Gwalior sambhag ke kahanikaron ke lekhan me sanskrutik mulya - 10 in Hindi Book Reviews by padma sharma books and stories PDF | ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 10

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 10

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 10

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - चार

प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य

4. प्रमोद भार्गव की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

संदर्भ सूची

4-प्रमोद भार्गव की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

कहानीकार प्रमोद भार्गव की कहानियों मेें ग्राम अटलपुर जो कि उनका जन्मस्थल भी है, अनेक किस्से हैं। कई कहानियाँ तो ’अटलपुर’ के संदर्भ, एवं विवरण को प्रस्तुत करनी चलती हैं। उनकी कहानियाँ ग्रामीण व शहरी परिवेश का मिला-जुला रूप है। ग्राम्य संस्कृति, वहाँ का परिवेश वहाँ की परम्पराएँ एवं रीति-रिवाज सभी उनकी कहानियों का वर्ण्य विषय रहे हैं। गाँवो को उन्होंने कहानीकार ही नहीं पत्रकारीय दृष्टि से भी देखा है और उसकी गहराई में जाने का भी प्रयास किया है। गाँव से जुड़े लेखकों में मिट्टी की सोंधी खुशबू एवं मूल्य की गुणवत्ता का भी समावेश रहता है। जो चाहे अनचाहे उनके लेखन में दृष्टिगत हो जाता है।

उनके पात्र धार्मिक अवस्था वाले हैं। वे बालाजी के भक्त है इस नाते मंगलवार और शनिवार के दिन उनकी भक्ति की अजस्त्र धारा प्रवाहित होती हे जो गम्मत के साथ स्वर लहरी में परिवर्तित हो चारों ओर संगीतमय वातावरण उपस्थित कर देती है

’’.....वे नित्य नियमी और संयमी जीव थे। रोज लगभग एक घंटे बालाजी के मंदिर में पूजा करते प्रत्येक मंगलवार को बालाजी को चोला चढ़ाते और श्रृंगार करते। प्रत्येक मंगलवार और सभी तीज त्यौहारों के दिन मंदिर में गम्मत होती। ढोलक, हरमोनियम मंजीरे और चिमटे की तानें खिंच जाती । काका अपनी सुरीली आवाज में कबीर, मीरा और सूरदास के पद गाते।1

पूजा में भोग (प्रसाद) भी जगाया जाता है। जो कभी गुड चने का लगता कभी पंजीरी का लगता है तो कभी मेवा-मिष्ठान का कभी-कभी भक्तजन दूध भी ले आते हैं। पूजा में सीधा दिया जाता है जिसमें एक खोदा आटा, एक कटोरी दाल दो नमक के डले, एक लाल मिर्च और एक चम्मच घी मिलता ।2

गणेश महोत्सव धूमधाम से होता (विस्थापित) तो महाशिवरात्रि भी मनायी जाती (बदरीदादा)। हर अच्छा कार्य होने पर बालाजी की कृपा मानी जाती। काम पूरा न होने पर ठाकुरबाबा से भी मन्नत मांगी जाती (आंसुओं का अर्ध्य)। गृहप्रवेश हो या नये कार्य की शुरूआज शुभमुहूर्त देखने की परम्परा थी (डंगोरा बाली बऊ, नक्टू)। रामायण का अखण्ड पाठ भी किया जाता था।

’’..........और फिर शुभ मुहूर्त निकलवाकर काका ने अपने गाँव के गम्मती साथियों को बुलाकर रामायण पाठ का आयोजन किया। सात कन्याओं को खीर-पूड़ी खिलाकर पूरे मोहल्ले में नुक्ती का प्रसाद बंटवाया। इस तरह नये घर में काका लड़कों के साथ रहने लगे।3

पूर्णमासी और अमावस्या पर सत्यनारायण भगवान की कथा का वाचन होता था। पंडित जी अपने साथ ही गणेश ’जी’, पोथी-पत्री एवं गरूड़-घण्टाल ले जाते थे। दूसरे गाँव में कथा वाचन करने नदी पार करके भी जाना पड़ता था।

’’...........घाटी की चरम अवस्था के पर मोड़ के साथ बालाजी का मंदिर था। जब हम सातवी - आठवीं में पढ़ते थे, तब हर अमावस्या-पूर्णिमा के दिन चार-छह सत्यानारायण की कथाएं एक के बाद एक बांचते थे।4

घर में प्रवेश करते समय भी सत्यनारायण की कथा करवायी जाती थी।........’’फिर एक शुभ दिन को शुभ मुहूर्त में घर का डोरा किया गया देवताओं के चबूतरे पर सत्यनारायण भगवान की कथा बांची गयी। कसार और चिटक का दही के चिन्नामित्र के साथ पूरे पड़ोस में प्रसाद बांटा गया। इस तरह रामू अपना पैतृक घर छोड़कर बदरी काका के मकान में प्रविष्ट हो गये।5

घर में प्रवेश करते समय भी सत्यनारायण की कथा करवाई जाती है जिसके लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है-

नया घर बनाते समय उसमें एक स्थान पूजा के लिए भी रखा जाता है। कुछ लोग चबूतरे पर भी देवता का स्थान बना देते हैं । यह पूजा केवल देवताओं के पूजन तक ही सीमित नहीं है वरन् सर्वगुणसम्पन्न तुलसीजी की भी पूजा-अर्चना की जाती है। तुलसीजी का रोपण सदैव घर के आंगन में ही होता है।

