Rahemaan Chacha in Hindi Fiction Stories by Dave Vedant H. books and stories PDF | रहेमान चाचा

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रहेमान चाचा

दोस्तों, नमस्कार!! आज आप सबको एक कहानी सुनाने जा रहा हूं. कहानी मेरी खुद की सत्यघटना है और ईस कहानी के मुख्य दो किरदार है : एक मैं और दूसरा मेरे दादाजी ‘रहेमान चाचा’. अरे हा, मैं आप सबको मेरे बारे में तो बताना भूल ही गया. मैं ‘वैश्विक मधुसूदन पारेख’, उम्र चालीस साल और नई-दिल्ही में निवास.


दोस्तों, मैं कोई लेखक नहीं हूँ की आप सबको एक कहानी सुना शकु, मगर जेसे मैने कहा की ये मेरे साथ घटित एक सत्यघटना है. जो मैं आप लोगों को बताना पसंद करूँगा.


आप लोगों को ये सवाल उठ रहा होगा की अचानक से वैश्विक को उसकी कोई कहानी केसे याद आ गयी? तो सुनो, हुआ ये की हम करीबन दो दिन पहेले ही जोधपुर से नई-दिल्ही रहेने को आये और ईस नये घर में सामान सजाते-सजाते मुझे मेरी एक छोटी सी साइकिल मिली, मेरे बचपन की सबसे यादगार निशानी.......मेरे रहेमान चाचा का तोफ़ा!!


तो सभी यात्रियों से नम्र निवेदन है की वो अपने-अपने खुरशी की पेटी बाँध ले क्यूंकि अभी ये यादों का हवाईजहाज भूतकाल में उड़ान भरने को तैयार हो चुका है. तो चलिये उस समय में जब ये वैश्विक सोला साल का था........


मजादर के हमारे उस नये घर में, मैं बराबर से सज गया था. मैं यानी की वैश्विक पारेख, मेरी माताजी और मेरे पिताजी, हमारा छोटा सा परिवार. मेरे दादा-दादी गाव में रहेते थे और ये वैश्विक उसके दादा को हर पल याद करता था क्यूंकि वैश्विक के लिए उसका सबसे करिबी दोस्त था उसके दादाजी. मजादर में दादा के बगर थोडा वख्त अकेला-अकेला महेसूस किया था.


अकेले-अकेले जूनी पूरानी यादे ताज़ा करता रहेता था. नये घर में माताजी और पिताजी बराबर से सज गए थे और आस-पड़ोस में पारेख परिवार की पहेचान भी बन गयी थी. हमारे घर की एक दिवाल, जो रास्ते पे पडती थी और उसकी खिड़की में से मैं सबसे ज्यादा वख्त बस रास्ते को देखने में गुजारता. रास्ते के सामने एक कच्चा मकान था. उस मकान के आँगन में साठ-एक साल के दादाजी बेठे रहेते.


धीरे-धीरे मुझे उन दादाजी में दिलचस्पी होने लगी. वो क्या करते होंगे? पूरे दिन आँगन में बेठे रहेने से उन्हें कंटाला नहीं आता होगा? उनके घर में दूसरा कोई क्यू दिखाई नहीं दे रहा है? एसे कई सवाल मेरे मन में आते. मगर, उस समय मैं एक छोटा सा बच्चा और इतने बड़े दादाजी से केसे परिचय करू?, वो समज से बहार था.


एक दिन मैने देखा, दादाजी खड़े हुए. ईस समय दादा रोज तो खड़े नहीं होते थे. मुझे लगा, अब वो घर के अंदर चले जायेंगे. घर में प्रवेश कर अपने खाट में, फटा हुआ गद्दा ठीक करके सो जायेंगे. लेकिन नहीं, वो तो रस्ते पर आये. आगे जो हुआ वो बस मैं देखता ही रह गया.


दादाजी तो रास्ते को पार करके हमारे ही घर की दिवाल के पास, खिड़की के नजदीक आ रहे थे. खिड़की के पास आकर, वो खड़े रहे. बिलकुल सुमसान वातावरण हो चुका था. कुछ बोल नहीं रहे थे और बस मुझे देखे ही जा रहे थे. आज भी मुझे रहेमान चाचा का वो चहेरा मेरी आंखो के सामने दिखाई दे रहा है.


आखिर मैंने पूछा,

“दादाजी, किसी का काम है?”


ये सुनकर दादाजी को जेसे होश आया और उन्होंने अपनी जेब में से चॉकलेट निकाल कर मुझे देने के लिए हाथ आगे बढाया.

“मैं चॉकलेट नहीं खाता हूं, दादाजी!”

दादा ने अपने जेब में से पांच रुपिये का सिक्का निकाला और मुझे देते हुआ कहा की,

“ये रख. जो पसंद आये वो खरीद करके खा लेना बेटा.”

