drug therapy in ayurveda in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | आयुर्वेद में औषध चिकित्सा

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आयुर्वेद में औषध चिकित्सा

आयुर्वेद शास्त्र वेदों में विशेषकर अथर्ववेद में विस्तार से वर्णित है आयु संबंधी ज्ञान से संबद्ध होने के कारण इसे आयुर्वेद कहा गया है आचार्य चरक ने भी कहा है

तस्य आयुषः पुणयत्तामॆ वेदों वेद विदांम मतः
वक्यछॆयते यन मनुष्यानाम लोकयोः उभयोः हितम

अर्थात यह उस आयु का पुणयतम वेद है आतएव आयुर्वेद विद्वानों द्वारा पूजित है क्योंकि यह मनुष्यों के लिए इस लोक और परलोक में हितकारी है
वास्तव में आयुर्वेद एक पुण्यतम ज्ञान है इस आयुर्वेद विहित कर्मों का अनुष्ठान करने से मनुष्य का इस लोक में आयु और आरोही को प्राप्ति होती है संसार में जितने प्राणी उत्पन्न हुए हैं चाहे वह स्थावर हो या जंगम रोग सब को होता है इन लोगों की निवृत्ति का नाम है चिकित्सा है चिकित्सा शास्त्र मन आत्मा और शरीर इन तीनों की तिपाई पर ही टिका हुआ है

मंत्रआयुर्वेद अथ र्तत प्रामाणयम कहकर न्याय दर्शन कार ने वेद की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए आयुर्वेद की सत्यता को प्रमाण रूप में उपस्थित किया है इससे आयुर्वेद की प्रामाणिकता स्वत सिद्ध हो जाती है इसी प्रकार सुश्रुत कार ने मंत्रों की तरह ही बिना किसी शंका के आयुर्वेद के प्रयोग का परामर्श दिया है उनका मंतव्य है मंत्र वत सम प्रयोग तव्यम अर्थात ज्ञान पूर्वक आयुर्वेदीय औषधीय प्रयोग करने पर फल प्राप्ति में संदेह नहीं करना चाहिए यहां पर आयुर्वेद के अनुसार औषधी शब्द का अर्थ समझ लेना परम आवश्यक है आयुर्वेद में भोजन और औषधि को परस्पर पर्याय माना है मानव शरीर के लिए जो भोज पदार्थ हैं वही औषधि है और जो औषधि है वही भोज है महर्षि सुश्रुत ने भी कहा है



अन्नू मूलम बलम पुशां बल मूलम ही जीवनम

अर्थात भोज्य पदार्थ की बल रक्षा या शरीर रक्षा का मूल कारण है और जीवन बल के अधीन है आहार के संबंध में जैमिनी दर्शन में एक जनश्रुति प्रसिद्ध है एक वन महर्षि जैमिनी आश्रम में बैठे हुए थे अचानक वृक्ष की शाखा पर स्थित एक पक्षी बोल उठा कोऽरुक?अर्थात कौन अरोगी है? उत्तर में जैमिनी ने कहा--- हित भूक

अर्थात जो हितकर पुष्टिकर और विशुद्ध आहार करता है पक्षी फिर बोला को अरुऽकू जैमिनी ने उत्तर दिया मित् भुक अर्थात परिमित आहार करने वाला जिससे रोग ही ना हो वह पक्षी बोल उठा को अरुऽक तब जैमिनी ने उत्तर दिया हित बुक मित् बुक अर्थात जो व्यक्ति द्रव्यों के गुण अवगुण तथा चंद्र और सूर्य के आदान विक्षेप एवं: विस्ररग काल को जानकर समय अनुकूल शरीर के पोषण योग आहार करता है । इस कथा से स्पष्ट है की भोज्य ही औषधि है और औषधि ही भोज्य है


आज विश्व में पांच प्रकार की चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित है जिन्हें होम्योपैथी एलोपैथी साइकोपैथी नेचुरोपैथी एवं हाइजीन म के नाम से पुकारते हैं इनके मूल तत्वों का उल्लेख आयुर्वेद के पंच निदान में किया गया है । हेतु विपरीत, व्याधि विपरीत, हेतु तम तथा व्याधि सम औषध एवं अन्न और बिहार का उपयोग शरीर के लिए सुखदायक या आरोग्य कारक होता है आयुर्वेद में महर्षियों ने आज की होम्योपैथी अर्थात लाक्षणिक एलोपैथी अर्थात विपरीत चिकित्सा पद्धति तथा नेचुरोपैथी अर्थात प्राकृतिक चिकित्सा साइकोपैथी अर्थात मानसिक चिकित्सा और हाइजीनम अर्थात व्यायाम चिकित्सा पद्धति पर उत्तम रीती से विचार किया है महर्षि चरक ने पंच भौतिक देके दीर्घ जीवन हेतु 24 तत्वों को औषधि रूप में चिकित्सा कार्य में प्रयोग किया है।
किस स्थान के जल से रोग का नाश होता है कहां की मृतिक से
रोग हरण होता है कहां की वायु रोग नाशक है सूर्य के तेज द्वारा किस ऋतु में कौन सा रोग नष्ट होता है इन सभी तत्वों पर आयुर्वेद में विस्तृत रूप से विचार किया गया है आयुर्वेद की दिनचर्या रात्रि चर्या रितु चर्या एवं ब्रह्मचर्य पालन विधि संभवतः विश्व की सर्वोत्कृष्ट प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली है यह तत्व ही विश्व की महानतम औषधियां है जो मानव को निरोग बनाती हैं