’’...............आंगननुमा बीच की जो जगह थी उसके एक कोने में देवताओं का चबूतरा बनाया गया। चबूतरे के ही बगल से तुलसाना बनाया गया और उसमें तुलसी मैया के पेड़ की पौध रोप दी गई।’’6

जैन धर्म में अहिंसा और अपरिग्रह पर जोर दिया जाता है। कुछ लोग इतने अधिक धर्म के प्रति आस्थावान् होते हैं कि अपनी किशोर बच्ची को साध्वी बना कर यश लूटना चाहते हैं। धार्मिक आस्था इसलिये व्यक्त की जाती है ताकि समाज में उनका सम्मान हो। जैन मुनि चातुर्मास के समय नगर में डेरा डालते हैं।

’’...........सयानी हो रही पंद्रह-सोलह साल की बेटी को धर्म के लिए समर्पित कर जैसे उन्होेंने एक अनिवार्य कर्Ÿाव्य से इतिश्री पाली हो। वह भी बिना कोई मुट्ठी ढीली किए। श्रीमाली दंपति को साधु-समाज जाति बिरादरी, नाते रिश्तेदार, शुभ चिंतकों और मित्रों से जो सम्मान, जो प्रशंसा मिली उससे वो गद्गद् थे।’’7

यहाँ तक कि कुछ लोग यह भी विश्वास करते हैं कि प्राणी ईश्वरीय शक्ति से संचालित होता है। हमारा अपना निजी कोई अस्तित्व ही नहीं है, इसलिए हम विवश है प्रत्येक होनी अनहोनी विधि का विधान होता है। (आँसुओं का अर्ध्य)।

विज्ञान कितनी भी प्रगति करले पर लोगों के मन में व्याप्त अंधविश्वास समाप्त करने में अभी और समय लगेगा। जैन साध्वी नंदिता श्री भी कहती हैं - ’’बेटी, किसी भी युग और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अभी ज्ञान का प्रकाश अंधविश्वास के अंधेरों को पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाया है........और न कर पायेगा...........।’’8

’’गाँव के लोग अशिक्षा व अज्ञान के कारण और अधिक अंधविश्वासी होते हैं। वे तंत्र-मंत्र में विश्वास करते हैं। बीमार होने पर लोग इलाज नहीं करवाते वरन् भभूत खाकर अपनी बीमारी का इलाज करना चाहते हैं। (पिता का मरना)।

’’सुभाषचन्द्र बोस की स्वतंत्रता संग्राम की टोली में अटलपुर के दो युवक भी शामिल थे। अंग्र्रेजों ने जमींदारों के मार्फत उन दोनों को फाँसी दिलवादी। तब से गाँव वाले उनकी अकाल मृत्यु मान उन्हें भूत के रूप में देखन लगे ’’.............जमींदार साहब ने दोनों युवकों की धरपकड़ करके इन पठारों पर खड़े दोनों ओर पीपल के वृक्षों पर फांसी दे दी। ग्रामवासियों की संकीर्णताओं ने उन लोगों की बेमौत मृत्य होने से भूत योनि में प्रेवश करा दिया। बस फाँसी वाली रात से इस पठार में दो भूतों का जन्म हो गया। तब से यदा-कदा दो भूत इस राह से रात में अकेले गुजरने वाले आदमी से टकराते रहते हैं।9

ग्रामीण लोग तंत्र-मंत्र पर जल्दी ही विश्वास कर लेते हैं। तांत्रिक शक्ति के द्वारा वे लोग स्वस्थ होने की उम्मीद करते हैं। सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को जिंदा करने के लिये भी तंत्र-मंत्र का आश्रय लिया जाता है।

’’वैध तांत्रिक बुलाये गये। तांत्रिकों ने नीम के झौंरों पर पानी डाल-डाल कर घंटों झारे लगाये। पीपल की डंडियाँ कानों में डालकर किलकारियाँ लगाईं। दोपहर से लेकर अगले दिन की सुबह तक तमाम तरह के उपचार किय गये पर सार कुछ निकला नहीं।’’10

विवाह दो शरीर नहीं वरन् दो आत्माओं के मिलन का नाम हैै। पर देखने में यह आता है कि विवाह मात्र ’समझौता’ बनता जा रहा है। गरीब माँ-बाप अपनी बेटी की शादी अनमेल दूल्हे से कर देते हैं तो कभी घर की परिस्थितियाँ देख स्वयं लड़की भी विवाह के लिये समझौता करने को तैयार हो जाती है। लड़के का पुनर्विवाह है लड़की का पहला ही फिर भी लड़की समझौता करने को तैयार है-

’’उस लड़की से मैंने अपने एक मित्र के घर एकांत में बात की। वह मेरी सभी शर्तें स्वीकारते हुए मुझसे विवाह करने को तैयार थी। दीपा से पैदा संतान को पालने वह सहर्ष तैयार थी। मैंने उससे कहा भी था मैं बुरी तरह टूटा हुआ हँू। मैं तुम्हें वह स्नेह........वह प्यार कभी नहीं दे सकता जो दीपा को दिया। इसके बावजूद वह तैयार थी। यह एक पक्षीय निर्णय मुझे बार-बार कचोट रहा था। आखिर क्यों स्त्री पुरूष के अधीन बनी रहना चाहती है ? एक पक्षीय शर्तों पर तय किया गया विवाह क्या एक तरह की सामाजिक गुलामी नहीं हैं?.......’’11

