Gwalior sambhag ke kahanikaron ke lekhan me sanskrutik mulya - 3 in Hindi Book Reviews by padma sharma books and stories PDF | ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 3

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ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य - 3

ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 3

डॉ. पदमा शर्मा

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी

शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)

अध्याय - दो-

1. संस्कृति एवं मूल्य का स्वरूप एवं विश्लेषण

(1) संस्कृति

1. संस्कृति का अर्थ एवं स्वरूप

2. संस्कृति की विशेषतायें

3. सांस्कृतिक संघर्ष

4. सांस्कृतिक विसंयुजता या उभय

5. संस्कृति और समाज

6. सभ्यता और संस्कृति

7. संस्कृति और सभ्यता में अन्तर

7. संस्कृति व अन्य विषय

(क) धर्म और संस्कृति

(ख) भाषा और संस्कृति

(ग) साहित्य और संस्कृति

(घ) कला और संस्कृति

(ड.) समाज और संस्कृति

(च) प्रेम, सौन्दर्य और संस्कृति

(छ) आध्यात्मिकता और संस्कृति

(ज) नैतिकता, मानव-मूल्य और संस्कृति

अध्याय 2

संस्कृति एवं मूल्य का स्वरूप एवं विश्लेषण

1. संस्कृति का अर्थ एवं स्वरूप:

किसी देश या राष्ट्र का प्राण उसकी संस्कृति है क्योंकि यदि उसकी कोई संस्कृति नहीं तो संसार में उसका अस्तित्व ही क्या ? यह अंग्रेजी शब्द कल्चर का हिन्दी अनुवाद है जो लेटिन भाषा के कल्चर शब्द से बना है और इसका प्रयोग कल्चर के लिए होता है। संस्कृति चित्तभूमि की खेती है।1 इसकी शाब्दिक व्याख्या दो प्रकार से की जाती है। प्रथम -संस्कृति शब्द की उत्पत्ति ‘संस्कृत’ से मानी जाती है, जिसका अर्थ है -‘शुद्धिकरण’ या शुद्धिक्रिया । समाजशास्त्रीय भाषा में शुद्धि क्रिया का तात्पर्य सामाजिकता से है।

द्वितीय- ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से भूशण अर्थ में ‘सुट्’ आगमपूर्वक क्तिन् प्रत्यय होने से संस्कृति शब्द सिद्ध होता है।2 इसका अर्थ है मानव का वह कार्य जो भूशण स्वरूप - अलंकार स्वरूप है। मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले ऐसे कार्य जिससे लोग उसे अलंकृत और सुसज्जित समझें। उन कार्यो का नाम है संस्कृति। प्रकारान्तर से संस्कृति शब्द का शुद्ध अर्थ है ‘धर्म’ ।3

संस्कृति से आशय सीखे हुए व्यवहार की वह समग्रता है, जिसमें एक बच्चे का व्यक्तित्व पलता और पनपता है। यह मानव जीवन का वह पहलू है जिसके कारण एक ओर जहाँ विभिन्न मनुश्यों में समानतायें दृष्टि गोचर होती हैं वहीं दूसरी ओर हर मानव समूह दूसरे समूह से भिन्न दिखाई देता है। यह संस्कृति ही है जो हमें समूह में बांधे रखती है और हमारी व्यक्तिगत विविधताओं को समाप्त करने का प्रयास करती है। संस्कृति एक जीवन शैली है एक समूह की विशेषता है वह मान्यता, दृष्टि कोण तथा लोगों की सहभागिता एवं व्यवहारिक व प्रतिमान का एक संग्रह है।4

आध्यात्मिकता संस्कृति का महत्वपूर्ण तत्व है।5 संस्कृति ब्रह्म की भाँति अवर्णनीय है वह व्यापक है, अनेक तत्वों का बोध कराने वाली जीवन की विविध प्रवृत्तियों से सबंधित है।6

सर्वप्रथम 1874ई. मे प्रसिद्ध मानव शास्त्री वी. टायलर ने संस्कृति की परिभाषा के घेरे में बांधने का प्रयत्न किया।

टायलर के अनुसार -

‘‘संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार-विचार, प्रथा, विधि रूढ़ि आदि ऐसी समस्त क्षमताओं तथा अभ्यासों का समावेश रहता है, जिन्हें मानव समाज के सदस्य होने के नाते ग्रहण करता है।’’

राल्फ के अनुसार -

‘‘संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों एवं उनके परिणामों की वह व्यवस्था है जिसके निर्माणतत्व विशिष्ट समाज के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त एवं हस्तान्तरित होते हैं।

स्पष्ट तः कहा जा सकता है कि मानव द्वारा की गई अतीत की क्रियाओं से संस्कृति की उत्पत्ति होती है तथा भाव क्रियाओं से स्थायित्व प्राप्त हेाता है। संस्कृति जैविकीय विरासत से संम्बन्धित न होकर सामाजिक विरासत की प्रतिफल हेाती है जिसके अन्तर्गत विचार, आदर्श प्रतिमानों, सामाजिक नियमों, सामाजिक मूल्यों तथा भौतिक और अभौतिक तत्वों का समावेश रहता हैं। संस्कृति भौतिक और अभौतिक तत्वों की वह जटिल समग्रता है, जिसे मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते प्राप्त करता है और इसी के अनुकूल वह अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है।

‘‘संस्कृति बंधनों में पलकर नहीं पलती.....हम भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ लेकर खड़े हैं किन्तु उसमें जड़ता नहीं है। यदि हम देखते हैं कि विदेशी संस्कृति में भी कुछ अच्छा है तो उसे अवश्य स्वीकार कर लेते हैं।7

लोक में तीन समानधर्मी शब्द प्रचलित हैं - संस्कार, संस्कृत और संस्कृति । संस्कार उन पवित्र और उदात्त विचारों एवं कार्यो के सूचक हैं, जो जीवन को व्यवस्थित बनाते है और सद्गति प्रदान करते हैं।8 संस्कार शोधक या परोपकार करने की एक विशेष पद्धति है, जिसे इस पद्धति द्वारा परिष्कृतकर दिया गया है, वह संस्कृत है और परोपकार करने की प्रेरणा शक्ति ही संस्कृति है यजुर्वेद में भी संस्कृति को सृष्टि 9 माना गया है जो विश्व में वरण करने योग्य10 अथवा विश्व का उन्नयन11 करने वाली है।

