कालिदास के काव्यों में
प्राकृतिक सौन्दर्य
( अ ) प्रकृति का मानवीकरण
( ब ) सुख दुःख में प्रकृति का तादात्म्य
( स ) प्रकृति का साहृयचर्य
कालिदास के काव्यों में प्राकृतिक सौन्दर्य
काव्यों में प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में प्रचुर मात्रा में है । रामायण का प्रणेता प्रकृति के शान्त और निष्कामतृप्त रूप का चितेरा रहा है । शरद् को आकाश की सान पर चढ़ाई हुई तलवार की तरह निखरा हुआ बताना - ( 1 ) और चन्द्रमा को आकाश के गोष्ठ मे विचरण करने वाला अलमस्त वृषभ कहना- ( 2 ) आदि उदाहरण काव्य के प्रारम्भिक प्रकृति सौन्दर्य के उत्तम उदाहरण है । प्रकृति के स्थिर व शांत सौन्दर्य में निमग्न रहने तथा कदाचित् उसमें बाधा न सह सकने के कारण ही क्रौंच पक्षी के रति में बाधक व्याध के लिये कवि के मुख से यह वाणी निकल पड़ी
" मा निषाद प्रतिष्ठांत्वमागमः शाश्वतीः समाः ।
आदिकाव्य से प्रभावित श्रीमद्भागवत का प्रकृति चित्रण भी मानवीय भावनाओं की अपने आप में अधिक स्पष्ट रूप से आत्मसात किये हुये है ।
कालिदास का प्रकृति वर्णन विस्तार न पाने के कारण ही उनका संयमित वर्णन अधिक पानीदार बन गया है । कालिदास का मेघदूत पृथ्वी की आकांक्षा का गतिशील रूपान्तर है । सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि कालिदास के प्रकृति वर्णन को मनुष्य की सत्ता से अलग करके नहीं देखा जा सकता । शकुन्तला सौन्दर्य के सारे उपादान प्रकृति के ही है ।- ( 1 )
बाह्य प्रकृति के निरीक्षण एवं उसके सौन्दर्य वर्णन में भी कवि की लेखनी पूर्ण दक्ष है । उनकी निरीक्षण - शक्ति अत्यन्त सूक्ष्म तथा पैनी है । उनका निरीक्षण वैज्ञानिक तथा प्रतिभा मण्डित है । उनकी सूक्ष्म दृष्टि ने प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों को बड़ी सावधानी से हृदयांगम किया है । उनके प्रकृति वर्णन इतने सजीव है कि वर्णित वस्तु हमारे नेत्रों के समक्ष नृत्य करती हुई सी प्रतीत होती है । बाहय प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करना उसका मार्मिकांश प्राप्त कर लेना ही कालिदास की महती विशेषता है । उनके प्रकृति में निरीक्षण की नवीनता सहृदयता की सरसता तथा कल्पना की कमनीयता पाई जाती है । हाँ इतना अवश्य है कि उन्होंने प्रधानतः प्रकृति के केवल भव्य , मनोरम सौन्दर्य , समुज्ज्वल तथा यथार्थ पक्ष का ही वर्णन किया है । राजा दुष्यन्त स्वर्ग से उतरते समय पृथ्वी को देखते है । - राजा को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो सम्पूर्ण पर्वत ऊपर को उठ रहे है तथा उनके शिखर प्रदेशों से पृथ्वी नीचे की ओर - उतर रही है । वृक्षों के स्कन्ध दृष्टिगोचर होने लगे है अतः अब ये पत्तों के भीतर लीन हुये से प्रतीत नहीं हो रहे है जिन नदियों का जल पहले दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था वह अब दिखलाई पड़ने लगा है । - जैसे कोई इस पृथ्वी लोक को मेरे पास उछालकर ऊपर फेंक रहा हो , उस भाँति यह मेरे समीप चला आ रहा है । (2)
यहाँ पर कवि की कल्पना कितने विस्तीर्ण क्षेत्र को सिमेटे हुये है साथ ही , जिस प्रकार रेलगाड़ी में बैठे हुये व्यक्ति को सारी पृथ्वी पीछे की ओर दौड़ती प्रतीत होती है , उसी प्रकार आकाश से यान द्वारा उतरने वाले को सारा भूलोक ऊपर की ओर उछालता हुआ प्रतीत होता है ।
अभिज्ञान शाकुन्तल में रथ के वेग का वर्णन करते हुये कवि ने यह स्पष्ट किया है कि रथ के वेग के साथ गमन किये जाने पर समीपस्थ प्रकृतिके आकार में शीघ्रता के साथ कैसा कैसा परिवर्तन हुआ करता है - ( 3 ) रथ के वेग के कारण प्रकृति का जो दृश्य दूर से सूक्ष्म दृष्टिगोचर होता था , वह सहसा वृहत् हो जाता है । जो मध्य में विच्छिन्न सा प्रतीत होता था , वह सहसा संयुक्त सा दृष्टिगोचर होता है । जो वस्तु स्वभावतः टेड़ी है वह भी नेत्रों को सीधी सी ज्ञात होने लगती है कोई वस्तु क्षणभर में न दूर ही रहती है और न समीप ही ।
कालिदास के सम्पूर्ण पात्रों का चरित्र प्रकृति के मधुर वातावरण के बीच में ही निखरता हुआ दिखाई पड़ता है ।
कालिदास की शकुन्तला तथा भवभूति की सीता का चरित्र उनके द्वारा पाले गये मृग , मयूर तथा पुत्र तुल्य पाले गये लता , वृक्ष आदि के बिना अधूरा है । बाण की महाश्वेता भी आच्छोद सरोवर के बिना फीकी लगेगी । कालिदास की प्रकृति नव वधु की तरह सजी हुई , कुतुहलमयी मुग्धानायिका के सदृश है । सम्पूर्ण प्राकृतिक चित्र मानवीय सुखदःखात्मक भावनाओं से ही उद्भूत है ।
प्रकृतिवर्णन में मानवीय भावना के समावेश के कारण ही कालिदास का प्राकृतिक सौन्दर्य अपने आप में अनूठा है । विश्वख्याति प्राप्त कालिदास के अभिज्ञान- शाकुन्तल नाटक के प्रकृति वर्णन में मानवीय भावना पूर्णरूपेण समायी हुई है । उस सौन्दर्य से अभिभूत होकर ही गेटे को कहना पड़ा -
" वासन्तं कुसुमं फलं च युगपदं सर्व च यत् ।
यच्चान्यन्मनसो रसायनमतः संतर्पणं मोहनम् ।
एकीभूतमभूतपूर्णमथवा स्वर्लोक भूलाकयोः ।
ऐश्वर्य यदि वांछसि प्रियसखे शाकुन्तलं सेव्यंताम् ।। (4)
विश्व की दृष्टि में सम्पूर्ण चराचर प्रकृति जड़ या भावना हीन नहीं है वरन् उसके भावुक कल्पना चक्षुओं के सम्मुख वह सब चेतन प्रतीत होती है ।
कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनका प्रकृति चित्रण मात्र प्रकृति चित्रण न होकर बाह्य तथा अन्तर्जगत् के बीच सम्बंध स्थापित करने वाला है । यही कारण है कि वर्डसवर्थ भी कालिदास के साथ , खरगोश और कछुए की दौड़ में अपने आपको कछुआ ही अनुभव करने लगते है । इन्हीं कई बातों में कालिदास शेक्सपीयर से भी बहुत आगे निकल जाते है । पुरूरवा का वियोग शकुन्तला की विदा , अज का विलाप सीता विलाप आदि उदाहरणों से कालिदास का साहित्य लबालव भरा पड़ा है । शकुन्तला के अछूते यौवन की मनोहरता प्रकृति के द्वारा कवि ने किस कुशलता से व्यक्त की है - ( 5)
शकुन्तला का हृदय मृग तथा पशु - पक्षियों के प्रति वान्धव स्नेह से ओतप्रोत है । वृक्षों में पानी देने के पूर्व जो स्वंय जल - पान भी नहीं करती , प्रकृति सौन्दर्य नष्ट होने के डर से जो रूचिकर होने पर भी बालों में फूल नहीं लगाती ऐसी शकुन्तला के वियोग में यदि जड़ प्रकृति भी शोकाकुल हो तो आश्चर्य ही क्या ? मेघ को दूत बनाकर कवि ने जड़ प्रकृति की तादाम्यता का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है । विशालकालान्तर में सीता का वियोग राम - लक्ष्मण के साथ ही वनवासी पशु - पक्षियों के लिये असह्य हो उठता हे , वे व्याकुल हो जाते है । मोर नाचना भूल जाते है । तरू फूलों के आँसू डालने लगते है । हरिणियों के मुँह की अधकुचली दूर्वा नीचे गिर जाती है ।