बाल विवाह की कुप्रथा समाप्त नहीं हुयी है। गाँव में आज भी बच्चों के बाल विवाह कर दिये जाते हैं। महिलाओं को काम करने में सहयोग मिले इसलिए भी बाल विवाह कर दिये जाते हैं। शादी के बाद गौने की रस्म भी की जाती है।

’’.............ग्यारहवी पास करते ही बगल के गाँव शामपुर में मेरी शादी हो गयी थी। तब मेरी उम्र पन्द्रह वर्ष की थी और पत्नी की बारह-तेरह की। अम्मा को चूल्हा-चौका से लेकर गोबर-कंडा तक, सभी घर के भीतर-बाहर के काम करने पड़ते थे। इसलिए अम्मां ने चूल्हा-चौका के काम से मुक्ति पाने के लिए मेरा चौक (गौना) भी जल्दी करा दिया......’’12

माँ-बाप बेटे की पढ़ाई के लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं। बेटा जब पढ़ लिखकर नौकरी करने लगता है तो वह अपनी पसन्द से शादी करने को तैयार हो जाता है। लड़कियाँ भी लड़कों के साथ पढ़ती हैं तो भावनात्मक लगाव हो जाता है और बाद में वह प्रेम विवाह में तब्दील हो जाता है।

’’पुत्तू काका का चिरंजीव और विधायक जी की सुपुत्री का दाखिला एक ही वर्ष मेडीकल कॉलेज में एक साथ हुआ था। वहीं कब कैसे उनके सहपाठन के ताल्लोकात प्रेम के परबान चढ़े इस रोमांचक इतिहास के रहस्यमयी भेद से विधायक महोदय भी अनभिज्ञ हैं। अनायास ही एक दिन उनकी सुपुत्री ने अपने प्रेमी के साथ आकर उनके चरण स्पर्ष किये और सदा-सदा के लिए एक दूसरे के जीवन साथी बनने का प्रस्ताव रखा’’13

जैन साध्वी बनने पर भी भावनायें एवं आकांक्षायं मृत नहीं होतीं, माता-पिता के आदेशानुसार जैन साध्वी बनने के बाद भी मुक्ताश्री अपने पूर्व प्रेमी के साथ जीवन व्यतीत करना चाहती है।ं उससे विवाह करना चाहती है....

’’.............और अब मैं इय साध्वी जीवन से छुटकारा पाकर रमन के साथ ही जीवन भर रहना चाहती हूँ।.......’’14

कुछ लोग विवाह के पूर्व कुण्डलियों का मिलान भी करवाते हैं। दूल्हा-दुल्हिन के बत्तीस गुण मिलना श्रेयष्कर माना जाता था (बदरीदादा) विवाह के अवसर पर वर वधू पक्ष के यहाँ बारात लेकर जाता है। बारात का स्वागत-सत्कार, आवभगत करना वधू पक्ष की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। वर पक्ष का कहना भी यही रहता है कि बारात का स्वागत अच्छा हो बाराती कौन बार-बार आते हैं? पहले बारात तीन-तीन, चार-चार दिन ठहरती थी। गौने का प्रचलन था।

’’.....बूढ़े बुजुर्ग बताते हैं उनके विवाह में बारातियों माँ की जैसी आवभगत हुई थी वैसी आज तक कायस्थों की बारात में किसी की नहीं हुई। पूरी पच्चीस जोड़ी बैलगाड़ियों में बारात लदफ दकर गई थी और पूरे चार दिन ठहरी थी। शुद्ध देशी घी के नुकती पूडी खा-खाकर बाराती इतने छक गये थे कि अब भी जब कभी उन दिनों की याद करते हैं तो डकार लेने लगते हैं। दादजा (दहेज) भी वेे अपने साथ इतना लाई थी कि सासरा मनचंगा हो गया था।

दूसरी बार जब वऊ चौक (गौना) के गाद ससुराजल लाई गई थी तब उनकी उम्र सोलहवें बसंत पर सवार थी।15

काफी सोच विचार एवं मंतव्य करके ही समाज में रीति-नीति बनी होंगी। बेटी का प्रथम प्रसव मायके में हो ऐसी परम्परा रही है। वह शायद इसलिए कि प्रथम प्रसव के समय होने वाली परेशानियों को वह ससुराल में लज्जावश व्यक्त नहीं कर पायेगी। मायके में अपनी सभी लालसाओं और इच्छाओं को वह व्यक्त करने में सहूलियत महसूस करेगी। लेकिन माँ-बाप समर्थ न हों तो इस परम्परा का कोई औचित्य नहीं है।

’’........दीपा की बड़ी बहन पीहर से ही प्रसव करके लौटी थी इसलिए उसके पिता पर अतिरिक्त आर्थिक भार वैसे ही पड़ चुका था। ऐसे में एक और प्रसव का दायित्व उन्हें उठाने में बड़ी परेशानी झेलनी पड़ती। फिर यह मेरे भी स्वाभिमान के खिलाफ बात थी। संतान तो मेरी हो और बोझ बेचारे सास श्वसुर उठाएं।’’16

