Murti ka rahasy - 2 in Hindi Children Stories by रामगोपाल तिवारी (भावुक) books and stories PDF | मूर्ति का रहस्य - 2

Featured Books
  • अनजानी कहानी - 3

    विशाल और भव्य फर्नीचर से सजी हुई एक आलीशान हवेली की तरह दिखन...

  • Age Doesn't Matter in Love - 5

    घर पहुँचते ही आन्या का चेहरा बुझा हुआ था। ममता जी ने उसे देख...

  • लाल बैग - 3

    रात का समय था। चारों ओर खामोशी पसरी हुई थी। पुराने मकान की द...

  • You Are My Life - 3

    Happy Reading     उसने दरवाज़ा नहीं खटखटाया। बस सीधे अंदर आ...

  • MUZE जब तू मेरी कहानी बन गई - 13

    Chapter 12: रिश्तों की अग्निपरीक्षा   मुंबई की गर्मी इन दिनो...

Categories
Share

मूर्ति का रहस्य - 2

मूर्ति का रहस्य - दो

गाँव में तीज-त्यौहार आते हैं तो लोग सारे डर और आतंक भूल कर उनमें रम जाते हैं।

ऐसा ही हुआ।

दशहरे का पर्व बीता तो हर वर्ष की तरह गाँव की लड़कियाँ सुअटा का खेल खेलने लगी। सेठ बैजनाथ की पुत्री चन्द्रवती अपनी सहेलियों के साथ सुअटा सजाने लगी। उन सबने पहले गीली-मिट्टी सान कर दीवाल के सहारे एक पुतला बनाया। कोड़ियाँ लगा कर उसकी दोनों आँखें बना दी। उसके पैरों में महावर लगा दिया। सुअटा सजाने की जिम्मेदार कृष्णा ने उसके माथे पर रोरी का सुन्दर तिलक लगाया। उसको जनेऊ पहनाया। उसके माथे पर दूल्हे का सुन्दर मुकुट बाँध दिया।

जो कोई वहाँ से निकलता, वह उस सुअटा की सुन्दर सजावट देखता रह जाता। सुअटा की सजावट देखकर गाँव के लड़कों में चेतना जागी। इस खेल की टक्कर वे काहे से दें ? सहसा सब को याद आया- लड़कों का खेल है टेसू !

सब दोस्त बैठे, और बात ही बात में खेल की तैयारी होने लगी। रमजान और उसके मित्र टेसू सजाने लग। टेसू का पुतला पलाश की लकड़ियों से बनाया गया। उसके भी कोड़ियों की आँखंे लगाई गईं। राजेन्द्र ने गाँव के मेले में से बनावटी मूँछें ले रखी थी। टेसू के मूँछें लगा दी गई। उसके हाथ में छोटी सी गत्ते की तलवार बनाकर पकड़ा दी। वह भी ऐसा सज गया कि देखने वाले उसे देखते ही रह जायें।

रमजान अपने मोहल्ले के लड़कों की टीम लेकर गाँव में निकल पड़ा। सबसे पहले उसने अपने टेसू को सेठ बैजनाथ को दरवाजे ले जाकर बैठा दिया। उसके मित्र टेसू को घेर कर खड़े हो गये। रमजान एक पंक्ति गाता, उसके साथी उस पंक्ति को दोहराते। गीत सुनने के लिए सेठ बैजनाथ की पुत्री चन्द्रावती (चन्दा) भीतर से निकल कर दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। उसके साथ मोहल्ले की सहेलियाँ कृष्णा, वन्दना और ज्योति भी आ गईं। वे सुअटा की तैयारी में लगी थीं। लड़के गाने लगे -

