main to odh chunriya - 9 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 9

Featured Books
  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

  • સંઘર્ષ જિંદગીનો

                સંઘર્ષ જિંદગીનો        પાત્ર અજય, અમિત, અર્ચના,...

  • સોલમેટસ - 3

    આરવ રુશીના હાથમાં અદિતિની ડાયરી જુએ છે અને એને એની અદિતિ સાથ...

Categories
Share

मैं तो ओढ चुनरिया - 9

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय नौ

टेढी मेढी पगडंडियों वाली सर्पाकार सङकें , जो ग्रामवधु की तरह घूँघट में से झांक कर फिर दामन की ओट में हो जाती हैं । एक तरफ पहाङ , दूसरी ओर कई किलोमीटर गहरी खाइयाँ । हर तरफ हरियाली । आम और लीची के पेङ , लौकाट और अखरोट के पेङ । लहराती हुई मक्का की फसल । एक तरफ प्रकृति अपना मरकत का खजाना खोले मणियाँ बिखेर रही थी । दूसरी ओर गहरी खाई यमराज की सहेली लगती । जरा सी असावधानी से बस गहरी खाई में समा सकती थी । बस जैसे ही किसी मोङ पर पहुँचती , लोग जोर से जयकारा लगाकर उस आदि शक्ति को याद करते ।

किसी ने बताया कि पालमपुर में जो चामुंडा से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है , वहाँ चाय के खेत है । कोई और समय होता तो सब चल पङते पर यहाँ तो पहले ही देर हो चुकी थी इसलिए चाय बागानों की चर्चा छोङकर सब माँ चामुंडा के दर्शन के लिए उतावले हो उठे ।

माँ चामुंडा शमशानवासिनी हैं । कहते हैं ,चंड और मुंड नामके दो असुर महाबलशाली थे जिन्होंने ब्रह्मा को प्रसन्न करके वरदान लिया था कि वे एक नारी के हाथों से मारे जाएंगे । बाकी सबके लिए वे अजेय रहेंगे । अंत में दुर्गा ने चंडी रूप धारण करके चंड मुंड का संहार किया था । तभी से माँ का एक नाम चामुंडा हुआ ।

यहाँ माँ बनेर नाम की स्थानीय नदी के किनारे सुंदर मंदिर में विराजती हैं । सुबह सुबह मंदिर में नारियल चुनरी और प्रसाद चढाकर ये सब लोग बस में सवार हो गये । चामुंडा से होशियारपुर तक का रास्ता हरा भरा ,प्राकृतिक सुषमा से भरपूर था । चील के लंबे वृक्षों को छूकर आती ठंडी हवाएँ मौसम खुशगवार बना देती । करीब पाँच घंटे का सफर कुदरत के नजारे देखने में लीन इस दल के किसी सदस्य को याद ही रहा । वह तो जब कंडक्टर ने सवारियों को अपनी गट्ठरियाँ ,सामान समेट लेने की चेतावनी देते हुए होशियारपुर पहुँचने की सूचना दी तो सब अपना अपना सामान बटोरने में जुट गये ।

अब तक दस से ऊपर का समय हो चुका था । तो फैसला ये लिया गया कि होशियारपुर से ही नाश्ता करके जालंधर की बस ली जाय । आलू के परौंठे , आम का अचार , और कङे का गिलास भर नमक डली लस्सी । परौंठों की खुशबू से सबकी भूख चमक उठी । यहाँ मैदान में आते ही मौसम ने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया । अचानक गरमी लगने लग पङी । नाश्ता करने के बाद , स्वेटर तहाकर बैग में संभालते हुए वे बस में जा बैठे । जालंधर स्टेशन पर रेलगाङी जैसे इन्हीं का इंतजार कर रही थी । जैसे ही ये लोग गाङी में चढे , गाङी चल पङी । बातों में सफर आराम से कट गया । जब फरीदकोट स्टेशन पर ये तीनों उतरे , सबकी आँखें नम थी । इन तीन चार दिनों में ऐसा संबंध जुङ गया था जैसे बरसों से एक दूसरे को जानते हो ।