प्रिया वियोग मे भी दुष्यन्त शकुन्तला का चित्र खींचते समय उसकी पृष्ठभूमि में उस प्रकृति के कोमल रूप की कल्पना करता है जो उसकी सदा से चिरसंगिनी रही है । वह सोचता है – ' मालिनी की वह धारा हो जिसकी रेत के अंचल में हंसों के जोड़े किलोल कर रहे हों , उसके दोनों और पार्वती के पिता हिमालय की पर्वत मालायें दौड़ती चली गई है । हिरण जिस पर विराजमान हो । फिर अपनी शाखाओं से तामृसों के वरूतल्पकार तरू के नीचे कुछ ऐसा रखना चाहता हूँ जिसमें अपने प्यारे काले मृग की छाँह में बैठी मृगी उसके सींग से अपना बाँया नयन खुजा रही हो । कितनी हृदयस्पर्शी कल्पना है ।
विक्रर्मोर्वशीयम् में राजा द्वारा उर्वशी को दी गई राजहंसी की उपमा बड़ी ही अद्भुत व अनोखी है ।
' सुरंगिना कर्षति खण्डिताग्रात्सूत्रं ।
मृणालादिव राजहंसी ।। (6)
राजा कहता है कि यह अप्सरा गगन मार्ग से जाती हुई मेरे मन को बलात् शरीर से बाहर वैसे ही खीचे लिये जा रही है जैसे राजहँसी कमल को टूटी डंडी से उसका तन्तु खींचे लिये जाती है ।
प्रकृति का मानवीकरण
किसी भी काव्य में चित्रित प्रकृति चित्रण को उदात्त और अनुपम तथा अनूठी शोभा से मण्डित करने के लिये उसमें मानवीय भावना का समावेश होना आवश्यक है । मानव के समान प्रकृति भी प्राणमयी है । चेतना युक्त है । कालिदास कृत प्राकृतिक सौन्दर्य इसी मानवीय भावना तथा मानवीकरण के कारण चेतनावान बन गया है । प्रकृति एवं सौन्दर्य और प्रेम के कवि कालिदास में सर्वत्र ही प्रकृति में मानव को तथा मानव में प्रकृति की छाया परिणत होती हुई दृष्टिगोचर होती है । इसी कारण कवि लतावृक्षादि से प्राणिवत् व्यवहार करता हुआ दिखाई देता है । वसन्तकालीन सुरभित पवन को अपना स्नेहिल मित्र समझा तथा कोयल के मधुर कुंजन द्वारा कुशल क्षेम जानना चाहता है । वायु में उड़ते हुये परागकण मानो नववधू का मुखचूर्ण है तथा कवि की वन - लक्ष्मी भी मनोहरा युवती के समान ही सहृदय को आकर्षित कर लेती है । यहाँ तक उर्वशी को मानवी से लता और लता से मानवी रूप में परिवर्तित कर कवि ने यह प्रमाणित कर दिया है कि प्रकृति और मानव में कोई विशेष मौलिक भेद नहीं है ।
नागाधिपति को कालिदास ने स्पष्ट रूपेण चेतन आत्मशक्ति सम्पन्न पुरुष के रूप में चित्रित किया है । विशाल देवदास उसकी भुजायें है , उसका ठोस शिलामय वक्षःस्थल है । सप्त ऋषियों के सम्मुख स्वयं हिमालय ने इस दात को कहा है । सौन्दर्य के जो तत्व मानवों में प्राप्त है वही प्रकृति में भी । यह कहना कि कालिदास नदियों का मानवीकरण करते है , सत्य नहीं है , किन्तु उनके निकट के एक उतना ही संचेतन व्यक्तित्व रखते है , जो उतना । सच्चा एवं उतना ही निश्चित है , जितना मनुष्यों - पशुओं और देवताओं का ।
कालिदास के काव्य में प्रकृति के साहचर्य में मानव का मनोजगत् अपने पूर्ण वैभव के साथ उद्घटित हुआ है । मानव की तरह ही प्रकृति का भी चरमोत्कर्ष देवत्व में ही है । विरही यक्ष अज और राम की व्यथा प्रकृति के कण—कण में प्रतिध्वनित होती हुई दिखाई देती है । कामदहन के कारण प्रकृति का सुन्दर वातावरण एकाएक करूणा से भर जाता है ।
ऋतुसंहार में प्राकृतिक वातावरण के परिवर्तन के साथ ही परिवर्तित होती हुई मानव मन भी अनुरागमयी भावनाओं का बड़ा ही सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है । ऋतु - संहार उद्दीप्त भावनाओं का चित्र हैं वस्तुतः ऋतुसंहार को ' प्रेम का तिथिपत्रक ' ( कैलेण्डर ऑफ लव ) कहा जा सकता है । ( कालिदास रमाशंकर तिवारी ) प्रकृति के सुन्दर वातावरण में रहकर ही मानव - भावनायें सौन्दर्योन्मुख होती है और तभी वह जीवन के छिपे हुये सौन्दर्य को ढूढ़ने में सफल हो सकता है । मानव के सानिध्य के कारण ही कालिदास के प्राकृतिक सौन्दर्य में चार चाँद लग गये है । न फूलों का आकार अपने आप में सिद्ध है और न मनुष्य का विलास उसके अभाव में सम्भव है । दोनों एक दूसरे के अर्थ साधक है ।
ऋतुसंहार के ग्रीष्मवर्णन में चन्द्रमा का मानवीकरण करते हुये उसे पीला पड़ता हुआ बताया है । भवनों की श्वेत छतों पर रात्रि में ( सुरतानन्तर ) सुखपूर्वक शयन करती हुई नारियों के मुख को रात्रि पर्यन्त निहारता हुआ अत्यन्त उत्कण्ठित हो चन्द्रमा अन्त में लज्जा से पीला पड़ जाता है । (7)
शरद ऋतु का एक नववधू के रूप में मानवीकरण बड़ा ही मनमोहक है । - पलाश कुसुमों के वसन पहने , विकसित मदनरूपी सुन्दर आननवाली , उन्नमत्त हँसों के कलरव से अपने पायलों की मधुर ध्वनि को ध्वनित करती हुई , चारों ओर पके शालिरूपी मनोहर काया लिये रूप शालिनी नववधु की तरह शरद् ऋतु आ पहुँची है ।(8)
कालिदास ने कभी रात्रि को नायिका के रूप में चित्रित किया है तो चन्द्रमा को नायक के रूप में बताया है और कभी वसंत को रसिकों के मन को वैधने वाला योद्धा बताया है । उत्तरायण में ( वसंत काल में ) दक्षिण दिशा का सूर्य के द्वारा त्याग कर देने के कारण दक्षिण दिशा रूपी नायिका को विरह में व्याकुल मलयानिल रूपी तीव्र निःश्वास छोड़ते हुये बताया है
दिन में सूर्य से भयभीत अंधकार को हिमालय अपनी कन्दाराओं में शरण देता है । हिमालय की महानता इसी में है कि वह शरणागत वत्सलता का पालन करें । यहाँ उसे गिरिराज की उपाधि से विभूषित किया गया है । इसी कारण गायें अपनी चन्द्रकिरणों के समान धवल पूँछ हिलाकर पर्वतराज पर जीवित चवँर झलती है ।
मेवदूत में अलका को प्रिया के रूप में कैलाश की गोद में शयन करते हुये निरूपित कर कवि ने अद्भुत कोमल कल्पना का परिचय दिया है ।
रघुवंश में भी नदियों व समुद्र के बीच पति - पत्नि का असाधारण सम्बन्ध स्थापित किया गया है । नदियाँ अपना अधर प्रदान करने में स्वभाविक ही ढ़ीट है उधर समुद्ररूपी नायक अधरदान करने में बड़ा कुशल है । यह नदियों को अपना तरंगरूपी अधर पिलाता भी है और स्वयं उनका अधर पान करता भी है । - (9)
मेघदूत मे भी यही भाव को नायक और क्षिप्रा , निर्विन्ध्या , काली - सिन्ध आदि नदियों को नायिका के रूप में चित्रित कर , स्पष्ट किया है । कालीसिन्ध को प्रियविरह से व्याकुल क्षीण नायिका के रूप में चित्रित किया है । वह बहुत काल तक तुमसे ( मेघ से ) वियोग होने के कारण अत्यंत क्षीण हो गई है । तट के वृक्षों के गिरते हुये सूखे पीले पत्ते क्या है मानो वह विरह में आँसू गिरागिराकर पीली पड़ गई है इसलिए हे मेघ तुम किसी भी प्रकार उसकी क्षीणता दूर करना ( 10 )
कुमार - सम्भव में सूर्य का पतिरूप में तथा संध्या का प्रतिव्रता नारी के रूप में चित्रण अत्यन्त मनमोहक है । सूरज डूब चुका है , साँझ की लाली भी प्रतीचि के अम्बर से धीर - धीरे मिट चुकी है , संध्या का भाल सिन्दूर सूर्य के अस्त हो जाने पर मिट गया है और वह सती पति के साथ ही तिरोहित हो गई - सूर्य के डूब जाने पर आकाश गहरी नींद में सो गया है । ' ख ' प्रसुप्तमिवसंस्थिते रवौ ' ।