प्राचीन भारतीय वाड्.मय में संस्कृति ‘शब्द’ का बहुत कम प्रयोग हुआ है। इसीलिए हिन्दी मे इसे ‘कल्चर’ शब्द का पर्याय माना जाता है। कल्चर में जो धातु है वही एग्रीकल्चर में भी है जिसका अर्थ है सुधारना या उत्पन्न करना । इस दृष्टि से वे समस्त मानव कृतियाँ जिन्हें मानव ने सुधारकर नवीन रूप दिया है अथवा संस्कार करके उत्पन्न की हैं, संस्कृति के अंतर्गत मानी जायेंगी। आचार और विचार ही जीवन और जगत को गति प्रदान करते हैं विचार और आचार में असंगति ही विकृति है और इनकी संगति ही संस्कृति कहलाती है। व्यक्ति के जीवन का आधार उस के आचार एवं विचार हीं हैं किन्तु इस आचार-विचार के मूल में व्यक्ति के वे संस्कार होते हैं जिन्हें प्रकृति ने विश्व के विराट मंच पर उसके मन, विचार, और कर्म में पिरोया है। इस दृष्टि से भी संस्कृति का अर्थ संस्कार सम्पन्न जीवन ही ठहरता है। मानव जीवन का उद्देश्य विकृति से बचकर सुकृति की ओर अग्रसर होना ही है। संस्कृति इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए मानव की पथ प्रदर्शित शक्ति है।12

किसी भी देश की संस्कृति के प्रतीक चिन्ह उस देश की संस्कृति के दर्पण होते हैं। इन्हीं चिन्हों के द्वारा संस्कार प्रतिबिम्बित होते है।

संस्कृति मानव की सबसे बड़ी निधि होती है। इसमें रहकर ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणाी बनता है। संस्कृति जन्म-जन्मान्तर तक व्यक्ति का पीछा करती है।13 संस्कृति मानव समाज की सबसे मूल्यवान् निधि होती है। जिस मानव के पास संस्कृति नहीं वह पशुतल्य होता है। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो हाड़-मंास का एक लोथड़ा होता है जिसे जैविकीय प्राणी कहा जाता है जैवकीय प्राणी से सर्वप्रथम मानव एक सामाजिक प्राणी बनता है। सांस्कृतिक प्राणी के रूप में ही मानव विभिन्न संस्कारों के माध्यम से परिष्कृतहोते हुए मानवीय गुणों का विकास करता है।

संस्कृति का संबंध मानव जीवन के समस्त पक्षों से होता है। प्रत्येक समाज में जीवन यापन करने के अलग-अलग ढंग, तौर-तरीके, रीति -रिवाज, रहन-सहन एवं विधि-विधान पाये जाते है, जिन्हें संस्कृति के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक मानव की कुछ मूलभूत शारीरिक मानसिक तथा सामाजिक आवश्यकतायें होती है जिनकी पूर्ति वह भौतिक और अभौतिक साधनों या उपकरणों द्वारा करने की चेश्टा करता है। भौतिक व अभौतिक सभी साधन या उपकरण संस्कृति के अंग होते है।14

हमारी संस्कृति धर्म प्रधान है परंतु यहाँ धर्म ने कभी भी यूरोप की भाँति बौद्धिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाया। विचारों की स्वतंत्रता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इसी स्वतंत्रता ने हमको विभक्त भी किया और इसी ने भारतीय संस्कृति को संश्लेशण की शक्ति प्रदान की जिसने इस देश तथा इसकी संस्कृति को टूटने से बचाया।15

साहित्य किसी देश की संस्कृति के ज्ञान का आधार होता है। सदियों की परम्पराओं, रीति-रिवाजों और आचार, विचारों का स्पंदन है। पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक हजारों वर्ग किलोमीटर भू-भाग में फैले हमारे देश में भाषाओं और संस्कृतियों की विविधता होने पर भी संस्कृतिक एकता के सूत्र विद्यमान है। इन सूत्रों का संरक्षण और संवर्द्धन सदैव कला और साहित्य ने किया है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि साहित्य मानवता के श्रेष्ठ-गुणों से अभिभूत होता है और समाज के बीच श्रेष्ठ जीवन -मूल्यों का प्रचार प्रसार भी इसी माध्यम से होता चला आया है। इस प्रकार संस्कृति और साहित्य का अन्योन्याश्रित संबंध है।16

2. संस्कृति की प्रकृति और विशेषतायें -

संस्कृति की निम्नलिखित विशेषतायें उसकी प्रकृति को भी स्पष्ट करती है-

1. संस्कृति एक सुसंगठित एवं क्रियात्मक व्यवस्था है।

2. संस्कृति को सीखा जाता है।

3. संस्कृति मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करती है एवं सम्पूर्ण प्राणी जगत में इसका स्वामित्व स्थापित करती है।

4. संस्कृति में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है इस प्रकार मनुष्य परिवर्तनशील पर्यावरण के अनुकूल अपना जीवन यापन करता है।

5. संस्कृति एक व्यक्ति द्वारा निर्मित नहीं होती, बल्कि इसमें कई लोगों की भागीदारी होती है।

6. यह एक अनुकूलन प्रणाली है।

7. ये मनुष्य की जैविक एवं गौण आवश्यकताओं को पूरा करती है।

8. संस्कृति एवं पर्यावरण अपृथ्क्करणीय रूप से जुड़े हैं।

9. संस्कृति की उत्पत्ति मनुष्य की जैविक विशेषताओं के कारण सम्भव हो सकती है। फिर भी इसे अधिजैव माना जाता है।

10. संस्कृति सामाजिक आनुवंशिकता है।

11. ये मनुष्य के व्यक्तित्व को तरासती है तथा उसमें सामाजिक आदर्श एवं मूल्य अन्तर्निविष्ट करके उसे एक सामाजिक प्राणी बनाती है।

12. संस्कृति में संचारित या हस्तान्तरण होने का गुण है।

13. संस्कृति प्रत्येक समाज में एक विशेष प्रकार की होती है।

14. समूह के लिए संस्कृति आदर्श हेाती है।

15. संस्कृति अतिवैयक्तिक तथा अधिसावयव है।

मानव के समूचे जीवन पर संस्कृति का गहरा प्रभाव होता है। सच तो यह है कि मनुष्य से यदि उसकी संस्कृति छीन ली जाए तो उसके पास जो कुछ शेश रहेगा वो मानव के अनुकूल नहीं होगा।

