Charles Darwin ki Aatmkatha - 3 in Hindi Biography by Suraj Prakash books and stories PDF | चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 3

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 3

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(3)

इन दोनों ही वर्षों में गर्मी की छुट्टियों में मैंने खूब मज़े मारे। हाँ, इतना ज़रूर था कि कोई न कोई पुस्तक मैं हमेशा पढ़ता रहता था। सन 1826 की गर्मियों में मैंने अपने दो दोस्तों को साथ लिया, अपने-अपने पिट्ठू थैले लादे और नॉर्थ वेल्स की सैर को पैदल ही निकल गए। एक दिन में हम तीस मील तो चले ही जाते थे। एक दिन हमने स्नोडान में पड़ाव भी डाला। एक बार मैं अपनी बहन के साथ घुड़सवारी करता हुआ नॉर्थ वेल्स की सैर को भी गया था। एक नौकर ने काठी वाले झोले में हमारे कपड़े संभाले हुए थे। पतझड़ का सारा मौसम निशानेबाजी में जाता था। यह समय मैं ज्यादातर वुडहाउस में मिस्‍टर ओवेन और मायेर में अंकल जोस के साथ बिताता था। निशानेबाजी का तो मुझ पर जुनून-सा सवार था। इतना कि जब मैं सोने के लिए जाता तो अपने शिकारी जूते भी पलंग के पास ही रख लेता था ताकि सवेरे उठते ही उन्हें पहन सकूँ और अपना एक मिनट भी बरबाद किए बिना तैयार हो जाऊँ। एक बार 20 अगस्त को तो अपने इसी प्रिय खेल के चक्कर में मैं मायेर में काफी दूर तक निकल गया, और घने सरकण्डों तथा स्काटलैन्ड में पाए जाने वाले देवदार के पेड़ों के बीच सारा दिन गेमकीपर के साथ भटकता रहा।

पूरे मौसम में मैं जितने पक्षियों का शिकार करता था, उन सब का पूरा लेखा-जोखा रखता था। एक दिन वुडहाउस में मिस्‍टर ओवेन के ज्येष्ठ पुत्र कैप्टन ओवेन और उनके कज़िन** मेजर हिल के साथ निशानेबाजी कर रहा था। यही मेजर हिल आगे चलकर लार्ड बेरविक के नाम से मशहूर हुए। इन दोनों ही से मेरी खूब छनती थी। इसी का फायदा उठाते हुए उस रोज़ दोनों ने मुझे खूब छकाया, क्योंकि जितनी बार मैं गोली चलाता और सोचता कि मैंने एक पक्षी मार लिया है तो फौरन ही दोनों में से कोई एक अपनी बन्दूक में गोली भरने का स्वांग करने लगता, और वहीं से चिल्लाता,`तुम उस पक्षी की गिनती मत करना क्योंकि उसी वक्त मैंने भी गोली चलायी थी'। और तो और, गेमकीपर भी उनके इस मज़ाक को समझ गया और उन्हीं का साथ देने लगा। कुछ घंटों के बाद जब उन्होंने इस मज़ाक के बारे में बताया, तो साथ ही यह भी बताया कि उस दिन मैंने बहुत से पक्षियों का शिकार किया था, लेकिन मुझे नहीं मालूम है कि कितने पक्षियों का, क्योंकि उनके मज़ाक के चक्कर में मैंने गिनती नहीं की थी। अमूमन ऐसा होता था कि अपने कोट के बटन के साथ मैं एक धागा लटका लेता था और जितने पक्षी मैं मारता था उतनी ही गाँठें उस धागे में लगाता जाता था, पर उस दिन मैं ऐसा नहीं कर पाया था। यह मेरे ठिठोलीबाज़ दोस्तों को मालूम था।

मैं इस निशानेबाजी में क्यों रुचि लेने लगा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि उस वक्त मैं निशानेबाजी के चक्कर में विवेक शून्य हो गया था। तभी तो मैं यह सोचने लगा था कि अच्छी निशानेबाजी भी बुद्धिमानी की निशानी है, क्योंकि यह जानना भी एक कला है कि अच्छे शिकार कहाँ मिलेंगे और उनका शिकार कैसे किया जाए।

