Kalidasa's cloud ___ a messenger in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | कालिदास का मेघ __एक संदेश वाहक

Featured Books
Categories
Share

कालिदास का मेघ __एक संदेश वाहक

कविकुलगुरु चूड़ामणि महाकवि कालिदास द्वारा विरचित "मेघदूत" न केवल भारतीय वांग्मय का अनुपम अंश है अपितु विश्व साहित्य में बेजोड़ है एक सौ बीस ललित पदों वाली इस रमणीय कृति में महाकवि ने कुबेर द्वारा शापित अलकापुरी से निष्कासित बिरह विक्षिप्त यक्ष की वियोग व्यथा का मर्मस्पर्शी चित्रण कर अपनी प्रसन्न मधुरा वाणी को मंदाक्रांता की झूमती चाल प्रदान कर वह अलौकिक रस धारा वहाई है जिसमें काव्य रसिक आध्याअवधि डूबते उतराते चले आ रहे हैं

मेघ अथवा प्राकृतिक वस्तुओं को संदेशवाहक के रूप में नियोजित कर संदेश प्रेषण की उद्भावनाका मौलिक श्रेय कालिदास को मिलना चाहिए या नहीं इस विषय में प्रचुर मतभेद है कई विद्वान ऋग्वेद एवं वाल्मीकि रामायण की दूत परंपरा को कालिदास का प्रेरणा स्रोत मानते हैं तथ्य जो भी हो इतना निर्विवाद है कि कालिदास ने जिस सौंदर्य मूलक रसोद,गर गुमफित काव्य की सृष्टि की वह मानव के अंतः स्थल को द्रवित कर देने वाले काव्य में मूर्धन्य स्थान प्राप्त कर चुका है वह दो भागों में विभक्त है ---पूर्व मेघ और उत्तर मेघ

कालिदास का मेघ एक प्रकृति पुरुष है विश्व विदित कुल में उसका जन्म हुआ है उसकी अंतरात्मा करुण एवं आद्र है दान में कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता यह काम रूप है असामान्य व्यक्तित्व वाला है वह ऐसी उत्तम कोटि का है कि उसके समक्ष याचना करते समय किसी को लज्जा या गलानी का अनुभव नहीं होता संतप्त प्राणी उसी की शरण में आकर शांति प्राप्त करते हैं अपनी प्रियतमा के वियोग से संतप्त यक्ष भी आषाढ़ मास के प्रथम दिन पर्वत की चोटी से लिपटे हुए मेघ को देख कर भी देर तक अपने आंसुओं को रोके रहता है पर जब इन बादलों को देखकर सुखी जनों की चित्तवत्ति
भी डगमग हो जाती है तब उन दुर्भाग्यपूर्ण व्यक्तियो
की क्या दशा होगी जो अपनी प्राण दयियता कंठ आलिंगन के लिए तड़पते हैं

मेघा लोके भवती सुखिनो अपि अन्यथा वृत्ति चेत :
कंठा श्लेष प्रणयिने जने किम पुनर दूर संस्था । "पूर्व मेघा 3"

वस्तुतः प्रेम द्विपक्षीय व्यापार है प्रेमी और प्रेमिका दोनों को यदि एक दूसरे की तड़प का भान ना हो तो प्रेम का आनंद ही क्या? कालिदास का स्नेह कातर यक्ष भी दयिता जीवितालंबन की प्रेरणा से अनुप्राणित होकर ही कुटज कुसुम से मेघ की अर्चना कर एवं कुशल मंगल पूछ कर "धूम ज्योति मरुत एवं सलिल" के समवाय रूप अचेतन मेघ को ही अपना संदेश वाहक बना लेता है अधीरता एवं उत्कंठा वश उसे भी असंगति का बोध ही ना हो सका क्योंकि कामरत, व्यक्ति चेतन एवं अचेतन पदार्थों के समीप समान भाव से दीन बन जाते हैं

धूम ज्योति: सलिल मरुताम सन्निप,तः
क्वमेघ:सदशार्थो : क्वा पट्टू करणै : प्राणी भी: प्रापूर्णिया:
इति औत,सुक,यादकुत्सुकयाद अपरी गणयन, गुहतसत्तं ययाचे
कामारता ही प्रकृति कृपणः चेतना अचेतनशु। पूर्व मेघ 5