प्रो. रूथ बेनेडिक्ट ने भी व्यक्तित्व पर पड़ने वाले संस्कृति के प्रकारों के महत्व को स्वीकार करते हुए लिखा है कि ‘‘बच्चा जिन प्रथाओं के बीच पैदा होता है, वह आरंम्भ से ही उसके अनुभवों तथा व्यवहारों को ढालती है। यानी बच्चा बोलना सीखते ही अपनी संस्कृति का एक छोटा प्राणी बन जाता है, फिर जब वह बड़ा होता है और संस्कृति के कार्यो में हिस्सा लेने लायक बनता है, तब संस्कृति की आदतें उसकी आदतें, संस्कृति के विश्वास उसके विश्वास और संस्कृति की असंभावनायें उसकी असंभावनायें बन जाती है। व्यक्ति की संस्कृति उसे कच्चा माल प्रदान करती है जिससे वह अपने जीवन का निर्माण करता है। यदि यह कच्चा माल अपर्याप्त है तो व्यक्ति को उसका सदुपयोग करने का अवसर मिल जाता है।’’ अतः स्पष्ट है कि व्यक्तित्व और संस्कृति का पारस्परिक सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ट है। संस्कृति ही एक व्यक्तित्व को एक निश्चित स्वरूप और दिशा प्रदान करती है।17

3. सांस्कृतिक संघर्ष -

जब एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति के साथ संघर्ष होता है अथवा दो भिन्न संस्कृतियों के बीच होने वाले संघर्ष को सांस्कृतिक संघर्ष कहते है। जब कभी किसी समाज में विभिन्न धर्म तथा भिन्न भिन्न सामाजिक मूल्यों, आदर्शो एवं नियमों वाले समूह बाहर से आकर बस जाते हैं। जब इन बाह्य सांस्कृतिक समूह का उस समाज की भौतिक संस्कृति के साथ संघर्ष होता है ऐसी स्थिति में एक संस्कृति दूसरी संस्कृति को पूर्णतः निगल लेना चाहती है तथा समाज में अपना प्रभुत्व जमाना चाहती है। अतः ऐसे सांस्कृतिक संघर्ष से मुख्यतः यह भय होता है कि कहीं बाह्य नवीन संस्कृति प्राचीन संस्कृति का स्थान न ग्रहण कर ले और प्रचलित संस्कृति का अस्तित्व समाप्त हो जाये।

4. सांस्कृतिक विसंयुजता या उभयवृत्तिता -

सांस्कृतिक विसंयुजता या उभयवृत्तिता का तात्पर्य दो संस्कृतियों के उपस्थित होने पर संस्कृति के साथ वैयक्तिक समायोजन, सामंजस्य या अनुकूलन न कर सकने की स्थिति या दशा से होता है। किसी भी समाज में व्यक्ति अपनी आवश्यकता एवं व्यक्तित्व की सफलता के लिए प्रचलित लोकाचारों, प्रथाओं परम्पराओं आदि की उपयोगता के आधार पर उनके साथ समायोजन कर लेता है, किन्तु जब व्यक्ति को अपने समाज की संस्कृति के साथ-साथ और अन्य दूसरे समाज की संस्कृति के साथ अपने ही समाज में सामना करना पड़ता है या उसके साथ समायोजन करना होता है, जब वैयक्तिक रूप से व्यक्ति समायोजन या अनुकूलन करने में असफल हो जाते हैं। इसी स्थिति को सांस्कृतिक विसंयुजता या उभयवृत्ति कहते हैं।

जब एक ही समाज में दूसरी संस्कृति के कुछ व्यक्ति आकर बस जाते हैं या दूसरे सांस्कृतिक समूह के आने का उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है तो उसके फलस्वरूप व्यक्ति को कुछ विशेषताओं को चाहे वह दबाववश हो या स्वार्थवश अथवा उस संस्कृति के प्रति आकर्ष णवश ही ग्रहण करना प्रारंभ कर देते हैं। किन्तु साथ ही उनके प्रति घृणा, अवहेलना तथा तिरस्कार की भावना भी होती है अतएव वे उसके साथ पूर्णतः सामंजस्य या अनुकूलन भी नहीं कर पाते और अपनी संस्कृति को छोड़ना भी नहीं चाहते, क्योंकि वह जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी हेाती है। ऐसी असामंजस्य की स्थिति को ही सांस्कृतिक विसंयुजता कहते है।

भारतीय समाज में जब अंग्रेजों ने पर्दापण किया यहाँ रहने लगे, तब उनकी वेशभूशा के प्रति आकर्शित होकर भारतीय समाज के सदस्यों ने उसे अपनाना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु उनके प्रति अवहेलना और तिरस्कार को भावना के कारण न तो उनकी संस्कृति के साथ पूर्णतः अनुकूलन कर पाये और न ही अपनी संस्कृति को त्याग सके। यही स्थिति सांस्कृतिक विसंयुजता है। जो भारतीय समाज में स्पष्ट तः दृष्टि गोवर होती है। यह सांस्कृतिक विसंयुजता की स्थिति सामाजिक परिवर्तन को अत्याधिक प्रोत्साहन देती है, फलस्वरूप सांस्कृतिक विसंयुजता के कारण सामाजिक परिवर्तन होता है।

ऑगबर्न के मतानुसार, संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। भौतिक संस्कृति और अभौतिक संस्कृति। इन दोनों में संस्कृतियों का मानव जीवन से घनिष्ठ संबंध होता है तथा इन दोनों संस्कृतियों के दायरे में ही मानव अपना सामाजिक जीवन-यापन करता है। अतएव जब कभी भी एक संस्कृति में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होता है तो निश्चित रूप से इसका प्रभाव इसी संस्कृति पर पड़ता है जिसके फलस्वरूप दूसरे मे भी कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य होता है।18

संस्कृति के भौतिक पक्षों पर पहले प्रभाव पड़ता है और अभौतिक पक्षों पर उसके बाद प्रभाव पड़ता है। फलस्वरूप भौतिक संस्कृति पहले तीव्र गति से परिवर्तित होने लगती है और अभौतिक संस्कृति बाद में परिवर्तित होती है जिससे अभौतिक संस्कृति के परिवर्तन की गति मन्द होती है। अतएव भौतिक संस्कृति आगे की ओर बढ़ जाती है तथा अभौतिक संस्कृति उससे पिछड़ जाती है या पीछे रह जाती है।