पुरूष की मृत्यु जब कि उसने आत्महत्या की हो तो उसके मरने के बाद लोग तरह-तरह की बातें करते हैं और उसकी पत्नी पर लाछन लगाते हैं। पति की मृत्यु के उपरान्त पत्नी के समस्त सुहाग-चिन्ह मिटा दिये जाते हैं जैसे चूड़ी आदि तोड़ना विद्रूप दृश्य उपस्थित करते हैं।

’’...........अर्थी पर सतीश की पत्नी की कलाइयाँ पटकवाकर चूड़ियाँ फुड़वाना। कितनी अमानवीय परम्परा..........। तमाम जगहों से उसकी कलाइयों से खून रिसने लगा था। अंततः आर्न्त चीजों के बीच वह दुःखद प्रक्रिया मुझसे देखी नहीं गयी थी और मैंने आँखें मींच लीं थी। शाम लगभग छः बजे हम बारह-पन्द्रह लोग अर्थी लेकर श्मशान भूमि गये थे और कपाल-क्रिया करने के बाद रात लगभग दस बजे लौटे थे।’’17

मृत्यु के उपरान्त इलाहाबाद की त्रिवेणी में या अन्य स्थलों पर जाकर अस्थियाँ विसर्जित की जाती हैं। मृत्युभोज अर्थात् तेरहवीं भी होती है जिसे खूब धूम-धाम से मनाने का रिवाज है कभी-कभी पण्डित भी धर्म और भगवान का भय दिखाकर तेरहवीं के दिन पकवान खाने की लालसा रखते हैं।’’.............गाँव के चाटुकार चटोरे पण्डितों ने बदरी दादा को पोट-पाटकर धर्म और भगवान का भय दिखाकर अम्माँ की तेरहवीं के दिन देशी घी के मालपुआ, खीर की पंगती करा दी और तेरह पंडितों को सवा रूपया नारियल के साथ एक-एक छोटा-चद्दर और गीता भेंट करा दी।’’18

बारह वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत करवाये जाने का रिवाज है (कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की)। एक सुहागिन मरना श्रेष्ठ माना जाता है (आँसुओं का अर्ध्य)। वैधव्य के बाद घरों का बँटवारा करके विधवा को अलग कर दिया जाता है (डंगोरा बाली बऊ)।

सिद्धेश्वर का मेला लगता है जहाँ बच्चे मनपसंद चीजें खरीदते हैं (विस्थापित) तो बदरवास की हाट भरती है जहाँ बेचने के लिए बच्चे बेर, तेंदू जंगल जलेबी, शहद आदि ले जाते हैं (हाट बाजार का गुण्डा) पतंगे भी उड़ायी जाती हैं।’’ होली के हुड़दंग में स्त्री-पुरूषों के संबंधों की पोल-पट्टी खोली जाती है (डंगोरा बाली बऊ) तो कभी फाग गाया जाता है-

’’मन मानी छैल खेलों होरी, सब लाज सरम दैवों टोरी

महना मस्त लगो फागुन को, अबना कोऊ दे है खोरी

धरें ना नाव पुरा पले के, लड़े न सास ननद मोरी,

लिपट लिपट ऊपर रंग डारो, मलो कपोलन में रोरी।’’19

कुछ कार्यों का होना लोग शगुन मानते हैं तो कुछ कार्यों में असगुन मानते हैं (आँसुओं का अर्ध्य) जाते समय खाली बर्तन दिखने से कार्य पूरे नहीं होते (लौटते हुए) कुछ लोग काने की शक्ल सुबह-सुबह देखना असगुन मानते हैं। ऐसे व्यक्ति को देख लेने से कार्य पूर्ण नहीं होता।

’’.......सुबह के समय वे घर से सूरज चढ़े ही निकलते क्योंकि जबसे वे काने हुए थे तब से सुबह - सुबह उनके दर्ष न करने से लोग-बाग कतराने लगे थे। उनमें यह भ्रम पैदा हो गया था कि यदि जिस दिन सुबेरे-सुबेरे बदरी दादा का मुँह देख लिया उस दिन सारा दिन खराब हीे समझो।’’.................20

गाँव में सभी अपनी-अपनी जाति के हिसाब से मुहल्ले में रहते थे। जाति के आधार पर मुहल्ले बसे हुए थे जो जिस जाति का होता था वह उसी मुहल्ले में रहता था। वहीं के कायदे-कानून मानता था। यहाँ तक कि कुंए तक में जातिगत बँटवारा होता था।

’’खलिहानों के बगल से दायीं ओर जाने वाली गैल चमराने जाती थी। सीधा रास्ता एक चौराहे से मिलता था। दायीं ओर टरेंटी मोहल्ला है जहाँ केवल किरार जाति के लोग रहते हैं।.....बांयी ओर की गैल भंगियाने होकर कुआं पर जाती है। पूरे गाँव के लोग उसी कुएं से पानी भर कर लाते हैै। निम्नजाति के लोगों के लिए एक घाट निश्चित कर दिया गया है उस घाट के अलावा वे किसी भी घाट से पानी भरने के लिए प्रतिबंधित है।ं बा्रह्मण बनियों द्वारा किया गया यह बंटबारा शायद आज भी बरकरार होगा। ....सीधा सस्ता मंदिर की घाटी चढ़कर उपरेंटी मोहल्ले में जाता है। वहाँ केवल ब्राह्मण, बनियों और ठाकुरों के रहने का अधिकार है।21

