‘क्यों बे बुड्ढे ... ’ मैसेज था । उसने अपने ऑफिस के कम्प्यूटर में देखा । उसने हमेशा की ही तरह उसे अनदेखा किया । वो अपने ऑफिस में कम्प्यूटर से हट कर दूसरे कामों को निपटाने लगा । वो पचास के पार हो चला था । उसकी उम्र के लोग अभी तक संचार की नई तकनीक का प्रयोग कम ही कर रहे थे लेकिन उसे जमाने के साथ चलने की ललक थी । वो हर नवीन ज्ञान को स्वीकार करता और ज्ञान की दृष्टि से अपने आप को युवा रखने का प्रयास करता । काल के इस ठहरे हुए क्षण में स्मार्ट मोबाईल , सोसल नेटवर्किंग साइटस् और कुछ मैसेंजरों से तेज होते चैट की बहार थी । वो इंटरनेट की दुनिया में अपने अभासी मित्रों से जुड़ा था । वो विचारों को अभिव्यक्त करने हेतु यहॉं स्थान खोजता । लोगों की तारीफ करता और खुद की सुन कर खुश होता । उसके आभासी दोस्तों की संख्या बढने लगी । उसके दोस्तों में स्त्री-पुरुष , देसी-विदेशी तथा युवा और उम्रदराज लोग थे ।वो अब अपने आसपास वालों से कम इन दोस्तों से अधिक संपर्क में रहता । लोग इस मायाजाल में छद्म नामों से आते और अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ति करने का प्रयास करते । यहां पहचान के अभाव में वे गालियॉं बकते , झूठ बोलते और अपनी यौनेच्छाओं की पूर्ति आभासी दुनिया में करते ।
इस आभासी दुनिया की दीवाले जहॉ पाठशालाओं की तरह ज्ञान का खजाना थीं, वहीं पुराने जमाने के मूत्रालयों की दीवालों सी गंदी अभिव्यक्तियों से भी भरी पडी थी । वो इस वातावरण के बीच भी सोसल साइटों पर वास्तविक नाम और उम्र के साथ अपने विचार व्यक्त करने की कोशिश कर रहा था । उसके लिए यह माध्यम अबोध बालक की स्लेट था । प्रारम्भिक दौर मे उसने भी छद्म नामों से आनंद की अनुभूतियॉ की, परन्तु इससे उसका अभिमानी मन संतुष्ट न हुआ, सो वह आभासी दुनिया में वास्तविक हो गया । उसे पहले की ही तरह स्त्री और पुरुषों के प्रेम और यौन निवेदन आए । कुछ लोग उसकी ‘‘वाल’ पर जो उसके लिए स्लेट थी अश्लील चित्र और वीडियों डाल देते । वो उन्हें बडी शालीनता से अस्वीकार करता और हटाता चला गया । उसे जो काम का मिला लिया और बाकी छोड़ता चला गया । फिर एक दिन उसे वो मैसेज आया ‘‘ क्यों बे बुड्ढे ........’’ । उसे लगा इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए । फिर एक दो दिनों यह संदेष और अधिक अपशब्दों के साथ आने लगे । साईट पर कोई नाम था और किसी हीरो का फोटो । इस प्रोफाइल का कोेई मतलब न था । वो जानता है कि इस आभासी मुखौटे के पीछे कोई वास्तविक व्यक्ति ही है जो कहीं बैठा बटनो से खेल रहा होगा । उसके लिए उस छद्म नाम वाले व्यक्ति को पहचानने से अधिक उसके दिमाग को पढने की चुनौती थी ।
उसने जवाब दिया ‘‘ आप क्यों नाराज है ? ’’ उस छद्म व्यक्ति को शायद केवल प्रतिक्रिया का इंतजार था । इस बात से तो जैसे छद्म व्यक्ति को पंख ही लग गए । उसने गालियों और संदेशों की गति और असभ्यता बढा दी । अब उसे तनाव होने लगा , उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि छद्म व्यक्ति उसे गालियॉं क्यों दे रहा है । वो इतनी आसानी से हार मानने को तैयार न था । उसने उसे मैसेज करके ठीक से बात करने , सोच समझ कर बात करने और शालीनता के दायरे में रह कर बात करने को