Charlie Chaplin - Meri Aatmkatha - 2 in Hindi Biography by Suraj Prakash books and stories PDF | चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 2

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 2

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

2

भूमिका

वेस्ट मिंस्टर ब्रिज के खुलने से पहले केनिंगटन रोड सिर्फ अश्व मार्ग हुआ करता था। 1750 के बाद, पुल से शुरू करते हुए एक नयी सड़क बनायी गयी थी जिससे ब्राइटन तक का सीधा रास्ता खुल गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि केनिंगटन रोड पर, जहां मैंने अपने बचपन का अधिकांश वक्त गुज़ारा है, कुछ बहुत ही शानदार घर देखे जा सकते थे। ये घर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने थे। इनके सामने की तरफ लोहे की ग्रिल वाली बाल्कनी होती थी। हो सकता है कि उन घरों में रहने वालों ने कभी अपनी कोच में बैठ कर ब्राइटन जाते हुए जॉर्ज IV को देखा होगा।

उन्नीसवीं शताब्दी के आते-आते इनमें से ज्यादातर घर किराये के कमरे देने वाले घरों में और अपार्टमेंटों में बदल चुके थे। अलबत्ता, कुछ घर ऐसे भी बचे रहे जिन पर वक्त की मार नहीं पड़ी और उनमें डॉक्टर, वकील, सफल व्यापारी और नाटकों वग़ैरह में काम करने वाले कलाकार रहते आये। रविवार के दिन, सुबह के वक्त केनिंगटन रोड के दोनों तरफ के किसी न किसी घर के बाहर आप कसी हुई घोड़ी और गाड़ी देख सकते थे जो वहां रहने वाले नाटक कलाकार को नौरवुड या मेरटन जैसी दसियों मील दूर की जगह पर ले जाने के लिए तैयार खड़ी हो। वापसी में ये केनिंगटन रोड पर अलग-अलग तरह के शराब घरों व्हाइट हाउस, द' हार्न्स, और द' टैन्कार्ड पर रुकते हुए आते थे।

मैं बारह बरस का लड़का, अक्सर टैन्कार्ड के बाहर खड़ा बेहतरीन पोशाकें पहने इन रंगीले चमकीले महानुभावों को उतरते और भीतर लाउंज बार में जाते देखा करता था। वहां नाटकों के कलाकार आपस में मिलते-जुलते थे। रविवार के दिनों का उनका यही शगल हुआ करता था। दोपहर के भोजन के लिए घर जाने से पहले वे अपना एक आखिरी पैग यहां लिया करते थे। वे कितने भव्य लगते थे। चारखाने के सूट पहने और भूरे फेल्ट हैट डाटे, अपनी हीरे की अंगूठियों और टाइपिनों के लशकारे मारते। रविवार को दोपहर दो बजे पब बंद हो जाता था और वहां मौजूद सब लोग बाहर झुंड बना कर खड़े हो जाते और एक-दूसरे को विदा देने से पहले मन बहलाव में वक्त ज़ाया करते। मैं उन सबको हसरत भरी निगाहों से देखा करता और खुश होता क्योंकि उनमें से कुछेक बेवकूफी भरी अकड़ के साथ डींगें हांकते।