रघुवंश में राज्यश्री का ( राज्यलक्ष्मी का नारीरूप में दक्षिण कुशावती में रहने वाले राजा कुश से सुन्दर संवाद प्रस्तुत किया है । प्रारम्भ में ही कवि ने , सोये हुये राजा के समक्ष सहसा जाकर खड़ी राजलक्ष्मी का अप्रतिम वर्णन किया है । सज्जनों के सम्पत्तिदान करने वाले इन्द्रवत् तेजस्वी शत्रुजय ( कुश ) के सामने ' जय हो ' कहती हुई राजलक्ष्मी हाथजोड़ कर खड़ी हुई और जब कुश ने देखा कि कदार बंद रहते भी ठोस दर्पण में घुस जाने वाले प्रतिबिम्ब की तरह यह नारी ( राजलक्ष्मी ) उसके शयनागार में घुस आयी है तब आश्चर्यचकित कुश पर्यंक से उठ बैठा।
उमा का सखियों सहित शिव - पूजा को उनके समाधि भवन लतागृह में जाने के समय शिव का समाधिभंग होना और मदन का दहन होना उमा की अपनी हार है , क्योंकि अपने रूप का जादू वह उसी कामबाण द्वारा ही तो शिव पर चला सकती थी । ऐसी किंकर्तव्य विमूढ़ स्थिति में सखियों के सामने अपनी पराभव को लज्जा से और भी उपहास्पद मानती हुई पार्वती रूप को कोसती है उमा केवल ऐसे के पास जाना चाहती थी जो उनकी इस स्थिति को संभाल सके । यह कार्य उसके रक्षक पिता हिमालय के अतिरिक्त भला कौन कर सकता था ? कवि ने नाटकीय तीव्रता के साथ पिता हिमालय को सहसा वहाँ उपस्थित कर दिया है । जिस वेग से तथा जिस दिशा से वे उपस्थित हुये थे , उसी वेग से तथा उसी दिशा में वे चुपचाप अपनी पुत्री के अपमान की घुटन लिये दर्व से भरे अपने भवन की ओर चले गये ।
मेघदूत में सूर्य का चित्रण एक परगामी नायक के रूप में देखकर कौन सहृदय आश्चर्यचकित न हो उठेगा । यह मेघ से कह रहा है- यद्यपि तुम्हें मित्र के कार्य की शीघ्रता ही होगी । उधर सूर्य को भी शीघ्रता होना स्वभाविक है कारण यह है कि रातभर अन्यत्र रमण करने वाले उस नायक की अनेक प्रियायें ( कमलनियाँ ) खण्डिता नायिकायें बन गई होगी । विरह और मन में रातभर बहाये आसुओं को पोंछकर उन्हें शांतिप्रदान करने सूर्य उसी काल दौड़ा जा रहा होगा अतः तुम शीघ्र ही उसकी राह छोड़ देना वरना वह क्रोधित हो उठेगा।- मेघ को यह चेतावनी कवि ने अत्यन्त मधुर असाधारण ललित पदावली में व्यक्त की है - ( 11 )
रघुवंश में दशरथ के आखेट के हृदयग्राही वर्णन में मृगी को एक सच्ची प्रिया के रूप में चित्रित किया गया है । राजा ने मृगों के स्वामी कृष्णसार मृग को मारना चाहा कि उसकी सहचरी मृगी प्रिय - रक्षा के लिये बाण की राह में आ जाती है , राजा को मृगियों के त्रास भरे आकुल नयनों को देखकर अपनी प्रिया की स्मृति हो जाती है और वह धनुष की प्रत्यंचा से बाण उतार लेता है । -
कालिदास की प्रकृतिमूलक उपमाओं में मानवीकरण
उपमादि अलंकार का एक प्रधान तत्व अचेतन को चेतन के सदृश चेष्टाओं से ओतप्रोत करना है । मनुष्य की आत्मानुरूप प्रकृति में स्थित देखने का एक अपना आनन्द होता है । यह आनन्द काव्यानन्द से भिन्न जाति का नहीं है । कालिदास ने भी अपने काव्य में अनेक स्थलों पर इस आनन्द की स्थिति को अवतरित किया है रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में ' अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक में जिस तरह दुष्यंतादि पात्र है उसी तरह तपोवन की प्रकृति भी एक विशेषपात्र है । इस मूक प्रकृति को संस्कृत साहित्य में अत्यावश्क स्थान दिया गया है । प्रकृति को मनुष्य मानकर उसके मुँह वार्तालाप की स्थिति भी नाटक में हो सकती है । किन्तु प्रकृति को प्रकृति रखकर भी उसे इतना सजीव , इतना प्रत्यक्ष , इतना व्यापक , इतना अंतर्गत बना लेना और इसके द्वारा नाटक में इतने कार्य सिद्ध करवा लेना — यह तो मैंने अन्यंत्र नहीं देखा ।
यही बात कालिदास के अन्य नाटक व कार्यों के बारे में सत्य है । कवि ने सर्वत्र ही प्रकृति को प्राण धर्म देकर जीवन्त बना दिया है । कुमारसम्भव में लताओं का नायिका के रूप में वर्णन दर्शनीय है -लता वधूगण ने अपने यौवन के लावण्य प्राचुर्य में ही मानो तरूगण की विनम्र शाखा बाहुओं का बन्धन लाभ किया था । प्रचुर पुष्पस्तवक ही उनके स्तनभार थे और अचिरोद्गत किसलय ही उनके लावण्युक्त मनोहर अधर थे । उस सौन्दर्य के प्राचुर्य के कारण ही मानो वे प्रियतम के निकट सौभाग्यवती हो उठी थी । - महाकाव्य रघुवंश में भी इन्दुमती तथा अज के मिलन के समय वृक्षालतादि के सम्बंध में एक मधुर मानवीकरण की भावना प्रकट की है । - सन्निहित अशोक लता के नव पल्लव के द्वारा विजड़ित कर सहकार वृक्ष जिस तरह शोभित होता है वैसे ही नव परिणिता वधु इन्दुमती का हाथ अपने हाथ में लेकर महाराज अज सुशोभित हुये ।
रंघुवंश में गौसेवा के समय उस जंगल में भी दिलीप के मस्तक पर , समीर से आन्दोलित बाल लताओं ने पौर कन्याओं की तरह ही शुभ्र प्रसूनों की लाजांजलि अर्पित की ।
सुखानुभूति के क्षणों के समान ही मानव के दुःख के क्षणों में भी प्रकृति संवेदना प्रकट करने में पीछे नहीं रहती है । राजा अज तथा राम के विलाप में प्रकृति भी हमें रोती हुई दिखाई देती है । लक्ष्मण ने जब सीता का परित्याग जाह्नवी के किनारे कर दिया तब सीता धरापर हताहत बल्लवी के समान हो गई । उस विपत्ति की वायु से आहत सीता अपने रत्नालंकार रूप कुसुमों का परित्याग कर लता की तरह अपनी माता वसुन्धरा की गोद में पछाड़खाकर गिर पड़ी । ( 12 )
काव्य में कारूण्य की सीमा का कवि ने मानो अतिक्रमण ही कर दिया है । विपत्ति के आघात से असहाय कन्या को इस तीव्र असहय वेदना से माता धरिणी की छाती भी फट गई और सारी वनस्थली उसके वियोग में रो पड़ी ।
कुमार सम्भव में भी तपस्विनी उमा का वृक्षों के प्रति ममत्व बड़ी ही मार्मिकता से चित्रित किया गया है । तपस्विनी उमा घट रूपी स्तनों के प्रसावृण से स्वंय ही छोटे - छोटे वृक्षों को बड़ा करने लगी । अतः शिसुवृक्षों पर पार्वतों का ऐसा पुत्रवत् स्नेह हो गया कि कुमार कार्तिके के जन्म के बाद भी वे उस वात्सल्य की स्थिति को कम न कर सकी । ( 13)
सज्जन पुरुषों की तरह ही समृद्धि के आने पर वृक्ष भी विनयी हो जाते हैं । नवजल भार से मेघ भी झुक जाते है । परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है ।
प्रकृति में देवत्व का सबसे प्रबल प्रमाण अभिज्ञान शाकुन्तल का नान्दी श्लोक ही है । जहाँ कवि का प्रकृति प्रेम अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गया है और शिव की अष्टमूर्ति में कवि को प्रकृति के अनेक तत्वों को देखने के लिए बाध्य होना पड़ा । इसीलिये हमारे चारों ओर विशाल प्रकृति अपने सौन्दर्य के विशाल वैभव को अज्ञात रहस्य के आवरण में ढ़ाले दिखाई पड़ती है । उसकी अपार महिमा के सम्मुख श्रद्धा और भक्ति से मस्तक भुकाते हुये कवि कह उठता है । ( 14 )
कौटुम्बिक सम्बन्ध प्रकृति में मानवीकरण की भावना बलबती होने के कारण ही कवि ने अनेक स्थानों पर प्रकृति के साथ मानवीय पात्रों का कौटुम्बिक सम्बन्ध भी स्थापित किया है ।