मेघदूत का संदेश वस्तुतः प्रेम का संदेश है यक्ष तो निमित्त मात्र है वास्तव में बिरहा पीड़ित मानव का समूचा अंतर जगत--- क्या तो आशाएं , क्या निराशशाएं, क्या हर्ष क्या, विशाद---- सभी कुछ हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है इसकी प्रत्येक शब्द में व्यथित हृदय की गहरी आह और सूक्ष्म धड़कन सुनाई देती है प्रकृति के संपूर्ण साम्राज्य में--- यह जानकर की---" प्रणय का दूत एक महान अनुष्ठान लेकर यात्रा कर रहा है"--- संपूर्ण प्रकृति सहानुभूति पूर्ण होकर अंतर जगत के साथ एकता स्थापित करती हुई प्रतीत होती है पूर्व मेघतो प्रायः प्रकृति के ही चित्रों का एक विशाल एल्बम है यक्ष मेघ से निवेदन करता है कि

"हे भाई मेघ ! सन तत्वों के तुम ही एकमात्र सहारे हो तुम्हें उत्तर दिशा की ओर जाना है वहां अलकापुरी में जाकर एक छोटा सा संदेश मेरी प्रिया को पहुंचा देना देखो कैसी मंद मंद पवन चल रही है चातक तुम्हारी वाई और होकर मधुर ध्वनि कर रहा है गर्भाधान का उत्सव मनाने वाली वलाकाऐ पंक्ति बुद्ध वह कार तुम्हारी सेवा हेतु संलग्न है यह सब तुम्हारी यात्रा हेतु शुभ शकुन है"



मंदममंद नु दती पवन: चानू कूलो यथा तवम,
वामस चायं नुदती मधुरम चातकसते सगंध:
गर्भाधानं क्षणं परिचयत नूनम आबध माला:
सेविसयंते नयन शुभागम खे भवनतम ब्लाक पं मे 10

पावस का प्रथम मेघ अपनी मस्ती में था धीर ललित गति से आकाश की सैर कर रहा था किंतु चेतन की गिरफ्त में पड़कर अचेतन तत्व बिल्कुल ही ठिठक गया कुछ बस नहीं चला मेघ का। आखिर यक्ष ने मेघ को भाई की संज्ञा जो दी थी। भाई का काम भाई नहीं करेगा तो और कौन करेगा? पूरी की पूरी बात बिरही यक्ष की उसे सुननी पड़ी । अनुनय और स्नेह का बंधन कोई मामूली बंधन थोड़े ही है ? सो मेघ भाई को आखिर दूत बनना ही पड़ा क्योंकि कालिदास के यक्ष को अटूट विश्वास था उस पर। उसे मेघ की संवेदनशीलता के प्रति गहरी श्रद्धा थी। लेकिन यक्ष जानता है की प्रकृति पुरुष होने के नाते केवल एक ही विप्रयुक्ता कामिनी को आश्वस्त करना उसके गौरव के अनुकूल न होगा अतः वाह सभी चर अचर की तपन बुझाएगा सभी के हृदय में नवीन आह्लाद एवं उमंग की सृष्टि करेगा यक्ष अपनी प्राण दहिता की चिंता में स्वार्थ परायण नहीं बन गया है उसकी अपनी प्रेम कातर ता की अनुभूति अन्यों की प्रेम वेदना की अनुभूति के लिए भी उसे सक्षम बना देती है।