“मुझे घर से बहार अकेले खरिदी करने जाने की इज़ाजत नहीं हैं.”

(मेरे सोला साल के दिमाग का जूठा बहाना और उनका साठ साल का तजुर्बा. उन्होंने मेरा जूठ और मना करना पकड़ लिया और जाने की सोचा होगा की वो मुसलमान और मैं हिन्दू, फिर केसे उनकी दी हुई कोई चीज़ या पैसे रख लूं?)

“ठीक है.”, इतना कह कर वो वापस चले गए.

दादाजी घर पे जाकर आँगन में नहीं बेठे, वो घर के अंदर चले गये और दरवाज़ा भी बंध कर दिया.

उस समय, मेरे छोटे से दिल ने रहेमान चाचा के ये बर्ताव को देखकर क्या अनुभव किया होगा, वो तो ख़ुदा ही जाने!!


फिर मेरी माताजी खिड़की के पास जहा मैं बेठा हुआ था वहा आकर “क्या हुआ? कोन आया था?” ये सब सवाल करने लगी और मैंने सारी बात उन्हें विस्तार में बताई. माताजी ने मुझे डांट लगाईं, मैंने जो रहेमान चाचा के साथ बर्ताव किया उस वजह से. मगर, मैं भी क्या करता दोस्तों? हमे तो सिखाया ही यही जाता है की, ‘किसी भी अन्जान से कभी कोई खाने की चीज़ ना लिया करो!!’ ये ही आग्रह का मैंने पालन किया, फिर भी डांट पड़ी. और मेरी माता ने भी मुझे इसीलिए टकोर की क्यूंकि वो रहेमान चाचा किस वख्त से गुजरे है, उससे जानकार हो चुकी थी.


मेरी माताजी मेरे सामने बेठ गई और कहने लगी,

“रहेमान चाचा को तेरे जेसा एक पोता था, खुराद्द. खुराद्द की दादीमा तो बहोत पहेले ही ईस दुनिया से चली गयी थी. रहेमान चाचा, उनका बेटा, बहु और खुराद्द, ये था उन लोगों का परिवार. खुराद्द बारा साल का ही था और उसके पिता गुजर गए. चाचा की बहु खुराद्द को लेकर अपने माँ-बाप के वहा चली गई, हमेशा के लिए. चाचा ने भी जरा तक रोका नहीं, अपनी बहु की इच्छा को पूरा किया. आज भी, खुराद्द की मम्मी चाचा से कई बार मिलने आती है और चाचा के गुजरान के लिए मदद भी करती है.”

[दो मिनिट की उदासी छा गयी, गमगीन वातावरण!!]

मैं यानी की वैश्विक ने पूछा,

“पर वो मुझे चॉकलेट देने क्यू चले आये? हम तो उन्हें जानते तक नहीं!!”

“तुज़ में रहेमान चाचा को अपना खुराद्द मिल गया.”, मेरी माँ एकदम शांत होकर बोली.

डरा-डरा सा मैं सोला साल का बच्चा बोला,

“मुझसे गलती हो गई, माँ!..........अब मैं क्या करूं?”

मेरी माँ ने मुझे समजाया और दुसरे दिन सुबह होते ही रहेमान चाचा के घर जाकर उन्हें मिलने की आरजू की.


दुसरे दिन की सुबह.

सुबह के साड़े दस बजे है और मैं बिलकुल तैयार हो गया हूँ रहेमान चाचा से मिलने के लिए. मैं मेरी माताजी को बोलकर रहेमान चाचा के घर गया.

मैंने चाचा के घर जाकर दरवाज़ा खटखटाया. दादाजी ने दरवाज़ा खोला. मुझे देखकर वो मुझे बस गले लगाने ही वाले थे की क्या हुआ अचानक से वो पीछे हो गए, पर उन्होंने ख़ुद को मेरे दिल से तो जरूर से जोड़ लिया था.

मैंने चाचा से पिछले दिन जो हुआ वो सब बात की सफाई दी. हमने काफ़ी घंटे बाते की. अंत में ये हुआ की, रहेमान चाचा ने मुझे अगले दिन अपने घर खाने पे बुलाया.


क्षमा की याचना करता हूँ, दोस्तों!! हमारे ये यादों के हवाईज़हाज को अचानक से मुझे एक जगह उतार देना पडा. वजह ये है की दोस्तों मैं तो आपको मेरे रहेमान चाचा की कहानी सुनाने में ही मशगुल हो चुका था मगर अचानक से मुझे मेरे दोस्त जैनिल का फ़ोन आया.


