Journey to the center of the earth - 25 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 25

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 25

चैप्टर 25

गलियारे में कानाफूसी।

आखिरकार जब मुझे होश आया तो मेरा चेहरा भीगा हुआ था, मैं समझ गया था कि ये आँसुओं से भीगें हैं। कितने देर तक मैं बेहोश था, ये कहना मेरे लिए मुश्किल था। मुझे किसी भी समय का ध्यान नहीं था। आजतक मैं ऐसे अकेलेपन में नहीं पड़ा था। यहाँ मैं पूरी तरह से परित्यक्त था।
गिरने की वजह से मेरा खून बहुत बह गया था। ऐसा लगा जैसे मैंने किसी की ज़िंदगी बचाने के लिए खून बहाया हो। और ऐसा पहली बार हुआ था। मैं मरा क्यों नहीं? अगर मैं ज़िंदा हूँ, मतलब अभी कुछ करना है। मैंने फैसला किया कि अब कुछ और नहीं सोचना है। जितना हो सका मैंने बेकार के खयालों को नजरअंदाज कर, दर्द और दुःख से कराहते हुए मैंने ग्रेनाइट की दीवारों के सहारे खुद को टिकाया।
मैं फिर से बेहोशी में जाने वाला था और लग रहा था अब मेरा अंत नज़दीक है, तभी अचानक एक भयानक गर्जन मेरे कानों में पड़ी। ये आवाज़ बिजली कड़कने के आवाज़ से मेल खाती थी और मैं यहाँ की गहराई में गुंजायमान आवाज़ों को अच्छे से पहचान सकता था।
कहाँ से आ रही थी ये आवाज़? स्वाभाविक है, पृथ्वी के नीचे जिस नये हलचल की शुरुआत है, उन्हीं का इशारा है। या तो भाप का विस्फोट हुआ होगा या फिर कोई बड़ा सा ग्रेनाइट का पत्थर या चट्टान गिरा होगा।
मैं फिर से ध्यान देकर सुनने में जुट गया। उस आवाज़ को फिर से सुनने के लिए मैं बेचैन हो रहा था। पौन घण्टे इसी की उम्मीद में निकल गये। कंदरा में अनंत और गहरी खामोशी थी। सब इतना शांत था कि मैं अपनी धड़कन सुन सकता था। मैं इंतज़ार किये जा रहा था एक अनजान उम्मीद के साथ।
तभी मेरे कान में, जो दीवार से लगे हुए थे, धीमी सी कुछ गूँजती हुई आवाज़ें पड़ीं। मुझे ऐसा लगा जैसे दूर के किसी अनजान आवाज़ को मैंने सुना है। मैं उत्सुकता और उम्मीद से फिर थोड़ा हिला।
"ये भ्रम भी हो सकता है," मैंने कहा, "ये नहीं हो सकता! ये सच नहीं है।"
लेकिन नहीं! मैंने और ध्यान से उन्हें सुना और मुझे यकीन हो गया कि ये इंसानी स्वर हैं। हालाँकि उन स्वरों से कुछ समझ पाना आसान नहीं था। मैं ठीक से सुन पाने में असमर्थ था। अच्छी बात यही थी कि कोई था जो कुछ कह रहा था। इतना तो भरोसा था।
एक भय भी था। भय इस बात का था कि कहीं ऐसा ना हो कि मेरी ही आवाज़ गूँज रहे हों। हो सकता है ये सब मेरे बिना सोचे-समझे, रोने की वजह से हो रहा था। मैंने तुरंत अपने होंठ बंद किये और फिर से उन दीवारों पर कान लगा कर सुनने लगा।
ये तो सही है। यहाँ से सच में मनुष्य के ही स्वर आ रहें हैं।
बहुत हिम्मत और कोशिश से मैं खुद को खींच कर गुफा के किनारे ला पाया जिससे कि मैं उन आवाज़ों को और करीब से सुन सकूँ। लेकिन भले मैं किसी तरह सुन लूँ लेकिन ढंग से आवाज़ नहीं लगा पाऊँगा। उनकी आवाज़ मेरे कानों में आ रही थी, जैसे वो आपस में कुछ फुसफुसा रहे हों या कहीं दूर किसी से बात कर रहे हों।
आखिरकार मैंने उनके कुछ दोहराए गए शब्दों को सुना जिससे उनके दुःख और व्यथा के संकेत मिल रहे थे।
क्या मतलब हो सकता है इसका और कौन बोल रहा था? ये ज़रूर या तो मौसाजी होंगे या फिर हैन्स! और अगर मैं उन्हें सुन पा रहा हूँ, तो वो भी मुझे सुन लेंगे।
"बचाओ।" मैं गला फाड़ कर चिल्लाया, "बचाओ, मैं मर रहा हूँ!"