पूर्व मेघ में प्रकृति के वाह रूपों का चमत्कार दिखाते समय क्षण भर के लिए भी कवि मानवीय भावना को अपने शब्द शिल्प से पृथक नहीं होने देता। मेघ को भी तो उसने मेघ मात्र नहीं रहने दिया। मेघ यक्ष का साथी है भाई है। उम्र में छोटा ही समझा । भाई का कुशल समाचार उसे भाभी तक पहुंचाना है थकने पर वह पहाड़ों पर उतर कर सुस्ता लेता है प्यास लगने पर नदियों का पानी पीता है भारी हो उठता है तो बरस बरस कर सब की प्यास बुझा कर हल्का हो लेता है नदियों से मेघा का प्रेम संबंध है। यक्ष की हिदायत है की वह उनकी उपेक्षा न करें जरा देर हो तो हो मगर अपनी प्रेयसीयों का दिल न तोड़ना पूर्ण राम बिरहा जनित उनकी क्रश ता जैसे भी हो मिटाकर ही आगे बढ़ना। संभवत इसीलिए तो कालिदास को वर्षा कालिक नव जलंधर ही इस कार्य के लिए सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ। क्योंकि वह जानता था आषाढ़ का मेदुरु मेघ जब किसी ओर प्रयाण करेगा तो वह देश काल की दूरी यूं ही नहीं पार कर आएगा वह औघड़ दानी ठहरा। परि तप्त संसार को अपने स्नेह सुधा वृष्टि स प्राण करता चलेगा। सरिताओं के सूखे पाट उससे कैसे देखे जाएंगे? भृ विलासों से अपरिचित किंतु प्रीति स्निग्ध आंखों के प्रति विश्वास घातकता की तो वह कल्पना तक नहीं कर सकेगा। निखिल विश्व के कल्याण साधन के अपने महाव्रत को यह अवश्य ही निभाता चलेगा। बिरहा दग्ध बांधवी अपने प्रवासी पति के कुशल क्षेम तो पाएगी ही ग्रीष्म दुग्ध भूतल भी पावस प्रथम उपहार पाए बिना न रह पाएगी। लाभ का अपना अपना लाभांश सभी को मिलेगा।

कालिदास का मेघदूत रामगिरि आश्रम से चलकर आम्र कूट विंध्याचल दशान देश उज्जैनी देवगिरी दशपुर कुरुक्षेत्र एवं हिमालय पर्वत का आनंद लेता हुआ कैलाश पर्वत की गोद में बसी अलकापुरी की ओर अग्रसर होता है कालिदास ने मेघमार्ग के माध्यम से हिन्द महासागर से उठने वाले मानसून का बड़ा ही सजीव चित्र प्रस्तुत किया है जलवायु विशेषज्ञ भारत में मानसून को एकता का प्रतीक मानते हैं आज से हजारों वर्ष पूर्व कालिदास भी इसी मत से सहमत प्रतीत होते हैं मानसून भारत के जिन जन मार्गों से होता हुआ हिमालय तक पहुंचता है कालिदास का मेघ भी उन्हीं मार्गों को कृतार्थ करता हुआ अलका तक पहुंचा है यहां उल्लेखनीय बात याह है की विरह की तीव्रता होने पर भी तथा मार्ग टेढ़ा होने पर भी कवि मेघ से उज्जैनी जाने का आग्रह अवश्य करता है क्योंकि वह ऐसी सुंदर नगरी है कि मानो स्वर्ग की ही एक टुकड़ी भू पर लाई गई हो। कवि कहता है ---कि "यदि वहां अटारिंयां में रहने वाली ललनाओं की विद्युत की चमक से भयभीत एवं चंचल चित्वनों का स्वाद नहीं लोगे तो तुम्हारी आंखें एक महान लाभ से वंचित रह जाएंगी । पूर्व मेघ 28 उज्जैनी में किसी भी समय पहुंच कर महाकाल की सायंकाल आरती के समय मंद गंभीर गर्जन द्वारा नगाड़े की कमी को अवश्य पूरी करना"--- इस नगरी के प्रति अगाध प्रेम एवं अपनत्व ही कालिदास को उज्जैनी का कवि मानने हेतु बाध्य कर देता है

तत्पश्चात कुरुक्षेत्र में सरस्वती का एवं कनखल में गंगा का रसपान कर आगे बढ़ने पर तुम्हें कर्पूर गौर भगवान शंकर के पूंजी भूत अट्टहास की तरह महा श्वेत महा महोच्च धवल गिरि कैलाश पर्वत दिखाई देगा उसी कैलाश की गोद में बसी यक्ष की अलकापुरी तक कि तुम्हें यात्रा करना है
अपने देश का काव्यमय भूगोल एवं वर्षा ऋतु के रस से युक्त गुम फन अन्यत्र कहीं नहीं है किसी भाषा में नहीं और किसी देश में नहीं कालिदास की प्रतिभा ने पावस की योजनाओं को शाश्वत भाषा में पिरो दिया है अज्ञात निखिल के साथ अभिनव परिचय-- यही है--- पूर्व मेघ

