TRIDHA - 13 in Hindi Fiction Stories by आयुषी सिंह books and stories PDF | त्रिधा - 13

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त्रिधा - 13

शाम को त्रिधा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपने हॉस्टल के लिए लौट रही थी कि तभी उसने कुछ ऐसा देखा जिसे देखकर वह हैरान रह गई। दरअसल त्रिधा ने वर्षा को मेन मार्केट में मजे से शॉपिंग करते हुए देख लिया था और यही देखकर वह हैरान रह गई थी। उसे याद आया प्रभात कह रहा था कि वर्षा का एक्सीडेंट हुआ है और उसे चोटें आई थी, वह उसे हॉस्पिटल में मिली थी मगर यहां तो वर्षा बिल्कुल ठीक लग रही थी, कहीं किसी चोट का कोई नामो निशान तक नहीं था। त्रिधा ने तुरंत अपना मोबाइल निकाला और उसमें वर्षा के फोटोज़ क्लिक कर लिए। अब त्रिधा के पास भी एक सबूत था जिसे दिखाकर वह प्रभात और संध्या के सामने अपनी बात सही साबित कर सकती थी साथ ही वर्षा नाम की इस मुसीबत से उन दोनों को समय रहते बचा सकती थी।

त्रिधा जल्दी जल्दी अपने हॉस्टल आ गई। उसने आते ही हर्षवर्धन को कॉल किया और बोली - "मुझे तुमसे मिलना है हर्ष।"

हर्षवर्धन भी त्रिधा से मिलकर उससे कुछ जरूरी बात करना चाहता था इसीलिए उसने भी तुरंत हां कह दिया।

लगभग एक घंटे बाद त्रिधा और हर्षवर्धन झील के किनारे खड़े हुए थे। त्रिधा के आते ही हर्षवर्धन उससे बोला - "अच्छा हुआ त्रिधा तुमने खुद मुझे बुलाया दरअसल मुझे भी तुमसे मिलकर एक बहुत जरूरी बात कहनी थी।"

हर्षवर्धन की बात सुनकर त्रिधा ने हैरानी से हर्षवर्धन को देखा और बोली - "तुम्हें मुझसे क्या जरूरी बात कहनी है?"

हर्षवर्धन जो बोलने वाला था उसके लिए उसे बहुत हिम्मत जुटानी थी, काफी देर बाद हर्षवर्धन बोला - "त्रिधा तुम्हें आज मुझे सच बताना ही होगा कि क्यों तुम मुझसे दूर भागती हो। कल पूरा दिन तुम्हारे साथ रहकर मैंने जाना कि मेरे साथ कितनी खुश रहती हो तुम। तो फिर क्यों अपनी खुशियों से दूर भाग रही हो त्रिधा? जो दुख प्रभात और संध्या से दूर रहकर तुम महसूस कर रही हो, वही दुख तुम मुझे, अपने प्यार को क्यों दे रही हो त्रिधा?"

हर्षवर्धन की बात सुनकर त्रिधा ने गुस्से से उसे देखा और बोली - "तुम्हारे लिए अपने आप से ज्यादा जरूरी और कोई नहीं है न हर्षवर्धन राठौर! तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझ पर क्या बीत रही है, तुम्हें बस अपनी ही पड़ी है, सिर्फ अपनी खुशी, अपना दुख मगर मेरा क्या!"

त्रिधा को इतने गुस्से में देखकर हर्षवर्धन चुप चाप उसे देखता रहा इस इंतजार में कि शायद त्रिधा आगे कुछ बोले मगर वह कुछ नहीं बोली तब हर्षवर्धन शांत स्वर में, बिल्कुल धीरे से बोला - "अपनी तो तुम्हें भी पड़ी है न त्रिधा तुमने एक बार भी मेरे बारे में नहीं सोचा और अपना फैसला ले लिया कि तुम्हें मुझसे दूर जाना है। पिछले छह महीनों से तुम्हारे साथ हूं, तुम्हारी हर परेशानी सुनता हूं, अपनी पूरी कोशिश करता हूं कि मेरे होते हुए तुम्हें कोई परेशानी न हो और क्या सबूत चाहिए तुम्हें मेरे प्यार का?" हर्षवर्धन ने त्रिधा के दोनों हाथ पकड़ लिए और उसकी आंखों में देखते हुए बोला - "मैं स्वार्थी नहीं हूं त्रिधा, पिछले आठ महीनों से तुम्हारे और तुम्हारे दोस्तों के बीच की परेशानियां दूर करने की कोशिश कर रहा हूं इस बीच अपने और तुम्हारे रिश्ते के बारे में कभी सोचा भी नहीं क्योंकि तुम बहुत परेशान थीं सोचता था जब सब ठीक हो जायेगा तब तुमसे हमारे बारे में बात करूंगा मगर न जाने कब तक सब ठीक होगा त्रिधा। मैं भी तो इंसान ही हूं न! नहीं रह सकता मैं अपने प्यार से दूर तो अब क्या करूं! हम साथ होकर भी तो इन उलझनों से लड़ सकते हैं न त्रिधा, क्या हमारा दूर होना जरूरी है?"