मैं सन 1827 में जब पतझड़ के मौसम में मायेर गया हुआ था, तो वहां पर सर जे मेकिनटोश से भेंट हुई। मुझे जितने भी वक्ता मिले उनमें वे सर्वोत्तम थे। बाद में पीठ पीछे मेरी तारीफ करते हुए उन्होंने गर्व से कहा था, `इस युवक में कुछ है जो मुझे रुचिकर लगा।' शायद उन्होंने भी देख लिया था कि उनकी बतायी हर बात को मैं कितने ध्यान से सुन रहा था, और मैं तो इतिहास, राजनीति और नैतिक दर्शनशास्त्र के बारे में निरा बुद्धू था। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से अपनी प्रशंसा सुनना किसी भी युवक के लिए अच्छा लगता है, क्योंकि यह उसे सही रास्ते पर लगाए रखता है, हालांकि इस प्रकार की तारीफ से कुशाग्रता बढ़ती है लेकिन कई बार मिथ्या अहं भी बढ़ सकता है।

बाद के दो-तीन बरस में जब मैं मायेर गया तो मैंने निशानेबाजी नहीं की फिर भी समय शानदार गुज़रा। वहाँ का जीवन एकदम तनाव रहित था। पैदल घूमने या घुड़सवारी करने के लिए दूर-दराज के इलाके बड़े ही दिलकश थे, और शाम को सब बैठकर संगीत और गप्पबाजी का आनन्द लेते थे। हमारी गप्पें बहुत व्यक्तिगत नहीं होती थीं, जैसा कि बड़े परिवारों में अक्सर होती हैं। गर्मियों में पूरा परिवार अक्सर पुराने पोर्टिको की सीढ़ियों में बैठ जाता था। सामने ही फुलवारी थी और मकान के ठीक सामने फैला हुआ ढलवाँ जंगल नदी में चमकता रहता था। नदी में मछलियों की छलाँग या जल पक्षियों का तैरना बड़ा ही मनमोहक था। मेरे दिलो-दिमाग पर मायेर की उन शामों की याद आज भी ताज़ा है। मैं अंकल जोस का बहुत आदर करता था और मुझे उनसे लगाव भी बहुत था। वे बहुत ही मौन प्रकृति के और एकान्तप्रिय व्यक्ति थे, लेकिन मुझसे कई बार खुलकर बातें करते थे। वे अत्यन्त सरल और स्पष्ट विवेक के स्वामी थे। मुझे नहीं लगता कि संसार में ऐसी कोई भी शक्ति होगी जो उन्हें उस मार्ग से विचलित कर सके, जो मार्ग उनकी समझ में सही हो। उनके बारे में मैं होरेस के काव्य की कुछ पंक्तियाँ कहता था।

कैम्ब्रिज, 1828-1831 एडिनबर्ग में दो सत्र गुज़ारने के बाद, पता नहीं मेरे पिता को मालूम हो गया, या मेरी बहनों ने बता दिया कि मैं फिजीशियन बनने का विचार पसन्द नहीं करता। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं पादरी बन जाऊँ तो बेहतर होगा। क्योंकि मैं एक निठल्ला शिकारी बनूँ, इस बात के वे प्रखर विरोधी थे। उस समय तो यही सम्भावना ज्यादा थी कि मैं शिकारी बनने की ओर कदम बढ़ा रहा था। मैंने सोचने के लिए कुछ मोहलत माँगी, ताकि चर्च ऑफ इंग्लैन्ड के सभी धर्मसूत्रों के प्रति अपने मन में विश्वास पैदा कर सकूं, क्योंकि सुनी सुनाई बातों के कारण में मन में बहुत-सी आशंकाएं घर कर चुकी थीं। इसके अलावा मैं पादरी बनने के विचार को पसन्द करता था। इसी क्रम में मैंने इसाई सिद्धान्तों पर पीयरसन के लेख और अन्य धर्मग्रन्थ बहुत ही सावधानी से पढ़े। उस समय तो बाइबल के प्रत्येक शब्द में वर्णित सत्य का कड़े और अक्षरश: पालन करने में मुझे संदेह नहीं रह गया। जल्द ही मैं इस बात का मुरीद हो गया कि इसाई मत के सिद्धान्तों का सम्पूर्ण रूप से पालन होना चाहिए।