पुत्रस्नेह कालिदास के अधिकांश पात्रों में प्रकृति के प्रति पुत्र स्नेह की भावना का पल्लवन होता हुआ देखा जा सकता है । रघुवंश में देवदास वृक्ष को शिव का पुत्र माना गया है । - देखा वह सामने देवदास का वृक्ष है । शिव से पुत्रीकृत है । जिस प्रकार उमा का स्तनपान करके कार्तिकेय के स्कन्द पृष्ट हुये , उसी प्रकार उन्होंने हेमकुम्भ के गंभीर हृदय से उद्गीर्ण सुधारस से सींचकर इस लालित किया था मेघदूत में यक्षप्रिया ने भी अपने घर के आँगन में लगे कल्पवृक्ष को पुत्र की तरह ही पाला व दत्तक पुत्र के समान उससे स्नेह करती है । अभिंशाकुन्तल में भी शकुन्तला विदा होते समय पिता से कहती है- ' तात् मैं अपनी बहिन ज्योत्स्ना लता से भी अन्तिम विदा लेना चाहती हूँ ' तथा उत्तर में कण्व का यह कथन मैं जानता हूँ कि जिसे तू सगी बहिन जैसा स्नेह करती है वह यह है दाहिनी ओर । और शकुन्तला तब कहती है यद्यपि तू आम के वृक्ष से लिपटी हुई है किन्तु अपनी फैली हुई शाखाओं की बाहों से तू मुझसे अतिंम भेंट तो ले , क्यों कि आज के बाद तुमसे बहुत दूर जा पडूगी।
वनज्योत्सना से विदा लेकर वह ज्यों ही आगे बढ़ना चाहती है कि चलने में रूकावट का अनुभव करती है और कहती है - अरे यह कौन मेरा आंचल पकड़कर खींचे जा रहा है ? तब कण्व उत्तर देते है - ' वत्से कुशा कांटे से छिदे हुये जिसके मुख को अच्छा करने के लिए तू उस पर हिगोट का तैल लगाया करती थी वही तेरे हाथ से दिये मुट्ठी भर साँव के दानों से पला हुआ तेरे पुत्र के समान प्यारा हरिण मार्ग रोके खड़ा है ।
राजा दुष्यन्त की सभा में राजा की विस्मृति की अवस्था में शकुन्तला राजा को याद दिलाने के लिये अपने द्वारा पालित दीर्घापांग नामक पुत्रवत् मृग छोने की घटना का स्मरण कराती है कि जब आप उसे जल पिलाने लगे थे तो वह आपके पास नहीं आया क्योंकि आप अपरिचित थे किन्तु जब मैने जल पिलाने के लिए हाथ आगे किया तो वह आकर पानी पीने लगा तब आपने कहा था कि वनवासी तुम दोनों हो , अतः तुम्हारा परिचित है ।
सर्वदमन जब सिंहशिसु के साथ खेलते हुये उससे कहता है कि रे सिंह अपना मुँह खोल , मै तेरे दाँत गिनूगाँ । तब तपिस्विनी भी उन पशुओं को अपनी सन्तान तुल्यही बताती हुई कहती है ' अविनीत किं न खलु अपत्य निर्विशेषाणि त्वानि विप्रकरोषि । ' अर्थात् ने नटखट जिन पशुओं को हमने संतानतुल्य पाला है उन्हें तू क्यों इतना सताया करता है ।
पूर्वमेघ में भी मयूर को पार्वती के पुत्रतुल्य ही बताया गया है । हे मेघ जब वहाँ गर्जना करोगे तो कार्तिकेय का मयूर प्रसन्नता से नाच उठेगा । पुत्रतुल्य उस मयूर के झरे हुये पंख ही पार्वती अपने पुत्र पर प्रेम दिखाने के लिये अपने कान में लगा लेती थी , जिन पर प्रायः वे कमल पंखुड़ी सजाया करती थी । ऐसे भगवान कार्तिकेय के वाहन मयूर को पर्वत की गुफाओं में प्रतिध्यनित होने वाली अपनी गर्जना से नचाना-
निसर्ग कन्या शकुन्तला कालिदास की शकुन्तला तो निसर्ग कन्या है । कवि ने शकुन्तला को प्रकृति - सुन्दरी के रूप में देखा है और उसका लता , वृक्ष , मृगशावक आदि से कौटुम्बिक सम्बन्ध स्वीकार किया है । सम्पूर्ण चित्रण कुछ इस प्रकार का है कि शकुन्तला उस तपोवन में खिली हुई एक पुष्पलता के समान दिखाई देती है - भोली , उभरती हुई , आरूढ़यौवना कवि ने नारी के तन - मन का अद्भुत साक्षात्कार किया है । उन्होंने नारी के मन को जिस विविधता से पकड़ा है वह अन्य कवियों की पहुँच से परे है । कवि ने शकुन्तला के रूप में सनातन नारी के वास्तविक स्वरूप को आँकने का प्रयत्न किया है ।
प्रकृति सुन्दरी शकुन्तला मानो प्राकृतिक सौन्दर्य का ही एक अंग है । अभिज्ञान शाकुन्तल के प्रथम अंग में ही केसर वृक्ष में पानी देती हुई शकुन्तला से प्रियम्वदा कहती है कि रूक जाओ ! तुम्हारे यहाँ रूकने मात्र से केसर का वृक्ष लता से संयुक्त लगता है । प्रकृति सुन्दरी के रूप में कवि ने उसकी उपमा लता के साथ देकर वृक्ष के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित किया है ।
प्रकृति की गोद में जन्म लेने वाली तथा नैसर्गिक वातावरण में ही पली वह प्रकृति सुन्दरी तपस्वी कन्या शकुन्तला दुष्यन्त के लिये विद्युतलता और सखियों के लिये नवमालिका थी । जब सखियाँ प्रकृति के प्रति उसके अनन्य प्रेम का कारण पूछती है तो वह कहती है
' न केवल लता नियोग एवं अस्ति में सहोदर स्नेहऽव्येतेषु
अर्थात् मुझे इनसे सहोदर भ्राता की तरह स्नेह है । सहोदर स्नेह वह भी जड़ प्रकृति के वृक्षों से इतनी अनन्यता के साथ केवल भावुक और कोमल हृदयवाली शकुन्तला के लिये ही सम्भव है । जन्म से वयः संधिकाल तक प्रकृति के अतिरिक्त जिसने कुछ जाना ही नहीं , ऐसी शकुन्तला से जब अनूसूया पूछती है कि - ' तुम क्या सहकार वृक्ष की स्वयंवर वधु वनज्योत्स्ना को भूल गई हो ? तब वनज्योत्स्ना पर बहिन की तरह स्नेह रखने वाली शकुन्तला का उत्तर अत्यन्त सुन्दर है - ' तदात्मानमपि विस्मरिष्यामि ' - अर्थात् जिस समय ज्योत्स्ना को भूल जाऊँगी उस समय मैं अपने आप को भी भूल जाऊँगी । आश्रम की सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति शकुन्तला का स्नेह असीम है । उसे भलीभाँति विदित है कि किन लताओं में कब स्तवक प्रकट हुये , कम उनमें मंजरियां दिखाई पड़ी । इन सब बातों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने वाली शकुन्तला प्रकृति में पूर्णरूप से अपनत्व की भावना अंगीकार किये हुये है । ऐसे अनेक उदाहरणों से अभिज्ञान शाकुन्तल का चतुर्थ अंक भरा पड़ा है ।
शकुन्तला की विदा के समय कण्य का कथन कितना युक्ति सार्थक है । वे कहते है कि ' जो वृक्षों को पानी पिलाये बिना पानी नहीं पीती थी । सम्राट दिलीप की गौ सेवा से भी कठोर साधना का पालन करने वाली , फूल पत्ते तक व्यर्थ न तोड़ने वाली , वृक्षों में पुष्प आने पर उत्सव मनाने वाली शकुन्तला जा रही है आप लोग आज्ञा प्रदान करें- वह मेरी ही नहीं सम्पूर्ण वनस्थली की पुत्री है । नाटक का यह सर्वाधिक रमणीय पक्ष हृदय के मर्मस्थल को छूने वाला है । ( 15 )
कोयल की वाणी के रूप में सहकार वृक्ष ने उसे अनुमति प्रदान की । उसे जाता देखकर मृगों ने दूर्वा खाना छोड़ दिया , मयूरों ने नृत्य करना छोड़ दिया । पीले - पीले पत्ते गिराकर मानो वृक्ष अश्रु विमोचन कर रहे है । शकुन्तला का प्रकृति के प्रति असीम अनुराग के कारण ही ये वर्णन मार्मिक बन पड़े है ।
गर्भवती मृगवधू को शकुन्तला भला कैसे विस्मृत कर सकती है , वह स्वयं भी तो उसी अवस्था में है । वह जाते समय अपने पिता महर्षि कण्व को स्मरण दिलाती हुई कहती है जब यह मृग वधू सुख से प्रसव करे तब मुझे इसकी सूचना अवश्य ही प्रदान करें । इस प्रकार हम देखते है कि प्रकृति सुन्दरी के नारीत्व का कुसुम इसी प्राकृतिक वातावरण में ही पूर्ण पुष्पित हुआ ।