त्रिधा ने एकदम शांत रहकर हर्षवर्धन की बात सुनी। फिर वह बोली - "मैं जानती हूं हर्षवर्धन तुम मुझसे दो साल से प्यार करते हो, दो साल से मेरा इंतजार कर रहे हो, तुम भी इंसान हो, तुम्हारी भी भावनाएं हैं, कुछ उम्मीदें हैं मगर मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं, जानते हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे पापा यहां के सबसे बड़े बिजनेसमैन हैं, एक नाम है उनका यहां मगर मेरा कोई नहीं है, अगर कॉलेज से स्कॉलरशिप नहीं मिली होती तो शायद मेरी पढ़ाई भी छूट चुकी होती। आज बारह सौ रुपए कमाने के लिए मैं इतनी दूर तक आकर बच्चों को पढ़ाती हूं ताकि पढ़ाई के अलावा के अपने खर्चे उठा सकूं। तुम्हारी पॉकेट मनी भी मेरे एक महीने की कमाई से ज्यादा होगी, अब तुम बताओ क्या मेल है हमारा? क्या तुम्हारे मम्मी पापा के कोई सपने नहीं होंगे अपने इकलौते बेटे की पत्नी के बारे में? मैं कहीं से भी तुम्हारे या तुम्हारे परिवार के लायक नहीं हूं हर्ष। अभी उतने आगे नहीं बढ़ हैं हम कि एक दूसरे को भूल न पाएं और मेरी बात मानो एक दूसरे को भूल जाना ही ठीक है हम दोनों के लिए।"

त्रिधा की बात सुनते ही हर्षवर्धन बोला - "तुम पागल हो क्या त्रिधा तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया कि हमारे परिवारों के बीच का अंतर हमारे बीच दूरी ले आएगा?" यह कहते हुए हर्षवर्धन ने त्रिधा के हाथ ज़ोर से झिटक दिए जिससे त्रिधा के हाथ से उसका मोबाइल छूट गया और झील में गिर गया। त्रिधा ने गुस्से में हर्षवर्धन के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। त्रिधा हर्षवर्धन पर चिल्लाती हुई बोली - "उसमें फोटोज़ थे वर्षा के! ये क्या किया तुमने हर्ष!"

हर्षवर्धन बिना कुछ कहे वहां से चला गया। त्रिधा कभी वहां से जाते हुए हर्षवर्ध को देखती तो कभी झील के पानी को जिसमें अभी अभी उसका मोबाइल डूब गया था और साथ ही डूब गया था वह सबूत भी जो उसे उसके दोस्तों के सामने सही साबित करता।

त्रिधा मायूस होकर हॉस्टल लौट रही थी। उसे अंदर ही अंदर बहुत घबराहट महसूस हो रही थी। उसे लग रहा था उसके दोस्त तो उससे पहले ही दूर हो चुके थे, आज हर्षवर्धन को भी उसने खुद से दूर कर लिया था। त्रिधा जब वापस हॉस्टल लौट रही थी तो उसे महसूस हो रहा था कि आज जैसे वह हॉस्टल के रास्ते पर अकेली चल रही है ठीक वैसे ही शायद वह जीवन में भी अकेली ही चल रही है, सब तो खो दिया उसने, उसके दोस्त, उसका प्यार सब कुछ!

