परिवर्तन ही यदि जीवन है
तो हम बढ़ते जाते हैं
किंतु मुझे तो सीधे सच्चे
पूर्व भाव ही भाते हैं।
मानव जीवन में परिवर्तन दो प्रकार का होता है। पहला वाहय भौतिक प्रगति से संबंधित परिवर्तन और दूसरा है वैचारिक परिवर्तन। वर्तमान में भौतिक प्रगति की होड़ में हम वैचारिक रूप से अधिक भौतिक स्वार्थ परक एवं संकुचित विचारों वाले होते जा रहे हैं। युवा पीढ़ी अपने संस्कार एवं संस्कृति की विशालता एवं गहनता से कोसों दूर हो चली है। भौतिक परिवर्तन जहां एक और हमें प्रगति विकास एवं उन्नति की ओर ले जा रहा है वहीं दूसरी ओर उसके सदृश्य होने वाले वैचारिक परिवर्तन हमें अपनी संस्कृति एवं संस्कारों से दूर ले जाकर संवेदनहीन चारित्रिक गुणों से रहित तथा मानवीय जीवन मूल्यों से रिक्त कर मानव को भी यंत्र वत बना रहे हैं
जिस प्रकार विशाल अट्टालिका की भव्यता उसकी नीव की गहराइयों में ही छिपी रहती है ,जिस प्रकार किसी वृक्ष का पुष्पन एवं पल्लवन उसकी जड़ की दृढ़ता व उसकी मिट्टी में ही समाहित होता है, इसी प्रकार मानव अथवा किसी राष्ट्र की उन्नति ,भौतिक विकास व प्रगति का सौंदर्य भी ,उसके नागरिकों के जीवन मूल्यों व उन्नत वैचारिक परंपरा की चमक से ही शोभा पाता है। यदि हम राष्ट्र की प्रगति चाहते हैं, उसके भविष्य को उन्नत बनाना चाहते हैं तो निश्चित ही हमें अपनी वैदिक संस्कृति के झरोखे में झांकना होगा। आज की युवा पीढ़ी को चारित्रिक गुणों व जीवन मूल्यों से संपन्न बनाना होगा।
हम सभी जानते हैं कि शिक्षक की सबसे बड़ा राष्ट्र निर्माता है जो कक्षाओं में राष्ट्र के भविष्य को गढ़ता है ,उसका सृजन करता है। वैसे तो शिक्षक समाज का एकमात्र ऐसा प्राणी है जिस पर संपूर्ण समाज की अपेक्षा टिकी होती है। विद्वता, बुद्धिमत्ता, शिष्टता, धैर्य, सहनशीलता, दया, परोपकार , चारित्रिक उन्नयन ,सामाजिक सुधार, क्षमा, उदारता आदि अनेक गुणों की शिक्षक सेविका की जाती है और जो सच्चे अर्थों में शिक्षक हैं ऐसे हजारों महान व्यक्तित्व अपने अंदर इन गुणों को समाहित करने का प्रयास भी करते हैं। परंतु श्रेष्ठतम खुशबू को भी यदि बंद करके रखा जाए तो उसकी उपयोगिता नगण्य हो जाती है। अतः आज शिक्षक को अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा वर्तमान समाज में गिरते हौऐ मूल्यों को ध्यान में रखते हुए आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है शिक्षक स्वयं अपने चरित्र को सु दृढ़ बनाऐ एवं उन जीवन मूल्यों का स्वयं पालन करते हुए राष्ट्र की भावी पीढ़ी को भी उन जीवन मूल्यों के महत्व से अवगत कराते हुए उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकें । कहा भी गया है कि---
"शिक्षक चाहे जितना भी ज्ञानी हो और चाहे जितना शिक्षण कला में प्रवीण हो किंतु यदि वह चरित्रवान एवं जीवन मूल्यों से परिपूर्ण नहीं है तो वहां एक अच्छा शिक्षक नहीं हो सकता।"
भारतवर्ष के वैदिक युग मैं उपर्युक्त गुणों से संपन्न व्यक्ति को गुरु जैसे उच्च नाम से संबोधित किया जाता था । विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला भारत उस समय अपने गुरु परंपरा से संपन्न था उसमें संपूर्ण विश्व के उत्थान की क्षमता विद्यमान थी गुरु शब्द की व्याख्या तंत्र सार में कुछ इस प्रकार की गई है
गकार : सिद्धद: प्रोक्तो रेफ: पापस्य हांरक :
उकारो विष्णु: अव्यक्त: त्रितयात्मा गुरु पर: ।
गुरु शब्द का "ग" अक्षर सिद्धि दायक कहा गया है "र" पाप का हरण करने वाला है और "उ"अव्यक्त विष्णु है इन तीन अक्षरों से मिलकर बना है--- गुरु शब्द। वास्तव में गुरु की महिमा अपार है उसके महत्व को वर्णन किया जाना संभव नहीं है इसीलिए कहा गया है