चेताया । इस सब का छद्म व्यक्ति पर न कोई प्रभाव पडना था और न पडा । वो लगातार गालियॉं देता रहा । हमारा नायक एक सामान्य आदमी ही था जिसे गुस्सा भी आता था । उसने गुस्से के आवेग में मैसेन्जर पर जवाब में गालियों की गोलियॉ दागने का फैसला किया लेकिन उसने तो कभी वास्तविक जीवन में भी कभी किसी को गाली नहीं दी थी । वो रुक जाता है और सोचने लगता है ‘‘ मै गाली नहीं दूंगा .... मै इस आभासी दुनिया में भी वास्तविक रुप में ही रहुॅंगा । कोई और विकल्प तो होगा ...।’’ इस काल में उस के पास अधिक विकल्प न थे , इस समय इस तरह की घटनाए अपराध के रुप में परिभाषित न थी और कोई इन्हें गंभीरता से नहीं लेता था ।
नायक गाली-गलौज वाले संदेशों से परेशान था । हर संदेश उसे कही भीतर तक आहत कर जाता । वो अपने आप को ऑफ लाईन रखने लगा । उसके ऑन लाईन होते ही उसे वे संदेश प्राप्त होने लगते । काफी सोच विचार और खोज बीन के बाद उस छद्म दोस्त को अदोस्त किया जा सका । उसके मन का बोझ अभी कम नहीं हुआ था ,उसके मन में अभी भी उथल पुथल मची थी कि आखिर क्यों कोई किसी अन्जान व्यक्ति को इस तरह गालियॉं बकता है ? इससे उसे क्या प्राप्त होता है ? क्या यह कोई नई बीमारी है या कुछ और ? वो बहुत ही गंभीर मुद्रा में ऑफिस में अपनी कुर्सी पर बैठा सोच रहा था । ऑफिस में ही किसी कुर्सी पर बैठा सहकर्मी मुस्कुरा रहा था ।
आलोक मिश्रा
2
वो अजनबी
एक दिन सड़क पर यूं ही वो मिल गया । साधारण सी वेशभूषा में छोटी सी मूंछ , बिखरे बाल और पैन्ट शर्ट में उम्र का अंदाज लगा सकना सम्भव नही था । मै बस मंदिर से निकला ही था कि वो मेरे साथ-साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगा। मै जब सड़क के दूसरे किनारे पर गया तो वो भी आ गया । मुझे कुछ अजीब सा लगने लगा ;मैने कदम कुछ तेज किए तो वो भी तेज चलने लगा । मुझ से रहा नही गया मैने उससे पूछ ही लिया ‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ उसने कहा ‘‘ कुछ भी तो नही ।’’ मै बोला ‘‘ तो तुम मेरे साथ क्यो चलना चाहते हो ? ’’ उसने मेरी ओर देख कर कहा ‘‘ ऐसा तो तुम चाहते हो । ’’ मुझे लगा बड़ा अजीब आदमी है; खुद साथ चल रहा है और कहता है कि मै चाहता हुॅं । मैने उसे घूर कर देखा और कहा ‘‘ मै चाहता हॅूं ,इससे तुम्हारा क्या मतलब है ।’’वो वैसे ही चलता रहा और बोला ‘‘ तुम ही तो अभी कह रहे थे कि हमेशा साथ रहना ।’’मुझे लगा जरुर ही पागल होगा ‘‘ मैने कब कहा ?’’ अनायास ही खीझ भरे शब्द निकल गए । वो मेरी ओर देखे बगैर ही बोला ‘‘अभी तो तुम आए थे और अपनी जिंदगी का दुखड़ा रो कर कह रहे थे कि हमेशा साथ रहना । ’’
मुझे लगा मेरी सांसे फूलने लगी है। मै उसकी इन उलजलूल बातों से बाहर निकलना चाहता था । मै एकदम से रुक गया ; मेरे रुकते ही वो भी रुक कर खड़ा हो गया। मै लगभग चीखत हुए बोला ‘‘ तुम हो कौन ...,क्या चाहते हो और मैने तुम से कब साथ चलने के लिए कहा ? ’’ वो शांत था धीरे से बोला ‘‘परेशान मत हो, मै भगवान हूॅं ;मै तुम से कुछ भी नही चाहता जो कुछ चाहते हो तुम ही मुझ से चाहते हो।’’ मुझे उसकी बात पर हंसी आ गई मै हंसते हुए ही बोला ‘‘ क्या .... क्या.... क्या कहा तुमने ,.... तुम भगवान हो...... वो भी तुम .....’’ मुझे लगा मेरा वाक्य खत्म नही हुआ, मन में तो आंधी चल रही थी । उसने कोई प्रतिक्रया नहीं दी । मुझे लगा आज मेरा किसी धूर्त, ठग या पागल से वास्ता पड़ा है । मै फिर तेज कदमों से चलने लगा ; वो मेरे साथ पहले की ही तरह चल रहा था । मैने कहा ‘‘देखो तुम मुझे परेशान मत करो। तुम मुझे अकेला क्यों नही छोड़ देते ?’’ उस पर मेरी बातों का कोई असर नहीं हुआ मै बड़बड़ाने सा लगा ‘‘ तुम ... तुम भगवान कैसे हो सकते हो ?.... क्या ऐसे होते है भगवान ? ..... तुम ने अपनी शक्ल कभी आईने में देखी है ?’’ उस पर अपनी बातों कि कोई प्रतिक्रया न देख कर मै और बड़बड़ाने लगा ‘‘ऐ भाई मै तुम से बोल रहा हूॅ् .... भगवान बनने की कोशिश मत करो । वैसे ही भगवानों के कारण लोग लड़ रहे है । तुम्हारे जैसा जीता जागता भगवान ..... ना जाने क्या होगा इस दुनिया का ? भगवान ऐसे फटेहाल सड़को पर नही घूमा करते । ’’ वो मुस्कुरा दिया, उसकी मुस्कुराहट तीखे खंज़र की तरह दिल में उतर गई । मैने उसका हाथ पकड़ा और बोला ‘‘ऐ रुक.....’’ मेरे रुकते ही वो भी रुक गया । जेब से कुछ नोट निकाल कर उसके हाथ में रख दिए उसने नोटों मुट्ठी में भींच लिया मै बोला ‘‘ अब खुश ... चलो अब अपना रास्ता नापो ... ’’ वो अब तक मेरी खीझ का मजा ले रहा था, धीरे से बोला ‘‘मै सच में भगवान हॅूं । ’’ मुझे अब कोफ्त होने लगी थी ; अपने स्वर को नरम रखने का प्रयास करता हुआ बोला ‘‘ कौन भगवान ...... भगवान यादव , भगवान सिंह या....या... भगवान तोमर ऐसा ही कुछ नाम होगा तुम्हारा ; तो...तो तुम क्या भगवान हो गए ? अरे भाई भगवान की फोटो भी देखी है कभी ? ...भगवान दुनिया चलाते है, सुख-दुख में साथ होते है ; तुम तो ऐसा कुछ कर नही सकते फिर तुम कैसे भगवान ? ’’ उसकी शांती मुझे परेशान कर रही थी, मै उसे बोलने के लिए ललकारने लगा ‘‘बोलो....बोलो... ओ भगवान कुछ तो बोलो । ’’उसने धीरे से कहना प्रारम्भ किया ‘‘ हॉं मै भगवान ही हूॅं ; वही भगवान जिसके सामने तुम लोग रोते हो, मॉंगते हो और न देने पर बुरा भला कहते हो । तुमने मुझे पूजा घरों में बिठा दिया है । अब मै तुम्हारे सामने हूॅं तो तुम मेरे भगवान होने का सबूत मांगोगे । ’’ मै उक्ता गया था ‘‘ बस ...बस ये भाषणबाजी किसी और को सुनाना’’ उसे मै चुप कराने लगा ।
वो अब बोले जा रहा था ‘‘ मै क्या सबूत दूं अपने भगवान होने का ? तुम सब को मैने ही बनाया ;मै तुम्हारे बीच ही रहता रहा। फिर तुम में से किसी ने मुझे कल्पना बना दिया । अब तुम्हारे लिए वह कल्पना ही भगवान है ,जो तुमने गढ़ी है । एक प्रकार से तुम्हारा भगवान तुम्हारा ही मानसपुत्र है । ’’ मेरी आस्था दरकने सी लगी ,मैने उससे कहा ‘‘ ये भी अच्छी रही ..अपने भगवान होने को साबित करना छोड़ कर तुम तो हमारे भगवान को ही बदलने चले हो। उसने मुझे ध्यान से देखा और गंभीर स्वर में बोला ‘‘मै जानता हूॅं तुम तो क्या दुनिया का आखरी आदमी भी मुझे भगवान नही मानेगा क्योकि मै स्वयम् उसमें ही रहता हूॅं ; वो मुझे और अपने आप को दो अलग - अलग समझता है । बस वो मुझे बाहर खोजता रहता है। खैर.... मै इस गली मे मुड रहा हूॅं लेकिन तुम सोचना कि अगर मै सही में भगवान होता तो तुम क्या करते? ’’ वो गली में चला गया और मै पसोपेश मे पड़ा सोचता रहा ।
आलोक मिश्रा