5. संस्कृति और समाज -

समाज, संस्कृति और व्यक्ति, मानव व्यवहार के तीन मुख्य आधार हैं तथा ये तीनों अन्योन्याश्रित होते हैं। व्यक्ति में समाज और संस्कृति दोनों समाहित रहते हैं। मानव व्यवहार एक और समूहों से प्रभावित होता है तो दूसरी ओर संस्कृति से समाज वस्तुतः संस्कृति का आधार है क्योंकि समाज से ही संस्कृति पनपती है और सामाजिकता संस्कृति का एक गुण होता है। इसी प्रकार मानव व्यवहार का वास्तविक आधार संस्कृति है क्योंकि संस्कृति के अनुरूप ही मानव समाज में व्यवहार करता है। संस्कृति के द्वारा ही समाज का अस्तित्व सम्भव होता है और समाज के द्वारा संस्कृति का अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार मानव में संस्कृति समाज से परे है और समाज संस्कृति से परे है। अतएव स्पष्ट है संस्कृति और समाज में अत्यन्त घनिष्ट संबंध है। संस्कृति समाज में मानव जीवन की विधि है और समाज में इन जीवन विधियों का पालन करते हुए व्यक्ति अपना जीवन यापन करता है।19

6. सभ्यता और संस्कृति -

सभ्यता का अर्थ है समाया, समाज में रहने, समान में रहने की योग्यता अर्थात् सामाजिकता। सभ्यता सामाजिक विधि अर्थात् कर्तव्यता एवं सामाजिक निशेध अर्थात बन्धन पर जोर देती है। सभा में शिश्टाचार के नियम का पालन किया जाता है, सामाजिक भावना का अनुभव किया जाता है, अतएव सभ्यता शब्द शिश्टाचार के नियमों के साथ ही सामाजिक उत्तरदायित्व, सामाजिक बन्धन एवं सामाजिक व्यवहार का भी निर्देश करता है।

सभ्यता शब्द का सम्बन्ध नागरिकता से भी है। ग्राम की अपेक्षा नगर में विभिन्न वर्ग के कहीं अधिक लोगों को सुख शान्तिपूर्वक रहना पड़ता है। ग्रामीणों की अपेक्षा नागरिक अधिक शिक्षित, अधिक संगठित और अधिक सभ्य होते हैं। मौलिक दृष्टि से जो यह अन्तर था, वह धीरे-धीरे व्यापक हो गया। जो व्यक्ति सांस्कृतिक एवं बौद्धिक विकास की दृष्टि से अधिक उन्नत थे, वे अपने आपको सभ्य समझने लगे एवं जो उतने उन्नत नहीं थे, उनसे अपने आपको पृथक समझने लगे। इस प्रकार से सभ्यता शब्द का अर्थ हेा गया विशिष्ट बौद्धिक विकास, उच्च नैतिक विचार एवं भौतिक सुख-समृद्धि । इनमें भौतिक उन्नति, व्यापारिक और औद्योगिक विकास, सामाजिक स्वतंत्रता, राजनैतिक प्रगति का भी समावेश होता है।

इस प्रकार से इसका लक्ष्य है मनुष्य को अधिक सुखी और समृद्ध बनाना, अधिक शिष्ट और सभ्य बनाना तथा जिस अवस्था में है उससे अधिक उन्नत बनाना। इसके गुणों में इसका समावेश है कि व्यक्ति एवं प्रकृति पर विजय प्राप्त करना, काल और स्थान की दूरी दूर करना, भूतल पर विद्यमान नवीन देशों का अन्वेशण करना आदि। संगठित प्रयत्न द्वारा मनुष्य की उन्नति करना इसका परिणाम है। इसी आधार पर जो राष्ट्र , जो देश अधिक प्रगतिशील हुए, जो देश सभ्य कहलाने लगे, उन्होनें अपने उपनिवेशों की स्थापना को न्यायसंगत समझा।20

सभ्यता’ शब्द ‘सभ्य’ से बना है जो कि सभा में ‘यत्’ प्रत्यय लगने से बनता है।21 प्राचीन काल में सभा के योग्य संस्कृत एवं शिष्ट व्यक्ति को सभ्य कहा जाता था। आधुनिक युग में सभ्यता से तात्पर्य उन आविश्कारों; उत्पादन के साधनों एवं सामाजिक, राजनैतिक संस्थाओं से समझना चाहिए; जिनके द्वारा मनुष्य की जीवन -यात्रा सरल हो जाती है। इसके विपरीत मानव व्यक्तित्व और जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से समृद्ध बनाने वाली चिन्तन तथा कलात्मक सृजन की क्रियाओं को संस्कृति कहा जाता है।

‘सभ्यता को शरीर और संस्कृति को आत्मा भी कहा जाता है।22 जब तक शरीर में आत्मा है तभी तक उसका महत्व है। संस्कृति की आत्मा के बिना सभ्यता का शरीर शव की भांति निश्प्राण रहता है। सभ्यता जहाँ जीवित रहने की योग्यता के अर्थ में उपयोगिता की द्योतक है वहाँ संस्कृति मनुष्य की पूर्णता की दृष्टि से मूल्यों की खोज है।23 मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है उसी को संस्कृति कहते है। अपनी बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य प्रकृति के साधनों का जिस ढंग से प्रयोग करता है उससे उसकी सभ्यता का निर्माण होता है।24 इस प्रकार संस्कृति और सभ्यता का कार्यक्षेत्र मानव समाज ही है। दोनों का प्रादुर्भाव एवं विकास व्यक्ति और समाज के लिए होता है। दोनों का उद्देश्य मानव को उन्नति की ओर ले जाना ही है।

सामान्यतः संस्कृति और सभ्यता को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है क्योंकि इन दोनों धारणाओं का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यहाँ तक कि इन दोनों पृथक् करके समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है क्योंकि सभ्यता संस्कृति की बाहक होती है तथा संस्कृति सभ्यता की दिग्दर्ष क।