जब उनमें से आखिरी आदमी भी जा चुका होता तो ऐसा लगता मानो सूर्य बादलों के पीछे छिप गया हो। और तब मैं ढहते पुराने घरों की अपनी कतार की तरफ चल पड़ता। मेरा घर केनिंगटन रोड के पीछे की तरफ था। ये तीन नम्बर पाउनाल टेरेस था जिसकी तीसरी मंज़िल पर एक छोटी-सी दुछत्ती पर हम रहा करते थे। तीसरी मंज़िल तक आने वाली सीढ़ियां खस्ता हाल में थीं। घर का माहौल दमघोंटू था और वहां की हवा में बास मारते पानी और पुराने कपड़ों की बू रची-बसी रहती। जिस रविवार की मैं बात कर रहा हूं, उस दिन मां खिड़की पर बैठी एकटक बाहर देख रही थी। वह मेरी तरफ मुड़ी और कमज़ोरी से मुस्कुरायी। कमरे की हवा दमघोंटू थी और कमरा बारह वर्ग फुट से थोड़ा-सा ही बड़ा रहा होगा। ये और भी छोटा लगता था और उसकी ढलुआं छत काफी नीची प्रतीत होती थी। दीवार के साथ सटा कर रखी गयी मेज़ पर जूठी प्लेटों और चाय के प्यालों का अम्बार लगा हुआ था। निचली दीवार से सटा एक लोहे का पलंग था जिस पर मां ने सफेद रंग पोता हुआ था। पलंग और खिड़की के बीच की जगह पर एक छोटी सी आग झंझरी थी। पलंग के एक सिरे पर एक पुरानी-सी आराम कुर्सी थी जिसे खोल देने पर चारपाई का काम लिया जा सकता था। इस पर मेरा भाई सिडनी सोता था लेकिन फिलहाल वह समुद्र पर गया हुआ था।

इस रविवार को कमरा कुछ ज्यादा ही दमघोंटू लग रहा था क्योंकि किसी कारण ने मां ने इसे साफ-सूफ करने में लापरवाही बरती थी। आम तौर पर वह कमरा साफ रखती थी। इसका कारण यह था कि वह खुद भी समझदार, हमेशा खुश रहने वाली और युवा महिला थी। वह अभी सैंतीस की भी नहीं हुई थी। वह इस वाहियात दुछत्ती को भी चमका कर सुविधापूर्ण बना सकती थी। खासकर सर्दियों की सुबह के वक्त जब वह मुझे मेरा नाश्ता बिस्तर में ही दे देती और जब मैं सो कर उठता तो वह छोटा-सा कमरा सफाई से दमक रहा होता। थोड़ी-सी आग जल रही होती और खूंटी पर गरमा-गरम केतली रखी होती और जंगले के पास हैड्डर या ब्‹लोटर मछली गरम हो रही होती और वह मेरे लिए टोस्ट बना रही होती। मां की उल्लसित कर देने वाली मौज़ूदगी, कमरे का सुखद माहौल, चीनी मिट्टी की केतली में डाले जाते उबलते पानी की छल-छल करती आवाज़, और मैं ऐसे वक्त अपना साप्ताहिक कॉमिक पढ़ रहा होता। शांत रविवार की सुबह के ये दुर्लभ आनन्ददायक पल होते।

लेकिन इस रविवार के दिन वह निर्विकार भाव से बैठी खिड़की से बाहर एकटक देखे जा रही थी। पिछले तीन दिन से वह खिड़की पर ही बैठी हुई थी। आश्चर्यजनक ढंग से चुप और अपने आप में खोयी हुई। मैं जानता था कि वह परेशान है। सिडनी समुद्र पर गया हुआ था और पिछले दो महीनों से उसकी कोई खबर नहीं आयी थी। मां जिस किराये की सिलाई मशीन पर काम करके किसी तरह घर की गाड़ी खींच रही थी, किस्तों की अदायगी समय पर न किये जाने के कारण ले जायी जा चुकी थी (ये कोई नयी बात नहीं थी) और मैं डांस के पाठ पढ़ा कर पांच शिंलिंग हफ्ते का जो योगदान दिया करता था, वह भी अचानक खत्म हो गये थे।

मुझे संकट के बारे में शायद ही पता रहा हो क्योंकि हम तो लगातार ही ऐसे संकटों से जूझते आये थे और लड़का होने के कारण मैं इस तरह की अपनी परेशानियों को शानदार भुलक्कड़पने के साथ दर किनार कर दिया करता था। हमेशा की तरह मैं स्कूल से दौड़ता हुआ घर आता और मां के छोटे-मोटे काम कर देता। बू मारता पानी गिराता और ताज़े पानी के डोल भर लाता। तब मैं भाग कर मैक्कार्थी परिवार के घर चला जाता और वहां शाम तक खेलता रहता। मुझे इस दम घोंटती दुछत्ती से निकलने का कोई न कोई बहाना चाहिये होता।