महर्षि कण्व भी शकुन्तला और नवमालिका में साम्य भाव रखते हुये कहते है कि - ' आम्र से लिपटी नवमालिका के प्रति जैसे मैं निश्चिन्त हो गया हूँ वैसे ही तुम्हें भी रूप गुण सम्पन्न सर्वथा योग्य वर प्राप्त हो गया है । '
दाम्पत्य सम्बन्ध – महाकवि कालिदास प्रकृति का मानवीकरण या प्रकृति में मानव भावना खोजते इतने तल्लीन हो गये है कि प्रकृति में परस्पर दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने में भी नहीं चूके । ये सम्बन्ध हमें नदी - सागर के बीच , सहकार - वनज्योत्स्ना के बीच तथा पर्वतराज हिमालय और मैना के बीच स्पष्ट रूप से दिखाई देते है ।
दाम्पत्य सुख के क्षेत्र में समुद्र मानव से भी अधिक भाग्यशाली है । दूसरे लोग तो केवल स्त्रियों का अधरपान करते है , अपना अधर उन्हें नहीं पिलाते है । परन्तु समुद्र इस बात में ओरों से बढ़कर है क्योंकि जब नदियाँ ढीठ होकर चुम्बन के लिए अपना मुख इनके सामने बढ़ाती है तब यह बड़ी चतुराई से अपना तरंगरूपी अधर उन्हें पिलाता है और उनका अधर स्वयं पीता है ।
सुमेरू के मित्र और मर्यादा को जानने वाले हिमालय ने अपनावंश चलाने के लिये मैना नामक कन्या से विवाह किया जो , पितरों के मन से उत्पन्न हुई थी जिसका मुनि लोग भी आदर करते है और जो हिमालय के समान ही ऊँचे कुल तथा शील वाली थी । विवाह के पश्चात् हिमालय और मैना की संतान के रूप में मैनाक नाम के प्रतापी पुत्र को जन्म दिया । द्वितीय संतान के रूप में पार्वती ने जन्म लिया । पर्वत से उत्पन्न होने के कारण ही उसका नाम पार्वती रखा गया ।
अभिज्ञान शाकुन्तल के प्रथम अंक में अनूसूया वनज्योत्स्ना के आम्रवृक्ष के साथ स्वयंम्बर होने की बात कहती है । ' यह वही नई चमेली है न , जिसने आम्रवृक्ष से स्वयंवर कर लिया है और जिसका नाम तूने वनज्योत्स्ना रख छोड़ा है । इसे भी तू भूले ही जा रही है'- अभिज्ञान शाकुन्तल में अनेक स्थानों पर सहकार और वनज्योत्स्ना के सुखी दाम्पत्यजीवन की ओर इंगित किया गया है ।
सुख दुःख में प्रकृति का तादात्म्य
मानव और प्रकृति का सम्बन्ध चिरन्तन है । सदा से मानव प्रकृति का और प्रकृति मानव की पूरक है । अनादिकाल से ही प्रकृति मानव के सुखदुःख में सहायिका रही है ।
प्रकृति के कवि कालिदास के साहित्य में भी प्रकृति मानव के सुखदुःख निराशा , मिलन , विरह आदि सभी में पूर्ण रूपेण सहभागी रही है ।
सौन्दर्य और माधुर्य के कवि कालिदास के ग्रंथों में प्रकृति सौन्दर्य अपने पूर्ण निखार और उभार के साथ हुआ है । कवि के प्रकृति सौन्दर्य निरूपण की अपूर्व सफलता का रहस्य उनके सूक्ष्म निरीक्षण तथा मानव के सुखदुःख मे प्रकृति के रागात्मक तादात्म्य भावना में निहित है । कवि द्वारा वर्णित प्रकृति की इस तादात्म्य भावना को समझने हेतु निश्चित ही प्रकृति के बीच रहना होगा । रायडर का कथन है कि किसी व्यक्ति को कालिदास की कविता का पूर्ण मूल्यांकन करने के लिए कम से कम कुछ सप्ताह अवश्य ही निर्जन वन्य पर्वतों और जंगलों में व्यतीत करने चाहिये । वहाँ यह धारणा उदित होती है कि पुष्प और पादप निस्संदेह व्यक्तित्व सम्पन्न है , जो व्यक्तिगत जीवन के प्रति पूर्णतः जागरूक तथा उसमें पूर्णतः प्रसन्न है ।
कालिदास लिये प्रकृति केवल सचेतन ही नहीं , अपितु मानवीय संवेदनाशीलता , क्रिया व्यापारों और शील सौन्दर्य से भी सम्पन्न है । कवि के लिये ऋतुएँ सजीव प्राणियों के समान प्रेम , मित्रता और सहानुभूति से समन्वित है ।
कालिदास की प्रकृति के तृण - तृण में व्याप्त आंतरिक और बाह्य सौन्दर्य मानव के सुखदुःख में तदाकार हो उठा है । मेघदूत का मेघ , कुमार सम्भव के हिमालय और वसन्त तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम् के आश्रम स्थित सब लता - वृक्ष और खगमृगसभी मानव मात्र के सुख - दुःख में साथ देते हुये दिखाई पड़ते है ।
अनेक स्थलों पर प्रकृति मानवीय मनोभावों और कार्यकलापों की पृष्ठभूमि के रूप में उपस्थित होकर उद्दीपक का कार्य करती है । प्रकृति का उद्दीपनगत सौन्दर्य मानवीय आकृति सौन्दर्य और शील सौन्दर्य को निखारने तथा उभारने में सहायक दिखाई पड़ता है
कवि की दृष्टि में प्रकृति एक मूक चेतनाहीन अथवा निष्प्राण वस्तु नहीं है । मानव प्राणियों की भाँति उसमें सुख - दुःख सम्वेदना का भाव दृष्टि गोचर होता है । जिस प्रकार चेतन जगत के लोग परस्पर प्रेम के कारण सुख - दुःख में एक दूसरे की सहायता करते है उसी प्रकार प्रकृति भी करती है । शकुन्तला की विदाई के समय तपोवन के वृक्ष अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषण देकर कण्व ऋषि की सहायता करते है । कवि कह रहे है कि - किसी वृक्ष ने चन्द्रमा सृदश श्वेत मांगलिक रेशमी वस्त्र उत्पन्न करके दिये , किसी वृक्ष ने चरणों को रंगने के निमित्त सुन्दर आलक्तक प्रदान किया । इसी प्रकार सब वृक्षों से मणिबंध प्रदेश तक निकले हुये पल्लव सदृश सुन्दर वन देवताओं के हाथों ने हमको नाना प्रकार के अलंकार प्रदान किये ।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि चेतन प्राणियों की भाँति ही प्रकृति भी महर्षि कण्व की सहायता करती है । तपोवन में रहने वाले ऋषि को शकुन्तला की विदा के समय वस्त्र एवं आभूषणों की परम आवश्यकता थी तथा वे सोच रहे थे कि किस प्रकार इस समस्या को सुलझाया जा सकता है किन्तु ऋषि की इस चिन्ता को तपोवन के वृक्षों ने दूर ही कर दिया । ऋषि के प्रति वृक्षों की कितनी सहृदयता एवं उदारता है ।
वायु द्वारा हिलते हुए पल्लवों को देखकर कालिदास को ऐसा भान होता है कि मानो आम्रवृक्ष शकुन्तला को पुकार रहा हो —
शकुन्तला ( अग्रतोऽवलोक्य ) “ सख्यो एवं बातेरित पल्लवांगुलिभिः किमपिव्यावहारतीक मां चूतवृक्षः ।
तपोवन के वृक्ष कोकिल के शब्द द्वारा शकुन्तला की विदाई में अपनी अनुमति देते प्रतीत होते है । कालिदास का विश्वास है कि प्रकृति भावी मंगल और अमंगल की सूचना देती है । माधवी लता का मुकलित होना शकुन्तला के पाणिग्रहण के समय का सन्निकट होना सूचित करता है ।
अपनी प्रिया या प्रेमिका के वियोग से ग्रसित हुआ व्यक्ति , प्रकृति द्वारा अवश्य ही एक प्रकार की सान्त्वना प्राप्त किया करता है । अग्निमित्र वियोगावस्था में मलयानिल द्वारा सान्त्वना प्राप्त करते है । वे विदूषक से कह रहे है कि
" हे मित्र देखो तो , वसन्तकाल , आम्रकुल की सुगन्धी से आमोदित मत्तवायु रूपी अपने करतल द्वारा हमारे शरीर को सहला रहा है । मुझे ऐसा प्रतीत होता कि मानो वह अपनी सहृदयता के साथ कोकिल के मधुर कूजन द्वारा मुझसे यह कह रहा है कि हे सखे तुम अपनी काम पीड़ा को सहन करो । "
महाकवि ने इस उद्धरण में प्रकृति एवं मानव का सुन्दर सम्पर्क दिखलाते हुए प्रकृति में स्फुरित होने वाले हृदय को भलीभाँति पहचाना है ।