संस्कृति और सभ्यता की घनिष्ठता के सम्बन्ध में श्री अल्फ्रेड बेबर का कथन है कि ‘‘सभ्यता का तात्पर्य उस सांस्कृतिक संकुल से होता है जो विभिन्न समाजों की प्रमुख सांस्कृतिक विशेषताओं से निर्मित होते है। इतनी घनिष्ठता होने पर भी संस्कृति और सभ्यता को एक नहीं कहा जा सकता; दोनों धारणाएँ पृथक्-पृथक् होती हैं। संस्कृति का सम्बन्ध शिश्टाचार और मस्तिश्क के प्रशिक्षण से होता है, जबकि सभ्यता का तात्पर्य कला और विज्ञान की विकसित दशाओं से होता है। समाजशास्त्रीय दृष्टि कोण से ‘‘संस्कृति का सम्बन्ध सामाजिक जीवन के अभौतिक पक्षों अर्थात् विचारात्मक पक्ष से जबकि सभ्यता मूलतः भौकित पक्षों के सम्बन्धित होती है।

7. संस्कृति और सभ्यता में अन्तर -

साधारणतया प्रयोग में संस्कृति और सभ्यता में अन्तर नहीं किया जाता है। वस्तुतः देखा जाय तो साहित्य मे भी ये प्रायः समानार्थक के तुल्य ही प्रयुक्त होते हैं। किन्तु किसी जाति और राष्ट्रीय संस्कृति और सभ्यता का ठीक ठाक माप करने के लिए आवश्यक है कि दोनों के मौलिक अन्तर को स्वीकार किया जाये। यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि संस्कृति बौद्धिक विकास की अवस्थाओं को सूचित करती है और सभ्यता का परिणाम शारीरिक एवं भौतिक विकास है। संस्कृति का संबंध आत्मा से है और सभ्यता का संबंध कर्म कलाप से है।

यह साधारण अनुभव में देखा गया है कि एक व्यक्ति, जहाँ तक विचारने और अनुभव करने का संबंध है, एक प्रश्न पर युक्तियुक्त विचार तो करता है, परंतु जहाँ तक कर्तव्य का संबंध है वह अविचारपूर्ण ढंग से उस पर आचरण करता है। इस अंतर के कई कारण है। सबसे प्रमुख एक कारण यह है कि विचारक और श्रमिक दो विभिन्न वर्गो मे विभक्त है। विधान निर्माता और राज्याधिकारी दोनों के कर्तव्य विभिन्न है तथा दोनों का कार्यक्ष्ेात्र समान ही है। इसलिए किसी समाज की सांस्कृतिक अवस्था और सभ्यता का ठीक निर्णय करने के लिए आवश्यक है कि उसके पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और कला-विशयक कार्यो का परीक्षण किया जाए।

पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘‘भरत एक खोज’’ में इस अंतर को यह कहते हुए स्वीकार किया है कि ‘‘समृद्ध सभ्यता में संस्कृति का विकास होता है और उससे दर्ष न, साहित्य, नाटक, कला, विज्ञान, और गणित विकसित होते है। ’’इस प्रकार संस्कृति बौद्धिक उन्नति का पर्यायवाची है और सभ्यता भौतिक विकास का समानार्थक है। सभ्यता बाह्य क्रियात्मक रूप है और संस्कृति विचारधारा, सभ्यता अर्थात भौतिक विकास में परिणत की जाती है। सांस्कृतिक अवस्था तथा सभ्यता व्यष्टि एवं समष्टि दोनों में सर्वदा परिवर्तनशील है। ये प्रत्येक युग, प्रत्येक देश एवं काल में बदलते रहते हैं और किसी भी नियम -श्रृंखला में बद्ध नहीं होते हैं।25

8. संस्कृति व अन्य विषय -

क) धर्म और संस्कृति - धर्म शब्द शास्त्र की पद्धति के अनुसार धारणार्थक ‘धृ’ धातु में ‘मन’् प्रत्यय के योग से बनता है, जिसका अर्थ है - जो दूसरों द्वारा धारण किया जाये वही धर्म है।26 ‘धर्म’ शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। देवर्शि नारद ने सत्य, दया, तपस्या आदि तीस सामान्य धर्म बतलाए हैं। मनु के अनुसार धृति, क्षमा, दंभ, अस्तेय, शौच, संयम, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण हैं।28 ये दस लक्षण विचार और आचार की पुनीतता पर बल देते हैं। ऐसा लगता है कि धर्म का अर्थ -कर्तव्य है। संस्कृति मानव कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराकर कर्तव्य की ओर उन्मुख करती है। धर्म में सभी मानवीय मूल्यों का समावेश है, इसलिए यह सर्वोच्च जीवन-मूल्य है।

धर्म और संस्कृति सदैव मानव को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करते हैं, उसे पशुता में गिरने से बचाते हैं। धर्म और संस्कृति का स्थान पूजापाठ या मंदिरों में नहीं है, अपितु वे हमारे प्रत्येक श्वास, प्रत्येक क्षण, प्रत्येक पग के साथ है।.........शरीर और आत्मा को शुद्ध बनाए रखने के लिए कर्तव्य अनिवार्य है; वही धर्म है।29 संस्कृति का लक्ष्य भी मानव को ‘असत’ से बचाकर ‘सत्’ की प्राप्ति कराना है और धर्म भी उसे अधर्म से बचाता हुआ ‘सत्य’ तक ले जाता है। जो मन का सत्य है, वह वाणी का सत्य हो और जो मन-वाणी का सत्य है वही कर्म का भी सत्य बना हो। इस प्रकार का सत्य या धर्म विश्व का सच्चा आलोक है।30 मानव-जाति को संयमित; नियमित और ऊर्ध्वमुखी बनाने के कारण धर्म एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रथा है।

ख) भाषा और संस्कृति - विचारों, भावों और संदेश-सम्प्रेशण की पद्धति को भाषा कहते है। जिस प्रकार भाषा के बिना समाज और संस्कृति का कोई अर्थ नहीं। यदि मानव में भाषा-निर्माण की क्षमता न होती तो वह आज अपने इस रूप में न होकर गीदड़ या लोमड़ी की जाति का वन्य पशु होता। भाषा संस्कृति को व्यक्त करती है। संस्कृति के प्रचार और प्रसार के लिए भाषा एक सशक्त माध्यम है। व्यक्ति के मानसिक जगत में जो कुछ उन्नति के विधायक संकल्प है, वे सब संस्कृति के अंग हैं। संस्कृति अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल भाषा का निर्माण कर लेती है। संस्कृति की गरिमा, औदात्य, पवित्रता एवं शक्ति भाषा में प्रतिबिम्बित होती है।31 संस्कृति के सभी महत्वपूर्ण पक्ष भाषा की कृपा पर आश्रित हैं। समस्त प्रकार की शिक्षा भाषा द्वारा ही संभव है। जिस प्रकार प्रत्येक देश की अपनी संस्कृति होती है, संस्कृति यदि साक्ष्य है तो भाषा उसका साधन है।32 इस प्रकार भाषा और संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है।