त्रिधा चुपचाप हॉस्टल के अपने कमरे में आकर बैठ गई। न जाने कितने ही घंटों तक वह आज रोती रही। उसे भोपाल आने के बाद का अपना पहला दिन याद आ गया था। उस दिन भी तो वह हॉस्टल के अपने कमरे में बैठकर ऐसे ही घंटों तक रोती रही थी, अपने अंदर दबे हुए सारे दर्द को उसने आंसुओं के सहारे ही तो बाहर निकाला था, ठीक वैसे ही आज भी त्रिधा अपने आंसुओं के द्वारा अपने मन में भरे हुए दर्द को बाहर निकाल रही थी। त्रिधा सोच रहे थे भगवान सब चिंता है तो सब कुछ एक झटके में छीन लेता है और जब देता है तब भी एक झटके में जो देता है मुझे फिर से वापस उन सब को क्यों छीन लेता है वह रोते रोते ही ऊपर की ओर देखते हुए बोली - "मेरे पास मेरा अपना कहने के लिए कोई भी नहीं था, तब आपने ही मुझे प्रभात, संध्या और हर्षवर्धन से मिलवाया था तो अब आपने ही मुझे उन सब से दूर क्यों कर दिया? क्या इतनी बुरी हूं मैं कि पहले मम्मा पापा, फिर संध्या और प्रभात, फिर माया और अब हर्षवर्धन एक-एक कर सभी मुझसे दूर चले गए!" इतना कहकर त्रिधा फूट-फूट कर रोने लगी।

हर्षवर्धन ने अपने कमरे का सारा सामान बिखेर लिया था और खुद उस के बीच में बैठा हुआ था। तभी उसकी मम्मी दीया जी वहां आईं और उसे ऐसे देखकर घबरा गईं।

वे तुरंत उसके पास बैठ गईं और उसके सिर पर हाथ रखकर पूछने लगीं - "क्या हुआ हर्ष? तुम इतने परेशान क्यों हो बेटा? और यह अपने कमरे की क्या हालत बना ली है तुमने?" हर्षवर्धन ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे चुप देखकर दीया जी बोलीं - "कुछ तो बोलो हर्ष बेटा आखिर हुआ क्या है?"

काफी देर तक शून्य में देखते रहने के बाद हर्षवर्धन ने अपनी मम्मा को देखते हुए बोला कहां अपनी मां को देखते हुए कहा - "मॉम त्रिधा मुझसे बहुत प्यार करती है मगर उसे लगता है कि इस शहर में पापा का रुतबा देखते हुए वह हमारे घर की बहू बनने के लायक नहीं है। उसने हम दोनों के प्यार को ही धन दौलत की तराजू में तोल कर रख दिया है। मेरा उससे प्यार कभी उसके धन दौलत या उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखकर था ही नहीं मॉम! मगर उसने तो हम दोनों के बीच ही धन दौलत की बनी एक दीवार खड़ी कर दी है। उस दीवार को मैं कैसे तोड़ पाऊंगा मॉम!"

दीया जी ने हर्षवर्धन का सिर अपनी गोद में रख लिया और कहने लगी - "चिंता मत करो हर्ष बेटा जब त्रिधा भी तुमसे प्यार करती है तो तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत ही नहीं है। तुम्हारा प्यार एक न एक दिन उसे तुम्हारे पास ले ही आएगा मगर इस सब में तुम्हें बहुत सब्र से काम लेना होगा क्योंकि उस बच्ची ने जो कुछ भी देखा है उसके बाद वह हर इंसान से, हर रिश्ते से डरने लगी होगी। तुम्हें उसके साथ बहुत सब्र से काम लेना होगा, उसे खुश रखने की कोशिश करनी चाहिए तुम्हें, तभी तो उसे एहसास होगा कि तुम उससे कितना प्यार करते हो और अगर तुम उससे बार-बार अपना प्यार पाने की जिद करते रहोगे तो तुम उसे पाओगे नहीं बल्कि खुद उसे अपने आप से बहुत दूर कर दोगे। तो अब समझदारी से काम लो बेटा, त्रिधा भी तुमसे प्यार करती है बस उसे थोड़ा वक्त दो सब ठीक हो जाएगा।" अपनी मॉम की बातें सुनकर हर्षवर्धन को थोड़ा सुकून मिला और वह उन्हीं की गोद में सिर रख कर सो गया।

