Gwalior sambhag ke kahanikaron ke lekhan me sanskrutik mulya - 15 in Hindi Book Reviews by padma sharma books and stories PDF | ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 15

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 64

    નિતુ : ૬૪(નવીન)નિતુ મનોમન સહજ ખુશ હતી, કારણ કે તેનો એક ડર ઓછ...

  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

Categories
Share

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 15

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 15

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय-पाँच

पाश्चात्य संस्कृतिः बदलते जीवन मूल्य

1. पाश्चात्य संस्कृति

2. बदलते जीवन मूल्य

3. कहानीकारों की कहानियों में बदलते जीवन मूल्य

संदर्भ सूची

अध्याय-5

पाश्चात्य संस्कृतिः बदलते जीवन मूल्य

पाश्चात्य संस्कृतिः- सांस्कृतिक मूल्यों को प्रभावित करने में पाश्चात्य विचारधारा का भी हाथ रहा है। विकासवाद, मनोविश्लेषणवाद, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, यथार्थवाद, प्रतीकवाद, बिम्बवाद आदि विचारधाराएं इनमें प्रमुख हैं। विश्लेषणवाद के आधार पर फ्रॉयड ने सिद्ध किया कि संस्कृति धर्म, सभ्यता, नैतिकता आदि कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है; अपितु ये मानव-मन के अचेतन स्तर पर एकत्रित हुई दमित वासनाओं की अभिव्यंजना मात्र है। इनके अनुसार व्यक्ति की दमित, कुण्ठित और असामाजिक प्रवृत्तियाँ ही अपने परिशोधित रूप में कला और संस्कृति का निर्माण करती हैं।

फ्रॉयड ने काम को मानव जीवन की मूल प्रेरणा स्वीकारा है तथा परम्परागत नैतिक मूल्यों, पारिवारिक व नैतिक सम्बन्धों और सामाजिक तथा नैतिक विश्वासों को ध्वस्त कर दिया है, जिसके कारण नये साहित्य में श्लीलता और अश्लीलता का प्रश्न ही समाप्त हो गया है। नग्न सैक्स का चित्रण, व्यक्तिगत काम-कुण्ठाओं का अंकन फ्रॉयड की इन्हीं धारणाओं के फलस्वरूप हुए हैं। साहित्य में व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का प्रकाशन भी फ्रॉयड के प्रभाव के फलस्वरूप ही हुआ है।

मार्क्स के अनुसार, ’धर्म एक अफीम है जिसके सेवन से जनता की चेतना कुण्ठित हो जाती है।’ इस प्रकार मार्क्स ने आत्मा, धर्म, अन्धविश्वास और रूढ़ियों पर इस दर्ष न के माध्यम से कठोर प्रहार किये। मानव समाज के विकास में अर्थ को निर्णयात्मक तत्व के रूप में मार्क्स ने स्वीकार किया है।

’अस्तित्ववाद’ आधुनिक पाश्चात्य दर्ष न की ऐसी अधुनातन धारा है। अस्तित्ववादी चिन्तनधारा में मुख्यतः सार्त्र के चिन्तन में कट्टर नास्तिकता और मानवीयता के प्रति आकर्षण उपलब्ध होता है। सार्त्र के मत से व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।

बदलते जीवन मूल्यः-मूल्य और आदर्श तथा मानदण्ड युग की आवश्यकतानुसार बदलते और निर्मित होते हैं। पिछले महायुद्धों के बीच विकसित होने वाली भारतीय मानव-चेतना ने आजादी की प्रसन्नता के साथ ही विभाजन का अभिशाप भी झेला है। यांत्रिकता, संशय, भ्रष्टाचार और असन्तोष की व्यापकता के साथ ही आस्थाओं को टूटते, विश्वासों को बिखरते और सम्बन्धों को छिटकते देखा है- इन पीड़ाओं के संत्रास से उसकी आत्मा झनझना उठी है- और आज हम देखते हैं कि देश की सम्पूर्ण मानसिकता में तनाव, आतंक और विश्वासहीनता समा गई है। बड़े-बड़े महानगरों की भीड़ में आदमी अकेला है। अतीत का सहारा व्यर्थ है - भविष्य का कोई भरोसा नहीं और वर्तमान पर भी क्या वश है लेकिन जीने के लिए कुछ तो चाहिए न मिलने पर एक विद्रोह युक्त नवीनता का जन्म लेना स्वाभाविक है।