ग) साहित्य और संस्कृति - साहित्य में कवि या लेखक के व्यक्तिगत तथा सामाजिक अनुभवों, दार्ष निक या आध्यात्मिक विचारों, प्रेम-भावना, सौन्दर्यबोध आदि की अभिव्यक्ति होती है। इन सबके साथ संस्कृति का गहन सम्बन्ध है, क्योंकि सांस्कृतिक चेतना तथा चिन्तन की प्रतीक मूलक कृतियों में ही वह प्रकाश पाती है।33 किसी भी जाति के साहित्य से उस जाति की संस्कृति के स्तर का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। जिस जाति की संस्कृति जितनी उन्नत और उज्ज्वल होगी; उस जाति का साहित्य भी उतना ही उन्नत और प्रांजल होगा। साहित्य और समाज के अनिवार्य सम्बन्ध की तरह संस्कृति और साहित्य का संबन्ध भी संश्लिष्ट होता है।34 वास्तव में देखा गया है कि साहित्य का आधार पाकर संस्कृति की ऐतिहासिक परम्परा ष्ट होने से बच जाती है। मानव जाति के इतिहास में होने वाली सांस्कृतिक प्रगति मुख्यतया प्रतीकात्मक लेखों अथवा ग्रंथों के रूप में ही सुरक्षित रहती है।35 अतः कहा जा सकता है कि साहित्य संस्कृति का संवाहक भी है और संवर्धक-सम्पोशण भी। सांस्कृतिक धरोहर साहित्यिक कृतियों में व्यक्त होकर अमरत्व ग्रहण करण करती है और साहित्य सांस्कृतिक सन्निवेश से सशक्त, समुन्नत, प्रभावकारी और दीर्घजीवी बनता है।

घ) कला और संस्कृति - यद्यपि कलाओं में काव्य-कला को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। फिर भी सांस्कृतिक दुश्अि से मूर्तिकला, चित्रकला, भवन-निर्माण कला आदि के द्वारा उत्पन्न मूर्त सौन्दर्य-भावना से संस्कृति की काया पुष्ट होती है।36 ललित कलाओं में संस्कृति का स्वरूप स्पष्ट झलकता है। कला का निर्माण कला की प्रक्रिया, कला के रूप, कला का सौन्दर्यबोध एवं कला का आनंद, संस्कृति का अभिव्यक्त रूप है।37 कलाओं का प्रोत्साहन से मानवीय वृत्तियों का परिश्कार होता है जो कि संस्कृति-बोध के लिए आवश्यक है।

कलाओं के माध्यम से किसी युग-विशेष की संस्कृति भावी युगों के लिए धरोधर बन जाती है। अजन्ता-एलोरा आदि गुफाएँ आज भी भारतीय संस्कृति की महानता की कहानी कह रही है। नृत्य, नाटक और संगीत आदि कलाएँ मानव-मन की कलुशताओं का शमन करती हैं और इस प्रकार संस्कृति बनती है किन्तु ये नहीं समझना चाहिए कि कला ही संस्कृति हैं। वास्तव में कला संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष है किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि जब तक कला की रचना या निर्माण में संस्कृति के आदेशों की प्रेरणा ली जाती है तब तक ही वह संस्कृति के एक रूप का प्रतिनिधित्व करती है। संस्कृति से विमुख कला का कोई महत्व नहीं रह जाता।

ड़) समाज और संस्कृति - सामाजिक परिघटनाओं-सम्बन्धों, संस्थाओं, संगठनों, सामाजिक समूहों तथा भौतिक और बौद्धिक तत्वों की एक विशेष व्यवस्था को समाज कहते हैं।38 संस्कृति का अस्तित्व समाज में होता है; समाज के बिना इसका कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। संस्कृति का निर्माण और विकास समूह या समाज के मनुश्यों के मिल-जुलकर काम करने की जरूरी शर्त पर ही आधारित होते हैं। संस्कृति का क्षेत्र ऐसा है जिससे सामाजिक जानकारी संचित करने का प्रयत्न किया जाता है।39 जहाँ यह सत्य है कि सांस्कृतिक उत्कर्ष के प्रतिमान एक विशेष ढंग से जातीय चेतना में रहते हैं और उसकी सम्पत्ति होते हैं।40

व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों; राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक और व्यापारिक संस्थाओं तथा संगठनों, विभिन्न वर्गो और समूहों एवं अन्य भौतिक तथा बौद्धिक तत्वों में जातीय संस्कृति प्रतिफलित होती है। सामाजिक आचार-विचार और विभिन्न संस्थाओं का क्रमबद्ध इतिहास संस्कृति के अध्ययन में निश्चित रूप से सहायक होता है। परिवार सामाजिक संगठन की एक इकाई है और पारिवारिक व्यवहार का स्वरूप संस्कृति द्वारा निर्धारिक होता है।....संस्कृति एक सांचा और एक निर्देशन है, निर्देशन मूल्यों और विचारों की समष्टि हैं। अतः संस्कृति और सामाजिक संगठन अन्योन्याश्रित है। समाज के जीवन का सृजनात्मक धर्म ही संस्कृति है, संस्कृति और समाज अभिन्न है। समाज के जीवन का व्यापक धर्म ही संस्कृति कहलाता है। समाज गुणों और अवगुणों दोनों की समष्टि का नाम है किन्तु संस्कृति के अंतर्गत सृजनात्मक विचारधारा को ही मान्यता प्राप्त है।41 यह एक सार्वभौमिक सामाजिक प्रत्यय है।