इस बात पर ध्यान दूँ कि मेरे विचारों के कारण किस प्रकार से मुझ पर रूढ़िवादियों ने हमले किए, तो यह बड़ा ही असंगत लगता है कि कभी मैं पादरी बनना चाहता था। वैसे मेरा तो अभिप्राय नहीं था और मैंने पिताजी की इच्छा को छोड़ा भी नहीं था, लेकिन पादरी बनने का यह विचार भी उस समय स्वाभाविक रूप से दम तोड़ गया, जब मैंने प्रकृतिवादी के रूप में बीगल में काम शुरू किया। यदि मानस-विज्ञानियों का भरोसा किया जाए तो मैं पादरी बनने के लिए कई मायनों में एकदम सही था। कुछ वर्ष पहले जर्मन मानस-विज्ञानी सोसायटी के कार्यालय से मुझे एक पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने काफी शिद्दत के साथ मेरा फोटो माँगा था। कुछ समय बाद मुझे उनकी बैठकों का वृत्तान्त प्राप्त हुआ, उसमें यह उल्लेख था कि मेरे ललाट का आकार-प्रकार वहां चर्चा का विषय रहा, और वहाँ मौजूद एक वक्ता ने तो यहाँ तक कहा कि मेरे जैसा उन्नत ललाट तो दस पादरियों को मिलाकर भी नहीं होगा।

जब यह तय हो गया कि मैं पादरी बनूँ, तो यह भी ज़रूरी हो गया कि इस दिशा में तैयारी करने के लिए मैं किसी इंग्लिश यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाऊँ और उपाधि हासिल करूँ। मेरे साथ संकट यह था कि स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कोई शास्‍त्रीय ग्रन्थ नहीं पढ़ा था। मुझे यह जान कर बड़ा ही क्षोभ हुआ कि इन दो बरस के दौरान स्कूल में पढ़ा हुआ सब कुछ भूल गया था। सब कुछ। यहाँ तक कि ग्रीक वर्णमाला के कुछ अक्षर भी। इसलिए मैं अक्तूबर में ठीक समय पर कैम्ब्रिज नहीं जा सका, बल्कि शूजबेरी में ही प्राइवेट ट्यूटर से पढ़ा और फिर क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान 1828 की शुरुआत में ही कैम्ब्रिज जा पाया। मैंने जल्द ही स्कूल की सारी पढ़ाई को याद कर लिया, और होमर तथा ग्रीक टेस्टामेन्ट जैसी आसान ग्रीक पुस्तकों का सुविधानुसार अनुवाद भी कर लेने लगा था।