टेसू मेरा यहीं अड़ा ।

खाने को माँगे दही बड़ा ।।

दही बड़े कइया ।

निकार दें रूपइया ।।

एक घर कहीं बन बाता ।

घर अच्छा होता तो

चक्की लगवाता ।।

चक्की अच्छी होती तो

आटा पिसवाता ।

आटा अच्छा होता तो

पूड़ी सिकवाता ।।

पूड़ी अच्छी होती तो

सास को खिलाता ।

सास अच्छी होती तो

खूब मजा आता ।।

इसकी अन्तिम पन्ति पर तो सब जोर जोर से हा..हा...हा करके हँसने लगे ।

एक क्षण के बाद उनकी हा हा हा ष्शान्त हुई तो वे दूसरा गीत गा उठे -

टेसू आये वामन वीर ।

हाथ लिये सोने का तीर ।।

टेसू आये टेसन से ।

रोटी खावें बेसन से ।।

इन चार पंक्तियों के बाद उसकी फिर लय बदली -

इमली की जड़ में मिली पतंग ।

सौ सौ मोती सौ सौ रंग ।

रंग-रंग में डारूँगा ।

दिल्ली जाय पुकारूँगा ।।

काले हैं कल्यान जी ।।

भूरे हैं भगवान जी ।।

गोली गिरी खेत में।

नगाड़ा फूटा रेत में ।।

जब गीत समाप्त हुआ लड़कों के फूहड़पन से हँसने का स्वर हा..हा...हा सुनाई पड़ा ।

गीत समाप्त होते ही चन्द्रावती ने कटोरा भरा अनाज रमजान की ओर बढ़ा दिया । रमजान ने अनाज से भरा कटोरा लेते हुए कहा -

‘‘तुम लोग भी सुअटा का खेल खेल रही हो ।’’

‘‘खेल तो रहे हैं किन्तु...।’’ चन्द्रावती ने कहा ।

‘‘किन्तु क्या ? बोलो !’’ रमजान ने अपनी बात को अधूरा छोड़ा जिससे वह रिक्त स्थान की पूर्ति खुद ही करे ।

चन्द्रावती के चेहरे पर संकोच के भाव आ गये । आँखें झुका कर संकोच करते हुए बोली,-‘‘रमजान तुम...मेरे साथ कक्षा में पढ़ते हो। मैंने तुम्हें..बचपन सेअच्छी तरह...समझा है किन्तु...।’’

‘‘ये किन्तु क्या...? संकोच न करो साफ-साफ कहो ।’’ रमजान बात सुनने के लिए व्यग्रता दिखाते हुए बोला ।

चन्द्रावती ने इस वाक्य को जाने कब से रट रखा था। रटी रटाई इबारत की तरह उसने वाचन किया- ‘‘मैं चाहती हूँ मेरे सुअटा वाले खेल में तुम मेरे भतइया बनो। मेरे कोई भाई तो हैं नहीं जो इस खेल में मेरा भतइया बनता।’’

‘‘तोऽऽ यह बाऽऽत है। मेरे चचाजान की लड़कियाँ ही मेरी बहनंे हैं। तुम एक बहन और सही। मैं अकेला क्या ? हमारे टेसू की पूरी टीम साथ रहेगी। टेसू झाँझरिया का ब्याह भी करेंगे।

‘‘क्यों दोस्तो साथ दोगे ना ? किन्तु...।’’

रमजान के किन्तु पर राजेन्द्र सुरेन्द्र दोनों संयुक्त रूप से तुनक कर बोले, ‘‘...अब यार...तुमने फिर किन्तु लगाया।’’

रमजान ने अपनी बात कही -‘‘किन्तु भतइया को करना क्या पड़ता है ?’’

चन्द्रावती ने उत्तर देना उचित समझा, बोली-‘‘बस, भात के समय चौक पर खड़े रहना अनिवार्य है।’’

राजेन्द्र ने अपनी बहन की शादी में भतैयो का सतकार होते देखा था। बोला, ‘‘बुद्धू, यह शादी ब्याह के मौके की एक रस्म है...जिसमें भाई बहन के लिए उपहार स्वरूप कपड़े-लत्ते वगैरह लाता है ।’’

चन्द्रावती ने राजेन्द्र की बात का खण्डन किया - ‘‘रमजान, तुम्हें कुछ लाने की जरूरत नहीं है। बस चौक पर खड़े होना है। यह तो बच्चों का खेल है।’’

‘‘खेल भी तो खेल भावना से ही खेला जाये?’’