उनकी कहानियों में ग्राम्य शब्दों का बाहुल्य है। हेला, चूल्हा, हाफर-घूमर, दलान, गुईंया, चुरेले, खाट, चिलम, मचेवा, पगहिया, छप्पे, मोढ़ा-मोढ़ी, डुकरिया, पोर, कुठीले, कंडा, माउट, डेरा, डेरना आदि। गंगाजल उठाकर सौगंध खाना आम बात है (गंगा बटाईदार) तो बात-बात पर गालियाँ ’धुआंलगे, मुंडबराने आदि देना भी आम बात है। तीज त्यौहारों पर गाँवों में लिपाई-पुताई होती है।

कुरता-पाजामा, धोती, पंचा आदि के साथ-साथ शर्ट-पैन्ट, सूट, टाई पहनना भी प्रचलन में है। औरतें घंूघट करती थीं। बड़े घर की औरतें सिल्क की साड़ी पहनती थीं। गाँव की महिलायें शहर आती थीं तो श्रृंगार का सामान खरीदती थीं। चूड़ियाँ, चोटी, लिपिस्टिक, नेलपालिश, बिंदी-सब उनकी प्रसाधन सामग्री में शामिल रहता था।

’’.........वह पहले चुरेले के पास गई और उसने कलाइयों में गहरे लाल रंग की एक-एक दर्जन चूड़ियाँ पहनी। उनके बाजू-आजू एक-एक हरे रंग की चूड़ी पहनी। पटवा की दुकान से उसने गोल दर्पण वाली दो चोटियाँ खरीदीं। माथे की बिंदी का पूरा पत्ता लिया। नेलपालिश ली। लिपिस्टिक ली और एक पाउडर का डब्बा भी लिया। फिर ठेले वाले से उसने संकोच व उमंग के पशोपेश में अपने नाप की एक चोली भी ली।..........’’22

छोटे बड़ों के पैर छूकर अभिवादन करते हैं तो गाँव में नीची जाति के लोग ऊँची जाति के लोगों की पैरों की धूल माथे लगाकर-पालागन करते हैं (लौटते हुए)। जमींदार साहब कोे माई-बाप कहकर लोग पैर छूते हैं (नक्टू)। नमस्ते, राम-राम, श्याम-श्याम भी करते हैं। भैया-भाभी, भौजी, कक्का, काका-काकी, नाना-नानी, जेठ-जिठानी, चाचाजी- जैसे संबोधन के साथ-साथ नाम के साथ रिश्ते का संबोधन भी देते हैं जैसे पुत्तू काका, बलुआ काका, टिल्लू के पापा, रामेश्वर दादा, आदि। ससुर बहू का भला चाहते हैं। पुत्र की मृत्यु का दोषारोपण वह बहू को नहीं देते।

’’.............इस दर्दनाक दुखांत परिस्थिति में मैंने एक क्षण के लिए भी उनका मानसिक संतुलन विचलित होते हुए नहीं देखा उन्होंने आते ही सबसे पहले सतीश की पत्नी का ख्याल किया। उसके सिर पर हाथ फिराते हुए सांत्वना दी - ’सब भाग्य का खेल है, बेटा.........। धैर्य रखा मैं जब तक जिंदा हूँ तुझे अपनी और बच्चों की चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।....फिर उन्होंने अपने हाथों से बच्चों की कसम दिलाकर उन्हें एक गिलास जूस पिलाया.......।’’23

उनके पात्र सिगरेट, शराब पीते हैं। हुक्का गुड़गुड़ाने हैं, भांग पान, सब खाते हैं। लाल कठिया गेहँू के आटे की दूध के मोन डली पूड़ी, दाल बाटी, अचार, गुड़ की डेली नमकीन, बिस्किट, बेर तेंदू, जंगल जलेबी, शहद, महेरी तथा काजू किसमिस, दूध, सेब मौसमी आदि खाते-पीते हैं। शराब और सिगरेट पत्नी के साथ भी लिये जाते थे।

’’उसने दो पैग व्हिस्की और सोडा मंगा लिए, अब पीना दिनचर्या में शामिल हो गया है।.........पहले अक्सर सप्ताह में किसी छुट्टी के दिन दीपा के साथ दौर चल जाता। दीपा के साथ लेने में लुत्फ आता उसका कहना ही क्या ? दीपा सिगरेट पीने में भी साथ देती। उसका साथ मुझे हमेशा एक हमसफर साथी-सा लगता थी। भी वह मेरी पत्नी।.........’’24

महिलायें आज परिवार नियोजन के संबंध में जागरूक हो गयी हैं। रमिया जैसी स्त्री का यह प्रण उचित ही है कि जब तक कर्ज न पटे सन्तान पैदा नहीं होना चाहिये। परिवार नियोजन की नर्स हंडेबाई से उसने निरोध का अर्थ और उपयोग समझ लिया है। हण्डेबाई से सलाह-मशविरा करने के बाद उसने तय कर लिया था कि बिरादरी की औरतें चाहे कुछ भी क्यों न कहती रहें, पर वह तब तक बच्चा पैदा नहीं करेगी, जब तक पटेल का कर्ज न पट जाय...........। अपने सिर पर और बोझ लादे, इससे अच्छा है, वह निस्संतान ही बनी रहे, चाहे बिरादरी और गाँव की औरतें उसे बाँझ ही क्यों न कहने लगें। और वाकई रमिया आज तक नियम का पालन करती आयी है।25