यदि शैक्षणिक ज्ञान को देखा जाए तो मैंने कैम्ब्रिज में तीन बरस का अपना समय बरबाद किया। यह ठीक वैसा ही रहा जैसा एडिनबर्ग में स्कूल में हुआ था। मैंने गणित का अभ्यास शुरू किया, और 1828 की गर्मियों में बारमाउथ में प्राइवेट ट्यूटर भी रखा, लेकिन मेरी पढ़ाई बहुत धीमी चल रही थी। मुझे बीजगणित के शुरुआती सूत्र तो बेमतलब ही लग रहे थे। पढ़ाई में इस तरह की अधीरता दिखाना एक तरह से बेवकूफी थी, क्योंकि बाद के समय में मैं खुद को ही कोसता था कि मैंने मेहनत क्यों नहीं की और गणित के कुछ विख्यात सूत्रों को क्यों नहीं समझा। मुझे लगने लगा था कि गणित की जानकारी रखने वाले प्रबल मेधा के स्वामी होते हैं। लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि गणित की पढ़ाई में मैं खास कुछ कर भी न पाता। शास्‍त्रीय ज्ञान के बारे में मैंने कॉलेज के अनिवार्य लैक्चरों के अलावा कुछ खास नहीं किया, और इनमें भी मैं मामूली तौर पर ही जाता था। अपने दूसरे वर्ष के दौरान लिटिल-गो पास करने के लिए मैंने एक या दो महीने जमकर मेहनत की और बेड़ा पार हो गया। इसी तरह से अंतिम वर्ष में बीए की डिग्री पाने के लिए मैंने मनोयोग से अध्ययन किया, अपना शास्‍त्रीय ज्ञान, बीजगणित और यूक्लिड दोहराया। यूक्लिड में मुझे वैसा ही आनन्द आया जैसा कि स्कूली दिनों में आता था। बीए की परीक्षा पास करने के लिए मुझे पाले द्वारा लिखित एविडेन्स ऑफ फिलॉस्फी पढ़ना भी ज़रूरी था। यह काम मैंने मन लगाकर किया और मुझे यह तो भरोसा हो ही गया था कि मैं सम्पूर्ण एविडेन्स को पूरी शुद्धता के साथ लिख सकता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि पाले जैसी स्पष्ट भाषा नहीं लिख पाता। इस किताब के विभिन्न प्रकार के तर्कों ने और मैं यह भी कहूँगा कि उनकी प्राकृतिक आध्यात्म विद्या ने मुझे यूक्लिड जैसा ही आनन्द प्रदान किया। इन रचनाओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन हमारे शैक्षणिक पाठÎक्रम का वह भाग था जो मेरे दिमागी विकास के लिए शिक्षण में ज़रा-सा भी काम का नहीं था। मैंने इन रचनाओं की तोता रटंत का प्रयास नहीं किया। इसे मैं तब भी बेकार मानता था और आज भी मानता हूँ। मैंने उस समय पाले की भूमिका के बारे में स्वयं को ज्यादा परेशान नहीं किया; इसी विश्वास के बूते मैं तर्क-वितर्क की परम्परा से खुश और सन्तुष्ट भी रहा। पाले के सभी प्रश्नों का ठीक उत्तर देने, यूक्लिड में बेहतर तैयारी और शास्‍त्रों की पढ़ाई में भी दयनीय रूप से असफल न होने के कारण मुझे आनर्स न करने वाली पोल्लोई या लोगों की भीड़ में अच्छा स्थान और डिग्री भी मिल गयी। मुझे ठीक तरह से तो नहीं मालूम कि मेरा रैंक कितना ऊपर था, लेकिन मुझे थोड़ा बहुत याद है कि सूची में पाँचवें, दसवें या शायद बारहवें स्थान पर था।

यूनिवर्सिटी में कई विषयों पर सार्वजनिक व्याख्यान दिए जाते थे, और इनमें ह़ाजिर होना अपनी मर्जी के मुताबिक था, लेकिन एडिनबर्ग में लैक्चर सुन-सुनकर मैं इतना ऊब गया था कि मैं सेडविक के प्रभावशाली और रोचक व्याख्यानों में भी नहीं गया। यदि मैं उन व्याख्यानों में गया होता तो बहुत पहले ही भूविज्ञानी बन जाता। हालांकि मैंने वनस्पतिशास्त्र में हेन्सलो के व्याख्यान सुने और उनकी स्पष्टता को तथा अत्यधिक प्रभावशाली उद्धरणों को मैंने बहुत पसन्द किया लेकिन मैं वनस्पतिशास्त्र पढ़ता नहीं था। हेन्सलो अपने शिष्यों और यूनिवर्सिटी के कुछ पुराने सदस्यों को लेकर दूर-दराज के इलाकों तक पैदल या घोड़ागाड़ी में या फिर नदी के बहाव के साथ-साथ बजरे में बैठकर अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इस दौरान पाए जाने वाले दुर्लभ पौधों और पशुओं पर वे व्याख्यान देते। ये अध्ययन यात्राएँ बड़ी मनोरंजक होती थीं।

