अज्ञेय के काव्य में औपन्यासिकता
रामगोपाल भावुक
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अज्ञेय जी की कविता ’’यह दीप अकेला’’ में एक अकेला दीपक अन्धकार को दूर करने के लिये सघर्षरत है । उसी तरह हमें भी निन्दा ,अपमान और अवज्ञा जैसे अन्धकार को दूर करने के लिये सघर्ष करना चाहिये । इस कविता में कवि ने अपने द्रढ़ आत्म-विश्वास से ऊपर उठने की भावना व्यक्त की है ।
अकेला दीप अर्थात अकेला कवि अपनी लघुता से भयभीत होकर कॉपने वाला नहीं है ,उसे पवन रूपी विरोधियों का भय नहीं हैं। उसमें विरोधियों से लड़ने की सामर्थ्य हैं। दीप अपनी पीड़ा ,अपना दुख-सुख इस रचना के माध्यम से कह जाता है।
इस कथ्य से पाठक का चित्त बॅधा रहता है। उपन्यास की आत्मकथ्य शैली में दीप अपने भाव व्यक्त करने में पूर्ण सफल है ।
अज्ञेयजी की ‘नदी के द्वीप’ एक बहुचर्चित कविता है। इसमें वे कहते हैं कि व्यक्ति की स्थिति समाज में एक द्वीप की तरह है। इसमें भी वे आत्मकथ्य शैली में अपनी बात कहते हैं । उनकी इसी कविता में -
किन्तु हम बहते नहीं हैं ।
क्योंकि बहना रेत होना है ।
हम बहेंगें तो रहेंगे ही नहीं ।
पैर उखड़ेंगे । प्लवन होगा । डटेंगे । सहेंगे । वह जायेंगे ।
और फिर हम पूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते ?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गंदला ही करेंगे ।
कवि ने यहाँ प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट की है । व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की रक्षा करते हुये समाज के प्रति अपना समर्पण करना चाहिये । कवि द्वीप बना रहना चाहता है । धारा नहीं बनना चाहता यानि वह अपनी चेतना को सुरक्षित रखना चाहता है ।
इस रचना को भी पाठक उपन्यास की तरह हृदयंगम करते हुये चला जाता है।
अब मैं आपका ध्यान अज्ञेय जी की ’’असाध्य वीणा’’ नामाक कविता की ओर आकृष्ट करता हूँ।
इसमें साधक प्रियंवद के आने पर राजा उनका सम्मान करते हुये आनन्द की अनुभूति करता है ।
कविता का प्रारम्भ नाटकीय संवादात्मक शैली में हुआ है। इसमें औपन्यासिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है ।
कवि ने राजा द्वारा साधक के सम्बन्ध में जिज्ञासा उत्पन्न कर दी है ।
भाषा की सरलता के कारण प्रतीकात्मक तथा रहस्यमयता की बोझिलता से भाव तथा कवि कथ्य सर्वथा मुक्त है ।
राजा उस असाध्य वीणा का इतिहास बताते हुये कहते हैं - मैं इसका पूरा इतिहास तो नहीं जानता हॅँ परन्तु सुना यह है कि बज्रकीर्ति ने इसको मंत्रों द्वारा पवित्र किया है। यह प्राचीन किरीटी बृक्ष की लकड़ी से बनी है इसमें हिमालय की चोटियों के मध्य की जाने वाली तपस्या समाई हुई है ।
कवि की इस कविता में -
पूरा तो इतिहास न जान सके हम
किन्तु सुना है बज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी तरू से इसे गढ़ा था
उसके कानों में हिमशिखर रहस्य कहा करते थे
यहाँ किरीट तरू संस्कार का प्रतीक है तथा असाध्य वीणा जीवन का प्रतीक है जीवन रूपी वीणा को साधने के लिये व्यक्ति को कठोर साधना करनी पड़ती है किसी सच्चे साधक की साधना जब पूरी हो जाती है तो उसके जीवन का फिर कोई प्रयोजन शेष नहीं रहता। इसलिये साधना पूर्ण होते ही जीवन समाप्त हो जाता हे ।
ओ तरू तात सम्हाल मुझे,
मेरी हर किलक पुलक में डूब जाये,
मैं सुनूं ,
गुनूं ,
विस्मय से भर आंकू ।
इस तरह साधक साधना के साथ-साथ अपना मूल्यांकन भी करता चलता हैं
यों यह वीणा पूर्ण रहस्यात्मक बन जाती है । इससे रहस्यात्मक उपन्यास की याद ताजा हो जाती है ।
आगे चलकर इस वीणा का प्रयोग नहीं हो सका । अब यह असाध्य वीणा प्रियंवद नामक तपस्वी के समक्ष रख दी गई है राजा अपने परिवार के साथ उसे सुनने के लिये उत्सुक हो गये हैं ।
प्रियंवद ने पहले नाटकीय ढंग से उस वीणा को प्रणाम किया ।
इस कविता में किरीट तरू का वर्णन विराट ब्रह्म के रूप में किया गया है ।
इसी कथ्य में उपन्यासों की तरह प्रकृति का चित्रण भी दिया गया है । यह अज्ञेय जी की अपनी विशेषता है ।
कवि कहता है- हे ध्वनिमय! संसार इन स्वरों को सम्हाल- जो प्रकट होने वाले हैं ।
और यकायक वीणा के तार झनझन करते हुये बजने लगते हैं ।
प्रस्तुत कविता में प्रयोगवाद के जनक अज्ञेय की लम्बी और प्रतीकात्मक तथा ज्ञात से अज्ञात की ओर अन्वेषणपरक कविता है ।
असाध्य वीणा के तारों के छेड़ने से उससे निकले स्वरों ने राजा के अन्तःचक्षु खोल दिये। उसे जीवन और जगत के तत्व का दर्शन होने लगा ।
वीणा के स्वरों में सभी को अलग-अलग ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगी । किसी को घण्टा ध्वनि की अनुभूति हुई तो किसी को अनहद नाद सुनाई पड़े ।
भाव यह है कि सत्य एक होने पर भी व्यक्तियों को अपनी दृष्टि के अनुरूप भिन्न दिखाई देता है ।
तत्वज्ञान की दृष्टि से ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है किन्तु साधक उसे अपनी इच्छानुरूप देखते हैं ।
कवि की अपनी इस रचना में भी औपन्यासिक रसमयता बनी रहती है । इसमें कवि कथ्य के माध्यम से नादब्रह्म के अस्तित्व को पाठकों के समक्ष रखने में पूर्ण सफल रहता है ।
श्रेय नहीं कुछ मेरा
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में -
...............