वस्तुतः औद्योगिक विकास एवं यांत्रिक जीवन ने हमारे सामाजिक मूल्यों में, वैचारिक जगत में दृष्टिकोण एवं मान्यताओं में एक विद्रोह युक्त नवीनता को विकसित कर सारी परम्पराओं और आस्थाओं के सामने प्रश्न चिह्न लगा दिए हैं। भौतिक जगत की यह दिशा मूल्यहीनता में बदलती जा रही है। आर्थिक एवं सामाजिक दबावों के बीच नर-नारी के भाव भीने कोमल मधुर सम्बन्ध पुरूषता और तनाव से भर कर टूट रहे हैं। नर-नारी के उखड़ते सम्बन्ध अविश्वास, असुरक्षा तथा अतृप्त सेक्स के कारण और विषम हो गये हैं। इन कहानियों में जीती प्रत्येक नारी के सामने प्रश्न है कि वह देह की पीड़ा के साथ अन्तर्वेदना का विषपान करने को क्यों विवश है? युगीन परिस्थितियों के अनुरूप सामाजिक सन्दर्भों का बदलना स्वाभाविक है किन्तु समस्या वहाँ उत्पन्न होती है जब सार्थक जीवन मूल्य भी अर्थहीन हो जाते हैं। अतः कहानीकार के लिए ’’मूल्य भंग’’ का चित्रण और ’’मूल्य निर्माण’’ के संकेत भी आवश्यक है। आज का लेखक कहानी में अनुभूत सत्य ही लिखता है।

कहानीकारों की कहानियों में बलदते जीवन मूल्यः-सामाजिक परिवर्तन की दिशा में सबसे बड़ा परिवर्तन संयुक्त परिवारों के टूटने और एकल परिवारों की इच्छा में देखा जा सकता है। संयुक्त परिवार परम्परा टूटने से व्यक्ति अनेक स्तरों पर अलग हो गया है। विश्व समाज का स्वप्न देखने वाला मानव आज इन लघु परिवारों में भी सन्तोष और आत्मीयता पाने में असमर्थ है।

वर्तमान परिवेश में बदलते यथार्थ के साथ मूल्यों में भी परिवर्तन आया है। महिलाओं को गलत नजरिये से ही देखा जाता है। औरत मतलब एक ही दृष्टि- सेक्स की, नारी की एक ही मूरत-काम की, त्रिया के लिया जाने वाला एक ही कार्य है - शारीरिक तृप्ति। यहाँ तक कि सरकारी सुविधायें भी शारीरिक संबंधों के बलबूते मिल जाती है। महेश कटारे ने अपनी कहानियों में इस परिवर्तन को स्पष्ट किया है ’’अफवाह है कि नये सरपंच से फंसी है, तभी तो गोचर ज़मीन का पट्टा करवा लिया है पति के नाम (मर्दमार पृ. - 125) इतना ही नहीं ससुर भी बहू से शारीरिक संबंध बना लेता है-

’’इसी बीच डिप्टी साहब का इस जंगली इलाके में दौरे का कार्यक्रम बना। डिप्टी साहब का प्रस्ताव कि ’गीता भी उधर चले तो मन बहलेगा का घर में कोई विरोध न था। इलाके के छोटे-मोटे सरकारी कारिंदे दोहरे हो गये। वन की रोमाचंक भयावहता के बीच खड़ी गोल कोठी काम चलाऊ विश्राम के लिए सुविधाजनक बन गयी।1

विवाह संस्कार में परिवर्तन आया है। प्रेम विवाह होने लगे हैं। शपथ पत्र में भी विवाह होने लगे हैं। सेक्स की धारणायें बदलती जा रही हैं। पत्नी दूसरा पति कर लेती है अभी तक तो यह नीच जाति में प्रचलन था अब ब्राह्मण की पत्नी एक पति के रहते दूसरे के साथ चली जाती है (सादे कागज का प्रेम पत्र) सरकारी सहायता के लिए शरीर का सहारा लेती है, सैक्स की पूर्ति के लिये दरवाजे की साँकल खुली रखती है (हंसिया, पानी और चाँद)।