दूसरी ओर, त्रिधा अपने रूम में बैठी कॉफी पी रही थी और साथ ही अपने दिमाग में एक नई योजना बना रही थी वर्षा का सच सामने लाने की। त्रिधा ने सोचा कल कॉलेज जाकर वह हर्षवर्धन से भी अपने व्यवहार के लिए माफी मांग लेगी।

****

अगले दिन त्रिधा सुबह जल्दी उठ गई। सुबह फटाफट नाश्ता करने के बाद वह तैयार हुई और कॉलेज के लिए निकल गई। रास्ते में त्रिधा को लगा कि कोई उसे आवाज दे रहा है, जब त्रिधा ने पीछे पलटकर देखा तो प्रभात था। वह मुस्कुराते हुए उसके पास आया और हमेशा की तरह उसके सिर पर थपकी देते हुए बोला - "क्या सुनाई देना बंद हो गया है कितनी आवाजें दे रहा था मैं।"

"ध्यान नहीं था मेरा।" कहकर त्रिधा आगे चलने लगी, प्रभात भी उसके साथ ही चल दिया। कॉलेज इन दोनों के घर और हॉस्टल से ज्यादा दूर नहीं था इसीलिए ये दोनों अक्सर चलकर ही जाते थे।

कॉलेज पहुंचकर त्रिधा प्रभात से बोली - "तुम क्लास में जाओ प्रभात मैं थोड़ी देर में आती हूं।"

प्रभात कुटिल मुस्कुराहट के साथ बोला - "हां तू हर्ष से मिलकर आ।" और इतना कहकर प्रभात हंसता हुआ वहां से भाग गया, त्रिधा मुस्कुराती हुई उसे देख रही थी। बहुत समय बाद उसे उन दोनों के बीच सबकुछ पहले जैसा लग रहा था। वह हर्षवर्धन का इंतजार करने लगी, हर्षवर्धन अक्सर लेक्चर शुरू होने से कुछ ही देर पहले कॉलेज आता था। काफी देर तक भी जब वह नहीं आया तो त्रिधा ने उसे कॉल किया मगर उसका मोबाइल स्विच्ड ऑफ था। त्रिधा उदास होकर क्लास में चली गई। प्रभात और संध्या दोनों के पास आकर बैठ गई त्रिधा। वे उसे गौर से देख रहे थे तो उसने अपनी बुक एक एक कर दोनों के सिर पर दे मारी यह कहते हुए कि "एलियन तो हूं नहीं मैं।"

संध्या त्रिधा के गाल खींचती हुई बोली - "आज मूड ठीक कैसे है तुम्हारा नकचढ़ी गधी?"

त्रिधा मन ही मन कुछ सोच कर मुस्कुराने लगी मगर प्रत्यक्षतः उसने बस इतना ही कहा - "कुछ नहीं बस ऐसे ही।"

प्रभात और संध्या हैरान थे मगर उन्होंने कुछ कहा नहीं। इधर त्रिधा हर्षवर्धन का इंतजार कर रही थी कि कब हर्षवर्धन कॉलेज आए और वह उससे बात कर सके, अपने किए की माफी मांग सके। त्रिधा ने कभी किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया था जैसा उसने हर्षवर्धन के साथ किया।

ब्रेक के समय प्रभात और संध्या कैंटीन चले गए। त्रिधा क्लास रूम में ही बैठी रही उसे पता था वहां वे लोग वर्षा से मिलेंगे और उससे वह देखा नहीं जायेगा। त्रिधा ने एक बार फिर हर्षवर्धन को कॉल लगाया मगर अब भी उसका मोबाइल स्विच्ड ऑफ ही था। परेशान होकर त्रिधा कैंटीन में चली गई अब उसे अपने प्लान पर काम करना था।

जैसी की उम्मीद थी संध्या और प्रभात, वर्षा के साथ ही बैठे हुए थे। त्रिधा ने देखा वर्षा के दोनों हाथों पर मोटी मोटी पट्टियां बंधी हुई थीं और यह देखकर उसने अपनी मुट्ठियां भींच लीं। वह मन ही मन सोचने लगी कल तक जो वर्षा एकदम ठीक थी आज हाथों पर पट्टियां बांधे बैठी है। त्रिधा तेज़ कदमों से चलती हुई वर्षा के सामने आकर खड़ी हो गई। त्रिधा के चेहरे को देखकर प्रभात और संध्या समझ गए कि त्रिधा फिर से गुस्से में है। हर्षवर्धन भी तभी कॉलेज आया था और सबको कैंटीन में देखकर वह भी वहीं आ गया। त्रिधा गुस्से से वर्षा को घूर रही थी। प्रभात ने आगे बढ़कर त्रिधा को शांत करने की कोशिश की मगर त्रिधा ने अपने हाथ के इशारे से प्रभात को वहीं रोक दिया और वह वापस वर्षा की तरफ आगे बढ़ी।

