" तो क्या पेड़ - पौधे भी हमें सुन सकते हैं दादाजी!!?" सात साल के शुभ ने अपने दादाजी से पूँछा।
" डॉ मनमोहन श्रीवास्तव" शुभ के दादाजी, एक सफल वनस्पति-वैज्ञानिक । वे दोनों ही अपने घर के एक छोटे से बगीचे में बैठे थे जहाँ शुभ ने अपने छोटे छोटे हांथों से पौधे लगाए थे। पेड़ पौधों के प्रति शुभ की रूचि देखते हुए आज दादाजी उसे वनस्पतियों से अवगत करा रहे थे।
" हाँ बेटा! वे हमें सुन सकते हैं। हमारा स्पर्श, हमारा होना या न होना.. सब कुछ महसूस कर पाते हैं क्योंकि उनमें भी भावनाएं होती हैं। " उन्होंने सहजता से कहा।
" तब तो वे सांस भी लेते होंगे! है न ? " शुभ बहुत खोजी व बातूनी प्रवृत्ति का बालक था... इसीकारण प्रश्न पर प्रश्न किये जा रहा था।
" बिलकुल लेते हैं! अगर वे सांस न लें तो हमारा जीवन भी संभव नहीं है क्यूँकी उनके द्वारा निकाल दी गई साँसों को ही तो हम ग्रहण करते हैं.. जिसे ऑक्सीजन कहते हैं।"
"दादाजी!"
"हम्म..."
"इनका फेवरेट फ़ूड तो वॉटर है न?? आपने बताया था!"
" हाँ-हाँ मुझे याद है.. "वे हंस पड़े।
" तो फिर जब मैं इन्हें इनका फेवरेट फ़ूड देता हूँ तब ये स्माइल क्यों नहीं करते.. जैसे मम्मी जब मुझे मेरा फेवरेट फ़ूड 'नूडल्स' बना कर देती हैं, तब मैं खुश हो जाता हूँ पर ये क्यों नहीं होते? " उसने उन पौधों की और देखते हुए, अपने छोटे छोटे हाँथ की एक उंगली से सोचने की मुद्रा में अपना माथा ठकठकाया।
इस बार दादाजी ठहाका लगाकर हँस पड़े और बोले- " वे अपनी प्रसन्नता, विकसित होकर प्रदर्शित करते हैं.. अगर ये दुखी हो जाएँ तो इनका विकास संभव नहीं है। "
"लेकि..
" शुभ! इधर आओ बेटा.. " अंदर से उसकी मम्मी की आवाज़ आयी और उसका प्रश्न अधूरा ही रह गया।
उसे अभी पूरी तरह भरोसा नहीं था कि पेड़ पौधे भी खुश या दुखी होते हैं अथवा उनमें भी भावनाएं होती हैं।उसकी मम्मी ने उसे बताया की वे सब चार दिन के लिए बाहर घूमने जा रहे हैं; मम्मी, पापा, दादाजी और वह।जब शुभ ने अपनी मम्मी से पौधों को पानी देने की समस्या बतलायी तो उसकी मम्मी ने पड़ोस की एक आंटी को पौधों को पानी देने की बात कही। वह खुश हो गया।
अगले ही दिन घर की जिम्मेदारी , उन पड़ोस की आंटी को सौंपकर वे सब हिलस्टेशन के लिए रवाना हो गए।
सभी ने बड़ी मौज मस्ती के साथ वहां तीन दिन गुज़ारे और चौथे दिन वापस घर आ गए।
अगली सुबह होते ही शुभ उठकर सबसे पहले अपने पौधों के पास गया तो उनमें से एक पौधा, जिसकी शुभ सबसे ज्यादा सेवा करता था, मुरझाया हुआ था।
वह दौड़कर पड़ोस में गया और उन आंटी से पूछने लगा की क्या उन्होंने पौधे को पानी नहीं दिया?? तब उन्होंने सभी पौधों को बराबर सुबह शाम पानी देने की बात कही।
वह मायूस होकर वापस घर लौट आया और उसी पौधे के पास बैठ गया। वह याद कर रहा था कि कैसे हर रोज़ वह उस पौधे को बड़ी सावधानी से सींचता था, किसी छोटे मोटे कीड़े को तो गलती से भी उस गमले के आस पास पहुंचने नहीं देता था।
" क्या हुआ शुभ?? चेहरे पर बारह क्यूँ बजे हैं?? " दादाजी उसके पास रखी एक कुर्सी पर विराजते हुए बोले।
शुभ ने वह पौधा दिखाते हुए दादाजी को सब बताया।
दादाजी ने सब ध्यान से सुना फिर मुस्कुराते हुए बोले- " यही तो मैंने तब समझाने की कोशिश की थी बच्चे कि ये हमें सुन सकते हैं। हमारा स्पर्श, हमारा होना या न होना.. सब कुछ महसूस कर पाते हैं क्योंकि उनमें भी भावनाएं होती हैं।.. "
" मतलब ?? "
" मतलब ये बेटा की तुमने इस पौधे की सर्वाधिक सेवा की , तब तक इसने विकसित होकर अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर की और तुम्हारे जाने के बाद उन चार दिनों में इसने उतना स्नेह और प्रेम नहीं अनुभव किया , तुम्हारी मौजूदगी नहीं अनुभव की और दुखी होकर मुरझा गया। "
शुभ कुछ देर तक वैसे ही बैठा, उस पौधे को निहारता रहा फिर दादाजी की ओर मुड़ा...
"समझ गया दादाजी... '' कहते हुए वह उठा और वापस उन पौधों को पानी देने लगा। वह अब समझ चुका था कि वास्तव में पेड़-पौधे भी भावनायुक्त होते हैं।
समाप्त।
पर्णिता द्विवेदी