मैक्कार्थी परिवार मां का बहुत पुराना परिचित परिवार था। मां उन्हें नाटकों के दिनों से जानती थी। वे केनिंगटन रोड के बेहतर समझे जाने वाले इलाके में आरामदायक घर में रहते थे। उनकी माली हैसियत भी हमारी तुलना में बेहतर थी। मैक्कार्थी परिवार का एक ही लड़का था - वैली। मैं उसके साथ शाम का धुंधलका होने तक खेलता रहता और अमूमन यह होता कि मुझे शाम की चाय के लिए रोक लिया जाता। मैंने इस तरह कई बार देर तक वहां मंडराते हुए रात के खाने का भी जुगाड़ किया होगा। अक्सर मिसेज मैक्कार्थी मां के बारे में पूछती रहती और कहती कि कई दिन से वह नज़र क्यों नहीं आयी है। मैं कोई भी बहाना मार देता क्योंकि जब से मां दुर्दिन झेल रही थी, वह शायद ही अपनी नाटक मंडली के परिचितों से मिलने-जुलने जाती हो।

हां, ऐसे भी दिन होते जब मैं घर पर ही रहता और मां मेरे लिए चाय बनाती, सूअर की चर्बी में मेरे लिए बेड तल देती। मुझे ये बेड बहुत अच्छी लगती। फिर वह मुझे एक घंटे तक कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाती। वह बहुत ही बेहतरीन पाठ करती थी। और तब मैं मां के इस संग-साथ के सुख के रहस्य का परिचय पाता और तब मुझे पता चलता कि मैं मैक्कार्थी परिवार के साथ जितना सुख पाता, उससे ज्यादा मैंने मां के साथ रह कर पा लिया है।

सैर से आ कर मैं जैसे ही कमरे में घुसा, वह मुड़ी और उलाहने भरी निगाह से मेरी तरफ देखने लगी। उसे इस हालत में देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। वह बहुत कमज़ोर तथा मरियल-सी हो गयी थी तथा उसकी आंखों में गहरी पीड़ा नज़र आ रही थी। मैं अकथनीय दुख से भर उठा। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि घर पर रह कर उसके आसपास ही बना रहूं या फिर इस सब से दूर चला जाऊं। उसने मेरी तरफ तरस खाती निगाह से देखा,"तुम लपक कर मैक्कार्थी परिवार के यहां चले क्यों नहीं जाते," उसने कहा था।

मेरे आंसू गिरने को थे,"क्योंकि मैं तुम्हारे पास ही रहना चाहता हूं।"

वह मुड़ी और सूनी-सूनी आंखों से खिड़की के बाहर देखने लगी,"तुम भाग कर मैक्कार्थी के यहां ही जाओ और रात का खाना भी वहीं खाना। आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।"

मैंने उसकी आवाज में तड़प महसूस की। मैंने इस तरफ से अपने दिमाग के दरवाजे बंद कर दिये,"अगर तुम यही चाहती हो तो मैं चला जाता हूं।"

वह कमजोरी से मुस्कुरायी और मेरा सिर सहलाया,"हां..हां तुम दौड़ जाओ।" हालांकि मैं उसके आगे गिड़गिड़ाता रहा कि वह मुझे घर पर ही अपने पास रहने दे लेकिन वह मेरे जाने पर ही अड़ी रही। इस तरह से मैं अपराध बोध की भावना लिये चला गया। वह उसी मनहूस दुछत्ती की खिड़की पर बैठी रही। उसे इस बात का ज़रा सा भी गुमान नहीं था कि आने वाले दिनों में दुर्भाग्य की कौन-सी पोटली उसके लिए खुलने वाली है।