घर पहुँचे तो एक सुखद समाचार उनका इंतजार कर रहा था । महताब की शादी तय हो गयी थी । बीच में सिर्फ एक महीना बचा था । अगले ही दिन पिताजी मुझे और माँ को कोटकपूरा छोङ आये थे । आखिर लङकी की शादी की बात थी । घर में सौ तरह के काम होने है । घर में एक मेहमान आ जाए तो दो तीन दिन भूचाल पङा रहता है । यहाँ तो घराती – बराती मिलाकर सौ डेढ सौ लोग होंगे । तो तैयारी तो करना पङेगी । पिताजी छुट्टी वाले दिन आते और बाजार के कई काम सँवार जाते । बुआ इन दिनों खुद से ही शरमाई शरमाई रहती । बेवजह हँस देती । मुझे गोद में लेकर इतनी जोर से भींचती कि मेरी चीख निकल जाती । माँ या तो रसोई में लगी रहती या कुछ सिलने पिरोने में व्यस्त रहती । मेरे लिए उसके पास समय ही न होता । खैर धीरे धीरे दिन बीतते रहे । और आखिर ब्याह का दिन आ गया ।

इस ब्याह में मेरी सगी वाली बुआ भी पति और बच्चों के साथ आई थी । शादी के पंद्रह साल बाद उन्हें मायके की दहलीज नसीब हुई थी । क्या कहा मेरी तो एक ही बुआ थी महताब । ये दूसरी बुआ कहाँ से प्रकट हो गयी ।

सही कह रहे हो आप । मैंने और मेरी माँ ने पहली बार इनका नाम सुना है । ये हैं मेरी कौसल्या बुआ जिन्हें सब मुन्नी कहते हैं । इनके साथ हैं गोलमटोल से आधे गंजे फूफाजी जिनका नाम है कृष्णलाल । बुआ गोरी चिट्टी ,तीखे नयन नक्शे वाली ,सामान्य कदकाठ की महिला है । कहते हैं बारह साल की अल्पायु में दुल्हन बनकर ससुराल चली गयी । । पितृविहीन इस अबोध बालिका को उस दुहाजू वर के साथ बाँधकर चाचा चाची ने गंगा नहा ली थी । तब विभाजन की आँधी चल रही थी । इसी अफरातफरी के माहौल में मुन्नी की शादी एक रईस खानदान के विधुर से कर दी गयी । वर मुन्नी से अधिक नहीं , मात्र ग्यारह - बारह साल बङे थे । उनकी पूर्व पत्नी की कुछ दिन पहले ही निमोनिया से मौत हो गयी थी । वर महाशय की अभी उम्र ही क्या थी मात्र पच्चीस साल और वधु ने इस बैसाख में बारह साल पूरे किए थे , तेरहवें में पैर रखा था । रिश्तेदारों ने प्रसन्नता ही प्रकट की थी । वर का खानदान देखा जाता है । घरबार देखा जाता है । आमदनी देखी जाती है । रंगरूप और उम्र नहीं । वर के पिता की तो तीन जीवित पत्नियां थी और दो रखैल । ये लङका तो निरा निष्पाप है । कोई ऐब नहीं । सुशील है । कमाऊ है और क्या चाहिए । दो चाँदी के रुपए और एक दुधारु गाय के दहेज के साथ मुन्नी अपनी ससुराल अमृतसर आ गयी तो दुरगी ने सुख की साँस ही ली थी । हर तरफ आग फैली है । अंग्रेज सबको फांसी दे रहे है । कौन जाने , कब क्या हो जाए । लङकी सुख शांति से अपने घर बार की हो गयी ।

अब चौबीस पच्चीस साल की आय़ु में तीन बेटियों और एक बेटे की माँ होकर पक्की गृहस्थिन हो कर लौटी थी । वे बार बार सबके गले लगकर आँसू टपकाए जा रही थी । माँ से छूटती तो चाची से लिपट जाती । चाची से अलग होती तो भाभी के गले लग जाती । उनसे अलग होती तो भाई को पकङ लेती । सबसे एक ही शिकायत कि उन्हें यूं क्यों बिसरा दिया गया । कोई उनसे मिलने या लिवाने क्यों नहीं आया ।

बुआ की बेटियाँ बहुत सुंदर थी । बङी दीदी माँ के साथ रसोई में हाथ बँटाती । छोटी दोनों मेरे साथ खेलती रहती । महताब बुआ की शादी धूमधाम से हुई थी ।

मुन्नी बुआ अपने ससुराल लौट गयी और महताब बुआ अपने घर । पर दोनों के जाने में अंतर साफ दिख रहा था । महताब बुआ के माँ थी , पिता थे , भाई था , एक जी जान से चाहने वाली ताई थी । सबसे बढकर उनका ससुराल कुछ मिनटों के रास्ते पर था । वहीं मुन्नी बुआ के अपना कहने को कोई नहीं था । यहाँ तककि माँ भी नहीं और ससुराल थी तीन दिन के रास्ते पर । रेलगाङी का एक टिकट बीस रुपए का आता था । तो जब वे तांगे में बैठी ,उनका डकराना देखा नहीं गया । सबसे ज्यादा माँ उनके लिए दुखी थी । उन्होंने बुआ से और खुद से वादा किया कि वे हर हफ्ते उन्हें पत्र अवश्य लिखेंगी ।

शेष अगली कङी में ...

