गांव की तलाश 8
काव्य संकलन-
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
- समर्पण –
अपनी मातृ-भू के,
प्यारे-प्यारे गांवों को,
प्यार करने वाले,
सुधी चिंतकों के,
कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
-दो शब्द-
जीवन को स्वस्थ्य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्थली श्रमिक और अन्नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्य देखने का प्रयास करें। इन्हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।
वेदराम प्रजापति - मनमस्त -
50- हमारा स्वर्णिम म.प्र. -
भारत-भू की रम्य स्थली, पावन हृदय प्रदेश।
रत्नाभरण भरे अंगों में, स्वर्णिम मध्यप्रदेश।।
पूरव-पश्चिम, उत्तर दक्षिण, जिसकी चार भुजाएं।
चतुर्भुजी विष्णू स्वरूप सा, अगणित ले आशाएं।
भौगोलिक, भाषा, बोली से, जिसके रूप घनेरे।
जाति-पांति अरू लिंग भेद तज, वसुधा-कुटुम्बी तेरे।
सबको एकाकार बनाकर, माया रूप विशेष।।
ग्वालियर भू-भाग, मुरैना, भिण्ड, शिवपुरी, दतिया।
श्योपुर के श्रंगार सुहाने, गुना, गर्विता-बतिया।
रीवा, टीकमगढ़, छत्रपुर, विदिशा सतना, सीधी।
साहस-भू शहडोल उमरिया, नव विकास की सीढ़ी।
गान करै सब, मिलकर तेरा, सुन्दर सुखमय वेश।।
महा समुन्दर, दुर्ग, धमतरी, बस्तर, दन्तेबाड़ा।
जांजगीर, कांकेर, कोरवा, सुन्दरता, सुख गाढ़ा।
राय रायपुर, चलो कोरिया, जसपुर के यश न्यारे।
सरताजी- सरगुजा, रायगढ़, विजय विलासपुर प्यारे।
सबके अरमानों में छाया, तेरा नव-परिवेश।
नरसिंहपुर, कातनी, डिंडोरी, बालाघाट सिमौनी।
हरदा, होशंगाबाद, खण्डवा, बैतूल, खरगौन, बदौनी।
विदिशा, रायसेन, सागर के, सरगम न्यारे-न्यारे।
सिंह भूमि सीहौर सुहानी, भोपाली मग प्यारे।
तालाबी मनुहारे मनहर, जन-मन, मुदित विशेष्।।
मन्दसौर, नीमच, शाजापुर, धार, झाबुआ जाओ।
रजत धाम रतलाम, राजगढ़ उज्जयैनी सुख पाओ।
दिव्य दृष्टि देवास देखलो, एम.पी. गौरव प्यारे।
इन्द्रासन इन्दौर सुहाना, मन मनमस्त हमारे।
गुर-गौरव, गुणखान अवनि मय, जीवन सुखी विशेष।।
51- निराला जयन्ती -
आज बसंत पंचमी के पावन गीतों मे,
एक गीत है, एक मीत है, वही निराला।
जगत उजाला।।
ओ रवि। शत साहित्याकाश के,
तेज भुंज, बपु हो प्रकाश के।
जीवन के विनोद, उज्जवलम,
कर्मठता में, दसन-हॉस के।
विषम परिस्थिति में, तुम काटे-
मानवता के पाश्, त्रास के।
हो कण-कण अन्तरतम प्यारे,
जीवन दाता, सच विकास के।
जहां देखते, दिखा निराला,
बसन हीन, दिग बसना बाला।
वही निराला.............
धन्य भूमि बह वंग देश की,
महिषादल के अंचल बाली।
राम सहाय त्रिपाठी धन-धन,
जिसकी गोद, भर दयी लाली।
धन्य कूंख मां की बह पावन,
जिसने रवि-साहित्य उगाया।
और बसन्त पंचमी सुभदा,
अठारह सौ छियानवै सन पाया।
हाय। भाग्य क्या तीन वर्ष ही,
मां की ममता ने, बस पाला।।
वही निराला....................