मैं सांस रोककर फिर से सुनने में लग गया। मैं उस अंधकार में एक आवाज़ के लिए हाँफ रहा था। लेकिन वहाँ सिर्फ मौन का साम्राज्य था। कोई जवाब नहीं। ऐसे ही कुछ पल गुज़रे। कई सारे खयाल मेरे सामने दौड़ने लगे। मुझे डर लगने लगा, कहीं ऐसा ना हो कि मेरी इस अवस्था की वजह से मेरी कमज़ोर आवाज़ उन तक ना पहुँचे जो मेरी खोज में हैं।
"वही लोग होंगे।" मैंने कहा, "और कौन है जो पृथ्वी की इस गहराई में समाया होगा? ये अनुमान भी हास्यास्पद था।
मैंने फिर से सब कुछ छोड़कर सुनने में लग गया। जहाँ मैं बैठा था वहाँ से अपने कानों को गणितीय तरीके से उन बिन्दुओं पर ले जाकर सुनने की कोशिश कर रहा था जहाँ से आवाज़ ज़्यादा आ रही थी। वो शब्द फिर से मेरे कान में पड़े। उसके बाद फिर वो गड़गड़ाहट की आवाज़ आयी जिसने मुझे बेहोशी से जगाया था।
"मुझे समझ में आ रहा है।" मैंने कुछ देर सोचने के बाद खुद से कहा, "इन दीवारों को पार कर आवाज़ें यहाँ नहीं आ रहीं हैं। इस भूलभुलैया की दीवारें सख्त ग्रेनाइट की बनीं हैं और सबसे भयानक विस्फ़ोट का शोर भी इन्हें पार नहीं कर सकता। ये स्वर ज़रूर इसी गलियारे से आ रहे हैं। मैं जहाँ था वहीं ये विचित्र और विशिष्ट विशेषता होगी।
एक बार फिर से सुनने में लग गया और हाँ, इस बार मैंने अपना नाम सुना, जैसे किसी ने अंतरिक्ष से पुकारा हो।
वो मेरे मौसाजी थे, प्रोफ़ेसर, जो बात कर रहे थे। वो हैन्स से बात कर रहे थे उनके जिस शब्द को मैंने बार-बार सुना था, वो डैनिश भाषा का था।
अब मैं समझ गया था। मुझे अपनी आवाज़ पहुँचाने के लिए इस गलियारे में उसी तरह पुकारना होगा जैसे किसी तार के माध्यम से विद्युत हर सिरे तक पहुँचता है।
लेकिन समय नहीं बर्बाद करना था। अगर मेरे साथी अभी जहाँ खड़े हैं, वहाँ से हिल जाते हैं तो ये सारी कोशिशें और गलियारे की फुसफुसाहट नष्ट हो जाएंगी। इसलिए मैं रेंगकर फिर से दीवारों से लगकर जितना अच्छे से और साफ तरीके से हो सका, चिल्लाया:
"मौसाजी हार्डविग।"
फिर मैं जवाब के लिए रुक गया।
ध्वनि इतनी आसानी से और तेजी से नहीं पहुँचती। इसपर इस गहराई में हवा के घनत्व, प्रकाश और गति की वजह से भी मुश्किल था। कुक सेकेंड गुज़रे, जो मेरे हिसाब से सालों के बराबर थे, और ये शब्द मेरे कानों तक पहुँचे जिसने मेरी धड़कनों को बढ़ा दिया था:
"हैरी, मेरे बच्चे, क्या तुम हो?"
सवाल और जवाब में कुछ देर का अंतराल।
"हाँ-हाँ।"
"कहाँ हो?"
"पता नहीं।"
"तुम्हारा लालटेन?"
"बंद है।"
"और वो नहर?"