च) प्रेम, सौन्दर्य और संस्कृति- किसी वस्तु के प्रति विशिष्ट प्रकार का लगाव ही प्रेम है। प्रेम वासनात्मक भी होता है और सात्विक भी। संस्कृति मानव की वासनाओं का परिश्कार करती है। सात्विक प्रेम की प्रतिष्ठा करना ही संस्कृति का लक्ष्य है। मानव की भावना का उदात्तीकरण करके विश्व भर में मैत्री और परस्पर सौहार्द्र की प्रतिष्ठा करना ही संस्कृति का कार्य है। प्रेम की यह भावना अनेक रूपों में दृष्टि गोचर होती है। व्यक्तिगत प्रेम, दाम्पत्य प्रेम, जाति प्रेम, देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम, ईश्वर-प्रेम, विश्व-प्रेम, आदि उसके विविध रूप हैं।

किन्तु जहाँ प्रेम है वहाँ घृणा भी है; जहाँ राग है वहाँ द्वेश भी है, जहाँ सौन्दर्य है वहाँ कुरूपता भी है। इन विरोधी भावों के कारण प्रेम की गति अवरूद्ध होती है। गति ही अवरूद्ध नहीं होती, कई बार तो घृणा, द्वेश, निर्ममता, कठोरता आदि का ही साम्राज्य स्थापित हो जाता है। संस्कृति इन दुश्प्रवृत्तियों का निराकरण करने की क्षमता रखती है। वह समय-समय पर मानव जाति को इस प्रकार के अन्धकारमय वातावरण से उबारने के लिए ‘प्रकाश-स्तम्भ’ का काम करती आई है।

वास्तविक प्रेम वह है जिसमें स्वार्थ नहीं है। प्रेम बलिदान है, प्रेम त्याग है। प्रेम अपने आप को दान में देता है और बिना सोच दे देता है कि इसका प्रतिदान भी है या नहीं।42 प्रेम का सबसे बड़ा कार्य पाने में नहीं, देने में हैं। प्रेम के इसी त्यागमय रूप की स्थापना करने के लिए संस्कृति प्रयत्नशील रहती है। इस प्रकार संस्कृति और प्रेम का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। वह संस्कृति अधिक दिन तक टिकने वाली नहीं, जिसमें प्रेम को कोई स्थान न दिया गया है।

‘संस्कृति’ सत्य, सौन्दर्य और कल्याण की प्रतिष्ठा करने वाली है। जो सौन्दर्य सदैव अक्षुण्ण बना रहे और कल्याणकारी भी हो; उस सौन्दर्य को ही मानव के मानसजगत पर अंकित करने का काम संस्कृति करती है। मूल वासना के दमन और उदात्तीकरण से ही सौन्दर्यबोध और कला-सृजन की प्रेरणा मिलती है। यह दमन और उदात्तीकरण प्रकृति का नहीं, सामाजिक संस्कृति का कार्य है।43 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कल्याणकारी सौन्दर्य के द्वारा मानव-जीवन को सौन्दर्यपूर्ण बनाना ही संस्कृति का लक्ष्य है।

छ) आध्यात्मिकता और संस्कृति- ‘अध्यात्म’ का अर्थ है- आत्मा का चिंतन। गीता में उदात्त मानसिक भाव अथवा स्वभाव को ही अध्यात्म कहा गया है।44 किन्तु निरन्तर अभ्यास से ही कोई भाव या विचार हमारे स्वभाव का अंग बन सकता है। इसलिए निरन्तर आत्म-चिन्तन के अभ्यास से जिस स्वच्छ स्वभाव की प्राप्ति होती है वही अध्यात्म है। सुमित्रानन्दन पंत ने संस्कृति के अंतर्गत ‘जीवन के सूक्ष्म-स्थूल धरातलों के सत्यों का समावेश’ मानते हुए उसमें ऊर्ध्व चेतना शिखर का प्रकाश और समदिक् जीवन की मानसिक उपत्यकाओं की छाया के गंुफन होने का मत व्यक्त किया है। उनके शब्दों में उसके भीतर अध्यात्म, धर्म नीति से लेकर सामाजिक रूढ़ि-रीति तथा व्यवहारों का सौन्दर्य भी एक अंतर ग्रहण कर लेता है।’45

प्रत्येक संस्कृति में आध्यात्मिकता का योग अनिवार्य है, क्योंकि संस्कृति मानव की पाश्विक वृत्तियों का परिश्करण करती है जो कि आत्मा की शुद्धि के बिना सम्भव नहीं है। आध्यात्मिकता इस लक्ष्य को पूरा करती है। इसलिए यह संस्कृति का एक विशिष्ट पक्ष है। आध्यात्मिकता हमें जीवन से विमुख नहीं करती अपितु अनासक्तिपूर्ण कर्ममय जीवन46 की प्रेरणा देती है। निश्चय ही इस प्रकार का जीवन संस्कृति के उद्देश्य को मूर्त रूप प्रदान करने वाला होता है। भौतिक उपलब्धियाँ हमारी वासनाओं की संतुष्टि नहीं कर सकती। आध्यात्मिकता ही इस कार्य को सम्पन्न करती है।

भारतीय संस्कृति सर्वांगीण रूप में आध्यात्मिक रही है।47 आध्यात्मिकता ही हमारी संस्कृति की मूल प्रेरणा और जीवनी-शक्ति है।

ज) नैतिकता, मानव-मूल्य और संस्कृति - नैतिकता, किसी समाज विशेष के आचार-व्यवहार सम्बन्धी उन नीतियों अथवा नियमों को कहतें हैं, जिनके प्रकाश में उस समूह या समाज के व्यक्ति अपने उद्देश्यों की पूर्ति के मार्ग खोजते हैं। नीतियों का पालन नैतिकता और इसके विपरीत आचरण को अनैतिकता कहा जाता है। भारत में विवाहपूर्व स्त्री और पुरूष के मिलन को अनैतिक समझा जाता है जबकि पश्चिम के अधिकांश देशों में इसे आवश्यक माना जाता है।48 वास्तव में हमारे वे समस्त कार्य नैतिक हैं जो व्यक्ति, जाति या राष्ट्र की भलाई को ध्यान में

रखकर किए जायें।

नैतिक मापदण्डों को जीवन-मूल्य भी कहा जाता है। प्रवृत्तिगत जीवन से ऊपर उठाकर मानव-जीवन का उन्नयन करने वाले तत्त्वों को मूल्य कहते हैं।49 दया, करूणा, प्रेम-मैत्री, त्याग, अहिंसा, आदि ऐसे ही मानवीय मूल्य हैं। नैतिकता और मानव-मूल्यों को धारण करने के कारण धर्म ही संस्कृति का सर्वोच्च मूल्य माना जाता है।

