muththi bhar raushni in Hindi Book Reviews by Yashvant Kothari books and stories PDF | मुट्ठी भर रोशनी

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मुट्ठी भर रोशनी

मुट्ठी भर रोशनी

लेखक: दीप्ति कुलश्रेप्ठ

प्रकाशक: भूमिका प्रकाशन, दिल्ली

पृप्ठ: 579

मूल्य: 400 रु.

हिन्दी साहित्य में प्रेमपरक उपन्यासों की बहुत अधिक रचना नहीं हुई है। सामाजिक सरोकारों को लेकर भी लेखन कम ही हुआ है। ऐसे समय में दीप्ति कुलश्रेप्ठ का उपन्यास ‘मुट्ठी भर रोशनी’ एक ताजा हवा के झौंके की तरह आया है, जो पठनीयता के साथ-साथ मन को कहीं गहरे तक कुरेदता है और हमें हमारे सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरुक करता है।

नारी मन को समझना आसान नहीं है, प्रम के लिए एक अविरल याचना रही है नारी मन में, इसी प्रेम की याचना की सार्थक प्रस्तुति के रुप में यह उपन्यास सामने आया है। किशोर मन से लेकर प्रौढ़ वय तक प्रेम को तरसती एक लउ़की शैफाली की गाथा के रुप में लेखिका ने नारी मन की परतों को धीरे-धीरे बड़ी सफलता के साथ शब्दों की माला में पिरोया है। शैफाली प्रेम के सौन्दर्य व खुशबू से जीवन को जीना चाहती है, लेकिन क्या ऐसा हो पाता है ? पांच सौ अस्सी पृप्ठों में फैली इस विशाल कथा को पढ़ना एक सुखद अनुभव है। भय, त्रासदी, अपमान और नारी मन की थाह पाने की लालसा में उसकी कथा कभी शैफाली के बहाने तो कभी ईला या विभा या कविता के बहाने अपनी कथा कहती है। नारी तो नदी है, एक पवित्र नदी, जो कभी अपवित्र नहीं होती।

उपन्यास पांच भागों में विभक्त है। प्रथम भाग ‘कच्ची धूप’ है, जो शैफाली के कलक्टर पिता के साये में पलने वाले कैशोर्य मन की गाथा है।

दूसरा भाग ‘चढ़ती धूप घटते साये’ है, जिसमें शैफाली के यौवन की प्रारम्भिक कथा है तीसरा भाग ‘अंधेरे और राशनदान’ हे। चौथा भाग नीरव परछााइयों’ के रुप के सामने आया है और पांचवा और अंतिम भाग ‘मुट्ठी भर रोशनी’ उपन्यास का उपसंहार है।

उपन्यास में शैफाली का चरित्र एक स्वाभिमानी, मानिनी सुकन्या से शुरु होता है, जो आगे चलकर जिद्दी स्वरुप ग्रहण कर लेता है। किशोर प्रेम से शुरु हुई कथा आगे जाकर असफल दाम्पत्य में बदल जाती है।

प्रगतिशील उच्च स्तरीय परिवार से एक पुरातन पंथी संयुक्त परिवार में अनमने मन से ब्याह दी गई शैफाली स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाई और जीवन भर अप्राप्य के लिए संघर्प करते-करते अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।

दीप्ति कुलश्रेप्ठ ने अपने पहले ही उपन्यास से एक नई जमीन तोड़ी हे। शैफाली का यह कथन कितना सच है कि-‘जीवन, यौवन, प्रतिप्ठा और धन सभी तो काल के प्रवाह में बह जाते हैं। ’

एक जगह शैफाली फिर कहती हैं, ‘स्त्री की तरह से बेकद्री करना, उसके आत्मस्म्मान का हनन करना ही जैसे उनका पौरुप हो।’ सम्पूर्ण उपन्यास पढ़ जाने के बाद एक बात जो उभर कर सामने आती है वह है नारी का यह आक्रोश और अंह क्या पाने के लिए हैं, केवल प्रेम के लिए या अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए। समर्पण का जो सुख है, उसे पाने के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित, इस पर भी विचार की आवश्यकता है। नारी के संघर्प की अद्भुत गाथा है यह उपन्यास। लेखिका को बधाई।

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