जैनिल ने मुझे फ़ोन पे बताया,

“केसा है वैश्विक? अरे भाई तुने मुझे कल जो वोटसएप पे कहानी की लिंक भेजकर कहा था की जरूर से पढ़ना, वो कहानी मैने पढ़ निकाली और अपने आपको तुझे फ़ोन करने से रोक ना पाया. धन्यवाद दोस्त, एसी नायाब और दिल को हिला कर रख देनेवाली कहानी भेजने के लिए. मैंने मेरे सभी दोस्तों और रिश्तेदारों से कहानी श्येर कर दी है.........और हा जेसे वैश्विक तू कहानी के लेख़क का बड़ा चाहक है ना, मैं तुजसे भी बड़ा चाहक बन गया हूँ. क्या लिखता है य़ार ‘वेदांत दवे’, कहानी लिखना तो कोई उनसे ही शिखे. मेरा तो दिन बन गया ये ‘मातृभारती’ एक्सक्लूसिव कहानी “जेसे भी है, आखिर तेरे ही बच्चे है!!” पढ़ कर.”


फिर से एक बार तैयार हो जाईए, दोस्तों!! हमारा ये यादों का हवाईज़हाज फिर से उड़ान भरने के लिए बिलकुल तैयार है. तो चलिये, ‘रहेमान चाचा’ की कहानी में आगे बढ़ते है.


अगला दिन और कहानी की आखरी घडी, अंत में आ ही गई.

एक मुस्लिम चाचा, जिनका कोई आधार ही नहीं, जिनके साथ मेरा कोई रिश्ता नहीं और उन्हीके वहा मैं दावत क़ुबूल फरमाने जा रहा हूँ, ये मेरी और मेरे माता-पिता की समज के बहार था.

मैं वैश्विक, उनके घर जाकर खाने पे बेठा. चाचा के हाथों ने तो कमाल कर दिया था. मेरी नज़रों के सामने लाजवाब व्यंजनों और पकवानों से भरी थाल उन्होंने रखी और मेरे सामने ही चाचा बेठ गए. मुझे खाना परोस रहे थे, पंखा डाल रहे थे और बस मुझे निहारते जा रहे थे.

खाना हो जाने के बाद रहेमान चाचा के मुख पर जो एक सुकून सी मुस्कान थी, वो आज भी मैं नहीं भूल पा रहा. फिर चाचा ने मुझे एक रुमाल लाकर दिया और मेरी आँखे उस रुमाल से बंध करने को कहा. मैंने कहेने के अनुसार बर्ताव किया. जेसे ही मैंने चाचा के कहेने पर आँखों से वो रुमाल हटाया, वहा चाचा एक बिलकुल नयी साइकिल के साथ नजर आए. चाचा ने साइकिल को लोक कर दिया और मुझे चाबी देते हुए कहा,


“बेटे खुराद्द!!.......देख तेरे दादा तेरे लिए तोफ़ा लाये है.”

[वो रहेमान चाचा की दर्दभरी आव़ाज आज भी मेरे कानो में होकर गुजरती है और मेरी आँखों से अश्रु अपने आप को रोक नहीं पाते.......]

उनकी वो आव़ाज ने, मेरे सोला साल के मासुम से दिल को हिला कर रख दिया और मैं तोफ़ा क़ुबूल फरमाने से मना नहीं कर पाया.

मैं साइकिल की सवारी लेते अपने घर पहोंचा.


ट्रिंग.......ट्रिंग......ट्रिंग.......ट्रिंग.........

[साइकिल की घंटी की आ रही आवाज, जो मैंने अपने घर के पास आकर बजाना शुरू किया.]

मेरे माता-पिता वो आवाज सुनकर बहार आये और दोनों ही मेरी नयी साइकिल की शाही सवारी को देखकर हेरान हो गए.

मेरे पिताजी ने कहा,

“अरे वैश्विक, कहा से चोर कर लाया ये साइकिल?”

मैंने जवाब दिया,

“क्या पापा आप भी, कुछ भी बोल रहे हो.......”

मैं घर के अंदर गया और मेरे माता-पिता को सारी बाते कह डाली. बाद में माता-पिता ने आपस में चर्चा करके वो साइकिल रहेमान चाचा को वापस दे आने की सोची. पर वैश्विक......वो ही सोला साल का, जिद पे अड़ा और आखिर में, मेरे माता-पिता और मैं रहेमान चाचा के घर साइकिल के पैसे देने के लिए गए.


मेरे पिताजी ने चाचा को साइकिल के पैसे देने हाथ आगे किया और तब जो रहेमान चाचा ने कहा था वो आज भी मुझे बराबर याद है.


“पोते को तोफ़ा देकर कोई दादा उसकी किंमत लेगा क्या!?”


पैसे देने के लिए मेरे पिताजी का हाथ जो आगे हुआ था, वो अजनबी तो न हुआ पर उसी हाथ में एक बूढ़े दादाजी की दुआएं शामिल हो गई.


मुझे उस वखत लगा, ‘रहेमान चाचा में मुझे मेरे दादाजी मिल गए!!’