*****

मेरा जन्म ईस्ट लेन, वेलवर्थ में 16 अप्रैल 1889 को रात आठ बजे हुआ था। इसके तुरंत बाद, हम, सेंट स्क्वायर, सेंट जॉर्ज रोड, लैम्बेथ में रहने चले गये थे। मेरी मां का कहना है कि मेरी दुनिया खुशियों से भरी हुई थी। हमारी परिस्थितियां कमोबेश ठीक-ठाक थीं। हम तीन कमरों के घर में रहते थे जो सुरुचिपूर्ण तरीके से सजे हुए थे। मेरी शुरुआती स्मृतियों में से एक तो ये है कि मां रोज़ रात को थियेटर जाया करती थी और मुझे और सिडनी को बहुत ही प्यार से आरामदायक बिस्तर में सहेज कर लिटा जाती थी और हमें नौकरानी की देख-रेख में छोड़ जाती थी। साढ़े तीन बरस की मेरी दुनिया में सब कुछ संभव था; अगर सिडनी, जो मुझसे चार बरस बड़ा था, हाथ की सफाई के करतब दिखा सकता था और सिक्का निगल कर अपने सिर के पीछे से निकाल कर दिखा सकता था तो मैं भी ठीक ऐसे ही कर के दिखा सकता था। इसलिए मैं अध पेनी का एक सिक्का निगल गया और मज़बूरन मां को डॉक्टर बुलवाना पड़ा।

रोज़ रात को जब वह थियेटर से वापिस लौटती थी तो उसका यह दस्तूर-सा था कि मेरे और सिडनी के लिए खाने की अच्छी-अच्छी चीज़ें मेज़ पर ढक कर रख देती थी ताकि सुबह उठते ही हमें मिल जायें - रंग-बिरंगे और सुगंधित केक का स्लाइस या मिठाई। इसके पीछे आपसी रज़ामंदी यह थी कि हम सुबह उठ कर शोर-शराबा नहीं करेंगे। वह आम तौर पर देर तक सो कर उठती थी।

मां वैराइटी स्टेज की कलाकार थी। अपनी उम्र के तीसरे दशक को छूती वह नफ़ासत पसंद महिला थी। उसका रंग साफ़ था, आंखें बैंजनी नीली और लम्बे, हल्के भूरे बाल। बाल इतने लम्बे कि वह आसानी से उन पर बैठ सकती थी। सिडनी और मैं अपनी मां को बहुत चाहते थे। हालांकि वह असाधारण खूबसूरत नहीं थी फिर भी वह हमें स्वर्ग की किसी अप्सरा से कम नहीं लगती थी। जो लोग उसे जानते थे उन्होंने मुझे बाद में बताया था कि वह सुंदर और आकर्षक थी और उसमें सामने वाले को बांध लेने वाले सौन्दर्य का जादू था। रविवार के सैर-सपाटे के लिए हमें अच्छे कपड़े पहनाना उसे बहुत अच्छा लगता था। वह सिडनी को लम्बी पतलून के साथ चौड़े कालर वाला सूट पहनाती, और मुझे नीली मखमली पतलून और उससे मेल खाते नीले दस्ताने। इस तरह के मौके आत्मतुष्टि के उत्सव होते जब हम केनिंगटन रोड पर इतराते फिरते।

लंदन उन दिनों धीर-गंभीर हुआ करता था। शहर की गति मंथर थी; यहां तक कि वेस्टमिन्स्टर रोड से चलने वाली घोड़े जुती ट्रामें भी खरामा-खरामा चलतीं और इसी गति से ही पुल के पास टर्मिनल पर गोल घेरे, रिवाल्विंग टेबल पर घूम जातीं। जब मां के खाते-पीते दिन थे तो हम भी वेस्टमिन्स्टर रोड पर रहा करते थे। वहां का माहौल दिल खुश करने वाला और दोस्ताना होता। वहां शानदार दुकानें, रेस्तरां और संगीत सदन थे। पुल के ठीक सामने कोने पर फलों की दुकान रंगीनियों से भरी होती। बाहर की तरफ तरतीब से रखे गये संतरों, सेबों, नाशपाती और केलों के पिरामिड सजे होते। इसके ठीक विपरीत, सामने की तरफ नदी के उस पार संसद की शांत धूसर इमारतें नज़र आतीं।