जीवन के उदगम से लेकर,
जीवन को संघर्ष बनाया।
पिता निधन, प्रिय पत्नी ने भी,
जीवन भर नहीं साथ निभाया।
प्रिय पुत्री, सरोज ने पितु को,
गहरे दर्दों से भर डाला।
दंसों-दर्दों के सागर में,
गोता लेते, जीवन पाला।
दर्द हलाहल ने, सच मानो,
अस्त–व्यस्त जीवन कर डाला।।
एक निराला........ ।।
काव्य साधना की, जीवन भर,
जीवन ही था, काव्य साधना।
पत्थर के उर में भी देखी,
जीवन की जाज्वल्य साधना।
रची गीतिका, अरू अनामिका,
कुल्ली भाट, मुकुल की बीवी।
अल्का और अप्सरा रचकर,
करी समीक्षाएं सत जीबी।
पन्द्रह अक्टूबर इकसठ सन्,
पार्थिव जीवन भी, तज डाला।।
एक निराला............।।
आज बसंत, बस अन्त नहीं है,
कहां बसंत, पपीहा बोलेा।
किस पिंजड़े में बन्द हो गए,
उसका दरवाजा, अब खोलो।
मौन हवाएं-गीत न गातीं,
लगती दिशा आज है सूनी।।
पातहीन तरूवर के उर भी,
बस गिनती, गिनते हैं ऊनी।।
कोयल मौन, बासंती बोलो,
कौन सुनाऐ, गीत निराला।।
एक निराला..........।।
52- पावस -
छोटी छोटी जल की बूंदें, नांच रहीं हैं धरती पर।
जोड़ रही संबंध अवनि से, गीत गा रहीं धरती पर।।
गौरवता गमुआरे घ्न की,
पावस- पीतम के तन मन की।
कितनी शुद्ध, सफल, मृदु सरला,
सहस्त्र धार, अबनी दुख हरला।
जन जीवन उत्थान करन को,
चलीं आ रही धरती पर।।
ऐ सितार के तार बनी है।
विरल नहीं है, बहुत घनी है।
पवन बनी, झंझाबत न्यारी,
बेतारों की, सरगम प्यारी।
रूनझुन पायल सी बजती है,
पैर धरै जब धरती पर।।
संघर्षों मय जीवन जीतीं,
कहै कहानी जग की बीती।
पथ लम्बा पर हार न मानी,
कर्मठता, इनकी जिंदगानी।
इनसे जग ने, पानी मांगा,
बार-बार इस धरती पर।।
सूखे ताल, क्षणों में भरतीं,
नद, नदियों के, रूप ये धरतीं।।
घास, लता, तृण की हमजोली।
लिए हुए, सबको निज ओली।
बनी हुयीं, श्रंगार सुहानी,
चली आ रही, धरती पर।।
सूखे तृण-जीवन पाते हैं,
डंठल पर, कौंपल गाते हैं।
स्वाद इन्हीं से, फूल-फलों के,
इन विन जीवन नहीं नलों के,
उन विन, जीवन नहीं रहेगा,
सब-सब सूना, धरती पर।।
है अनेक, पर एक बनी हैं,
विजय ध्वजा – सी सदां तनी है।
दुर्गमपथ, सरगम कर डाले,
इनसे, जग का हृदय हाले।
इनकी मल्हारें हैं प्यारीं,
सुना रही हैं, धरती पर।।
53- मोरे प्यारे संइयां -
हंसकर कहती प्यारी धनिया, बैठ बबुरिया छंइया।
आओ। करो कलेऊ अब तो, मोरे प्यारे संइयां।।
तुमरी लऊं बलइयां।।
कितनी हरी बबुरिया संइयां, झूम-झूम कर गाती।
कांटों से भी, प्यार जिसे है, अपने गले लगाती।
छन-छन कर, आ रही धूप, अरू मंद समीर बहावै।
श्रम कण, चंदन माल बनै तब, श्रम की गीता गावै।