त्रिधा गुस्से से वर्षा को घूर रही थी। प्रभात ने आगे बढ़कर त्रिधा को शांत करने की कोशिश की मगर त्रिधा ने अपने हाथ के इशारे से प्रभात को वहीं रोक दिया, वह वापस वर्षा की तरफ आगे बढ़ी और उसके हाथों में बंधीं दोनों पट्टियों को एक झटके में खींचते हुए खोल दिया, वर्षा दर्द से चीख पड़ी। त्रिधा वर्षा के हाथों को देखकर हैरान रह गई, कल तक तो उसे कोई चोट नहीं थी पर आज इतने गहरे ज़ख्म कैसे लगे उसे! वर्षा दर्द से चीखती हुई वहीं एक तरफ बैठ गई। प्रभात ने त्रिधा का हाथ पकड़कर उसका चेहरा अपनी ओर किया और उसके गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। प्रभात त्रिधा को देखते हुए गुस्से में बोला - "अब तक तुम्हारा हमें खो देने का डर समझता था मैं तुम्हारी इन हरकतों को... मगर इतनी कैसे गिर सकती हो तुम कि वर्षा से अपनी जलन ऐसे निकाली तुमने! मैंने कहा था न उसका एक्सीडेंट हुआ है उसे चोट लगी है, तुमने जानबूझ कर ये किया त्रिधा! आज मुझे शर्म आ रही है तुम्हें अपनी दोस्त कहते हुए।" त्रिधा आंखों में आसूं भरे प्रभात को देख रही थी। संध्या, वर्षा के पास जाकर उसके हाथों पर पट्टी बांधने लगी। संध्या और प्रभात वर्षा को लेकर वहां से जाने लगे तभी उनकी मैडम वहां आ गईं। उन्हें देखकर प्रभात त्रिधा के पास आकर बोला - "अभी का तुम्हारा कारनामा अगर मैडम को बताऊंगा तो तुम्हारी स्कॉलरशिप का क्या होगा तुम बखूबी जानती हो।" इतना कहकर प्रभात और संध्या वर्षा को लेकर चले गए।

हर्षवर्धन और त्रिधा वहीं खड़े रह गए। उन दोनों को जाते देखकर त्रिधा वहीं धम्म से फर्श पर गिर पड़ी। हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर उसे उठाया, कैंटीन में पड़ी चेयर पर बैठाया और अपनी कार लेने चला गया। वापस आकर उसने त्रिधा से चलने के लिए कहा तो त्रिधा चुपचाप उसके साथ चल दी।

हर्षवर्धन और त्रिधा दोनों झील के पास खड़े थे। हर्षवर्धन काफी देर तक त्रिधा को देखता रहा और त्रिधा चुपचाप आंसू बहाते हुए झील के पानी को देख रही थी। हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर त्रिधा को गले लगा लिया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। आज त्रिधा भी बिना किसी संकोच के बहुत देर तक हर्षवर्धन के गले लगी रही। त्रिधा के आंसू पोंछ कर हर्षवर्धन ने उसे पास ही पड़ी एक बेंच पर बैठा दिया और खुद उसके सामने जमीन पर बैठ गया। त्रिधा के हाथों को अपने हाथ में लेकर हर्षवर्धन बोला - "मेरी गलती है त्रिधा। मुझे माफ कर दो।"