ये मेरे बचपन का, मेरी मन:स्थितियों का और मेरे जागरण का लंदन था। वसंत में लैम्बेथ की स्मृतियां - छोटी मोटी घटनाएं और चीज़ें। मां के साथ घोड़ा बस में ऊपर जा कर बैठना और पास से गुज़रते लिलाक के दरख्तों को छूने की कोशिश करना। तरह-तरह के रंगों की बस टिकटें, संतरे के रंग की, हरी, नीली, गुलाबी और दूसरे रंगों की। जहां बसें और ट्रामें रुकती थीं, वहां फुटपाथ पर उन टिकटों का बिखरा होना। मुझे वेस्टमिन्स्टर पुल के कोने पर फूल बेचने वाली गुलाबी चेहरे वाली लड़कियां याद आती हैं जो कोट के बटन में लगाने वाले फूल बनाया करती थीं। उनकी दक्ष उंगलियां तेजी से गोटे और किनारी के फर्न बनाती चलतीं। ताज़े पानी छिड़के गुलाबों की भीगी-भीगी खुशबू, जो मुझे बेतरह उदास कर जाती थी। और वो उदास कर देने वाले रविवार और पीले चेहरे वाले माता-पिता और उनके बच्चे जो वेस्टमिन्स्टर पुल पर पवन चक्की के खिलौने तथा रंगीन गुब्बारे लिये घिसटते चलते। और फिर पैनी स्टीमर जो हौले से पुल के नीचे से जाते समय अपने फनेल नीचे कर लेते थे। मुझे लगता है इस तरह की छोटी-छोटी घटनाओं से मेरी आत्मा का जन्म हुआ था।

और फिर, हमारे बैठने के कमरे से जुड़ी स्‍मृतियां जिन्होंने मेरी अनुभूतियों पर असर डाला।

नेल ग्वेन की मां की बनायी आदमकद पेंटिंग जिसे मैं पसंद नहीं करता था। हमारे खाने-पीने की मेज़ के लम्बोतरे डिब्बे जो मुझमें अवसाद पैदा करते थे और फिर छोटा-सा गोल म्यूजिक बॉक्स जिसकी ऐनामल की हुई सतह पर परियों की तस्वीरें बनी हुई थीं। इसे देख मैं खुश भी होता था और परेशान भी।

महान पलों की स्मृतियां : रायल मछली घर में जाना, मां के साथ वहां के स्लाइड शो देखना, लपटों में मुस्कुराती औरत का जीवित सिर देखना, 'शी' देखना, छ: पेनी की भाग्यशाली लॉटरी, सरप्राइज़ पैकेट उठाने के लिए मां का मुझे एक बहुत बड़े बुरादे के ड्रम तक ऊपर करना और उस पैकेट में से एक कैंडी का निकलना जो बजती नहीं थी और एक खिलौने वाले ब्रूच का निकलना। और फिर कैंटरबरी म्यूजिक हॉल में एक बार जाना जहां लाल आरामदायक सीट पर पांव पसार कर बैठना और पिता को अभिनय करते हुए देखना।

और अब रात का वक्त हो रहा है और मैं चार घोड़ों वाली बग्घी में ऊपर की तरफ सफरी झोले में लिपटा हुआ, मां और उसके थियेटर के और साथियों के साथ चला जा रहा हूं। उनकी चाल में रमा तथा हंसी-खुशी में खुश। हमारा बिगुल बजाने वाला अपनी शेखी में हमें केनिंगटन रोड से घोड़े की साज-सज्जा की सुमधुर रुन झुन और घोड़ों की टापों की संगीतमय आवाज़ के साथ लिये जा रहा था।