यहाँ शून्य
वह महा मौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्र्रवित, अन्धमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है ।
इस कविता का अंत दार्शनिक रूप में हुआ है । कविता के सभी विशेषण ईश्वर के लिये प्रयुक्त विशेषण हैं ।
अज्ञेय जी की नई कविता वैज्ञानिक एवं बौद्धिक होने के कारण अत्यंन्त जटिल हो गई है। फलतः नई कविता में पद्य की लय का स्थान गद्य की लय ने ले लिया है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि नई कविता में नाद की लय नहीं अर्थ की लय है ।
उपन्यास में निरन्तरता होती है। प्रवाह होता है एवं कथा की गति एक धीमी प्रक्रिया से गुजरती है ।
किन्तु कविता में इसकी गति एक नया ही रूप ले लेगी क्योंकि भावों की गहराई पाठक को सोचने के लिये विवश करती है यद्यपि इससे उपन्यास का रूप खण्डित सा होने लगता है ।
यहाँ अज्ञेय जी की एक कविता ’’औपन्यासिक’’का उल्लेख करना चाहेंगे ,जिसमें उनके काल्पनिक पात्र दृश्यात्मक रूप से बतियाते नजर आते हैं ।
मैं वैसे में अपने पात्र को
नदी किनारे बैठाती -
अकेले उदास बैठकर कुढ़ने के लिये ।
उपन्यास में जिज्ञासा होती है जिससे पाठक उससे बॅधा रहता है
। ऐसे ही इस कविता में इस कथन के बाद पाठक का जुड़ाव यहाँ सहज ही हो जाता है ।
आगे इसी कविता में देखें:-
उसने भी जिद करके कहा:
वह बनेगा ही नहीं ।
, और बन भी गया तो
वहाँ तुम अकेले बैठकर
शराब नहीं पी सकोगे ।
उसने कहा - मेरी नदी के किनारे तुमको
अकेले बैठने कौन देगा यह भी सोचा है ?
यहाँ कवि कम शब्दों में सारी की सारी औपन्यासिक शैली में कथा कह जाता है।
इस पर हम दोनों हॅस पड़े।
वह उपन्यास वाली नदी और कहीं हो न हो
इस हॅसी में तो सदा बहती है ।
और वहाँ शराब खाने की कोई जरूरत नहीं है ।
यों उपन्यास के अन्त की तरह इस रचना का भी कवि अन्त कर देता है और हम कविता की मूल संवेदना से भी परिचित हो जाते हैं
कृष्णपन्त पालीवाल जी लिखते हैं - अज्ञेय का कथाकार, संस्मरणकार भी उनके कवि के पीछे चलता है । क्योंकि वे मूलतः कवि हैं वाद मे कुछ और ।
भावुक कवि अच्छा गीत परक प्रबंध तो लिख सकता है, एक संयम से भरा विचारों से निथरा निबंध नहीं लिख सकता ।
अज्ञेय के लेखन में उनका यह भाव बोध केवल उनका निजी भाव बोध नहीं हैं। उनकी निजता समूची संस्कृति बन जाती है ।
अन्त में इतना ही कहना चाहता हूँ कि अज्ञेय जी की अनेक कविताओं में उनके उपन्यास‘शेखर एक जीवनी’ की तरह औपान्यासिक भाव निहित हैं । उनकी कविता में अपनी बात कहने के लिये प्रतीक तो हैं साथ ही उपन्यास की तरह कथ्य की सहजता भी है । इससे उनके काव्य में पाठक की उत्सुकता उपन्यास की तरह अन्त तक बनी रहती है । 00000
कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा)
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