हमारे बाबा समाज में अपनी हाजिरजवाबी के लिए प्रसिद्ध थे। गाँव में यदि किसी का मर्यादित मजाक उड़ाना है तो उस वक्त पूरे गाँव में वे बेजोड़ थे। गाँव की बात तो छोड़ ही दें, उनके जैसा पूरे इलाके में कोई न था। जैसा नाम तथा वैसा गुण भी। नाम उनका ‘ज्वाला प्रसाद’ था तथा उनके मुख में ‘शान्ति की ज्वाला’, आँखों में ‘करुणा की ज्वाला’ तथा दिल में ‘प्रेम की ज्वाला’ बसती थी। बातों को वे इस प्रकार बोलते थे कि सामने वाला निरुत्तर हो जाता था। साथ ही उसे शहद-सी मिठास भी मिलती थी।
हास-परिहास का वह दौर आज के समय देखने को नहीं मिलता है। आजकल के समय तो फेसबुक तथा ट्विटर से छुट्टी ही नहीं मिलती है। मेरा मानना है कि यह गुण साक्षात माता सरस्वती ही देती है।
हाँ तो मैं उनके हास-परिहास को याद कर रहा था। वैसे घटनाएं तो बहुत हैं- सभी का वर्णन कर पाना संभव भी नहीं है। लेकिन एक-दो घटनाओं का जिक्र करना आवश्यक है।
एक बार हमारे गाँव से बारात गंगा-पार के किसी गाँव के लिए चली। गंगा-पार जाना उस जमाने में हिमालय पर्वत पर चढ़ने के समान था। यात्रा नाव से करना, बालू पर तपती धूप में चलना, शरीर स्वेद से भर जाता था। बताते चलें कि हमारा गाँव गिरिधरपुर, जनपद भागलपुर में पड़ता है। बारात गयी, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन उस बारात की विशेषता यह थी कि उसमे पियक्कड़ों की भरमार थी। वर की बात तो छोड़ ही देते हैं, वर के पिता तथा बहनोई ने छक कर सुधा-रस का पान किया था। छकने के बाद तो दोनों अपने होशोहवाश गँवा बैठे। किसी प्रकार झूमते-झूमते द्वार पर बारात लगी। बारातियों का स्वागत काफी गर्मजोशी के साथ किया गया। सभी कन्यापक्ष की दरियादिली की जमकर तारीफ़ कर रहे थे। कन्यापक्ष ने स्वागत में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी थी।
शिव-विवाह की बात करें तो माता पार्वती की माँ शिवजी के गले में सर्पहार देखकर बेहोश हो गयी थी। होश में आने के बाद दिल खोलकर तथा जी भर कर देवर्षि नारद को गाली देने लगी। देवर्षि नारद भी उस वक्त छिप गए थे। ठीक वही स्थिति इस बारात में भी उपस्थित हो गयी। जैसे ही कन्या की माँ ने पियक्कड़ वर को देखा वह बेहोश हो गयी। किसी प्रकार गाल को सेंकने की प्रक्रिया कन्या की चाची-मौसी द्वारा सम्पन्न कराया गया।
उसके बाद कन्या-निरीक्षण का कार्यक्रम चला। लेकिन जेवर-जेवरात दिखाए कौन? लड़के का बहनोई भी पीकर टुन्न था। दूसरे बहनोई भी पीछे कैसे रहते? उनकी भी अवस्था पहलेवाले की तरह थी। पंडित-नाई की सहायता से कन्या निरीक्षण की विधि भी सम्पन्न हो गयी। उपस्थित महिलाओं ने उस वक्त के लिए राहत की सांस ली।
अंगप्रदेश में शादी के वक्त सात पीढ़ियों के पूर्वजों के नाम याद किये जाते हैं। साथ ही गोत्र भी बतलाना आवश्यकत होता है। इसके लिए पाणिग्रहण के पूर्व ही औपचारिक रूप से लग्न पत्रिका को भेजा जाता है जिसमे कन्या-वर दोनों पक्षों का पूर्ण विवरण दिया रहता है।
यहाँ जब विवाह की रस्म अदायगी हो रही थी तो पंडितजी ने वर से गोत्र का नाम पूछा।
वर ने कहा, “ बाबूजी को मालूम है”
बाबूजी को पूछा गया। वे नशे में थे। उन्होंने कहा, “ सुबह बताएँगे। अभी पता नहीं है। “
संदेशवाहक ने कहा। “ पंडितजी, अभी पूछ रहे हैं। “
लड़के के पिता ने कहा, “ तो पंडितजी जो घर जाने के लिए कहो”
वहां उपस्थित हमारे बाबा ने समस्या का समाधान चुटकी में निकाल दिया। उन्होंने कहा कि लड़के का गोत्र वे जानते हैं।
संदेशवाहक प्रसन्न हो गया। बाबा ने लड़के का गोत्र “ हड़ासंखन” बताया था।
पंडितजी को गोत्र का नाम चाहिए था। तन्मयता से “ हड़ासंखन” गोत्र पर ही पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। यही गोत्र उस परिवार का हो गया।