"नहीं पता।"
"हिम्मत रखो, हैरी। हम ज़रूर कुछ करेंगे।"
"मौसाजी, एक मिनट," मैं चिल्लाया, "आपके सवालों के जवाब देने की ताकत मुझमें नहीं है। लेकिन भगवान के लिए आप बात जारी रखिये!" एकदम चुप्पी मेरे लिए किसी विनाश जैसा होगा।
"साहस से काम लो।" मौसाजी ने कहा। अभी कमज़ोर हो, इसलिए बात मत करो। हम तुम्हें ढूंढने के लिए हर दिशा में जा रहे थे, गलियारे के ऊपर और नीचे। मेरे बच्चे, मैं सारी उम्मीद छोड़ देने वाला था और तुम्हें पता भी नहीं होगा कि मैंने तुम्हारे लिए कितने आँसू बहाये हैं। आखिर में ये मान लिया कि तुम ज़रूर 'हैन्स का नहर' के पास होंगे और पूरी ताकत से हम नीचे उतरने लगे। लेकिन अब तुम्हें हमने ढूंढ लिया है और एक दूसरे की आवाज़ सुन सकते हैं तो अब हमारे मिलने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा। इस भूलभुलैया के ध्वनि संबंधी विशेषता की वजह से हम एक दूसरे से संपर्क कर पा रहे हैं। लेकिन दुःखी मत हो मेरे प्यारे बच्चे। एक दूसरे को सुन पाना भी कुछ पाने जैसा है।"
जब वो बात कर रहे थे मेरे दिमाग में खयाल उमड़ने लगे थे। एक अनजाने अदृश्य उम्मीद से मेरा दिल ज़ोर से धड़क रहा था। एक बात थी जो मुझे सबसे पहले पता करना था। इसलिए एक बार फिर से मैंने अपने सिर को दीवार से लगाकर, होठों को उसके करीब लेकर, कहा:
"मौसाजी।"
"हाँ मेरे बच्चे।" कुछ देर के बाद उनका जवाब आया।
"हमें ये तो पता होना चाहिए कि हम कहाँ तक पहुँचे हैं।"
"वो मुश्किल नहीं है।"
"आपके पास क्रोनोमिटर है?" मैंने पूछा।
"हाँ।"
"ठीक है। उसे अपने हाथ में लीजिए। मेरा नाम पुकारिये और नोट करिये कि आपने किस घड़ी में कहा। आपकी आवाज़ को सुनते ही मैं जवाब दूँगा और तब आप नोट करें कि मेरी आवाज़ आप तक कितने देर में पहुँच रही है।"
"बहुत बढ़िया, और हम दोनों के जवाब के बीच का समय, ध्वनि के पहुँचने का समय होगा।
"बिल्कुल यही मैं कहना चाह रहा हूँ मौसाजी।" मैंने बेसब्री से जवाब दिया।
"तुम तैयार हो?"
"हाँ।"
"फिर तैयार रहो, मैं अब तुम्हारा नाम पुकारने वाला हूँ।" प्रोफ़ेसर ने कहा।
मैंने अपना कान उस गलियारे की दीवारों से लगाये रखा और जैसे ही मैंने "हैरी" सुना, तुरंत मैंने जवाब में वही शब्द दोहराये।
"चालीस सेकेंड," मौसाजी ने कहा। "दो शब्दों के बीच में चालीस सेकेंड का फासला है। इसलिए ध्वनि को बीस सेकेंड लगते हैं उतरने में। इसके हिसाब से अगर एक हज़ार बीस फ़ीट के लिए देखें तो चौबीस हज़ार चार सौ फीट हुए।"
इन शब्दों को सुनकर लगा मौत की घड़ी आ गयी है।
"साढ़े तीन मील।" मैं निराश होते हुए बुदबुदाया।
"मेरे बच्चे, इसे पार कर लेंगे," मौसाजी ने उत्साहित होते हुए कहा, "सब हम पर निर्भर है।"
"क्या आप जानते हैं कि नीचे उतरना है या चढ़ना है?" मैंने मायूसी से पूछा।
