमाया। मगर उनके बारे में यह प्रचलित है कि वे काफी सनकी थे। यदि किशोर कुमारजी ने किसी काम को मना कर दिया तो कर दिया। क्या मजाल कि उनसे वह काम करवा लिया जाए?
उनके बड़े भाई अशोक कुमार बाम्बे टॉकीज फिल्म निर्माण संस्था से बहुत पहले ही जुड़ चुके थे। किशोर कुमार की फ्लिमों में ‘शिकारी’ और ‘जिद्दी’ नामक फिल्म भी है। लेकिन उन्हें कामयाबी ‘चलती का नाम गाडी’ से मिली। फिल्म वास्तव में कमाल की है। शुरुआत में उन्होंने अभिनय में ही नाम कमाने की कोशिश की। मगर कामयबी नहीं मिली। बाद में गायन में प्रसिद्ध हुए।
कहते हैं कि आपातकाल के समय किशोर कुमार जी को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। वे आपातकाल के विरुद्ध थे। सरकार के लिए उन्होंने प्रचार नहीं किया। नतीजा उनके घर पर आयकर विभाग का छापा पड़ा। कुछ मिला तो नहीं लेकिन उनकी कुछ फिल्मे जब्त कर ली गयी। अब क्या फिल्मे थीं – यह तो नहीं पता? लेकिन जब्त जरुर कर ली गयीं। लेकिन किशोर कुमार नहीं झुके। तकलीफों को बर्दाश्त किया। आपातकाल का दौर भी चला गया।
किसी गृह सज्जा विशेषज्ञ को उन्होंने कश्मीर के डल झील को अपने घर के सामने बनाने का आर्डर दिया था। वह गृह सज्जा विशेषज्ञ अमेरिका से आया था। उनका प्रस्ताव सुनकर वह भाग गया।
अमेरिका से लौटा एक भारतीय व्यक्ति उनसे मिलने आया। उसने एक शब्द भी अपनी मातृभाषा बांग्ला में नहीं बोला। धाराप्रवाह अंग्रेजी झाड़ रहा था। किशोर अपने बगीचे में जाकर वृक्षों से बांग्ला भाषा में बात करते रहे।
एक बार निर्माता उनसे अपनी अधूरी फिल्म पूरी करवाना चाहता था। उसने कई लोगों से सिफारिश कराकर दबाव बनवाया। किशोर ने उससे अगले दिन स्टूडियो पहुंचने का वादा किया। वे अपना सिर मुंडवाकर स्टूडियो पहुंचे। दरअसल किशोर की इच्छा के विपरीत उनसे कुछ भी कराया नहीं जा सकता था।
कहा जाता है कि एक फिल्म की शूटिंग में तकनीशियनों ने उनसे कुछ मिनटों के ओवर टाइम का भी ज्यादा पैसा मांगा। फिर क्या था? सबक सिखाने के लिए एक आउटडोर शूटिंग की योजना बनायी गयी। तकनीशियनों को अग्रिम राशि दी गयी। तकनीशियन सब गदगद हो गए। अग्रिम राशि मिलने से कौन खुश नहीं होगा? योजना के अनुसार यूनिट की गाड़ी उन्हें सुबह दूर एक स्थान पर छोड़कर चली गई। किशोर कुमारजी वहां पहुंचे ही नहीं। कर्मचारी धूप में दिन भर भूखे-प्यासे बिलबिलाते रहे। शाम छह बजे यूनिट की गाड़ी उन्हें वापस लेने आई। लेकिन अब तो कुछ हो नहीं सकता था। उन्हें सबक सिखा दिया गया था।
बात सही भी है। कलाकारों का मूड कब बदल जाए – कोई नहीं कह सकता है। कला साधना है। अतः कलाकार साधक है। तपस्वी है। कलाकार का सम्मान तो होना ही चाहिए।