माँ अपने बेटे की लम्बी उम्र के लिए सन्तान सप्तमी का व्रत रखती है। कनकलता अपने मायके भितरवार में थी जो कि बुंदेलखण्ड क्षेत्र में था जो पारम्परिक पर्व त्यौहार, रीति-रिवाज और मान्यताओं से कहीं गहरा वास्ता रखने वाला क्षेत्र हैं। माँ बेटी दोनों ने पूरा श्रृंगार कर यह ब्रत रखा। चांदी की चूड़ी पहनी जाती है और आसें (मीठी पूड़ी) तली जाती हैं।

’’.........सन्तान सातें यानी अपनी पुत्र संतानों में गुणकारी चरित्र प्रवाहित करने के लिए अलौकिक शक्ति से प्रार्थना एवं उपासना। कनकलता ने दोनों बेटे-पीयूश और कुणाल की सुदीर्ध आयु और मेधावी प्रज्ञा के लिए व्रत रखा। वहीं कनकलता के चार बहनों की पीठ पर इकलौते भाई के लिए उसकी माँ ने भी व्रत रखा। उस दिन माँ-बेटी ने अलसुबह उठकर दिनचर्याओं से निवृŸिा के बाद श्रंृगार किया। कनकलता ने गहरी नारंगी साड़ी पहनी। मेंहदी महावर रचाया। मांग में चुटकी भर सिंदूर की लंबी रेखा, पति की लंबी आयु के लिए खींची। माथे पर गोल टिक्की जड़ी सवा-सवा तोले की चांदी की चूड़ियाँ कलाइयों में पहनी। सात और पांच सालों के बेटों के लिए कढ़ाही में उसने पूरियाँ तलीं। गुड़ और कठिया गेहूँ के चून में सनी आसें। फिर गोबर से लिपे आंगन में चौकर (रंगोली) पूरकर पटा रखा गया। पटे पर आले से उठाकर पीतल के छोटे-छोटे भगवान विराजे गए। आसें रखी गईं। कलश में आम के पत्तों का झोंरा रख नरियल रखा गया। तब संतान सातें की कथा बांचकर पूजा-अर्चना संपूर्ण हुई। नारियल फोड़कर-बेटों को तिलक किया और उन्हें आसें खिलाई।26

मुगलों के आक्रमण के उपरान्त हिन्दू राजा की मृत्यु के उपरान्त उसकी रानियाँ जौहर कर लेती थीं। बाद में सती प्रथा भी चली जिसमें पति की मृत्यु के उपरान्त परिवार वाले पत्नी को भी उसके साथ सती होने (जलने) के लिये बाध्य करते थे, रूपकंुवर का सती होना ऐसी ही घटना है। यह सब सोचकर कनकलता भी अपने मृत पति के साथ सती होना चाहती है।

’’हमें मालूम था, यही होना है। हम भी जायेंगे। हमारा उनसे वादा था, हम उन्हीं के साथ जाएंगे। हमें वहाँ ले चलो जहाँ हमारे परमेश्वर का शरीर रखा है। आप लोग रोएं नहीं श्पत रहें। जल्दी करो.....हमें पति देवता के पास ले चलो.....27

मंदिर व गाँव के देवता के चबूतरों पर देवता मानव शरीर मेें प्रवेश दिखा कर विभिन्न प्रकार कार्य किये जाते है जिसे सवारी आना कहा जाता है। जोर से हुंकार भरकर सवारी बुलाने की चौकी भी भरी जाती है-

’’......मंदिर में देखा तो गूगल और अगरबŸाी का धुआँ भरा था और एक पच्चीसेक साल का युवक सवारी आ जाने का उपक्रम कर रहा था। उसकी छाती धौंकनी सी चलकर हिचकियाँ उगल रही थी और वह बार-बार उठकर घुटनों के बल खड़ा होकर अजीब हरकतें कर रहा था। कभी वह हथेलियों से पेट पीटता तो कभी गहरी साँसे लेकर आँखें फाड़ते हुए जीभ निकालता।’’28

यह भी अजीब विडम्बना है कि अपने जिस ब्याहता पति को रमिया जी-जान से चाहती थी, उसके पुत्र की माँ न बन सकी,दूसरे पति की संतान को उसे अपनी कोखा में स्थान देना पड़ा। सचमुच, अत्यन्त करूण कहानी है- नारी की। श्री प्रमोद भार्गव ने क्षेत्रीय जाति-विशेष में व्याप्त नारी क्रय-विक्रय की घृणित प्रथा के मध्य उसके हार्दिक उद्गार, उसकी कोमल व रित्रयोचित भावनाओं का उतार-चढ़ाव तथा उसकी संघर्षशीलता को अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और व इस प्रयास में सफल भी रहे हैं। कहानी का कार्य-व्यापार भी शिवपुरी जिले से प्रारम्भ होता है, मुरैना जिले तक विस्तार प्राप्त करता है और प्रारम्भिक बिंदु स्थल पर उपसंहार होता है।

