Shukriya Dost in Hindi Classic Stories by Atul Baghresh books and stories PDF | शुक्रिया दोस्त

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शुक्रिया दोस्त

शुक्रिया मुझे वो ज़िन्दगी के सबसे हसीं पल देने के लिए
शुक्रिया मेरी परेशानी को खुद की तकलीफ मान कर
अपने सर लेने के लिए
शुक्रिया उन मस्तियो के लिए
और मेरा सहारा बन जाने के लिए
शुक्रिया अपनी गलतियों से
अपनी बातों से मुझे हँसाने के लिए |

शुक्रिया मेरे साथ तब होने के लिए जब में बिखर गया था
शुक्रिया मुझे हिम्मत देने के लिए जब मे
पहली कोशिश करने से भी डर गया था
शुक्रिया मुझे सँभालने के लिए जब में कही गलत था
शुक्रिया साथ रहने के लिए जब कोई और साथ नहीं था |

आज अपनी फेसबुक फीड वो पुरानी मेमोरी पॉप-अप हुई
वो फोटो देख के पता नहीं क्यों आज तेरी याद सी आ गयी
वो हस्ते हुए चेहरे, उस तस्वीर मे बेहत खुश लग रहे है
जो साथ बैठके खिलखिलाते थे कभी
आज पता नहीं कहा खो गए है |

कुछ यादें ताज़ा हो गई पुरानी
उस वक़्त इतना सोचा नहीं था की उस पल को
बैठके इस तरह याद करेंगे
अब ज़िन्दगी कही और ही ले गयी है
झूठे हो गए वादे जो बोले थे टच में रहेंगे |

कैसे इतनी पास रहते हुए भी अरसा हो गया ना मिले हुए
एक कॉल की दूरी पे है हम
बात भी नहीं हुई ना कितने दिनों से
पार्टनर्स इन क्राइम थे हम
वो पुरानी सारी मस्तिया धुंधली हो गयी है
आज कल खुद के लिए भी वक़्त नहीं मिलता यार
ये कैसी ज़िन्दगी हो गयी है |

मे परेशां था थोड़ा दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था
मेने सोचा एक बार कॉल कर लेता हु उसे
पूछता हु आज कल वो कहा होगा |

पुराना नंबर खो गया था तो नया नंबर लिया था मेने
मेने कॉल लगाया उसे और काफी जल्दी
उठा भी लिया उसने |

मेने बोलै हेलो और उसने पूछा कौन?
पहले काफी देर-देर तक बात किया करते थे हम
अपनी बातें, टेंशन और सारे राज़ खुल के बाटा करते थे हम
उसके साथ कभी प्रैंक कॉल भी नही कर पाया में
क्युकी किसी भी नंबर से उसे फ़ोन लगा लो
उसे मेरी आवाज़ पेचान में आ जाती थी |

और आज जब उसने पूछा ना की "कौन बोल रहा है"
तब एहसास हुआ की कितनी दूरी हो गई है
जो कभी सोची भी नहीं जाती थी
जायज़ भी था रोज़ मिलने में और
अचानक मिलने मे फरक तो होता है ना
बस इसी फर्क की बदौलत वो दोस्ती का रिश्ता भी
अधमरा सा हो गया था |

मेने जब बताया उसे नाम अपना
तब उसकी आवाज में ऐसी ख़ुशी झल्की
मानो वो कब से मुझसे बात करने को बेताब हो
दोनो ने अपना हाल एक दूसरे को ज़ाहिर किया
ज़िन्दगी की बुराइयां करते हुए लगा ऐसा जैसे
आज मैं कितने अर्सो बाद आज़ाद हो |

जितना भरा हुआ था दोनो ने सब बहार निकल दिया
हल्का-फुल्का महसूस हुआ फिर लगा
निराशा को कही कचरे में दाल दिया
फ़ोन पे बात कर रहे थे हम
और लग रहा था एक दूसरे के सामने खड़े हो
वो काम कोई दवाई नहीं कर सकती
जो दोस्त का एक फ़ोन कॉल कर सकता हो |

हमने २ घंटे तक बात की उस दिन
उस बात से मालूम पड़ा की सब कुछ बदल सकता हैं
सच्चे दोस्त नहीं बदल सकते लेकिन
वो जैसे है वैसे ही रहते है |