धरती सब कागद करूं लेखनी सब बन राय ।
सात समुद्र की मसि करूं गुरु गुण लिखा न जाए ।
सच ही कहा है
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्य कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते ।
ऐसे गुरुओं के सानिध्य में रहकर ही अनेक उत्तम कोटि के शिष्यों ने श्रद्धावान होकर गुरु शिष्य परंपरा का लाभ प्राप्त किया वैदिक ग्रंथों में महर्षि व्यास , पाराशर और विश्वामित्र जैसे तथा उपनिषद ग्रंथों में श्वेतकेतु ,नचिकेता, मैत्रेयी तथा पौराणिक ग्रंथों में ध्रुव ,प्रहलाद एकलव्य जैसे अनेकों शिष्यों ने श्रद्धावान होकर ही अपने गुरुओं से अनेक सिद्धियां विभिन्न प्रकार की विद्या तथा ज्ञान की प्राप्ति की ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी गुरु के महत्व को स्वीकार किया है उन्होंने कहा है
बिन गुरु होए न ज्ञान
परंतु श्रद्धावान शिष्य ही गुरु से ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी होता है श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है
"
"श्रद्धावान लभते ज्ञानम"
और इस आदर्श को श्री राम के चरित्र में भी देखा जा सकता है संपूर्ण जगत के स्वामी होने पर भी ,गुरु के प्रति श्रद्धा वान दिखाई देते हैं
गुरु ते पहले जगतपति जागे राम सुजान
हमारे शास्त्र ग्रंथों में कहा गया है कि
अभिवादन शीलस्य नित्यम, वृद्धोंपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्धनते आयु विद्या यशो बलम
मनुस्मृति 2/121
मनुस्मृति में यह भी कहा गया है कि केवल शास्त्रीय ज्ञान से परिचित करा देना है गुरु का कर्तव्य नहीं है अपितु उन उदात्त प्रवृत्तियों को जीवन के सांचे में ढालने की श्रद्धा भी उनमें पैदा कर दे जिससे ज्ञान और क्रिया का सयोग हो जाए क्योंकि क्रिया के बिना ज्ञान तो भार स्वरूप है । श्री जयशंकर प्रसाद जी ने भी कामायनी में इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है
इच्छा पूरी क्यों हो मन की
दोनों मिलकर एक न हो सके
यही विडंबना है जीवन की
ऐसा श्रेष्ठ गुरु जो समाज में अपना स्थान बना पाता है कालिदास ने उन्हें "सुतीर्थ" की संज्ञा दी है जिसका शास्त्र ज्ञान केवल जीवन निर्वाह के लिए है वह तो ज्ञान बेचने वाला वणिक ही कहा जाएगा।
समय और समाज दोनों ही परिवर्तनशील है दोनों ही परिवर्तनों के अनुरूप वैदिक काल से वर्तमान तक निरंतर गुरु की गरिमा वह स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है । गुरु से शिक्षक तक की यह यात्रा को संक्षिप्त रूप में हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं
1 वैदिक काल में
इस युग में गुरु उच्च ज्ञान से परिपूर्ण शुद्ध आचरण वाला वाणी में सत्य और निष्ठा का पालन करने वाला उदात्त चरित्र वाला अज्ञान को नष्ट करने वाला प्रकाश व आनंद के दाता के रूप में देखा जा सकता है।
2 उपनिषद काल
इस युग में गुरु शिक्षक प्रक्रिया में दक्ष पांडित्य, पूर्ण विभिन्न शास्त्रों का ज्ञाता; उच्च चरित्र वाला सुसंस्कृत जीवन यापन करने वाला तथा शिष्य को उत्साहित एवं प्रेरणा प्रदान करने वाला बताया गया है।
3 पुराण काल
इस युग में गुरु समस्त पुराण एवं ब्राह्मण ग्रंथों का ज्ञाता धर्म वान सत्यवादी कर्तव्य परायण होने के साथ ही शिष्यों की मूल प्रवृत्तियों का परिष्कार कर्ता तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अनुरूप शिक्षण विधि व शिक्षण सामग्री का प्रयोग करने वाला भी होता था
4 ))बौद्ध काल