उसका यह उत्तर सुनकर चन्द्रावती ने कहा-‘‘फिर थोड़ी देर ठहरो।’’

यह कह कर वह अपने घर के अन्दर चली गई। वह वापस लौटी तो अपने साथ में कटोरा भरे चावल लिये थी। चावल रमजान की ओर बढ़ाते हुये बोली-‘‘हम सब सहेलियों की ओर से भाईयों के लिए, इस भात माँगने की रस्म में ये चावल स्वीकार करें ।’’

रमजान ने आगे बढ़कर वह चावलों से भरा कटोरा चन्द्रावती के हाथ से ले लिया...और झुककर बहन के चरण छू लिये। लड़कियों के बदन में फुरहरी सी आ गई-इत्ते सारे भैया चंद्रावती के कारण बैठे-बिठाए मिल गए हम सबको।

उधर उल्लास में डूबी टेसू की पूरी टीम चली गई।

कार्तिक मास की शरद पूर्णिमा के दिन सुबह से ही सुअटा के विवाह की तैयारियाँ की जाने लगीं। लीप-पोत कर घर को सुन्दर सजाया गया। सुन्दर-सुन्दर चौक पूरे गये। सुअटा को चमकीली पन्नियों के वस्त्रों से सजा दिया गया। सब लड़कियाँ मिल-जुल कर पकवान बनाने मेें जुट गयीं।

ष्शादी ब्याह के काम में कोई गलती या भूल नहीं हो जाये इसके लिए चन्द्रावती ने दुरगो बुआ को बुला लिया। लड़कियाँ एक-चित्त होकर सुअटा के विवाह में व्यस्त हो गईं। पता ही नहीं चला कि कब दिन अस्त हो गया। घर-घर जाकर लड़कियाँ सुअटा के विवाह का बुलौआ दे आयीं।

रात होने लगी । आसमान में चन्द्रमा सभी कलाओं से अपनी चाँदनी बिखेर रहा था ।

भतइयों को बुलाने का समय हो गया ।

चन्द्रावती की आँखें रमजान की प्रतीक्षा करने लगी। वन्दना चन्द्रावती के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए बोली- ‘‘तुम क्या सोचती हो रमजान भात लेकर आयेगा ।’’

चन्द्रावती ने अपना आत्मविश्वास प्रदर्शित किया- ‘‘वन्दना वह जरूर आयेगा।’’

‘‘अरे यार ! तू बडी भोली है। ऐसे कोई सच में भाई नहीं बन जाता।’’

ज्योति ने जहर उगला - ‘‘अरे ! रमजान मुसलमान है। वह हमारी परम्पराओं को क्या जाने ?’’

चन्द्रावती उसे डाँटते हुए बोली - ‘‘तुम लोग बिना सोचे समझे बकर-बकर बकरी की तरह कुछ भी मिमियाने लगती हो।’’

अबकी ज्योति और वन्दना ने संयुक्त स्वर मेंकहा-‘‘भतैया लेने का समय हो गया फिर अब तक रमजान क्यों नहीं आया ?’’

‘‘वह जरूर आयेगा।’’ उत्तर में चन्द्रावती बोली ।

‘‘कब ? जब भतैया लिवने की रस्म निपट जायेगी, तब। अरे ! उसे याद भूल गई होगी।’’

ज्योति खिल-खिला कर हँसी। उसकी हँसी से सहमते हुए चन्द्रावती ने पूछा-‘‘क्यों दुरगो बुआ, अभी भतैया लेने में कितनी देर है।’’

दुरगो बुआ सब की बातें सुन ही रही थी । वे चन्द्रावती की निराशा दूर करते हुए बोली-‘‘तू चिन्ता क्यों करती है ? अभी तो भतैयों की रस्म मेें देर है ?’’

चन्द्रावती टूटते मन से दरवाजे पर पहुँची कि अचानक उसे रमजान दिखा। उसे सामने देखकर वह मन ही मन बोली- ‘‘उसे याद कैसे भूलती ? लो आ गया वह। अब ये मेरी और हँसी उड़ा लें।’’

वह जल्दी से अन्दर पलटी और बोली - ‘‘लो रमजान आ गया ।’’

ज्योति ने पैंतरा बदला । बोली, ‘‘चन्द्रा के लिए सूट लाया होगा ।’’

वन्दना ने ज्योति का साथ दिया - ‘‘सूट नहीं सुन्दर फैन्सी साड़ी लाया होगा ।’’

दुरगो बुआ ने दोनांे को डाँटा -‘‘मैं बड़ी देर से तुम्हारी बकर-बकर सुन रही हूँ। अरे ! भैया के हाथ-पैर कभी नहीं नापना चाहिए। अब हाथ कंगन को आरसी क्या ?

