Ramprasad ki terhvi in Hindi Film Reviews by Mahendra Sharma books and stories PDF | रामप्रसाद की तेरहवीं

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रामप्रसाद की तेरहवीं

रामप्रसाद की तेरहवीं

रामप्रसाद की तेरहवीं नेफ्लिक्स पर थी पर मेरे पास सब्सक्रिप्शन था नहीं तो इंतज़ार करता रहा कि कब यह फ़िल्म मेरे सब्सक्राइब किए प्लेटफॉर्म पर आए और देखी जाए। अब यह फ़िल्म आई है जिओ सिनेमा पर, देश के 50 प्रतशित या अधिक लोगों के पास जिओ कनेक्शन है तो आप इसे निशुल्क देख सकते हैं। पर क्या आपके समय को इस फ़िल्म में निवेश करना योग्य है? आइए मैं आपको कुछ बातें बताता हूं जिससे आपको निर्णय लेने में आसानी होगी।

मैंने इस फ़िल्म को कॉमेडी फिल्म समझा था पर निर्देशक सीमा पाहवा ने दृश्यों को कॉमेडी और ट्रेजेडी का मोड़ न देते हुए बड़े सटीक तरीके से सच्चाई के करीब लाके छोड़ दिया है। सीमा पाहवा कौन है? इन्हें आप बाला, शुभ मंगल सावधान, दम लगाके हईशा जैसी उत्तर भारत पर केंद्रित फिल्मों में माँ का किरदार निभाते बखूबी देख सकते हैं। सर्च कर लें, बहुत ही जाना पहचाना चहरा है सीमा पाहवा। फ़िल्म को देखते हुए आपको लगेगा कि यह सब मैंने कहीं देखा है, किरदारों को देखकर आपको लगेगा कि यह आदमी या औरत तो बिल्कुल मेरे चचा चाची, मामा मामी, बुआ फुआ, बहन बहनोई जैसे हैं । इसे मैं निर्देशक की सफलता मानता हूं।

कहानी है रामप्रसाद की जिनकी मृत्यु हो चुकी है और उनके घर उनका परिवार शोक प्रकट करने और अंतिम संस्कार में शामिल होने आया हुआ है। उनके 4 बेटे, बेटी, बहन, सबके बच्चे, भाई , साला वगैरह। सबसे पहले चर्चा शुरु होती है कि पहले मृतक के घर कौन पहुंचा ? मामा से लेकर चचा तक, सब इस स्पर्धा में हैं कि इस मामले में अपना झंडा गाड़ ही दें।
खैर मुखाग्नि संस्कार पूरा हुआ और बात आगे बढ़ी की कितने दिन का शोक हो, 4 या 13? गरुड़ पुराण रखा जाए? औरतों में अपने अपने घर की समस्याओं पर चर्चा और पुरुषों में दारू सिगरेट पर चर्चा। वैसे यह सब देखकर आप बोल जरूर उठेंगे " ऐसा नहीं होना चाहिए, आखिर यहां सब शोक प्रकट करने आए हैं या निजी मसले चर्चा करने, मृतक की किसी को चिंता या शोक नहीं"।

बेटे हैं मनोज पाहवा, निनाद कामत, विनय पाठक,परंब्रता चैटर्जी। बहुएं कौन हैं आप खुद खोज लें, वैसे जाना पहचाना नाम है कोंकणा सेन गुप्ता, जिनका बहुत उम्दा अभिनय फ़िल्म में दिखा। वैसे विक्रांत मैसी मिर्ज़ापुर वाले भी है फ़िल्म में, कहानी में ट्विस्ट जैसी भूमिका है उनकी।

फ़िल्म में बारीकियों को बहुत प्राधान्य दिया गया है, जैसे रामप्रसाद की बड़ी पर पुरानी हवेली, गांव में लोग बड़े घर बनाते हैं इस उम्मीद में की बेटे साथ रहेंगे पर शहरों की लहरों ने कहां बड़े घरों को आबाद रहने दिया है। घर में केवल एक ही बाथरूम। मां जो बच्चों पर कभी नाराज़ नहीं होतीं और मामा जो हमेंशा अपनी बहन का पक्ष लेते हैं। बच्चे जिन्हें दुनियादारी की कभी पढ़ी नहीं और बढ़े जिन्हें दुनिया का सारा बोझ अपने सर पर लेके यही जताना है कि उन्हें आपकी बढ़ी फिक्र है। मृत्यु के पहले दिन से 13रहवीं तक का धार्मिक विधि विधान दृश्य भी अच्छी तरह फिल्माया गया है।

कहानी में समस्या यह है कि इसे और जल्दी खत्म किया जा सकता था पर इतने सारे किरदारों को उनके होने का लाभ दिया गया है और हर एक को डायलॉग देकर उन्हें महत्व दिया गया है, फिर एक बार कहूंगा, एक एक किरदार आपको शायद आपके आस पास मिल जाए। फ़िल्म को अकेले न देखकर परिवार के साथ देखें, क्योंकि आपको कोई चाहिए जिसको आप कह सकें कि इस सीन में आपको क्या लग रहा है, और यह कम्प्यूटर या टीवी पर देखते हैं तो ज़रूर कुछ लोग साथ देख ही सकते हैं।

अंत में फ़िल्म एक बहुत बड़ी सीख भी देती है, वह सीख क्या है उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी पढ़ेगी, शायद बहुत युवा वर्ग को पसंद नहीं आए पर 30 -40 साल से बढ़े इसे ज़्यादा पसंद करें, क्योंकि तब तक बचपना जा चुका होता है।

- महेंद्र शर्मा