बदलते वातावरण में युवा पीढ़ी के वार्ता के मुद्दे भी बदल गये हैं। होटल संस्कृति बढ़ रही है और डोसे आदि खाये जा रहे हैं। कैफे आदि में लड़कियाँ लड़कों के साथ बैठती हैं और फिल्मों में चुम्बन आदि के शॉट पर विस्तृत चर्चा भी करती हैं (घण्टाघर)।

लोन से भौतिक सुख-सुविधाएँ जोड़ने को लोग लालायित हैं। टी. वी. कूलर, फ्रिज आदि खरीदे जा रहे हैं। गाँवों में भी यही स्थिति है वहाँ भी ट्रेक्टर लोन लेकर खरीदे जा रहे हैं। (पहरूआ)

आज व्यक्ति अपने दुःख से ज्यादा दुःखी नहीं है वरन् सबसे अधिक दुःखी दूसरे के सुखों को देखकर है। ऐसे लोग कम ही हैं जो दूसरे के दुःख में दुःखी और सुख में सुखी होते हैं। पुन्नी सिंह लिखते हैं ’’वेे सम्पूर्ण समाज के सुख में सुख का अनुभव करते हैं और दुःख में दुःखी होते हैं। उस पीढ़ी के लोग अब हमारे बीच कम ही हैं, लेकिन हैं ज़रूर। यदि हीरा चाचा के ही शब्दों में कहें तो ऐसे ही लोगों के पुण्य प्रताप से यह धरा बची हुई है। अगर वे न होेंगे तो यह धरती रसातल को चली जाएगी?2

नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी का कहना नहीं मानती। एक समय था पितृ आज्ञा की पूर्ति के लिये राम ने वनवास ग्रहण कर लिया था पर आज आज्ञा मानना तो दूर उनका सम्मान भी नहीं किया जाता।

’’वासे थोड़ी देर पहिले तो गोपी के छोकरे से मैंने सुई में डोरा डालने को कहा तो सुनकर अनसुना कर गया ऊपर से मेरी ओर देख-देखकर मुस्करा रहा था.........।3

समय बदलता जा रहा है रक्षक ही भक्षक बनते जा रहे हैं। पुलिस अधिकारी डाकुओं से मिलकर उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं। यहाँ तक कि बड़े अधिकारी को भी जान से मारने में नहीं चूकते।

’’.........मैंने दरोगा पर गोली नहीं चलायी मैडम! गोली किसने चलायी यह जान लेना अब किसी के लिये कोई मायने नहीं रखता। लेकिन आज इतना जरूर जान लीजिये कि मगर मैंने गोली नहीं चलायी होती तो आपका भेजा जरूर उड़ गया होता, क्योंकि आपके उस दरोगा ने आपकी खोपड़ी का निशाना अचूक तरीके से साधा था।’’4

बदलते समय के साथ व्यक्ति के जीवन में भी बदलाव आ जाता है इसी बदलाव को साहित्यकार अपने साहित्य में रचता है। समय परिवर्तन के साथ-साथ मानवीय रिश्तों की मिठास भी खत्म होती जा रही है। जिन माँ-बाप के हाथों में बेटा पलकर बड़ा होता है बड़े होने पर उनको अपने साथ रखने को तैयार नहीं होता। समय के साथ मानवीयता समाप्त होती जा रही है। परिवार का दायित्व निर्वाह नहीं कर रहे हैं आज के युवक। राजनारायण बोहरे लिखते हैंः-

’’बिपिन के बड़े भाई नवीन यहीं हैं। इसी शहर में नहर विभाग के दफ्तर में यू.डी.सी. हैं। अच्छी खासी कमाई है। चाहें तो बाबू जी और रश्मि को अपने साथ रख सकते हैं लेकिन उन्हेें तो सगों की सडँ़ाध आती हैं।’’5

परिवार में ही नहीं समूचे देश में मानवीयता खत्म होती जा रही है। व्यक्ति अपने स्वार्थ में इतना लिप्त है कि किसी की दुःखी बीमारी या परेशानी से उसे कोई ताल्लुक नहीं है। विकास करने के बाद उसका दिल उसका मन और भी संकुचित होता जा रहा है।