तभी कुछ हुआ। ये एक महीने के बाद की बात भी हो सकती है या थोड़े ही दिनों के बाद की भी। अचानक लगा कि मां और बाहर की दुनिया के साथ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वह सुबह से अपनी किसी सखी के साथ बाहर गयी हुई थी और वापिस लौटी तो बहुत अधिक उत्तेजना से भरी हुई थी। मैं फर्श पर खेल रहा था और अपने ठीक ऊपर चल रहे भीषण तनाव के बारे में सतर्क हो गया था। ऐसा लग रहा था मानो मैं कुं की तलहटी में सुन रहा होऊं। मां भावपूर्ण तरीके से हाव-भाव जतला रही थी, रोये जा रही थी और बार-बार आर्मस्ट्रंग का नाम ले रही थी - आर्मस्ट्रंग ने ये कहा और आर्मस्ट्रंग ने वो कहा। आर्मस्ट्रंग जंगली है। मां की इस तरह की उत्तेजना हमने पहले नहीं देखी थी और यह इतनी तेज थी कि मैंने रोना शुरू कर दिया। मैं इतना रोया कि मज़बूरन मां को मुझे गोद में उठाना पड़ा और दिलासा देनी पड़ी। कुछ बरस बाद ही मुझे उस दोपहरी के महत्त्व का पता चल पाया था। मां अदालत से लौटी थी। वहां उसने मेरे पिता पर बच्चों के भरण पोषण का खर्चा-पानी न देने की वजह से मुकदमा ठोक रखा था और बदकिस्मती से मामला उसके पक्ष में नहीं जा रहा था। आर्मस्ट्रंग मेरे पिता का वकील था।

मैं पिता को बहुत ही कम जानता था और मुझे इस बात की बिल्कुल भी याद नहीं थी कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। वे भी वैराइटी स्टेज के कलाकार थे। एकदम शांत और चिंतनशील। आंखें उनकी एकदम काली थीं। मां का कहना था कि वे एकदम नेपोलियन की तरह दीखते थे। उनकी हल्की महीन आवाज़ थी और उन्हें बेहतरीन अदाकार समझा जाता था। उन दिनों भी वे हर हफ्ते चालीस पौंड की शानदार रकम कमा लिया करते थे। बस, दिक्कत सिर्फ एक ही थी कि वे पीते बहुत थे। मां के अनुसार यही उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ थी।

स्टेज कलाकारों के लिए यह बहुत ही मुश्किल बात होती कि वे पीने से अपने आपको रोक सकें। कारण यह था कि उन दिनों शराब सभी थियेटरों में ही बिका करती थी और कलाकार की अदाकारी के बाद उससे उम्मीद की जाती थी कि वह थियेटर बार में जाये और ग्राहकों के साथ बैठ कर पीये। कुछ थियेटर तो बॉक्स ऑफिस से कम और शराब बेच कर ज्यादा कमा लिया करते थे। कुछेक कलाकारों को तो तगड़ी तन्ख्वाह ही दी जाती थी जिनमें उनकी प्रतिभा का कम और उस पगार को थियेटर के बार में उड़ाने का ज्यादा योगदान रहता था। इस तरह से कई बेहतरीन कलाकार शराब के चक्कर में बरबाद हो गये। मेरे पिता भी ऐसे कलाकारों में से एक थे। वे मात्र सैंतीस बरस की उम्र में ज्यादा शराब के कारण भगवान को प्यारे हो गये थे।

मां उनके बारे में मज़ाक ही मज़ाक में और उदासी के साथ किस्से बताया करती थी। शराब पीने के बाद वे उग्र स्वभाव के हो जाते थे और उनकी इसी तरह की एक बार की दारूबाजी की नौटंकी में मां उन्हें छोड़-छाड़ कर अपनी कुछ सखियों के साथ ब्राइटन भाग गयी थी। पिता जी ने जब हड़बड़ी में तार भेजा,"तुम्हारा इरादा क्या है और तुरंत जवाब दो?" तो मां ने वापसी तार भेजा था,"नाच, गाना, पार्टियां और मौज-मज़ा, डार्लिंग!"