टेढी मेढी पगडंडियों वाली सर्पाकार सङकें , जो ग्रामवधु की तरह घूँघट में से झांक कर फिर दामन की ओट में हो जाती हैं । एक तरफ पहाङ , दूसरी ओर कई किलोमीटर गहरी खाइयाँ । हर तरफ हरियाली । आम और लीची के पेङ , लौकाट और अखरोट के पेङ । लहराती हुई मक्का की फसल । एक तरफ प्रकृति अपना मरकत का खजाना खोले मणियाँ बिखेर रही थी । दूसरी ओर गहरी खाई यमराज की सहेली लगती । जरा सी असावधानी से बस गहरी खाई में समा सकती थी । बस जैसे ही किसी मोङ पर पहुँचती , लोग जोर से जयकारा लगाकर उस आदि शक्ति को याद करते ।
किसी ने बताया कि पालमपुर में जो चामुंडा से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है , वहाँ चाय के खेत है । कोई और समय होता तो सब चल पङते पर यहाँ तो पहले ही देर हो चुकी थी इसलिए चाय बागानों की चर्चा छोङकर सब माँ चामुंडा के दर्शन के लिए उतावले हो उठे ।
माँ चामुंडा शमशानवासिनी हैं । कहते हैं ,चंड और मुंड नामके दो असुर महाबलशाली थे जिन्होंने ब्रह्मा को प्रसन्न करके वरदान लिया था कि वे एक नारी के हाथों से मारे जाएंगे । बाकी सबके लिए वे अजेय रहेंगे । अंत में दुर्गा ने चंडी रूप धारण करके चंड मुंड का संहार किया था । तभी से माँ का एक नाम चामुंडा हुआ ।
यहाँ माँ बनेर नाम की स्थानीय नदी के किनारे सुंदर मंदिर में विराजती हैं । सुबह सुबह मंदिर में नारियल चुनरी और प्रसाद चढाकर ये सब लोग बस में सवार हो गये । चामुंडा से होशियारपुर तक का रास्ता हरा भरा ,प्राकृतिक सुषमा से भरपूर था । चील के लंबे वृक्षों को छूकर आती ठंडी हवाएँ मौसम खुशगवार बना देती । करीब पाँच घंटे का सफर कुदरत के नजारे देखने में लीन इस दल के किसी सदस्य को याद ही रहा । वह तो जब कंडक्टर ने सवारियों को अपनी गट्ठरियाँ ,सामान समेट लेने की चेतावनी देते हुए होशियारपुर पहुँचने की सूचना दी तो सब अपना अपना सामान बटोरने में जुट गये ।
अब तक दस से ऊपर का समय हो चुका था । तो फैसला ये लिया गया कि होशियारपुर से ही नाश्ता करके जालंधर की बस ली जाय । आलू के परौंठे , आम का अचार , और कङे का गिलास भर नमक डली लस्सी । परौंठों की खुशबू से सबकी भूख चमक उठी । यहाँ मैदान में आते ही मौसम ने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया । अचानक गरमी लगने लग पङी । नाश्ता करने के बाद , स्वेटर तहाकर बैग में संभालते हुए वे बस में जा बैठे । जालंधर स्टेशन पर रेलगाङी जैसे इन्हीं का इंतजार कर रही थी । जैसे ही ये लोग गाङी में चढे , गाङी चल पङी । बातों में सफर आराम से कट गया । जब फरीदकोट स्टेशन पर ये तीनों उतरे , सबकी आँखें नम थी । इन तीन चार दिनों में ऐसा संबंध जुङ गया था जैसे बरसों से एक दूसरे को जानते हो ।
घर पहुँचे तो एक सुखद समाचार उनका इंतजार कर रहा था । महताब की शादी तय हो गयी थी । बीच में सिर्फ एक महीना बचा था । अगले ही दिन पिताजी मुझे और माँ को कोटकपूरा छोङ आये थे । आखिर लङकी की शादी की बात थी । घर में सौ तरह के काम होने है । घर में एक मेहमान आ जाए तो दो तीन दिन भूचाल पङा रहता है । यहाँ तो घराती – बराती मिलाकर सौ डेढ सौ लोग होंगे । तो तैयारी तो करना पङेगी । पिताजी छुट्टी वाले दिन आते और बाजार के कई काम सँवार जाते । बुआ इन दिनों खुद से ही शरमाई शरमाई रहती । बेवजह हँस देती । मुझे गोद में लेकर इतनी जोर से भींचती कि मेरी चीख निकल जाती । माँ या तो रसोई में लगी रहती या कुछ सिलने पिरोने में व्यस्त रहती । मेरे लिए उसके पास समय ही न होता । खैर धीरे धीरे दिन बीतते रहे । और आखिर ब्याह का दिन आ गया ।