’’........आज आदमी नमस्कार भी नहीं करता। हर एक व्यक्ति केवल नफा-नुक्सान देखता है। रिश्ते-संबंध मान मर्यादा का किसी को ध्यान नहीं है। ’’.....टीका बब्बा को वितृश्णा होने लगी है इस विकास से। मानवता की समाप्ति की शर्त पर होने वाला विकास भला किसे स्वीकार्य होगा...यह वही गुना था, जब एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की मौत पर या किसी हादसे से दुःखी होकर लोग पूरा बाजार बंद कर देते थे, और आज यह हाल है कि-पड़ोस में गमी हो या दुःख-बीमारी, पड़ोसी को कोई मतलब नहीं रहता.....’’6

राह चलते यदि कोई झगड़ रहा हो, या किसी को पीट रहा हो यहाँ तक कि किसी पर वार कर रहा हो तो भी किसी को किसी से मतलब नहीं है सभी अपने गंतव्य पर पहुँचना चाहते है।

’’.......सरे आम एक आदमी के सीने में छुरा भौंक कर एक गुण्डा भागने लगा। वह यानी ’भूपत’ उस समय नहीं था, और दीदे फाड़कर सब कुछ देख लेने के बाद भी उसे न तो छुरे से घायल हो तड़पते आदमी को देखकर दया आ रही थी, न ही उसे तड़पते आदमी की चीखें सुनाई दे रही थीं।’’7

एक समय था जब पत्नी पति की लम्बी उम्र की कामना के लिए व्रत-उपवास किया करती थी। आज का समय परिवर्तित हो गया है पतिव्रत धर्म का पारायण करने वाली स्त्री पति को मरने का रास्ता सुझा देती है। प्रमोद भार्गव ने अपनी कहानी में लिखा हैः-

’’ऐसे में यदि करूणा पुत्रों के साथ पिता का मरना यह सोच रही है कि शेखर के पिता मर क्यों नहीं जाते....तो इसमें गलत क्या है ही क्या? छोटे बेटे को अनुकंपा नियुक्ति मिल जाएगी। बीमा, भविष्य निधि और ग्रेच्युटी से बेटी का ब्याह ढंग से सम्पन्न हो जाएगा और करूणावती का जीवन पेंशन से कमोबेश संतोषजनक ढंग से कट ही जाएगा।8

समकालीन जीवन का विसंगति वर्तमान समाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को लेकर कहानीकार का उद्देश्य अंधविश्वासों, पारिवारिक दबावों और थोपे गये सन्यास से नायिका को मुक्ति दिलाने का प्रयास करना है। प्राकृतिक संरचनाओं, प्राकृतिक इच्छाओं के विरूद्ध साध्वी बन जाना अनुचित है।

’’..........इक्कीसवीं सदी से पहले दशक का यह वही कालखंड है जब चातुर्मास के लिए निकली एक साध्वी प्रेम के फेर में भस्मीभूत हो जोने का नाटक रच प्रेमी के साथ लापता होती है और समाचार का शीर्षक होता है, अचानक प्रकट हुए अलौकिक प्रकाश में साध्वी भस्म.......तप के साक्षात् चमत्कार से साध्वी को मानव जीवन से मिला मोक्ष...........।’’9

आज के नेता राजनीति का अपमान करते हैं, किराये से भीड़ इकट्ठी करवाते हैं वो भी युवा कुंवारी लड़कियाँ या हाल की शादी-ब्याही युवतियाँ। इतना ही नहीं तिरंगे का अपमान भी वे करते हैं।

’’.............मिनी नेता ने नीचे उतरकर पाइप से तिरंगे झण्डे को निकाला और मेढ़ पर बिछा दिया। फिर उन्होंने दूसरा दरवाजा खोला और लल्ली को बाहर खींच लिया। लल्ली मुँह खोलने को हुई तो मिनी नेता ने ’चोप’ रहने की डपट लगाई।........