मां दो बहनों में से बड़ी थी। उनके पिता चार्ल्स हिल्स, जो एक आइरिश मोची थे, काउंटी कॉर्क, आयरलैंड से आये थे। उनके गाल सुर्ख सेबों की तरह लाल थे। उनके सिर पर बालों के सफेद गुच्छे थे। उनकी वैसी सफेद दाढ़ी थी जैसी व्हिस्लर के पोट्रेट में कार्लाइल की थी। वे कहा करते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों में पुलिस से छिपने-छिपाने के चक्कर में वे गीले नम खेतों में सोते रहे। इस कारण से उनके घुटनों में हमेशा के लिए दर्द बैठ गया और इस कारण वे दोहरे हो कर चलते थे। वे आखिर लंदन में आ कर बस गये थे और अपने लिए ईस्ट लेन वेलवर्थ में जूतों की मरम्मत का काम-धंधा तलाश लिया था।

दादी आधी घुमक्कड़िन थी। यह बात हमारे परिवार का खुला रहस्य थी। दादी मां हमेशा इस बात की शेखी बघारा करती थी कि उनका परिवार हमेशा ज़मीन का किराया दे कर रहता आया था। उनका घर का नाम स्मिथ था। मुझे उनकी शानदार नन्हीं बुढ़िया के रूप में याद है जो हमेशा मेरे साथ नन्हें-मुन्ने बच्चों जैसी बातें करके मुझसे दुआ सलाम किया करती थी। मेरे छ: बरस के होने से पहले ही वे चल बसी थीं। वे दादा से अलग हो गयी थीं जिसका कारण उन दोनों में से कोई भी नहीं बताया करता था। लेकिन केट आंटी के अनुसार इसके पीछे पारिवारिक झगड़ा था और दादा ने एक प्रेमिका रखी हुई थी और एक बार उसे बीच में ला कर दादी को हैरानी में डाल दिया था।

आम जगह के मानदंडों के माध्यम से हमारे खानदान के नैतिकता को नापना उतना ही गलत प्रयास होगा जितना गर्म पानी में थर्मामीटर डालकर देखना होता है। इस तरह की आनुवंशिक काबलियत के साथ मोची परिवार की दो प्यारी बहनों ने घर-बार छोड़ा और स्टेज को समर्पित हो गयीं।

केट आंटी, मां की छोटी बहन, भी स्टेज की अदाकारा थी। लेकिन हम उसके बारे में बहुत ही कम जानते थे। इसका कारण यह था कि वह अक्सर हमारी ज़िंदगी में से आती-जाती रहती थी। वह देखने में बहुत आकर्षक थी और गुस्सैल स्वभाव की थी इसलिए मां से उसकी कम ही पटती थी। उसका कभी-कभार आना अचानक छोटे-मोटे टंटे में ही खत्म होता था कि मां ने कुछ न कुछ उलटा सीधा कह दिया होता था या कर दिया होता था।

अट्ठारह बरस की उम्र में मां एक अधेड़ आदमी के साथ अफ्रीका भाग गयी थी। वह अक्सर वहां की अपनी ज़िंदगी की बात किया करती थी कि किस तरह से वह वहां पेड़ों के झुरमुटों, नौकरों और जीन कसे घोड़ों के बीच मस्ती भरी ज़िंदगी जी रही थी।

उसकी उम्र के अट्ठारहवें बरस में मेरे बड़े भाई सिडनी का जन्म हुआ था। मुझे बताया गया था कि वह एक लॉर्ड का बेटा था और जब वह इक्कीस बरस का हो जायेगा तो उसे वसीयत में दो हजार पौंड की शानदार रकम मिलेगी। इस समाचार से मैं एक साथ ही दुखी और खुश हुआ करता था।