यह पूर्णतः सत्य है कि कालिदास ने अपने गीतिकाव्य मेघदूत में मानव तथा प्रकृति के मध्य तादात्म्य भाव स्थापित करने का महान एवं अभूतपूर्व प्रयास किया है । किन्तु फिर भी यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि महाकवि की इस विषय से सम्बन्धित सर्वोच्च प्रतिभा का पूर्ण विकास अभिज्ञान शाकुन्तल में ही जाकर हो सका है । आद्योपान्त मानवीय भावनाओं का चित्रण करते हुये भी अभी: शाकुन्तल में महाकवि ने सर्वत्र मनुष्य का प्रकृति के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करने का पूर्ण प्रयास किया है । इस प्रकार कालिदास ने मानव तथा प्रकृति दोनों का सुन्दर सम्पर्क तथा उनकी अनुपम एक रसता दिखलाकर अभ्यान्तर स्फुरित होने वाले हृदय को भली - भाँति पहचानने का प्रयास किया है । उनके सभी वर्णन सरस बन गये हैं । अनुभव वृद्धि के साथ ही कवि के हृदय में प्रकृति के साथ मानव जीवन की तादात्म्य की भावना निरंतर बढ़ती चली गई और परिणामतः न केवल शकुन्तला ही वन लताओं को अपनी बहिन समझने लगी किन्तु वे कभी उसके वियोग में आंसू भी बहाती दिखती है । कण्व आश्रम के लतावृक्षों तथा पशु - पक्षियों और मानव पात्रों में एक ही आत्मा उच्छवसित होती प्रतीत होती है । शकुन्तला की आशंका से सारी वनस्थली रो पड़ती है । वृक्ष आंसू की तरह पीले पत्ते गिराते है , मृग यूथ आधी चरी हुई घास मुहँ में लिए व्याकुल भाव से ठिठक जाते हैं , मयूर नाचना छोड़ देते हैं और लताएं अपने दीर्घ निःश्वास की भाँति भ्रमरियों को उड़ा देती है । वस्तुतः अभिज्ञान शाकुन्तल में प्रकृति की और मानव में परस्पर पूर्ण तादात्म्य भाव दिखाई पड़ता है । शकुन्तला का सम्पूर्ण श्रृंगार भी प्रकृति ही करती है । उसके पल्लव और पुष्प ही शकुन्तला के श्रृंगार है , वल्कल ही उसके वसन हैं , मृणालनाल ही उसके हार हैं , आगण्ड विलम्बि केशर और शिरीष पुष्प ही उसके कर्णफूल है , कमलिनी के पत्र ही उसे शीतलता प्रदान करते हैं मृगशिशु ही उसके क्रीड़ा सहचर है और लता एवं वृक्षों की सेवा ही उसका मनोविनोद है ।
वस्तुतः कालिदास के लिये बाह्य प्रकृति और अंतः प्रकृति दोनों अन्योन्याश्रित ही नहीं , अपितु परस्पर सम्पृक्त है । कालिदास के प्राकृतिक सौन्दर्य और मानवीय सौन्दर्य में किसी प्रकार की विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती । उन्होंने एक ही रागात्मक सत्ता से जड़ , चेतन और दिव्यादिव्य सभी को एक ही सूत्र में गुंथा हुआ चित्रित किया है । उनके ग्रंथों में प्रकृति के मध्य , स्वछन्द प्रेम , दाम्पत्य प्रेम , वात्सल्य , श्रद्धा , भक्ति और मित्रता आदि विविध मनोभावों का सफल चित्रण हुआ है । मेघदूत के पूर्वार्द्ध में प्रकृति के मध्य स्वछन्द प्रेम के अनेक उदाहरण विद्यमान है । निर्विध्या– और गम्भीरा- नदी की मेघ के प्रति उन्मुक्त रोमांस की भावना दृष्टव्य है । रघुवंश के तेरहवे सर्ग में समुद्र और सरिताओं के पारस्परिक चुम्बन का अत्यन्त सुन्दर चित्र उपलब्ध है ।- कुमाररसम्भव के तृतीय सर्ग में तो अपने प्रिय सहचर वसंत और अपनी प्रिया रति के साथ कामदेव के शंकर के आश्रम में प्रवेश करते ही जड़ चेतन में सर्वत्र प्रणय - भावना का संचार हो जाता है । भ्रमर अपनी प्रिया का अनुसरण करता हुआ एक ही कुसुम रूपी पात्र में उसके साथ मधुपान करने लगता है । कृष्णसार मृगस्पर्श - सुख से आंखें मूंदकर खड़ी हुई अपनी प्रियामृगी को सींग से खुजलाता हुआ प्रणय प्रस्ताव करता है ।- प्रेमाकुल हथिनी कमलों के पराग से सुगन्धित मधुर जल अपनी सूड़ से हाथी के मुख में उड़ेलने लगती है और चक्रवाक पक्षी आधा चबाया हुआ मृणालादण्ड चक्रवाकी को खिलाने लगता है ।-प्रकृति में तादात्म्य की भावना का प्रसार इतने तक ही सीमित नहीं होता बल्कि लतावृक्षों में भी स्वच्छन्द प्रेम का संचार हो उठता है । पुष्प - गुच्छ वाली तथा किसलय रूपी ओष्ठवाली लताओं से वृक्ष भी झुकी हुई शाखाओं रूपी भुजाओं द्वारा आलिंगन प्राप्त करने लगते हैं । इतना ही नहीं शाकुन्तल में वनज्योत्सना नामक नवमालिका आम्र की स्वंयवर में परिणीता वधू के रूप में चित्रित की गई है ।
अभिज्ञान शाकुन्तल के चतुर्थ अंक में विरहणी चकोरी जिस आशा के बंधन के सहारे भारी विरह वेदना को सह लेती है । उसी का उल्लेख कवि ने मेघदूत में स्त्रियों के विरह प्रसंग में भी किया है ।- (17) इससे कवि की प्रकृति और मानव की मनोस्थितियों को एक ही व्यापक भावभूमि पर अंकित करने की सहज प्रवृत्ति परिलक्षित होती है ।
प्रकृति का साह्यचर्य
प्रकृति का साह्यचर्य मानव जीवन में उसके हृदय के स्पन्दन की तरह है । यदि स्पन्दन नहीं तो मानव मृतशरीर के समान हो जाता है जिसका कोई मूल्य नहीं होता । प्राकृतिक वायु ही उसके लिये प्राणवायु का कार्य करती है जिससे वह मानव जीवन प्राप्त करता है । सूर्य प्रकाश तथा जल की महत्ता भी मानवजीवन के लिए अनिर्वचनीय है । प्रकृति से प्रदत्त अन्न , फल , वनस्पति आदि उसके भोजन के प्रमुखअंग बन जाते है । अतः प्रकृति के अभाव में मानवजीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । इसी कारण विश्व के समस्त कवियों ने किसी न किसी रूप में प्रकृति के महत्व को स्वीकार किया है विश्व में शायद ही ऐसा कोई काव्य हो जिसमें प्रकृति के आलम्बन तथा उद्दीपन किसी भी रूप में वर्णन का नितान्त अभाव हो । प्रकृति मानो एक सिक्के के दो पहलू हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व निरर्थक हैं । इसी कारण कालिदास जैसे कवि ने हम्र्यों के सौन्दर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौन्दर्य को अधिक श्रेष्ठ माना है । कालिदास के काव्यों में मानव जीवन के प्रत्येक सुख - दुःख के क्षणों में प्रकृति एक सुन्दर सहचरी बनकर प्रस्तुत हुई है । प्रकृति का साह्यचर्य ही कालिदास के मानव सौन्दर्य को और अधिक उत्कृष्टता की सीमा पर पहुँचा देता है ।
जहाँ एक ओर कालिदास को रूप , रस , गंध ध्वनि तथा स्पर्श विषयक इन्द्रियों की प्रवृत्तिशीलता प्राकृतिक सौन्दर्य की अनुभूति को गहन बना देती है वहाँ दूसरी ओर प्रकृति का बहुरंगी सौन्दर्य उनकी ऐन्द्रिय सक्रियता एवं सजगता को ओर भी अधिक प्रेरणा व शक्ति प्रदान करता है । इसी ऐन्द्रिय सक्रियता के आधार पर उन्होंने गंध ध्वनि और स्पर्श आदि के सुन्दर चित्र अंकित किये है । मेघदूत में शिप्रावात के प्रसंग में रूप , ध्वनि , गंध , रस और स्पर्श का सम्मिलित चित्र दर्शनीय है ।