रामदेई अपने विवाहित पति की स्वेच्छाचारिता, शारीरिक त्रास एवं सीमातीत अत्याचारों से परेशान होकर स्वयं ही उसे छोड़कर अन्य पुरूष के साथ रहने के लिए तत्पर होती है। रामदेई का पति न्यायालय में हथियारों से लैस अनेक गुण्डों को साथ लेकर आता है ओर रामदेई को व उसके नये पति को डराता धमकाता है। परन्तु रामदेई निर्भीक होकर उसका सामना करते हुए सैकड़ो की भीड़ के सामने उसकी काली करतूतों का भण्डाफोड़ करती है और अंततः अपनी निर्भीकता के कारण पुरूष के अत्याचारों से मुक्ति पाने में सफलता प्राप्त करती है।

दहेजप्रथा की प्रताड़ना शिक्षित लड़कियों को भी भुगतनी पड़ती है। रिसर्च स्कॉलर एवं साहित्यिक रूचि-सम्पन्न कथा नायिका रूचिका का दंभी, अन्ययी व दहेज-लोलुप डाक्टर पति रूचिका को मानसिक तौर पर प्रताड़ित करता रहता है-

’’मैं तो पहले ही जानता था कि तुम मेरे स्तर की कभी हो ही नहीं सकती। वह तो मरे बाप को एक मुश्त लाख रूपये दहेज में चाहिए थे....वरना तुम जैसी मूर्ख लड़की से शादी करता कौन? मेरी प्रतीक्षा में आज भी डॉ. मधु बैठी हुई है। कवि और साहित्यकारों की औकात क्या होती है? बड़े बड़े लेखक रोटी के चन्द टुकड़ों के लिए मुंह बाये खड़े रहते हैं।’’29

स्वाभिमानी नारी अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं करती। वह मायके आ गयी, पति से तलाक ले लिया और कालान्तर में उसकी भावनाओं को आदर देने वाले एक साहित्य प्रेमी रंगकर्मी से माँ-बाप की सहमति से विवाह कर अपना नया जीवन प्रारंभ करती है।

’’..........यह बेमेल विवाह जाति या उम्र का नहीं था। बल्कि विचारों का था। डॉक्टर होते हुए भी तुम्हारे विचार बहुत निम्न और घटियॉ हैं। विचारों के स्तर पर खोखले और निर्धन हो तुम। तुम्हें घर चलाने वाली सहचारिणी नहीं, बल्कि कमाऊ बीबी चाहिए थी। मुझे कोई एतराज नहीं है। ले आओ उस मधु नाम की डॉक्टरनी को। मैं जा रही हूँ और सुनो, तुम्हारी ये शरीर की भूख की खुराक बनेगी।’’30

’’किराएदारनी कहानी की नायिका जमाने की मार खायी हुई है। उसे पता है कि कहाँ, कब और किसके साथ कैसा व्यवहार करना है-’’भले के संग निहायत गली और बुरे के संग निहायत बुरी। गरीबा हलवाई ने भी मुझे इसी तरह परेशान करके मकान खाली कराने की कोशिश की थी.......उसे सबक सिखाने के लिए मौके का फायदा उठाया। तत्काल मैं उसके कमरे में पहुंँची और साड़ी उतारकर वहीं फेंक दी...बचाओं-बचाओ चिल्लाती हुई बाहर निकलकर कोतवाली पहुँचकर इज्जत लूटने का आरोप लगाकर रिपोर्ट लिखा दी। हजार-डेढ़ हजार रूपयों से टूटा और मेरे हाथ-पैर जोड़कर माफी मांगी, तब कहीं जाकर बचा साला हरामजादा।’’31

कथा नायिका को अपने खानदान की मान-मर्यादा और ’मोड़ा-मोड़ियों’ की नादान उम्र के कारण दूसरा विवाह नहीं करती। उसका दृढ़ चरित्र है, तभी तो वह किराये को मकान ऐसी जगह लेना चाहती है जहाँ उसकी अस्मिता सुरक्षित रह सके-’’ भाई साहब, मैं ठहरी औरत जात। मुझे ऐसा मकान चाहिए, जिसमें मेरी सुरक्षा रहे। ऐसे वैसे नीच कुर्रम का मकान तो मैं खड़े-खड़े ले-लूं.....पर, ऐसे लोगों के ईमान का क्या भरोसा? रात-बिरात अकेली पाकर मुझ पर ही बन बैठें..........।’’32

’डंगोरा वाली बाऊ’, नारी के त्याग, तपस्या और बलिदान की कहानी है। डंगोरा एक छोआ सा ग्राम है, जो शिवपुरी जिले की कोलारस तहसील में स्थित है। शब्द ’बऊ’ से संबोधित किया गया है, जो बड़े ताल्लुकेदार की बेटी थी और डंगोरा के ताल्लुकेदार के घर की बहू बनकर आयी थीं, पर सत्रह वर्ष की अवस्था में उन्हें वैधव्य भोगना पड़ा था और घर-गाँव के ’खसम को खा गयी’ जैसे मर्यांतक ताने सुनने पड़े थे। तेरहवीं होते ही जेठ ने उन्हें अलग कर दिया था-सैकड़ों बीघा कृषि भूमि में से नाम मात्र की भूमि और बारह जोड़ी बैलों में से मात्र एक जोड़ी देकर। अपने एक वर्षीय शिशु लखन को लेकर मन मारकर बऊ को अलग रहना पड़ा था।’’33