2

कालिदास मूलतः ऐश्वर्य एवं विलास के कवि हैं और उनकी काव्य तत्री मै से सर्वाधिक आनंदमई ध्वनि तरंगे तब निकलती हैं जब वैभव मुल्क सौंदर्य के संदर्भ उन्हें अनुप्राणित करते हैं। पूर्व मेघ का प्रधान प्रतिपाद्य --मेघ का सर्वातिसाई गौरव --उत्तर मेघ में अलका के सुखविलास यक्षिणी के वियोग व्यथित रूप सौंदर्य कथा अंततः यक्ष के प्रणय संदेश का अत्यंत ललित एवं मर्म भदी वर्णन किया गया है

यक्षों की वैभवशाली ऐश्वर्य संपन्न अलकापुरी के गौरव का तो कहना ही क्या? उसके रत्न जड़ित प्रसाद एवं गगनचुंबी अट्टालिकाऐ अपने ऐश्वर्य सरोवर में मानव चेतना को पूर्ण गहराई के साथ ढुबो देती हैं। साधारण स्तर का पाठक जो अपने दैनिक परिवेश में ऐसी वैभव लक्ष्मी के दर्शन नहीं कर पाता वह कवि के इन चित्रों के समृद्ध संसार में डूबने उत्तर आने लगता है यक्ष कहता है--- हे मेघ! वहां वृक्ष वारह मास फुलते रहते हैं । प्रत्येक सांझ चांदनी से उज्जवल रहती है वहां ऐसी श्रेष्ठ अनुपम सुंदरियां हैं जो तुमने कभी देखी ही ना होंगी। वहां आंसू गिरते हैं तो आनंद में ही, ताप होता है तो काम का और कलहहोता है तो प्रेम का ही। यौवन ही एकमात्र अवस्था है बुढ़ापा नहीं। सर्वत्र प्रेम और आनंद का साम्राज्य है ऐसी मनोरम नगरी में कुबेर के भवन से उत्तर की ओर मेरा गृह है जिसका विविध रत्न जड़ित वाहरी द्वार तुम्हें दूर से ही इंद्रधनुष सा चमकता हुआ दृष्टिगोचर होगा वहां मेरी प्रिय द्वारा पाले हुए मंदार एवं बकुल वृक्ष भी है मरकत मणियों से निर्मित बावड़ी हैं जिसके किनारे तुम्हारे जैसा ही एक क्रीडा पर्वत है । समस्त चिन्ह एवं मेरी अनुपस्थिति के कारण सुने से पड़े हुए मेरे घर को तुम तत्काल ही पहचान लोगे घर के अंदर प्रवेश करते ही तुम्हें युवतियों में ब्रह्मा की आदि सृष्टि सी एक सुंदरी दिखाई देगी जो शरीर से दुबली कमर से पतली और स्तनों के बाहर से झुकी हुई होगी और चाल नितंब भारत के कारण अलसाई सी होगी उसे ही मेरी पत्नी समझना

तन्वी श्यामा शिखरि दर्शना पक,व व विमब आधरोषठी
मध्ये छामा चकित हरणी प्रेछ,णा निम्न नाभि:
श्रोणि भारात अलसगमना स्तोक नम्रा स्तनाभ्याम
या तत्र स्याद् युवती विषये सृष्टि: आदेयेव धातुः।
वास्तव में कालिदास ने अपने नायिका सौंदर्य वर्णन में स्त्री सौंदर्य का ऐसा अनुपम रूप संजोया है जो प्रत्येक मानव मन को मोहित कर देने वाला है जिसकी कल्पना मात्र से ही यह भाव जागृत हो उठते है
संजोकर सभी सृष्टि की कांति
विधाता ने तुमको ढाला।