कालिदास के काव्यों में , प्रकृति - साह्यचर्य के रूप में वात्सल्य , मित्रता , श्रद्धा और भक्ति आदि प्रेम के अन्य अनेक रूपों का भी समावेश हुआ है । प्रसव के तुरंत बाद ही माँ के मर जाने के कारण उसके वात्सल्य से वंचित , मृग - शावक का शकुन्तला अपने पुत्र के समान पालन - पोषण करती है । कुमार सम्भव में वसन्त और काम की स्वाभाविक मित्रता का उल्लेख किया गया है । मेघदूत में प्रकृति के मध्य मित्रता के अनेक उदाहरण दृष्टव्य है । कवि ने प्रकृति और मानव दोनों में ही अपने द्रवणशील हृदय को संक्रामित करके प्रकृति साहयचर्य के अनेक अनूभूतिपूर्ण चित्र अंकित किये है । वास्तव में कालिदास के काव्य में प्रकृति साहयचर्य एवं उनके प्रति रागात्मक तादात्म्य निहित है । इसलिये न केवल शकुन्तला ही वन लताओं को अपनी बहिन समझती है अपितु वे भी उसके साह्यचर्य घूटने की स्थिति में आँसू बहाती है । " मेघदूत " के मेघ में कवि ने मानवात्मा के समावेश में अभूतपूर्व कुशलता कहा है कि का परिचय दिया है और जिसे एक संभोगी प्रेमी के रूप में चित्रित करते हुये कहा हे — मित्र मैंने तुम्हें जो काम सहेजा है वह सम्भवतः तुम्हारी पद - प्रतिष्ठा के अनुरूप न हो , तो भी मित्रता के नाते या मुझविरही पर तरस खाके ही , तुम उसे अवश्य कर देना , और फिर इस पावसी शोभा को धारण किये , मन चाहे प्रदेशों की सैर करते फिरना और मेरी यह भी शुभ कामना है कि मेरी तरह तुम्हें भी अपनी प्रियतमा बिजली से कभी बिछुड़ना न पड़े ।(18)
कालिदास जैसे रससिद्ध कवि ने प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित कर उसके चिर सौन्दर्य और अतिरमणीय चित्रण की सृष्टि की है , जिनके रंग धुलते नहीं अपितु उनमें निखार आ जाता है । उसके प्रकृति चित्रण में इतनी सजीवता , रमणीयता , भव्यता तथा स्वाभविकता है कि पाठक और श्रोता एकरस हो जाते है । उनका प्रकृति चित्रण प्रेम , मेघदूत के एक श्लोक से ही पुष्ट हो जाता है । ( 19 ) उनका ऋतु संहार रघुवंश कुमार संभव सभी में प्रकृति चित्रण पूरी सतर्कता व सजधज के साथ सौष्ठव सरलता , तथा प्रतिबिम्बात्मकता के साथ हुआ है।.कहीं प्रकृति का मानवीकृत रूप है , तो कहीं प्रकृति में आत्मीयता का आरोप , कँही आलम्बन रूप में प्रकृति प्रकट हुई है तो कहीं उद्दीपन रूप में कहीं प्रकृति हृदय की अनुभूतियों की पृष्ठभूमि के रूप में प्रदर्शित हुई है तो कँही प्रकृति आलंकारिक और एकात्मक रूप में । कहीं पर उपदेशिका बनकर आई है तो कहीं जड़ प्रकृति में चेतनता का आरोप किया है । कालिदास ने प्रकृति के रम्य रूचि , मृदु मंजुल तथा उग्र कठोर दोनों ही रूपों का वर्णन किया है लेकिन ऐसा लगता है कि कवि को प्रकृति के ( कोमल ) स्वरूप से ज्यादा लगाव था ।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् में प्रकृति के दृश्य ऐसे सजीव स्वाभाविक और सचेत रूप में अंकित हुये है मानो इस क्षेत्र में प्रकृति को कल्पना और प्रतिभा खुलकर बिना किसी संकोच के नृत्य कर रही हो । दुष्यंत द्वारा पीछा किये जाते हुये , छोड़ते हुये हिरण के सूक्ष्म व्यापार से लेकर बड़े से बड़े व्यापार को जो एक संश्लिष्ठ चित्र उपस्थित किया है वह देखते ही बनता है । इसी का नाम है दृश्य को आँखों के सामने उपस्थित कर देना और इस कला में कवि निपुण - हस्त है । ( 20)
ऋतुसंहार में प्रत्येक ऋतु का वर्णन , सृष्टि जगत पर उसका प्रभाव , मानव की चित्तवृत्ति , व्यवहार एवं हृदय में उत्पन्न विचारों के उत्थान आदि का बड़ा ही सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है ।
ग्रीष्म ऋतु कवि को अधिक प्रिय रही है । ग्रीष्म के अनुपम प्रभाव को स्पष्ट करते हुये वे कहते है कि-सूर्य की अत्यंत प्रखर किरणों द्वारा ऊपर से और गरम धूल से नीचे से गरमी पहुँचने के कारण झुलसा हुआ और व्याकुलता के कारण जल्दी - जल्दी श्वांस छोड़ने वाला वक्रगति सर्प अपना सहज जाति वैर भूलकर मयूर की छाया का सहारा ले रहा है । ग्रीष्मकाल की चाँदनी बहुत भली मालुम होती है । ठण्डे पानी मे डूबे रहने को जी चाहता है । रात में भवन के ऊपर खुली छत पर प्रिया सहित कामोदीपक सुरापान और वीणावादन मे कामीजन रात्रि का समय बिताते है । निशा में स्वच्छ सफेद घरों के ऊपर छतों पर सुखनिद्रालीन रमणियों की मुखकांति देखकर चन्द्रमा लज्जा से फीका पड़ जाता है ।
शरद ऋतु को एक रमणी के रूप में चित्रित किया गया है सफेद कांष को सुन्दर साड़ी पहने हुये , विकसित कमल ही जिसका मनोहर मुख है , उन्मत हंसों को ध्वनि ही जिसके नुपूरों की आवाज़ है । पके हुये धान ही जिसका सुन्दर कृष शरीर है , ऐसी नववधू सदृश रमणीय इस शरद् ऋतु की रातें चन्द्र की प्रभा से , नदियाँ , हंसों से , सरोवर सारस पक्षियों से , वनस्थली पुष्पभार से विनम्र सप्तपर्ण वृक्षों से तथा उपवन मालती पुष्पों से श्वेत दिखाई पड़ते है ।
बसंत ऋतु के मादक सौन्दर्य का वर्णन भी कवि ने अत्यंत मनोहारी ढंग से किया है । वसन्त समीर का वर्णन दृष्टव्य है । ( 21 ) कुहरा नष्ट हो जाने से सुखकारी वायु वौरे हुये आमों की डालियों को हिलाकर , कोकिल के कलकूजन को चारों तरफ फैलाकर लोगों के हृदयों को अपनी ओर खींच रहा है ।
रघुवंश के तेरहवें सर्ग में श्रीराम द्वारा वर्णित समुद्र तथा वनस्थली के वर्णन में भी प्रकृति साहचर के दर्शन होते है । वे देवी सीता से कहते है कि वह देखो , काली काली बदली समुद्र का पानी पी रही है और समुद्र की भवर के साथ - साथ बढ़ी तीव्र गति से चक्कर काट रही है । इस समय समुद्र ऐसा मालुम पड़ रहा है मानो मन्दराचल फिर इसका मन्थन कर रहा हो । वह देखो , दूर होने से पहिये की चाल की तरह बहुत पतला ताड़ और तमाल के पेड़ों के कारण नीला दिखाई देने वाला समुद्र तट ऐसा लगता है जैसे चक्र की धार पर मोर्चा जम गया हो । देखो हम लोग विमान के शीर्घ चलने के कारण क्षण भर में ही समुद्र के उस पार पहुँच गये है , जहाँ बालू पर सीपों के फैल जाने से मोती बिखरे पड़े है और फलों के भार से सुपारी के पेड़ झुके पड़े है । पीछे की ओर तो देखो , दूर निकल कर आने से जंगलों से भरी हुई भूमि ऐसी दिखाई देती है कि मानो समुद्र में से अभी पैदा हुई हो । यह वही स्थान है जहाँ तुम्हें दूढ़ते हुये मैने जमीन पर पड़ा हुआ तुम्हारे पाँव का नूपुर देखा था । चुपचाप पड़ा हुआ ऐसा लग रहा था मानो तुम्हारे चरणों से अलग होने से दुःखित होकर मौन खड़ा हो । रावण जिस रास्ते तुम्हें ले गया था उस रास्ते की लताये कृपा करके तुम्हारे जाने का मार्ग मुझे बताना चाहती थी , पर बोल न सकने के कारण उन्होंने अपनी पत्तों वाली डालियां ही उधर झुकाकर मुझे तुम्हारा पता बता दिया था । हरिणियों ने जब देखा कि मुझे तुम्हारे पाने का रास्ता मालूम नहीं तो वे अपनी उठी हुई पलकों वाली आँखें दक्षिण दिशा की ओर के मुझे मार्ग सुझाने लगी थी । देखा , बहुत ऊँचे से देखने के कारण और बेंत के जंगलों से ढके होने से पम्पा सरोवर का जल ठीक - ठीक दिखाई नहीं दे रहा है , फिर भी जल पर तैरते हुये सारस पक्षी कुछ दिखाई पड़ जाते है । यह देखो , विमान के नीचे लटकती हुई सोने की किंकणियों का शब्द सुनकर गोदावरी नदी के सारसों की पक्तियाँ ऊपर उड़ी चली आ रही है कि मानो ये तुम्हारा स्वागत करना चाहती हो ।