तिरंगा झण्डा कुछ आहो और सिसकियों के बीच पैरों तले रोंदा जा चुका था।’’10

आश्रम चतुष्ट य के अन्तर्गत व्यक्ति के जीवन को चार आश्रमों में बांधकर मानव जीवन को सहज सुलभ बना दिया गया था। आगे पहुँचने की जद्दो जहद में आज व्यक्ति अपने कैरियर में इतना डूब जाता है कि वह अपने विवाह और विवाह के उपरान्त सन्तानोत्पŸिा के बारे में विचार नहीं करता फलतः परिणाम यह होता है कि उसे निःसन्तान होने का दंश झेलना पड़ता है।

’’..............आयुषी अहंकार की दौड़ में शामिल हो गई रोमांस की उम्र कैरियर बनाने की प्रतिस्पर्धा में स्वाहा............शादी की उम्र कंपनी के टार्गेट एचीव करने में स्वाहा और माँ बनने की उम्र तो जैसे उसने समझा था मोनो पौज की स्थिति शरीर में नहीं आने तक सुरक्षित है।’’11

स्वतंत्रता संग्राम के द्वितीय चरण को लखनलाल खरे के पिता और परिजनों ने स्वयं उसमें सक्रिय रहकर अनुभूत किया। उस समय के उदात्त विचारों को श्री खरे ने पैतृक संपŸिा के रूप में पाया है, उसे सुरक्षित निधि के रूप में संचित किया है। पर उस सुरक्षित निधि के निरन्तर ह्रास होने से लेखक का हृदय व्यथित हो जाता है। स्वतंत्रता के पश्चात् जन्मी व पनपी रीढ़ विहीन नेताओं की बाढ़ हमारे राष्ट्रीय मूल्यों के मान-सम्मान को भी बहा ले गयी।

’कर कमलों से’ कहानी का पात्र ’मंत्रीजी’ चुनाव लड़ने, जीतने और मंत्री बनने के पूर्व प्रभावशाली परिवार का महाविद्यालयीन छात्र रहता है जो अपनी सहपाठी छात्रा से बलात्कार करता है, नैतिक मूल्यों के लिए समर्पित प्राचार्य की हत्या करता है और अपने पैसा, पद, प्रभाव के बल पर कानून को ठेंगा दिखाकर ’बाइज्जत’ बरी हो जाता है। देश की राजनीति में गिरावट आयी और यह अपराधियों की शरणस्थली बन गयी। संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों की नयी परिभाषा गढ़ी गयी।12

मंत्रीजी के आते ही भीड़ उनके वाहन की ओर दौड़ती है उन्हें माला पहनाने और चरण छूने की होड़ लग जाती है। चांदनी का एक सिरा खुलकर लटक जाता है। एक कार्यकर्ता इधर-उधर देखता है। आसपास ऐसी कोई जगह नहीं; जिससे लटके इुए छोर की रस्सी को बाँधा जा सके। उजाड़ में दूर लगी बापू की आदमकद प्रतिमा पर उस कार्यकर्ता की दृष्टि पड़ती है। वह चांदनी के छोर में रस्सी जोड़ता है और उसे बापू की प्रतिमा के गले से बाँध देता है। चांदनी सीधी हो जाती है। मंच पर मंत्रीजी का भाशण जारी है - हमें बापू के बताये मार्ग पर चलना होगा।’’13

लखनलाल खरे की कहानी ’पोस्टिंग ऑर्डर’ की गीता निजी स्कूल में पढ़ते हुए अपनी शैक्षणिक योग्यता बढ़ाती है और समय-समय पर सरकारी नौकरी हेतु आवेदन करती रहती है, परन्तु उसकी तमाम योग्यताएं भी निरर्थक जाती हैं-जब उससे कम योग्यता धारियों का चयन हो जाता है-उसे छोड़कर। सरकारी नौकरी में आने के लिए उसकी आयु-सीमा का एक वर्ष ही शेष रहा है। वह दिनों दिन चिन्तित है। इसी से बाल सफेद होते है, गीता के हुए असमय ही-चिंता में। और अंत मं हारकर वह ’अपनों’ द्वारा सुझाए गये उस मार्ग का अनुसरण करती है जो उसकी अन्तरात्मा की आवाज है।