त्रिधा ने हैरानी से हर्षवर्धन को देखा तब वह बोला - "आज सुबह वर्षा के साथ था मैं। उससे बात करने की कोशिश की मैंने कि वह हम सब दोस्तों के बीच ये गलतफहमियां नहीं बढ़ाए मगर उसने स्पष्ट कह दिया कि वह तुमसे, मुझे और उसके ब्वॉयफ्रेंड को छीनने का बदला लेकर रहेगी, जैसे तुमने उसे सबसे दूर कर दिया वैसे ही वह भी तुम्हें सब से दूर कर देगी। मुझे गुस्सा आ गया त्रिधा और मैंने उसे धक्का दे दिया और वह कंक्रीट के ढेर पर गिर पड़ी, वे चोट उसे कंक्रीट के ढेर के ऊपर गिरने से लगी हैं, मेरी वजह से लगी हैं।" यह कहते हुए हर्षवर्धन ने अपना हाथ बेंच पर दे मारा। वह आगे बोला - "अगर मुझे पता होता कि तुम ऐसा कुछ करने वाली हो तो मैं ये सब नहीं करता।" और इतना कहकर हर्षवर्धन ने अपनी नजरें नीचे झुका लीं।

त्रिधा हर्षवर्धन के हाथ को सहलाते हुए बोली - "खुद को चोट पहुंचाना बंद करो। मैं कल से तुम्हें यही बताने के लिए बार बार कॉल कर रही थी मगर तुम्हारा नंबर स्विच्ड ऑफ था।"

हर्षवर्धन बोला - "तुम्हारा मोबाइल तो झील में बह गया था तो तुम मुझे कॉल कैसे करतीं यही सोचकर मैंने मोबाइल ऑफ कर दिया था।"

त्रिधा ने खिसिया कर अपना सिर पीट लिया। वह बोली - "पुराना मोबाइल था मेरे पास जो मैं कटनी में इस्तेमाल करती थी और रही बात सिम कार्ड की तो वो मैंने उसी शाम अपने फोन से निकाल लिया था क्योंकि मैं तुमसे मिलने के बाद वर्षा के उन फोटोज़ को एनलार्ज करवाने जा रही थी और शॉप पर जाकर कहीं मुझसे सिम कार्ड गुम न हो जाए यही सोचकर उसे हॉस्टल छोड़ आई थी।"

हषर्वर्धन त्रिधा को देखता रहा फिर नजरें झुका कर बोला - "सॉरी त्रिधा तुम्हारी परेशानियां कम करने की जगह बढ़ा दी मैंने।"

त्रिधा ने कुछ नहीं कहा। हर्षवर्धन और त्रिधा घंटों तक झील के किनारे बैठे रहे। दोपहर ज्यादा हो जाने पर हर्षवर्धन ने त्रिधा को हॉस्टल छोड़ दिया और खुद अपने घर चला गया। हॉस्टल पहुंचकर त्रिधा ने खाना खाया और अपने कमरे में जाकर सोने की कोशिश करने लगी मगर नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी। उसकी आंखों में तो बस हर्षवर्धन और प्रभात ही थे। उसने जरा सी बात पर हर्षवर्धन पर हाथ उठा दिया मगर आज उसी हर्षवर्धन ने उसे संभाला और प्रभात, प्रभात उसकी चिंता करता था, उसकी लापरवाही पर नाराज होता था मगर आज उसी प्रभात ने उसकी एक बात तक नहीं सुनी थी। दिमाग थक गया था त्रिधा था इतने लम्बे समय से सब सोचते हुए। कुछ समय बाद त्रिधा सो गई।

हर्षवर्धन, प्रभात और संध्या तीनों अपने अपने कमरों में चुपचाप बैठे हुए थे। तीनों ही समझ नहीं पा रहे थे कि आज जो हुआ उसका आने वाला कल क्या होगा।

***

महीनों बीत गए। सब अपनी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे। त्रिधा और प्रभात के बीच कोई बात नहीं हुई। संध्या भी त्रिधा और प्रभात के झगड़े के बीच उलझ कर रह गई थी। न तो वह त्रिधा से बात कर पा रही थी और न ही प्रभात को गलत कह पा रही थी। वह समझ गई थी त्रिधा ने उस दिन जो किया वह गलत था मगर प्रभात ने जो किया वह भी सही नहीं था। हर्षवर्धन त्रिधा से अक्सर बातें करता रहता था जिससे उसकी उलझनों से उसका थोड़ा ध्यान बंटा सके। त्रिधा ने अब अपने आपको अपनी पढ़ाई में व्यस्त कर लिया था और बाकी सब उसने किस्मत पर छोड़ दिया था आखिर वह महीनों से लड़ रही थी और अब थक चुकी थी।