आगे बढ़ने पर गंगा - यमुना का संगम मिला । देश के निर्माण में इन नदियों का बड़ा योगदान रहा है इन्हें ' अमृतगर्भा ' कहा गया है । कवि ने इस संगम का बड़ा मनोहारी वर्णन किया है -
' यमुना की सांवली लहरों से मिली हुई उज्ज्वल लहरों वाली गंगा सुन्दर लग रही है । कहीं तो यह चमकने वाली इन्द्रनील मणियों से गुंथी हुई माला जैसी लगती है कहीं नीले और सफेद कमलों की मिली हुई माला जैसी दिखाई पड़ रही है । कहीं साँवले रंग के हँसों से मिश्रित तथा उज्ज्वल रंग के राजहंसों की पंक्ति के समान शोभा दे रही है , कहीं सफेद चन्दन से चीती हुई जमीन पर काले अगरू से धूमिल लग रही है । कहीं - कहीं वह वृक्ष के नीचे की उस चाँदनी के समान लगती है जिसके क्षीच बीच में पत्ती की छाया पड़ी हो और कहीं पर शरद् ऋतु के उनके उज्जवल बादलों के समान जान पड़ती है , जिनके बीच - बीच में नीला आकाश झाँक रहा हो और कहीं - कहीं पर भस्म लगाये शिव के उस शरीर के समान दिखाई पड़ रही है जिस पर काले - काले सर्प लटक रहे हों ।
जीवन का दीर्घकाल प्रकृति के बीच में बिताये बिना कोई भी कवि प्रकृति का इतना सूक्ष्म व सजीव वर्णन नहीं कर सकता । निश्चित ही कालिदास को प्रकृति का साहचर दीर्धअवधि तक प्राप्त करने का सौभाग्य मिल सका है । हिमालय की उपत्तिकाओं में कवि ने अनेक बार विचरण किया है और वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को समीप से निहारा है । कवि को भारत की मिट्टी और पानी पर सच्चा गर्व है । इसीलिये यहाँ के पेड़ों , लताओं व फूलों का हृदय खोलकर वर्णन किया है । पेड़ों में सरल , साल और देवदारू प्रधान है रघुवंश में इसका वर्णन किया गया है ।
हिमालय की ऊँची चोटियों में भूर्जवृक्षों की पक्तियाँ पाई जाती है वनस्पति विषारदों का कहना है कि इससे कीड़ा दूर रहता है । इसलिये घरेलू चीजें सरुक्षित रहती है । अपने देश में इसके पत्ते लिखने के काम में आते थे । आज भी हजारों प्राचीन ग्रंथों को भूर्जपत्र पर लिखा हुआ ग्रंथागारों में देखा जा सकता है । विद्याघर रूपसियाँ प्रेमपत्र इन्हीं पर लिखती थी । कालिदास की नायिका उर्वशी अपने नायक को इन्हीं पत्तों पर संदेश भेजती है ।
' कुमार सम्भव ' में कवि ने इस भोजपत्र का वर्णन किया है ' इस हिमालय पर पैदा होने वाले भोजपत्रों पर लिखे हुये अक्षर हाथी के सूंड बनी हुई लाल बुदकियों जैसे दिखाई पड़ते है उन्हें विद्याधरी युवतियाँ अपने प्रेमपत्र लिखने के काम में लाया करती है और उनके आस - पास ही सिर पर नमेरू के कोमल फूलों की माला बाँधकर शरीर पर भोजका के कपड़े पहने और मैनसिल के रंग से अपने शरीर रंग कर उनके मथ नामक गण शिलाजीत पोती हुई चट्टानों पर बैठे रहते थे । रघु का काफिला जब दिग्विजय करता हुआ हिमालय पहुँचा तो कवि ने फिर भूर्जपत्रों को याद किया है - वहाँ भोजपत्रों में करता हुआ , पहाड़ी बाँसों के छेदों में धुसकर वंशीनाद करता हुआ , गंगा के फुहारों से शीतल वह वायु रघु की सेवा कर रहा था ।
सर विलियम जॉन्स ने अशोक वृक्ष के बारे में कहा है कि - वनस्पति संसार में इसका सानी नही है । इसका कद साधारण , फल बड़े और फूल जैसे - जैसे खिलते है , वैसे - वैसे अपनी शोभा बिखेरते है । कालिदास ने अशोक का सम्बंध स्त्री के पैरों से जोड़ा है , सुन्दरी के बांये पैर के प्रहार से तो यह खिलता है । इसी किंवदन्ती को कई कलाकारों ने अपनी तूलिका से चित्रित किया है । ' ऋतु संहार ( में कवि ने लालवर्ण के अशोक के बारे में कहा है ' अशोक के जिन वृक्षों में कोपलें फूट निकली है और जिनमें मूंगे जैसे लाल - लाल फूल नीचे से ऊपर तक खिलते है , उन अशोक के वृक्षों को देखते ही नवयुवातियों के हृदयों में शोक होने लगता है । ' ' मेघदूत ' में भी उसी दन्तकथा का उल्लेख है ' उन बनावटी पहाड़ों पर कुरवक के वृक्षों से घिरे हुये माधवी मण्डप के पास ही एक तो चंचल पत्तों वाला लाल अशोक का पेड़ खड़ा है और दूसरी और मौलसिरी का वृक्ष । जैसे मैं तुम्हारी सखी के पैर की ठोकर खाने को तरस रहा हूँ वैसे ही वह अशोक भी फूलने का बहाना लेकर मेरी पत्नी के बाएं पैर की ठोकर खाने के लिये तरस रहा होगा और दूसरा मौलसिरी का पेड़ भी उसके मुँह से निकलते हुये मदिरा के छींटे पीना चाहता होगा ।
आम्रवृक्ष भी कालिदास को प्रिय रहा है । अनेक स्थानों पर सहकार तथा अतिमुक्त लता के साहचर का वर्णन किया है । इससे प्रेरित होकर नर कोयल मंजरियों के रस से मस्त होकर अपनी प्यारी को चूमता है और भौरा भी अपनी मनुहार में पिछड़ता नहीं है । आम्र के अतिरिक्त चन्दन , मन्दार , उर्वरक , कर्णिकार , रूद्राक्ष आदि वृक्षों के सौन्दर्य वर्णन में भी कवि की मन रमा है । वृक्षों के साथ ही कुछ लताओं को भी कवि को लेखनी ने अमर बना दिया है । इनमें अतिमुक्त लता बड़ी प्रसिद्ध रही है । इसे बासंती या माधवीलता भी कहते है । इसने अपनी श्वेतता से मुक्ता को भी लज्जित कर दिया है इसीलिए इसे अतिमुक्ता कहा गया है । कवि ने अपने ग्रंथों में अनेक स्थानों पर अतिमुक्त लता का साहचर आम्र वृख को छोड़कर अतिमुक्त लता कहाँ खिल सकती है ? अभि.शा. में प्राकृतिक साहचर के ऐसे सजीव स्वभाविक चित्र अंकित किये गये है कि उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो इस क्षेत्र में प्रकृति की कल्पना और प्रतिभा खुलकर बिना किसी संकोच के नृत्य कर रही हो ।
प्रकृति को नये - नये रूपों में , नई - नई छवियों , में नई - नई दृष्टियों से देखने का उपक्रम कालिदास का स्वयं का अपना है । अभिज्ञान शाकुन्तल के चतुर्थ अंक की श्रेष्ठता की विशेषताओं में निश्चित ही एक विशेषता यह भी होगी कि कवि ने सारी प्रकृति के साथ तादात्म्य भाव स्थापित किया है । सम्पूर्ण तपोभूमि आत्मीयजनों का रूप धारण कर लेती है सभी शकुन्तला को कुछ अर्पण करते है । सहानुभूति और पारस्परिक प्रेम का इससे बढ़कर और क्या दिग्दर्शन हो सकता है किन्तु इसके पूर्व शकुन्तला ने भी सर्वस्व अर्पण कर दिया था । वृक्षों को जल पिलाये बिना जल न पीती थी , श्रृंगार के लिये भी फूल न तोड़ती थी । उस शकुन्तला के विरह में हरिणियों का क्या हाल हुआ होगा ? मयूरों पर क्या बीती होगी ? लताये तो अपने पीले पत्ते त्यागकर आँसू ही बहा रही थी । धन्य है कवि कालिदास और उनका प्रकृति का सहज अनुराग जिसने जड़ को भी चेतन बना दिया । पशु को भी मानव बना दिया ऐसा मानव जिसके मन में वृक्षों के प्रति और सुपुत्र से भी अधिक स्नेह उमड़ रहा है । प्रकृति के साथ भारतीयों का जो लगाव था , वह तो था ही कालिदास जैसे महाकवि ने अपनी प्रतिभा से उस लगाव को चार चाँद लगा दिये ।