इस ब्याह में मेरी सगी वाली बुआ भी पति और बच्चों के साथ आई थी । शादी के पंद्रह साल बाद उन्हें मायके की दहलीज नसीब हुई थी । क्या कहा मेरी तो एक ही बुआ थी महताब । ये दूसरी बुआ कहाँ से प्रकट हो गयी ।
सही कह रहे हो आप । मैंने और मेरी माँ ने पहली बार इनका नाम सुना है । ये हैं मेरी कौसल्या बुआ जिन्हें सब मुन्नी कहते हैं । इनके साथ हैं गोलमटोल से आधे गंजे फूफाजी जिनका नाम है कृष्णलाल । बुआ गोरी चिट्टी ,तीखे नयन नक्शे वाली ,सामान्य कदकाठ की महिला है । कहते हैं बारह साल की अल्पायु में दुल्हन बनकर ससुराल चली गयी । । पितृविहीन इस अबोध बालिका को उस दुहाजू वर के साथ बाँधकर चाचा चाची ने गंगा नहा ली थी । तब विभाजन की आँधी चल रही थी । इसी अफरातफरी के माहौल में मुन्नी की शादी एक रईस खानदान के विधुर से कर दी गयी । वर मुन्नी से अधिक नहीं , मात्र ग्यारह - बारह साल बङे थे । उनकी पूर्व पत्नी की कुछ दिन पहले ही निमोनिया से मौत हो गयी थी । वर महाशय की अभी उम्र ही क्या थी मात्र पच्चीस साल और वधु ने इस बैसाख में बारह साल पूरे किए थे , तेरहवें में पैर रखा था । रिश्तेदारों ने प्रसन्नता ही प्रकट की थी । वर का खानदान देखा जाता है । घरबार देखा जाता है । आमदनी देखी जाती है । रंगरूप और उम्र नहीं । वर के पिता की तो तीन जीवित पत्नियां थी और दो रखैल । ये लङका तो निरा निष्पाप है । कोई ऐब नहीं । सुशील है । कमाऊ है और क्या चाहिए । दो चाँदी के रुपए और एक दुधारु गाय के दहेज के साथ मुन्नी अपनी ससुराल अमृतसर आ गयी तो दुरगी ने सुख की साँस ही ली थी । हर तरफ आग फैली है । अंग्रेज सबको फांसी दे रहे है । कौन जाने , कब क्या हो जाए । लङकी सुख शांति से अपने घर बार की हो गयी ।
अब चौबीस पच्चीस साल की आय़ु में तीन बेटियों और एक बेटे की माँ होकर पक्की गृहस्थिन हो कर लौटी थी । वे बार बार सबके गले लगकर आँसू टपकाए जा रही थी । माँ से छूटती तो चाची से लिपट जाती । चाची से अलग होती तो भाभी के गले लग जाती । उनसे अलग होती तो भाई को पकङ लेती । सबसे एक ही शिकायत कि उन्हें यूं क्यों बिसरा दिया गया । कोई उनसे मिलने या लिवाने क्यों नहीं आया ।
बुआ की बेटियाँ बहुत सुंदर थी । बङी दीदी माँ के साथ रसोई में हाथ बँटाती । छोटी दोनों मेरे साथ खेलती रहती । महताब बुआ की शादी धूमधाम से हुई थी ।
मुन्नी बुआ अपने ससुराल लौट गयी और महताब बुआ अपने घर । पर दोनों के जाने में अंतर साफ दिख रहा था । महताब बुआ के माँ थी , पिता थे , भाई था , एक जी जान से चाहने वाली ताई थी । सबसे बढकर उनका ससुराल कुछ मिनटों के रास्ते पर था । वहीं मुन्नी बुआ के अपना कहने को कोई नहीं था । यहाँ तककि माँ भी नहीं और ससुराल थी तीन दिन के रास्ते पर । रेलगाङी का एक टिकट बीस रुपए का आता था । तो जब वे तांगे में बैठी ,उनका डकराना देखा नहीं गया । सबसे ज्यादा माँ उनके लिए दुखी थी । उन्होंने बुआ से और खुद से वादा किया कि वे हर हफ्ते उन्हें पत्र अवश्य लिखेंगी ।

शेष अगली कङी में ...