वन्दना को अपनी गलती महसूस हुई। बोली, ‘‘बुआ झूठ-मूठ के खेल में हमें लेन-देन की बातें नहीं करना चाहिए।’’

दुरगो बुआ ने अपनी सीख दी- ‘‘बेटी, मेरा यही कहना है। झूठ-मूठ के खेल मेंही क्यों सच के खेल में भी लेन-देन की बातों को नहीं लाना चाहिए। राम-राम ! तुम यहाँ खड़ी-खड़ी तमाशा देख रही हो। पहले जाकर अपने भाईयों को जलपान तो कराओ। अरे ! कुछ नहीं बने तो शरबत बना के ले आओ।’’

चन्द्रावती ने शरबत बनाया और अपने भतईयों को पिलाने जा पहुँची। चन्द्रावती ने रमजान को शरबत पिलाया। ज्योति ने अपने भाई राजेन्द्र को, ऐसे ही वन्दना ने सुरेन्द्र को भी शरबत पिलाया ।

अब गोबर से लिपे और आटे से पूरे चौक पर खड़े होने के लिए चन्द्रावती ने कहा -‘‘आप लोग अपना भात (यानी भ्रातृभाव) लेकर चौक पर खड़े हो जाएं।

अब सभी अपनी-अपनी बहनों के लिए उपहार लेकर उस चौक पर खड़े हो गये। रमजान का उपहार देखकर राजेन्द्र बोला, ‘‘यार, इतना अच्छा सूट तुमने कहाँ से मार दिया।’’

‘‘कहीं से मारा नहीं है। मैंने चन्द्रावती की बात का अपने चचाजान से जिक्र कर दिया। आज जब मैं यहाँ आने लगा तो उन्होंने मुझे ये सूट लाकर दिया।’’ रमजान ने उत्तर दिया ।

‘‘तुमने तो इसे सच के भात का रूप ही दे दिया।’’ सुरेन्द्र बोला ।

सामने लड़कियाँ भतैया गीत गा रही थीं -

अब खत लिख रही

भतैया बहन वीरन की,

वीरन मेरा भात लिअइयो रे ।

ससुर को लइयो भईया सूट पेन्ट

सास हमारी बड़ी रंगीली,

हरी-हरी रंगइयो रे ।।

अब खत लिख रही...

दुरगो बुआ लोकगीत गाने में गाँव भर में माहिर है । वे यह गीत गा उठीं -

वीरन भात ले आ जा, काये खड़ौ है पैले पार ।

बहन मैं कैसे आऊँ नदिया चढ़ी है उस धार ।।

वीरन तो कूँ नाँव डराऊँ,

वामें मैं बैठो चलो आ ऐली पार ।

बहन मो पै बेंदा नहीं है, टिकुली नहीं है ।

वीरन तें तो रीतो आ जा,

पौर की शोभा बढ़ा जा मेरी बार ।।

वीरन भात ले आजा काये खड़ौ है पैले पार...।

पहले लड़कियों ने अपने-अपने भाईयों के हल्दी से तिलक लगाया। उन पर अक्षत छिड़के। उनके ऊपर फूलों की पंखुड़ियाँ वर्षायीं। भाईयों ने अपने-अपने उपहार बहनों को दिये। बृज क्षेत्र की परम्परा के अनुसार सबने अपनी-अपनी छोटी बहनों के पैर छुए। उन्हें रूपये पैसे भेंट में दिये। बहनों ने भाईयों को गले लगाकर मिलाप किया।

अब चन्द्रावती ने रमजान की छिंगुरी पकड़ी...और उसे सुअटा के सामने लेजाकर बैठा दिया। पत्तलें डाल दी गईं। भोजन परोसा गया। लड़कियाँ भोजन का गीत गाने लगीं -

भैया भूखो री बैना ।

भतैया भूखो री बैना ।।

गुल्लू धर दे री बैना ।

बरफी धर दे री बैना ।।

सुरेन्द्र ने रमजान से कहा - ‘‘यार तुमने तो सच में ही चन्द्रावती को बहिन का सम्मान दिया है।’’

‘‘देख यार हमारा खानदान बात का पक्का है। मैंने उसे बहन मान लिया तो मैं अब इसे निभाता भी रहूँगा।‘‘

रमजान की यह बात सुनकर सब सोचने लगे -‘‘काश ! हम रमजान बन पायंे।’’

----------