सात जन्मों का बंधन ’विवाह’ अब एक जन्म में भी निभना मुश्किल होता जा रहा है। पति-पत्नी दोनों के अहम् टकराते हैं और सम्बन्ध विच्छेद की कगार पर खड़े हो जाते हैं। यह स्थिति प्रेम विवाह में भी है। कोर्ट में शादी और कोर्ट में तलाक होने लगे हैं। शादी और तलाक एक कागज तक सीमित होकर रह गये हैं पति-पत्नी की लड़ाई में बाल-मन पर विपरीत असर पड़ता है। निरंजन श्रोत्रिय ने इसे स्पष्ट किया हैः-

’’आज डैडी दस रूपये का एक बहुत बड़ा नोट लेकर घर आये! सच इतना बड़ा नोट मैंने कभी नहीं देखा था। और तो और वह इतना बड़ा था कि उसके नीचे बहुत सारा टाइप भी किया हुआ था।.....लेकिन ये मम्मी पता नहीं क्या हैं कि उस नोट को देखते ही बेडरूम में भाग गयी और धम्म से बेड पर गिर पड़ी..............।’’14

राजेन्द्र लहरिया के अनुसार आज टी.वी. संस्कृति पूरी तरह हम पर हावी हो गयी है। बच्चे टी.वी. देखकर ही उठते हैं और टी.वी. देखकर ही सोते हैं। टी.वी. में जो परोसा जा रहा है उसे वे ग्रहण कर रहे हैं परिणामस्वरूप बच्चे संस्कारहीन हो रहे हैं। पहले रामचरित मानस की चौपाई तथा कबीर, सूर, रहीम के दोहों की अन्त्याक्षरी खेली जाती थी पर आज फ़िल्मों के गाने व उनके नाम की अन्त्याक्षरी खेली जाती है बुजुर्ग व्यक्ति को भी चिढ़ाने में बच्चों को आनन्द की प्राप्ति होती है।15

फिल्म व टी.वी. देखकर बच्चों के मन में अपराध के बीज अंकुरित होने लगे हैं। वे अपने ऐशो आराम के लिये अपहरण करने लगे हैं वह भी अपने जिगरी दोस्त का। जिससे फिरौती की रकम एक मुश्त प्राप्त हो जाये।

’’और सबेरे के अखबार में खबर की तफसील थी कि 18-20 साल की उम्र के चार लड़कों ने ऐशोआराम की जिंदगी जीने की इच्छा पूरी करने के लिये, फिरौती के लिये, पिछले हफ्ते एक मध्यवर्गीय कॉलोनी से गोपालनारायण वर्मा के पाँच वर्शीय बेटे का अपहरण कर लिया था।’’16

सब जगह कांकरीट का जंगल दिखाई देता है खेत, जमीन, मकान आदि तोड़कर मल्टी स्टोरी बनायी जा रही है। उन लोगों का कहना न मानने पर परिणाम भयावह होता है। ऐसे लोग जनाकांक्षा स्कूल को ही आग के हवाले कर देते हैं जिसमें बच्चे भी मर जाते हैं।(नरभक्षी)

डॉं. अन्नपूर्णा भदौरिया ने अपने सीमित कथा-क्षेत्र में समाज के परिवर्तित स्वरूप का सम्यक-चित्रण किया है। एक समय था, जब पत्नी को त्यागना बड़ा कठिन होता था, समाज में तलाक’ शब्द अपरिचित था, पर आज ’तलाक’ शब्द आम हो गया है। पहले इस प्रकार की इक्का-दुक्का घटनाएँ होने पर परित्यक्ता अपने भाग्य को कोसती हुई रोती-बिसूरती अपना इकाकी जीवन ढोती थी और अपने पति-परमेश्वर के नाम की माला जपती रहती थी। आज वह बात नहीं रही। सामाजिक परिवर्तन के दौर में अब परित्यक्ता भी पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर हो रही है और अपने पति के परमेश्वर का गुमान मिट्टी में मिला रही है। डॉं. भदौरिया की कहानी-’रेतीली ढलान’ की नायिका रीना इसी सामाजिक परिवर्तन को इंगित करती है।