इस काल में गुरु का स्थान उपाध्याय व आचार्यों ने ग्रहण कर लिया था वह शिष्यों को जीवन की पूर्णता प्राप्ति में सहायक होते थे तथा गुरु शिष्य के बीच में पिता पुत्र संबंध वत व्यवहार रहता था।
5 मध्यकाल
मध्यकाल तक आते-आते गुरु का स्थान शिक्षक ग्रहण कर चुका था वह मात्र ज्ञानदाता के रूप में आ चुका था अनुशासन भी दंडात्मक रूप धारण कर चुका था।
6 आधुनिक काल
इस युग में विभिन्न वादों का प्रादुर्भाव हुआ जिन मैं प्रमुख वाद है
प्रकृतिवाद----- इसमें शिक्षक बालक के लिए सीखने की परिस्थितियों को निर्मित करने वाला तथा सीखने में सहायक के रूप में सामने आया ।
आदर्शवाद----- इसके अनुसार शिक्षक एक आदर्श व्यक्तित्व वाला तथा छात्रों के लिए पथ आलोकित करने वाला सिद्ध हुआ
प्रयोजनवाद----- इसमें वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग कर सत्यान्वेषण कर्ता के रूप में शिक्षक की भूमिका रही
यथार्थवाद -----इसमें छात्रों को जीवन की वास्तविकता से अवगत कराना तथा जीवन की व्यवहारिक शिक्षा देने का काम शिक्षक द्वारा किया जाने लगा
राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस नीति के द्वारा शिक्षक को एक उत्तम मार्गदर्शक अच्छा अभिप्रेरण कर्ता तथा बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक बताया गया ।
गुरु से शिक्षक तक की इस यात्रा मैं प्रत्येक अवस्था में योग्य शिक्षकों को अपने अधिकार एवं कर्तव्य के प्रति जागरूक रहना आवश्यक है यदि उत्तम गुणों को धारण करना शिक्षकों का अधिकार है तो उन गुणों को शिक्षण प्रक्रिया को सफल बनाने हेतु क्रियान्वित करना उसका कर्तव्य है। शिक्षक के कुछ महत्वपूर्ण कर्तव्य इस प्रकार इंगित किए जा सकते हैं
1 छात्रों की नैसर्गिक प्रवृत्तियों एवं क्षमताओं पर ध्यान देना
2 छात्रों के साथ मित्रवत व्यवहार करना
3: मनोवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करना
4 सीखने सिखाने हेतु उचित वातावरण निर्मित करना
5 छात्रों को अभिप्रेरित करना
6 मार्गदर्शन प्रदान करना
7 उपचारात्मक शिक्षण करना
8 योजनाबद्ध शिक्षण करना
9 ज्ञानेंद्रियों का प्रशिक्षण समवेग का प्रशिक्षण आदि
शिक्षक शब्द को इस रूप में भी देखा जा सकता है
शि ----शिष्टता। क्ष---क्षमता क्षमा। क----कर्तव्य परायणता आदि
शिक्षक में छात्रों का मनोविज्ञान अर्थात उनकी मानसिक योग्यता को पहचानने की क्षमता होना उसका एक अनिवार्य गुण होना चाहिए। गुरु से शिक्षक तक की इस यात्रा में अनेक परिवर्तन व पड़ाव आना स्वाभाविक था परंतु आज हम जिस भी स्थिति में हैं हमें पुनः जागरूक होने की आवश्यकता है
वर्तमान समाज में व्याप्त अनैतिकता, दुराचार ,भ्रष्टाचार, आतंक ,चारित्रिक हीनता आदि अनेक कुरीतियों को समाप्त करना चाहते हैं तो निश्चित ही हमें अपनी संस्कृति एवं संस्कारों का दर्पण युवा पीढ़ी को दिखाना ही होगा जिससे वहां यंत्रवत बनाने वाले नकारात्मक विचारों में पुनः परिवर्तन कर ,मानव से देवत्व की ओर ले जाने वाली संस्कृति व संस्कारों से अवगत करा कर उनमें मानवीय मूल्यों का समावेश कर सकें और इन सब के लिए एक ही ब्रह्मास्त्र है वह है शिक्षक और शिक्षा द्वारा जागरूकता। श्री जयशंकर प्रसाद के शब्दों में
जगे हम लगे जगाने विश्व
लोक में फैला फिर आलोक
अतः आज शिक्षक को अपने अंदर इन जीवन मूल्यों को समाहित कर स्वयं इतना प्रकाशमान हो जाना चाहिए जिससे उसके प्रकाश से आसपास का वातावरण स्वयं ही सुधर कर प्रकाशमान हो सके और तभी शिक्षक गर्व से यह सकेंगे
अंधेरा कभी आपको घेर लें
वार लेना हमें तम निगल जाएंगे
भोर की हम पहली किरण तो नहीं
हम दिए हैं अंधेरे में काम आएंगे।
जय हिंद