प्रिय सहचर के दूर होने के कारण प्रिया वियोग से दुखी बेचारी यक्षिणी तुषार से मारी गई कमलिनी की तरह क्या थी? और क्या हो गई? आभूषणों से रहित होकर एक मैली सी साड़ी पहने सहचर से वीयुक्त चक्रवकी की तरह अकेली एक मूर्ति मती हुक सी बनी बैठी है

यक्ष का प्रणय संदेश किसी परकीया प्रेयसी के लिए नहीं है अपितु अपनी पतिव्रता धर्म पत्नी के लिए प्रेषित किया गया है। इसीलिए पत्नी की वियोग विधुर दशा के प्रति उसका अटूट विश्वास दृष्टव्य है यक्ष पूर्ण विश्वास के साथ कहता है कि---"हे मेघ कभी तुम मेरी प्रिया को मेरा चित्र बनाने का विफल प्रयत्न करती हुई पाओगे और कभी गोद में वीणा रखकर प्रिय के नाम की गीतिका द्वारा मनोविनोद का व्यर्थ उपक्रम करती हुई देखोगे। यह कभी पिंजरे की सारिका से मीठे स्वर में पूछती होगी की---- है सारके! हे रिसके ! क्या तुझे भी कभी अपने स्वामी की याद आती है "? कभी वह वियोग के शेष महीनों को देहली पर रखे हुए पुष्पों से गिनती होगी। विरहणी की रातें आंखों में ही बीत जाती हैं और विचारी पति समागम के सुख सपनों से भी वंचित ही रह जाती है। उसका कोमल ह्रदय कभी का टूट गया होता यदि अवधि की समाप्ति पर पति से पुनर्मिलन की आशा उसे थामें ना होती

आशा वध: कुसुम सदृश्यम प्रायशो हयंगनानाम।
सदय: पाती प्रणय हृदयम विप्र योगे रुणदय ।

बिरह की यह दारुणनिविडता उभय निष्ठ है दोनों ओर समान है आदर्श दांपत्य की कसौटी भी यही है बिरह विधुर यक्ष अपनी प्रियतमा से पुनर्मिलन की आशा में किसी तरह जीवित ही है। वह कभी किसी शिल्प फलक पर गैरों से अपनी प्रणय पपीता प्रेयसी का चित्र बनाकर उसे मनाने के लिए जैसे ही चरणों पर गिरना चाहता है की आंखें आंसुओं से भर जाती हैं। क्रूर विधाता चित्र में भी मिलन को नहीं सह पाता । कभी दक्षिण दिशा की ओर बहने वाली देवदारू वृक्षों से सुगंधित हिमालय पर्वत की वायु को वह इस विचार से आलिंगन करता है कि वह अवश्य ही उसकी प्रेयसी के अंगों का स्पर्श करके आई होगी। कभी चकित हुई हरणी के नेत्रों में प्रिया के कटाक्ष को, प्रियांशु लता में कोमल अंगों को, चांद में मुख सौंदर्य को तथा नदी की तरंगों में भू विलास की कल्पना किया करता है। कवि स्वप्न में प्रिया समागम होने पर उसके आलिंगन हेतु आकाश में भुजाओं को उठाता हुआ व्याकुल हो जाता है जिसे देखकर वन देवियां भी दो दो आंसू गिरा देती हैं बिरहव्यथित ह्रदय की ऐसी कठोर वेदना को देखकर सहृदय पाठकों को श्रंगार रस भी करुण रस की सीमा के आस पास पहुंचा हुआ दिखाई देने लगता है

"वास्तव में जो कभी किसी की स्मृति में, किसी के वियोग में, सिसक सिसक कर, बिलख बिलख कर, तड़प तड़प कर, चीख चीख कर रोया ना हो वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है जिस पर सैकड़ों मुस्कान न्योछावर हैं।"

वियोग की पराकाष्ठा पर पहुंच कर ही यक्ष का प्रेम वासन आत्मक मल के नष्ट हो जाने पर अपनी सीमित परिधि को लॉघ कर असीम रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। अब उसे क्या महल क्या मार्ग क्या आगे और क्या पीछे सभी जगह प्रियतमा ही प्रियतमा दृष्टिगत होने लगी है यहां तक की अंततोगत्वा सारा विश्व ही उसे प्रियतमा स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है