कितनी हरियाली, हरियाली, जिसमें चरतीं गइयां।।
परस कलेबा, पास बैठ गई, अंचल करै बयारी।
हंस-हंस कर बतराती, प्रीतम-मैं तुम पर बलिहारी।
इस मिट्टी में सनकर तुमने, कितनी करी कमाई।
मैं तो सचमुच धन्य हो गई, जग की भूंख मिटाई।
ठण्डा गगरी नीर समर्पित, औन न कुछ है संइयां।।
बनी पनपथू बेझर रोटीं, नमक डरा है न्यारा।
बथुआ की हरियल तरकारी, भोजन कितना प्यारा।
श्रम से यहां पवित्र भूमि है, जो चौका की चौकी।
इस रज कण में, सारे जग ने, खाई अपनी मुंह की।
रूखे-सूखे भोजन संइयां, तुमरे परती पइंयां।।
इस भोजन से छप्पन-भोजन भी शर्माकर हारे।
राधा के भी श्याम सुन्दर यहां, कारे से भी कारे।
पाटम्बर मुंह छिपा, चले लख, रजमय बस्त्र तुम्हारे।
रति भी त्याग काम, चल दीनी धन-धन नाथ हमारे।
यहां स्वर्ग भी, लघु लगता है, ओ हो मेरे संइया।।
यही रूप है विष्णु-रमा का, जग के पालन कर्ता।
जिनके श्रम में ही जग रचना, अरूपालन, संहरता
ये ही भोले कृषक हमारे, इनकी अदभुत लीला।
सभी भांति, अभिनंदन इनका, करते सब जग मीला।
हंस मनमस्त चल दयी गोरी, चितवन में कन खंइयां।।
54 घन आतप था.......--
घन आतप था, क्वांर मास का, श्रम कण, श्रमिक नहाया।
बार-बार, मन में यूं कहता, अवै कलेऊ न आया।।
मन में यौं, गुनगुनाया।।
भूंख करै हड़ताल उदर में, क्रान्ति रही फैलाई।
आंतों ने कर कुनन-कुनन कुन अपनी व्यथा बताई।
हाथ उदर पर फेर, यौं कहता, कुछ तो धीरज धारो।
तेरी ही रचना है यह सब, कभी न हिम्मत हारो।
जीवन क्रम में, करो प्रतीक्षा, कितना आनंद पाया ।।
हाथ धरे, हर की मुठिया पर, बैलन कूं ललकारे।
झड़ते हैं श्रम कण रह-रह कर, भाल भाल के न्यारे।
कभी तर्जनी, इन्द्र धनुष बन, मस्तक पर अगड़ाती।
एक बनो अरू नेक बनो, हिल-मिल पाठ पढ़ाती।
किन्दु उदर ने फिर करवट ली, हल पर, हल नहीं पाया।।
ऊंचे चढ़, ऊंची कर दृष्टि, आशा डोर पसारी।
कोई आतें दिखीं डगर ज्यौं शायद प्राण प्यारी।
भूंख बन रही शान्त देखकर, धीरज मन को आता।
जीवन की आशा में हर्षित, होता जीवन दाता।
निकट होत, रामू बहू निकरी, तब मन में सकुचाया मन में।।
दृष्टि पलटकर, घर पै उलझी, क्यों कर, हुई अबेरी।
किसको, क्या हो गया, होऐगा, कबहूं न इतनी देरी।
फिर ललकार दई, बैल को, मैढ़ किनारे आया।
तभी मधुर कोकिल वाणी में भामिनी वचन सुनाया।।
आज अबेरौ, आयो, सुनकर क्षमाशील वाणी में।
इतनी शान्ती मिली है मन को, ज्यौं शीतल पानी में।
मिटी थकान, शीत या आतप, हंसकर येसे बोला।
आया, बैठो छांव बंबूरी प्रेम अमिय रस घोला।
हो मनमस्त कृषक यों कहता, तुमसी यामिनी पाया ।।।