इस समय वैसे तो यही लग रहा होगा कि कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान मेरे जीवन के कुछ निर्धारक पहलू उजागर हो रहे थे, तो भी मैं यही कहूँगा कि वहाँ मेरा समय बुरी तरह से बरबाद हो रहा था। भयंकर बरबादी। निशानेबाजी की और शिकार करने की मेरी भावना मर चुकी थी, और अब मुझे देश के दूर-दूर के हिस्सों की सैर करने में मज़ा आने लगा था। मैं दूर-दूर तक घुड़सवारी करता। यहाँ मैं एक नई ही मंडली में फंस गया था। हमारी इस मंडली में कुछ लफंगे और नीच प्रवृत्ति के युवक भी थे। हम अक्सर शाम को एक साथ भोजन करते, हालांकि इनमें हमारे साथ अक्सर कोई न कोई गरिमामय व्यक्ति भी रहता था, और कई बार हम ज्यादा पी लेते थे, और बाद में गाते रहते या ताश खेलते। इस तरह से जितनी शामें मैंने गुज़ारीं, मुझे आज भी उसके लिए शरम महसूस होती है। हालांकि मेरे कुछ मित्र बहुत ही खुशमिजाज़ थे और हम सभी के दिमाग सातवें आसमान पर थे, लेकिन कुल मिलाकर मुझे उन दिनों की याद बहुत सुखदायक नहीं है।

लेकिन मुझे यह जानकर खुशी भी है कि मेरे कुछ और दोस्त भी थे जो पूरी तरह अलग प्रकृति के थे। व्हिटले के साथ मेरी दांत-काटी दोस्ती वाला मामला था। बाद में वह सीनियर रैंगलर बना। हम दोनों काफी दूर तक घूमने निकल जाते थे। उसने मुझमें अच्छे चित्रों और नक्काशियों के प्रति रुझान पैदा किया। इनमें से कुछ कलाकृतियाँ मैंने खरीदीं भी। मैं अक्सर फिट्जविलियम गैलरी भी जाता रहता था, और लगता है मेरी रुचि भी काफी अच्छी थी, क्योंकि मैंने हमेशा अच्छे चित्रों की प्रशंसा की थी, और उनके बारे में बुजुर्ग क्यूरेटर से चर्चा भी करता था। मैंने सर जोशुआ रेनाल्ड की किताब काफी रुचि के साथ पढ़ी। हालांकि यह रुचि मेरे प्राकृतिक रुझान में नहीं थी, तो भी कुछ बरस तक मैंने इसमें काफी रुचि ली, और लन्दन स्थित नेशनल गैलरी के कई सारे चित्र मुझे बहुत आनन्दित करते थे, और सेबेस्टियन देल पियेम्बो के चित्र तो जैसे मुझे दिव्यलोक में ले जाते थे।

मैं एक संगीत मंडली में भी जाता था। मेरा एक जोशीला दोस्त हर्बर्ट मुझे वहाँ ले गया। उसके पास हाई रैंगलर की उपाधि भी थी। इस मंडली में शामिल होने और उनकी धुनों को सुनकर मुझमें संगीत के प्रति गहरा लगाव पैदा हो गया था। मैं अपनी सैर का समय इस तरह रखता था कि सप्ताह के दिनों में किंग्स कालेज के चैपल में उस मंडली को राष्ट्रगान की धुन बजाते सुन सकूं। इसमें मुझे इतना गहरा आनन्द आता था कि कई बार मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती थी। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि इस लगाव में कोई बनावट या केवल नकल नहीं थी, क्योंकि मैं कई बार खुद ही किंग्स कालेज चला जाता था, और कई बार तो गिरजे की गायन मंडली के बच्चों को पैसे देकर अपने कमरे में उनका गायन सुनता था। यह बात दूसरी है कि मेरे कान संगीत को समझने के मामले में दीन-हीन थे। मैं एक भी धुन समझ नहीं पाता था, और न ही कोई धुन बजा पाता था। सही तरीके से गुनगुनाना तो मेरे लिए लोहे के चने चबाना था, फिर भी यह रहस्य ही है कि मैं संगीत का आनन्द क्योंकर ले पाता था।