प्रासादे सा पथि पथि च सां पृष्ठतः सा पूर : सा ।

सा सा सा सा जगति सकले कोऽयम अद्वैत वाद:।

यह है भारत वर्ष का आदर्श प्रेम जो साधना द्वारा पूत होकर विश्व प्रेम में परिणत हो कर मत्य॔ से अमर बना देता है। यक्ष
वैसे तो रात में ही अपना संदेश सुनाने की सलाह देता है लेकिन विरहण यदि निद्रा मग्न हो तो यक्ष का अनुरोध है की मेघ उसे जगाने की चेष्टा नहीं करेगा तत्पश्चात यक्ष ने जो संदेश दिया है वह प्रणय काव्य की नितांत मधुर निधि है । यक्ष कहता है कि "हे मेघ तुम पहले तो मैं तुम्हारे पति का मित्र हूं"-- इस प्रकार अपना परिचय देना और तदनंतर मेरा यह संदेश कहना

तंव सहचरो रामगिरी आश्रमसय:

अभ्यापन्न: कुशलमबल्ले प्रचछति तमाम, वीयुक्त:

पूर्वा भाष्यम सुलभ विपदां प्राणी नाम ए तदैव । उ मेघा 4

"हे अबले ! राम गिरी आश्रम में निवास करने वाला तुम्हारा सहचर अभी जीवित है तुम्हारे वियोग की व्यथा में व्याकुल उसने पूछा है कि तुम कुशल से तो हो? जहां प्रतिपल विपत्तियां प्राणियों के निकट हैं वहां सबसे पहले पूछने की बात भी तो यही है "

यक्ष जानता है कि यदि उसकी दयिता को सबसे पहले उसके जीवित रहने का संवाद नहीं मिलेगा तो वह शायद पंचतत्व को प्राप्त हो जाएगी। साथ ही चक्रनेमिक्रमेण कहकर नियति चक्र की याद दिला कर यक्ष आशा की दीपशिखा भी प्रिया को प्रेषित कर रहा है। वह कहता है कि "हृदय में कितनी ही आशाएं संजोय मैं भी तो अकेला इन वियोग की घड़ियों को किसी तरह काट ही रहा हूं अतः हे सजनी तुम निराश ना होना। अब मेरे शॉप के समाप्त होने के केवल चार ही महीने शेष हैं इन्हें किसी भी तरह आंख मीच कर सह लेना और फिर हम दोनों शरद की चांदनी रातों में वियोग के कारण कितना ही गुना बड़ी हुई उन उन इच्छाओं को अच्छी तरह पूरा कर लेंगे"

इस प्रकार संदेश देकर अंत में यक्ष मेघसे बोला "भैया यह मेरा कार्य चाहे मित्रता के नाते चाहे मुझे दुखी के प्रति दया के नाते बोलो, --करके जहां तुम्हारी इच्छा हो चले जाना"

ओ मेघ तुम चुप हो तो क्या हुआ?

मैं तो इस मौन को स्वीकृति ही समझता हूं

विश्वास की यह परिपूर्णता ही मेघ संदेश की इतिश्री बन गई। अनास्था तो थी ही नहीं जो प्रतिशब्द आवश्यक होता। शेष कृत्य रह गया था आशीर्वचन सो बेचारे ने खुले दिल से दिया है---

"मां भूदएवं क्षणमपी चं ते विद्यतोविप्रयोग :"----
अर्थात तुम्हारा क्षण भर के लिए भी कवि विद्युत से वियोग ना हो बदले में मेघ से कुछ ना कहलवान भी कालिदास की अपनी खूबी है मौन मूक आषाढी बादल "मेघदूत" की पंक्ति पंक्ति पर सवार है उसकी मंदाक्रांता का एक एक चरण लोक मानस में थीराक रहा है फिर भी कुछ सहृदय जन तड़पते ही रहे कि बेचारे यक्ष का अंतता क्या हुआ? और अलका से मेघ वापस आया कि नहीं?
कौन कहता है? की मेघदूत नहीं लौटा वह अपना कर्तव्य पूरा करके लौटा और भारत के घर-घर में और भारतवासियों के हृदय हृदय में समा गया मेघदूत के अमर माधुर्य का यही रहस्य है
इति