’’रीना ने अब अपने जीवन में कभी भी विवाह न करने का संकल्प लेकर अश्विनी के सम्बन्ध को तोड़ ही दिया, इसके साथ ही उसने समाज को अपनी दृढ़ संकल्प-शक्ति को दिखाने का भी निश्चय कर लिया। वह दिखा देना चाहती थी कि नारी में अगर कली की कोमलता है, तो समय पड़ने पर वही कोमलता चट्टान की कठोरता भी बन सकती है।’’17

डॉं. कामिनी ने स्पष्ट किया कि दहेज की भयावहता से समाज ग्रस्त हो रहा है। कहानी ’चौथी की विदा’ में छिपी कड़वाहट कथानायिका मीनू की ही नहीं, अपितु उन तमाम लड़कियों की है, जिनके जीवन को दहेज-दैत्य ने निगल लिया है। लड़की को विवाह के पश्चात् जीवन भर मिलता है तिरस्कार, अपमान और मानसिक संत्रास-’ब्याह के बाद ससुराल में एडजस्ट होने के लिए उसे वैसा ही ढलना पड़ेगा, जैसा वे लोग चाहेंगे। लड़की के समर्पण की पहली शर्त है हर तरह के जोखिम को हँसते-हँसते झेलना। बिना इसके उसका निर्वाह हो पाना मुश्किल है। मीनू की ससुराल है कि आफत। अलग दिखने और ऊँचे उड़ने की ललक ने उन्हें जमीन पर चलना ही भुला दिया। फैशन का रोग और नये जमाने की दौड़ में शामिल होने के लिए भागे जा रहे हैं बुरी तरह। जमीन छूटती जा रही है पीछे।’’18

समाज की सामाजिक रूढ़ियों में अशिक्षा और बाल-विवाह प्रमुख हैं। अशिक्षा और बाल-विवाह के दुश्परिणामों का चित्रण कर डॉं. कामिनी ने समाज को स्वस्थ संदेश दिया है। नारियाँ भी शिक्षा की ओर उन्मुख हुई हैं। कहानी-’’विश्वास में भीगे कदम’’ की आठवीं कक्षा पास और सिलाई-कढ़ाई में दक्ष नायिका विमला का विवाह माँ के लाड़ में बिगड़े, हाईस्कूल में तीन बार फेल हुए सरपंच-पुत्र गजेन्द्र से होता है। गजेन्द्र आये दिन शराब के नशे में विमला को प्रताड़ित करता है और फिर - ’’विमला रात भर रोती रही थी, सोचती रही थी-उसे इस तरह नहीं जीना है। जियेगी, तो सम्मान के साथ। वह आगे पढ़ेगी, नौकरी करेगी। वह निठल्ले नहीं बैठ सकती। चौके-चूल्हे में अपनी जिन्दगी नहीं झोंक सकती। सबेरे उठते ही सास को उसने अपना निर्णय सुना दिया- मैं हाईस्कूल का फारम भरूँगी इस साल अम्मा, इससे मेरा मन लगा रहेगा।’’19

समाज को नवीन दृष्टि मिली है। अब अन्तर्जातीय विवाह तथा विधवा विवाह भी हो रहे हैं। ’अपने-अपने आदर्श ’ कहानी भी अंतर्जातीय विवाह और विधवा विवाह पर आधृत है। परन्तु इस आदर्श के अपने-अपने मुखौटे हैं। कुन्दा जोगलेकर की कहानी में नायक मुकुन्द विधवा से ही विवाह करने पर अडिग है-’’क्या बुरा किया है मैने? अंजली विधवा है यही न? तो इसमें उसका क्या दोश है? नियति ने जो क्रूर मजाक उसके साथ किया है, उसमें उसका भागीदार बनकर उसकी जिन्दगी आबाद करना चाहता हूं। आप ही बताइये आखिर क्या कमी है अंजली में?’’20