हंसा सेठ की बातांें ने लखन को इतना उŸोजित कर दिया कि वह भूल गया कि, जिस औरत ने उसके लिए समाज की अपमानजनक व अनर्गल टिप्पणियों और आक्षेपों को सहन करते हुए जीवन भर संघर्ष किया, उसी को वह प्राण लेवा गालियों और अपशब्दों से आहत कर रहा है। अपना बेटा ही जब उसके चरित्र पर संदेह करने लगा, तब उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं। बेटे ने उसे मर्मांतक पीड़ा दी थी, इतनी, कि जितनी उसे जीवन भर संघर्ष करने के उपरान्त भी नहीं मिली थी। इतनी बड़ी बात होने पर नारी को आमतौर पर आत्महत्या कर लेनी चाहिए, पर वह ऐसा नहीं करती। जिस नाई के कारण ’बऊ’ के आत्मसम्मान को चोट पहँुची, उसी के साथ अंततः वह गाँव छोड़कर चली जाती है जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ करने।

डेढ़ साल पहले अभियन्ता के पद पर टंªासफर होकर आये मि. आर. के. जैन। अधिकारियों-एस. डी. एम. तहसीलदार व पलिस अधिकारियों की आये दिन जैन सा. के घर दारू मुर्गा-मछली की पाटियां होती, जिसमें मिसेज जैन भी बराबरी से शामिल होती। बड़े साहब भी जब-जब दौरे पर आते, तब रेस्ट हाउस में न रूककर जैन सा. के घर रूकते, रात को पार्टी जमती, श्रीमती जैन भी सम्मिलित होतीं, बिना किसी संकोच के व हिचकिसाहट के शराब-सिगरेट पीतीं मुर्गा-मछली खाती-

’’खिड़की के रोशनदान पर रंगीन रोशनी बिछी थी। उसने उठकर खिड़की के दासे पर खड़े होकर आंखे रोशनदार पर गड़ा दी.....अप्रत्याशित दृश्य उसके सामने था। बड़े साहब और मेम साहब निर्वस्त्र लिपट पड़े थे। वीडियो पर गन्दी से गन्दी हरकतों वाली नंगी फिल्म चल रही थी।’’34

प्राकृतिक रूप से जन्म लेने वाली संतान के प्रमि मांॅ का सहज और स्वाभाविक वात्सलय होता है। विज्ञान ने निश्चित रूप से निःसंतान दम्पतियों के होठों को मुसकान दी है परन्तु इससे सामाजिक विघटन एवम् पारिवारिक सहजता को आघात भी पहुँचा है। प्रस्तुत कहानी इसी तथ्य को चित्रित करती है।

एक टायर संस्थान के प्रबंधक कुमार साहब व श्रीमती कुमार का गर्भाशय कमजोर था। एक मजबूर दीन-हीन नारी के गर्भाशय को किराये पर लेकर उससे जन्मे पुत्र का पोषण बोतल के दूध से किया जाता है। श्रीमती कुमार ने आधुनिकता एवम् विभिन्न संस्थाओं में सक्रिय रहने के कारण बालक शशांक भारतीय संस्कारों से शून्य रहते हुए आई.ए.एस. अधिकारी बना और अपनी माँ के साथ भी बिदेशियों सा व्यवहार करने लगा-यहाँ तक कि माँ की मृत्यु की सूचना मिलने पर पिता को शोक संदेश भेजता है, स्वयं नहीं जाता।

संदर्भ सूची

4- प्रमोद भार्गव की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य

स.क्र. कहानी - कहानी संग्रह -पृ. संख्या

01- विस्थापित-लौटते हुए- पृ.-63

02- कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की- लौटते हुए - पृ.- 24 व 21

03- विस्थापित-लौटते हुए -पृ.-35

04- लौटते हुए-लौटते हुए -पृ.-14

05- बदरी दादा-लौटते हुए -पृ.-114

06- वही -पृ.-114

07- मुक्त होती औरत-हंस- अगस्त 2008 -पृ.-42

08- वही-पृ.-46

09- लौटते हुए-लौटते हुए -पृ.-11

10- डंगोरावाली बऊ-लौटते हुए -पृ.-79

11- आँसुओं का अर्ध्य - लौटते हुए -पृ.-56

12- अपनी ज़मीन-लौटते हुए -पृ.-40

13- चना जोर गरम-लौटते हुए -पृ.-105

14- मुक्त होती औरत-हंस अगस्त 08-पृ.-46

15- डंगोरा वाली बऊ-लौटते हुए -पृ.-78

16- आँसुओं का अर्ध्य-लौटते हुए -पृ.-54

17- शंका-लौटते हुए -पृ.-96

18- बदरी दादा-लौटते हुए -पृ.-113

19- विस्थापित-लौटते हुए -पृ.-67

20- बदरी दादा-लौटते हुए -पृ.-112

21- लौटते हुए-लौटते हुए -पृ.-13

22- आँसुओं का अर्ध्य-लौटते हुए -पृ.-61

23- शंका-लौटते हुए -पृ.-100

24- आँसुओं का अर्ध्य-लौटते हुए -पृ.-50

25- शपथ पत्र-पृ.-20

26- सती का सत - आजकल- अक्टू-07-पृ.-21

27- वही-पृ-23

28- भुतही - अमावस्या - नई दुनिया 6 नवम्बर, 2006

29- विचार - शपथ पत्र - पृ. -35

30- वही पृ. - 37

31- किराएदारनी - लौटते हुए - पृ. -34

32- वही पृ. -37

33- डंगोरा वाली बऊ - लौटते हुए - पृ.-79

34- कानून-लौटते हुए- पृ.-87