एक शाम त्रिधा बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर लौटी तो देखा उसके रूम में उसकी नई रूममेट बैठी हुई थी, वह दरवाजे की ओर पीठ किए हुए बैठी थी जिसके कारण त्रिधा को उसका चेहरा नहीं दिख रहा था मगर न जाने क्यों उसे वह कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी। त्रिधा ने आगे बढ़कर जब उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह लड़की पलट कर खड़ी हो गई। उस लड़की को देखकर त्रिधा खुशी के मारे चीज पड़ी और उसके गले लग गई। वह लड़की त्रिधा को देखते हुए बोली - "हाय, मैं माया चौधरी। अपने नाम से बिल्कुल उलट हूं, न शक्ल है, न अक्ल है। मैं जब भी सोचती हूं मैं कितनी अकेली हूं तभी मन के किसी कोने से तीन आवाज़ें आने लगती हैं। पहली होती है फेस ऑयल की, दूसरी होती है हेयरफॉल की ओर तीसरी होती है मोटापे की, तीनों एकसाथ बोलते हैं 'मैं हूं न'

माया को दोबारा देखकर त्रिधा बहुत खुश थी। वह उसके गले लग कर बहुत देर तक रोती रही। माया उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप करवा रही थी। कुछ देर बाद त्रिधा दोनों के लिए कॉफी लेकर आ गई दोनों एक ही बेड पर बैठी हुई बातें कर रही थी।

त्रिधा माया से बोली - "कैसी हो माया? लगभग एक साल बाद आई हो।"

माया कहने लगी - "मैं ठीक हूं त्रिधा। शादी के बाद नए माहौल में खुद को ढालने के लिए बहुत वक्त लगा मुझे। राजीव को और उसकी यादों को भूलना आसान नहीं था मेरे लिए मगर आशीष जी ने मुझे इतना अपनापन दिया, इतना धैर्य रखा कि अब मैं कमजोर नहीं रही, वह पहले वाली माया नहीं रही। आशीष जी जानते थे कि मैं अपनी आगे की पढ़ाई करना चाहती हूं। हाँ मैं पढ़ाई-लिखाई में उतनी अच्छी नहीं हूं मगर मैं अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी और शायद मेरी यही इच्छा उन्होंने कभी पहचान ली होगी और वे मेरे लिए सेकंड ईयर की पढ़ाई का सारा कोर्स और उससे संबंधित पाठ्य सामग्री घर पर ही ले आए। जब आशीष जी मेरे लिए सारी पाठ्य सामग्री घर पर उपलब्ध करवा सकते थे तो मुझे यहां वापस पढ़ने के लिए भी भेज सकते थे। यही सोचकर मैंने उन्हें बताया कि मैं दोबारा पढ़ना चाहती हूं और इसीलिए आशीष जी ने ही मुझे वापस यहां भोपाल भेजा है। आशीष जी ने ही यहां टीचर्स से भी बात कर ली थी मेरे लिए। अब मैं थर्ड ईयर में भी यहीं रहकर अपनी पढ़ाई करूंगी।"

त्रिधा माया को देखते हुए बोली - "आशीष जी बहुत अच्छे हैं न माया।" त्रिधा की बात सुनकर माया ने शर्माते हुए अपनी नजरें झुका ली।

त्रिधा माया से बोली - "माया तुम आराम करो, थक गई होगी। तुम्हारा सारा सामान मैं रख दूंगी।"

माया उसे रोकते हुए बोली - "मैं रखती हूं न त्रिधा।"

त्रिधा मुस्कुराती हुई बोली - "मैं रख दूंगी तुम आराम करो।" इतना कहकर त्रिधा माया का सारा सामान कबर्ड में जमाने लगी। कुछ देर बाद दोनों डिनर करने नीचे हॉल में चली गईं। वापस आकर त्रिधा ने माया का बाकी बचा समान भी कबर्ड में रख दिया। रात ज्यादा होने पर दोनों सोने चली गईं।

अगले दिन रविवार था। त्रिधा और माया दोनों हॉस्टल में ही थीं। कुछ देर बातें करने के बाद दोनों अपनी अपनी पढ़ाई में लग गईं। अगले हफ्ते से सबकी परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं। त्रिधा इस बार अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाई थी सो उसे भी बहुत मेहनत करनी थी। हर्षवर्धन और बाकी सब भी अपनी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे।

क्रमशः


आयुषी सिंह