"हमें नीचे ही उतरना है और मैं बताता हूँ क्यों। तुम एक ऐसे खुले जगह पर हो जो एक किस्म का चौराहा है, जहाँ से कई गलियारे निकलते हैं। अभी तुम जहाँ हो वहाँ से तुम इस सिरे तक आ सकते हो क्योंकि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि एक बड़े कंदरा से ये इतने गलियारे बने हैं, जहाँ हमने कब्जा कर रखा है। उठो और थोड़े साहस से आगे बढ़ो और अपना सफर पूरा करो। अगर चल नहीं सकते तो रेंग कर बढ़ो, कुछ नहीं तो लुढ़क कर ही बढ़ो। ढलान सीधी हो सकती है और तुम्हें पकड़ने के लिए मजबूत हाथ तत्पर हैं। अच्छे से, फिर से शुरुआत करो।"
इन शब्दों ने मेरे टूटे हुए हिम्मत को सहारा दिया।
"ठीक है मौसाजी, अब चलता हूँ और यहाँ से निकलने की शुरुआत कर रहा हूँ। मैं जैसे ही बढ़ूँगा, हमारे स्वर एकीभूत होंगे। दुबारा मिलने तक, सब अच्छा हो।"
"चलो हैरी, तब तक जब तक हम 'स्वागत है' ना कहें।" यही वो शब्द थे जो अपने हताश और निराश यात्रा शुरू करने से पहले, मेरे बेचैन कानों ने सुने थे।
ये सारी बातें असाधारण और अप्रत्याशित थीं जो पृथ्वी के नीचे इस भुलभुलैया में हुई, जिसके वक्ता लगभग पांच मील की दूरी पर थे और बातें सकारात्मक सोच और प्रभाव पर खत्म हुईं थीं। मैंने फिर से भगवान की प्रार्थना की और उन्हें शुक्रिया अदा किया, क्योंकि मेरा विश्वास था कि सिर्फ उन्होंने ही मुझे उस जगह पहुँचाया जिससे कि मेरे साथियों के आवाज़ मेरे कानों तक पहुँच सके।
ये रहस्यमयी ध्वनिक चमत्कार को आसानी से एक प्राकृतिक सिद्धान्त से समझा जा सकता है; ये पत्थरों के प्रेषणीयता से उत्पन्न होता है। ऐसा कई बार होता है जब ये ध्वनि एक बार में अपने प्रसारण को स्पष्ट तरीके से मध्यस्थ करने में सक्षम नहीं होते। सेंट पॉल के अंदरूनी गलियारे में और सिसीली के असामान्य गुफाओं में इस चमत्कार को महसूस कर सकते हैं। इनमें जो सबसे लाजवाब है वो 'डिओनीसिअस के कान' के नाम से जाना जाता है।
पहले के पढ़े हुए और अध्ययन की हुई बातें मुझे सब अभी याद आ रहे थे। मुझे ये भी समझ में आया कि अगर मैं और मौसाजी इतनी आसानी से संपर्क कर सकते हैं तो हमारे बीच अब ज़्यादा अवरोध नहीं हैं। मुझे सिर्फ उस दिशा को पकड़कर बढ़ना होगा जहाँ से आवाज़ मुझ तक पहुँच रहे थे और सही मायने में अगर मेरी ताकत मेरा साथ दे तो मैं पहुँच सकता हूँ।
मैंने चलने के लिए पैर उठाये। मैं तुरंत समझ गया कि मैं चल नहीं पाऊँगा और रेंगना ही विकल्प होगा। मेरे अनुमान के अनुसार ही ढलान काफी सीध में था इसलिए मैंने फिसलते हुए बढ़ना ही सही समझा।
तुरंत ही ढलान का रुख खतरनाक होते हुए गिराने लायक डरावना लगने लगा। मैं उभरे हुए चट्टानों को देखते हुए उन्हें जकड़ कर खुद को पीछे धकेलना चाहा। कोई लाभ नहीं। मुझमें कमजोरी इतनी ज्यादा थी कि मैं खुद को बचा भी नहीं पा रहा था।
अचानक से धरती ने मेरा साथ छोड़ दिया।
मैं पहले एक गहरे अंधे कुण्ड में गिरा। फिर मैं किसी कुएँ जैसे गलियारे के उभरे हुए कठोर पत्थर से टकराया। किसी नुकीले पत्थर से टकरा कर मैं अपने होश खो चुका था। और जहाँ तक मुझे समझ आया, मृत्यु ने मुझे अपनी गोद में ले लिया था।