जब समाज में परिवर्तन होता है तो उसकी समग्र संस्थाएं प्रभावित होती हैं। पहले परिवार में शिशु या कन्या के जन्म के पश्चात् पुरोहित उसकी जन्म कुण्डली तैयार करता था और राशि के आधार पर नामकरण करता था। पर, अब ये परम्पराएँ टूट रही हैं। माता-पिता स्वयं अपने बच्चों का नामकरण करने लगे हैं। कुन्दाजी ने इस बदलाव को परिलक्षित किया है-’’और मैं प्रिया, नंदा, आकांक्षा, मोना, उर्वशी.........मन ही मन ढेर सारे नामों की श्रृंखला बनाती अपनी भाभी से मिलने चली गयी थी। नाजुक-नाजुक फूल सी कोमल बच्ची को देखकर मुझे अपनी पम्मी याद आ गयी थी............। ऐसी ही प्यारी सी.............शोख, चंचल, नटखट, प्रियवंदा......कितने प्यार से नाम रखा था........। कुछ देर रूककर मैं घर लौट गयी थी, भाभी से वायदा लेकर कि अपनी भतीजी का नाम मैं रखूंगी।’’21

दहेज प्रथा यद्यपि समाज का कोढ़ है, फिर भी सुसंस्कृत परिवारों में इसके प्रति वातावरण निर्मित हो रहा है-’’हमारा परिवार एकदम आधुनिक है बहन जी, दहेज जैसी छोटी सी बात के पीछे हम आपके निवेदन को अस्वीकार नहीं कर सकते। हम स्वयं इसके खिलाफ हैं।’’22

महेश कटारे के अनुसार भ्रश्टाचार सभी विभागों में आज अपने पैर पसार चुका है। रिश्वत लेकर काम करवाने के तरीके निकाले जा रहे हैं यह व्यवस्था सभी ऑफिस एवं विभागों में है यहाँ तक कि विद्या का केन्द्र भी इससे अछूता नहीं है। परीक्षा केन्द्र बनवाने के लिए पैसा का जोर चलता है तो नकल करने दिए जाने के लिए भी पैसा ही मुख्य मुद्दा होता है-’’मालिक पूरी बात शायद आपको पता नहीं है। केन्द्र पर हर लड़के से दो हजार की बसूली हुई है। देने वालों को नकल की छूट है।’’ इस बात का विरोध केन्द्राध्यक्ष द्वारा किया जाता है तो मंत्री जी का उŸार मिलता है- ’’लड़कों को नकल के लिए ही तो केन्द्र चाहिए, तो केन्द्र के लिए पैसा चाहिए।....’’23

अध्याय-5

संदर्भ सूची

पाश्चात्य संस्कृतिः बदलते जीवन मूल्य

01- महेश कटारे - मुर्दा स्थगित-(बगल में बहता सच), पृ.-28

02- पुन्नीसिंह-गोलियों की भाषा (गोलियों की भाषा)- पृ.-3

03- पुन्नीसिंह - गोलियों की भाषा- पृ.-2

04- पुन्नीसिंह - गोलियों की भाषा- (मुखबिर) - पृ.-103

05- राजनारायण बोहरे - इज्ज़त-आबरू-पृ.-25

06- राजनारायण बोहरे - गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ- पृ.- 59

07- वही पृ.-61

08- प्रमोद भार्गव - पिता का मरना - परिकथा नवम्बर - दिसम्बर-08-पृ.-83

09- प्रमोद भार्गव- मुक्त होती औरत - हंस अगस्त-08 -पृ.-36

10- प्रमोद भार्गव- लौटते हुए - पृ.-62

11- प्रमोद भार्गव- इंतजार करती माँ - पुनर्नवा (दैनिक जागरण) 15 दिसंबर-06

12- लखनलाल खरे- नवप्रभात-05.09.1982

13- लखनलाल खरे - स्वागतम् - आचरण - 11 नबंवर 1985

14- निरंजन श्रोत्रिय - उनके बीच का ज़हर.......उनके बीच का ज़हर कहानी संग्रह- पृ.-46-47

15- राजेन्द्र लहरिया- बरअक्स - पृ.- 69

16- राजेन्द्र लहरिया- युद्धकाल - पृ.-55

17- अन्नपूर्णा भदौरिया- दैनिक भास्कर ग्वालियर - 03.05.1984

18- डॉं. कामिनी - गुलदस्ता - पृ.-25

19- वही - पृ.-64

20- कुन्दा जोगलेकर - एक बूंद टूटी हुई- पृ.-31

21- वही - पृ.-43

22- वही - पृ.-45

23- महेश कटारे-पहरूआ (इस सुबह को क्या नाम दूँ)- पृ.-146-147