हमारा आयुर्वेद शास्त्र वस्तुतः धर्मशास्त्र भी है अनुचित भोजन द्वारा मनुष्य की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त कर लेती है इस गंभीर तत्व को सबसे पहले भारत भूमि पर जन्म लेने वाले महर्षि गण ही जान पाए थे इसे अनुमान द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है आज यह हमारे लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है विदेशी प्रभाव में पड़कर बैदेशिक भोजन का अभ्यास होने के कारण है भारतीय अपनी संस्कृति भाषा और स्वदेशी चिकित्सा को भलाकर निरंतर संयम हीन असहिष्णु तथा रोग ग्रस्त होता जा रहा है इसी कारण शरीरमं व्याधि मंदिरं अर्थात इस शरीर को व्याधियों का घर समझा जाने लगा है
भारत में आयुर्वेद की अष्टांग औषध चिकित्सा अनंत काल से चलती आ रही है परंतु पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में आकर भारत जैसे शर् रितु प्रधान विशेष तया ग्रीष्म प्रधान देश में शीत प्रधान देशों की औषधियों का प्रयोग बिना विचार किए किया जाने लगा है जो मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं इस संबंध में महर्षि चरक ने संपूर्ण पृथ्वी वासियों के लिए एक मूल मंत्र दिया है वह आयुर्वेद में कहते हैं कि

यस्य देशस्थ यो जंतु: तत् जं तस्य औषधं हितम

अर्थात जो व्यक्ति जिस देश का हो उसके लिए उस देश में उत्पन्न औषधि ही हितकारी होती है

आयुर्वेद चिकित्सा सत्त्व रज तम प्रधान है इन तीनों तत्वों मैं से किसी भी तत्व का क्षय होना तथा वृद्धि होना ही रोग है अतः आयुर्वेद में प्राकृतिक औषधियों द्वारा इन तत्वों को सम रखने का प्रयत्न किया जाता है यही स्वास्थ्य रक्षण है इसीलिए विभिन्न रितु हो में कौन से दोस् प्रबल होते हैं उनके उपशमन हेतु ॠतुओ के अनुसार आहार-विहार वस्त्र धारण चयन आदि का विचार औषधि रूप में किया जाता है इस प्रकार दिनचर्या रात्रि चर्या रितु चर्या भोजन विधि आहार विज्ञान पथ्य अपथ्य विज्ञान आदि सभी आयुर्वेद के औषध विज्ञान के ही विभिन्न रूप कहे जा सकते हैं

आयुर्वेद की औषध निर्माण प्रणाली इतनी अधिक वैज्ञानिक है कि इसमें कोयले से लेकर हीरा पर्यंत खनिज द्रव्य, स्वर्ण आदि धातु , वक्त नाथ से लेकर कालकूट पर्यंत विश् सब प्रकार के रत्न, पारद गंधक आदि रसों को शोधन मारण करके इतने उपयोगी बना दिए जाते हैं जो कभी भी कोई विकार पैदा नहीं करते और जिस उद्देश्य के लिए उनका प्रयोग किया जाता है उसे पूर्ण कर देते हैं । वाजीकरण औषधि या तथा जरा व्याधियों को दूर करने वाले दिव्य रसायनों की गणना भी अभूतपूर्व औषधियों में की जा सकती है

इन विभिन्न औषधियों का उल्लेख होने पर भी हितकारी पौष्टिक एवं सात्विक आहार को ही सर्वोपरि औषधि माना है श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं श्रीकृष्ण भी इसी बात की पुष्टि करते हुए प्रतीत होते हैं वे कहते हैं की




आयु स्वत्व बल आरोग्यं सुख प्रीति विवर्धना:

आसयाः स्निग्धः इस्थरा ह्रदय आहारः सात्विक प्रियाअः।

अर्थात स्वादिष्ट स्निग्ध स्थिर गुणप्रद और मनोहर इन सब विशेषताओं से युक्त होकर तथा जिसके सेवन से आयु सात्विक बुद्धि शरीर बल इंद्रियों का बल आरोग्य शरीर सुख और प्रीति इन सब की विशेष वृद्धि से युक्त ऐसा आहार ही सात्विक मनुष्य को रुचिकर होता है अर्थात ऐसा गुण युक्त आहार ही सात्विक आहार है
आयुर्वेद में यही परम औषधि है तिथि