मां बहुत अरसे तक अफ्रीका में नहीं रही और इंगलैंड में आ कर उसने मेरे पिता से शादी कर ली। मुझे नहीं पता कि उसकी ज़िंदगी के अफ्रीकी घटना-चक्र का क्या हुआ, लेकिन भयंकर गरीबी के दिनों में मैं उसे इस बात के लिए कोसा करता था कि वह इतनी शानदार ज़िंदगी काहे को छोड़ आयी थी। वह हँस देती और कहा करती कि मैं इन चीज़ों को समझने की उम्र से बहुत कम हूं और मुझे इस बारे में इतना नहीं सोचना चाहिये।

मुझे कभी भी इस बात का अंदाज़ा नहीं लग पाया कि वह मेरे पिता के बारे में किस तरह की भावनाएं रखती थी। लेकिन जब भी वह मेरे पिता के बारे में बात करती थी, उसमें कोई कड़ुवाहट नहीं होती थी। इससे मुझे शक होने लगता था कि वह खुद भी उनके प्यार में गहरे-गहरे डूबी हुई थी। कभी तो वह उनके बारे में बहुत सहानुभूति के साथ बात करती तो कभी उनकी शराबखोरी की लत और हिंसक प्रवृत्ति के बारे में बताया करती थी। बाद के बरसों में जब भी वह मुझसे खफा होती, वह हिकारत से कहती,''तू भी अपने बाप की ही तरह किसी दिन अपने आपको गटर में खत्म कर डालेगा।"

वह पिताजी को अफ्रीका जाने से पहले के दिनों से जानती थी। वे एक दूसरे को प्यार करते थे और उन्होंने शामुस ओ'ब्रीयन नाम के एक आयरिश मेलोड्रामा में एक साथ काम किया था। सोलह बरस की उम्र में मां ने उसमें प्रमुख भूमिका निभायी थी। कम्पनी के साथ टूर करते हुए मां एक अधेड़ उम्र के लॉर्ड के सम्पर्क में आयी और उसके साथ अफ्रीका भाग गयी। जब वह वापिस इंगलैंड आयी तो पिता ने अपने रोमांस के टूटे धागों को फिर से जोड़ा और दोनों ने शादी कर ली। तीन बरस बाद मेरा जन्म हुआ था। मैं नहीं जानता कि शराबखोरी के अलावा और कौन-कौन सी घटनाएं काम कर रही थीं लेकिन मेरे जन्म के एक बरस के ही बाद वे दोनों अलग हो गये थे। मां ने गुज़ारे भत्ते की भी मांग नहीं की थी। वह उन दिनों खुद एक स्टार हुआ करती थी और हर हफ्ते 25 पौंड कमा रही थी। उसकी माली हैसियत इतनी अच्छी थी कि अपना और अपने बच्चों का भरण पोषण कर सके। लेकिन जब उसकी ज़िंदगी में दुर्भाग्य ने दस्तक दी तभी उसने मदद की मांग की। अगर ऐसा न होता तो उसने कभी भी कानूनी कार्रवाई न की होती।

मां को उसकी आवाज़ बहुत तकलीफ दे रही थी। वैसे भी उसकी आवाज़ कभी भी इतनी बुलंद नहीं थी लेकिन ज़रा-सा भी सर्दी-जुकाम होते ही उसकी स्वर तंत्री में सूजन आ जाती थी जो फिर हफ्तों चलती रहती थी; लेकिन उसे मज़बूरी में काम करते रहना पड़ता था। इसका नतीजा यह हुआ कि उसकी आवाज़ बद से बदतर होती चली गयी। वह अब अपनी आवाज पर भरोसा नहीं कर सकती थी। गाना गाते-गाते बीच में ही उसकी आवाज़ भर्रा जाती या अचानक गायब ही हो जाती और फुसफुसाहट में बदल जाती। तब श्रोता बीच में ठहाके लगने लगते। वे गला फाड़ का चिल्लाना शुरू कर देते। आवाज़ की चिंता ने मां की सेहत को और भी डांवाडोल कर दिया था और उसकी हालत मानसिक रोगी जैसी हो गयी। नतीजा यह हुआ कि उसे थियेटर से बुलावे आने कम होते चले गये और एक दिन ऐसा भी आया कि बिल्कुल बंद ही हो गये।