मानव जीवन को परिश्कृत, प्रकाशित, संयमित बनाना संस्कृति का प्रयोजन है। नैतिकता और मानव-मूल्यों के माध्यम से ही संस्कृति अपने उद्देश्य में सफल होती है।50

संस्कृति का स्वरूप एवं विश्लेषण

1. आचार्य नरेन्द्र देव - साहित्य शिक्षा एवं संस्कृति प्रथम संस्करण - 1988, प्रभाव प्रकाशन दिल्ली-पृ. 133 ।

2. राधेश्याम खेमका - कल्याण संस्कार अंक सं. 2006 - पृ. 69 ।

3. श्री निरंजन देव तीर्थ जी महाराज, कल्याण संस्कार अंक सं. 2006 - पृ. 77 ।

4. शादाब अहमद सिद्दीकी- उपकार मध्यप्रदेश सम्पूर्ण अध्ययन - पृ. 170 ।

5. डॉ. परशुराम शुक्ल विरही - बुन्देलखण्ड की संस्कृति - भूमिका ।

6. सं. रामनाथ सुमन - सम्मेलन पत्रिका - संपादकीय - पृ. 7 ।

7. डॉ. पद्मा शर्मा - रांगेय राघव की कहानियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन - शोधग्रंथ जी.वि.वि. ग्वा. 1990 - पृ. 203।

8. डॉ. हरीश चंद शर्मा - निराला के काव्य का सांस्कृतिक पक्ष - लेख सप्तसिंधु पृ 39 ।

9. सा प्रथमा संस्कृति विश्वधारा यजुर्वेद 7/14

10. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल वाग्धारा - पृ. 10

11. पृथ्वी कुमार अग्रवाल - भारतीय संस्कृति की रूपरेखा पृ. 10

12. कृष्णकुमार झा - मोनीधाम का हिन्दी कथा साहित्य: एक सांस्कृतिक अध्ययन - पृ. 16

13. मोहन कुमार माथुर (आलेख) - भारतीय संस्कृति के मूलतत्व एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण संपादक - डॉ. राधाबल्लभ शर्मा - सांस्कृतिक एकता और समकालीन हिन्दी साहित्य - पृ. 08 ।

14. डॉ. ए.पी.श्रीवास्तव एवं डॉ. आर.बी.ताम्रकार - समाजशास्त्र पृ. 152 ।

15. डॉ. पद्मा शर्मा - रांगेय राघव की कहानियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन - शोधग्रंथ जी.वि.वि. ग्वा. 1990 - पृ. 218 ।

16. डॉ. राधाबल्लभ शर्मा - सांस्कृतिक एकता और समकालीन हिन्दी साहित्य संपादकीय - पृ. 11 ।

17. शादाब अहमद सिद्दीकी,- उपकार मध्यप्रदेश सम्पूर्ण अध्ययन - पृ. 170 - 171 ।

18. डॉ. ए.पी.श्रीवास्तव एवं डॉ. आर.बी.ताम्रकार - समाजशास्त्र पृ. 160 ।

19. वही पृ. 161

20. वही पृ. 30

21. चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा सं. - संस्कृत शब्दार्थ कौतुभ - पृ. 549 ।

22. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा सं. -हिन्दी साहित्य कोश भाग -1 पृ. 868 ।

23. देवदूत विद्यार्थी - संस्कृति राष्ट्रीय की आत्मा है (लेख) साहित्य परिचय- पृ. 53 ।

24. सत्यकेतु विद्यालंकार - भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास - पृ. 19

25. डॉ. ए.पी.श्रीवास्तव एवं डॉ. आर.बी.ताम्रकार - समाजशास्त्र - पृ. 31 -32 ।

26. चतुर्वेदी द्वारिका प्रसाद शर्मा - सं. - संस्कृत शब्दार्थ कौतुभ - पृ. 549 ।

27. श्रीमद्भागवत् पुराण अध्याय 7, श्लोक 8-12

28. मनुस्मृति 6/92 (मानवता अंक), वर्ष 33, पृ. 248 ।

29. शान्तिप्रिय द्विवेदी - धरातल - पृ. 4-5

30. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल - वाग्धारा, पृ. 21 ।

31. गोपालदत्त सारस्वत् - ‘भाषायी संस्कृति - साहित्य परिचय पृ. 107 ।

32. वही पृ. 107 ।

33. डॉ. देवराज - भारतीय संस्कृति - पृ .25 ।

34. जी.सुन्दर रेड्डी - (आलेख )संस्कृति और साहित्य का परस्पर संबंध - साहित्य परिचय

35. डॉ. देवराज - संस्कृति का दार्ष निक विवेचन- पृ .208 ।

36. डॉ. गायत्री वर्मा - भारतीय संस्कृति - पृ. 06 ।

37. डॉ. राजमल वोरा, - (लेख), शिक्षा और संस्कृति: एक विश्लेशण - साहित्य परिचय पृ. 142 ।

38. व. केल्ले और म. कोमावलजाने (अनु.अली अशरफ), ऐतिहासिक भौतिकवाद पृ. 144 ।

39. वही, पृ. 149-50

40. डॉ. देवराज - भारतीय संस्कृति - पृ .21 ।

41. डॉ. सिद्धेश्वर नाथ्ज्ञ मिश्र, (लेख) भारतीय संस्कृति के विकास में हिन्दी कवियों का योगदान - साहित्य परिचय पृ. 95 ।

42. रामधारी सिंह दिनकर - धर्म, नैतिकता और विज्ञान पृ. 36 ।

43. गोविन्द चंद्र पाण्डे - मूल्य मीमंासा, पृ. 186

44. स्वभाव, अध्यात्ममुच्यते - गीता 308, श्लोक 03 ।

45. सुमित्रानन्दन पंत - उत्तरा, पृ. 35 ।

46. डॉ. देवराज - भारतीय संस्कृति - पृ .233 ।

47. डॉ. रामसकल पाण्डे, संपादकीय - साहित्य परिचय, पृ 17

48. रामधारी सिंह दिनकर - धर्म, नैतिकता और विज्ञान पृ. 20 ।

49. डॉ. देवराज - भारतीय संस्कृति - पृ .127 ।

50. डॉ. कृष्णकुमार झा - मॉरीशस का हिन्दी कथा साहित्य: एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 17 -23 ।