मेरी संगीत मंडली के मेरे मित्रों ने जल्द ही मेरी हालत का अन्दाजा लगा लिया। कई बारे वे सब संगीत में मेरा इम्तिहान लेते और अपना मनोरंजन भी करते। वे कोई धुन बजाते और फिर सब मुझसे पूछते कि इनमें कौन-कौन सी धुनों को मैं पहचान सकता हूँ। इन्हीं धुनों को जब वे सामान्य से द्रुत या मंथर गति से बजाते थे तो मेरे लिए और भी कठिनाई होती थे। इस तरह से तो गॉड सेव्ड द किंग की धुन भी मेरे लिए कष्टप्रद पहेली बन जाती थी। एक और व्यक्ति भी था जो संगीत में मेरे जितनी ही समझ रखता था और कहने में अटपटा लगता है कि वह थोड़ा-बहुत बांसुरी भी बजा लेता था। हमारी संगीत मंडली की परीक्षाओं में एक बार मैंने उसे पराजित कर दिया तो मुझे बहुत खुशी हासिल हुई थी।

कैम्ब्रिज में रहने के दौरान मैं जिस उत्सुकता और लगन से भृंगी-कीट पकड़ता था वह मेरे लिए आनन्ददायक था, और जितना आनन्द मुझे इस काम में मिलता था, उतना किसी अन्य काम में नहीं आता था। यह काम केवल संग्रह का जुनून था, क्योंकि मैं इन कीटों की चीर-फाड़ नहीं करता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि प्रकाशित विवरणों के साथ इन कीटों के बाहरी लक्षण यदा-कदा मिला लेता था, लेकिन मैं उनके नाम ज़रूर रख लेता था। कीट संग्रह के बारे में मैं अपने उत्साह के प्रमाणस्वरूप एक घटना बताता हूँ।

एक दिन पेड़ की पुरानी छाल उतारते समय मुझे दो दुर्लभ भृंग दिखाई दिए। मैंने दोनों को एक-एक हाथ से उठाया, तभी मुझे तीसरा भृंग भी दिखाई दिया। मैं उसे भी छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए मैंने हाथ में पकड़े हुए एक भृंग को मुँह में रख लिया। दुर्भाग्यवश उस कीट में से कोई तीखा तरल पदार्थ निकला जिससे मेरी जीभ जल गयी और मैं थू-थू कर उठा। भृंग मुँह से बाहर गिरा और साथ ही तीसरा भृंग भी हाथ न आया।

मैं इस प्रकार के कीटों का संग्रह करने में काफी सफल रहा और इसके लिए मैंने दो नए तरीके ईज़ाद किए। मैंने एक मज़दूर रख लिया था जो सर्दियों में जम गए पुराने वृक्षों की छाल को काट-छाँट कर बड़े थैले में भर लाता था, और इसी तरह दलदली इलाकों से सरकंडे लाने वाले बजरों की तली में से कूड़ा-कचरा बटोर लाता था। इस तरह से मुझे कुछ दुर्लभ प्रजाति के भृंग भी मिले। शायद किसी कवि को अपनी पहली कविता के प्रकाशन पर भी इतनी प्रसन्नता नहीं होती होगी, जितनी मुझे उस समय हुई, जब मैंने स्टीफन की इलस्ट्रेशन्स ऑफ ब्रिटिश इन्सेक्ट्स, में यह जादुई शब्द देखे - `महोदय, सी डार्विन द्वारा संगृहीत'। मेरे दूर के रिश्ते के चचेरे भाई डब्लयू डार्विन फॉक्स एक चतुर और बहुत ही खुशमिजाज व्यक्ति थे, उस समय क्राइस्ट कालेज में पढ़ते थे। मैं इनके साथ काफी हिल-मिल गया था और इन्होंने ही मुझे कीट-विज्ञान से परिचित कराया। इसके बाद मैं ट्रिनिटी कालेज के एल्बर्ट वे से भी परिचित हुआ और उनके साथ भी कीट संग्रह के लिए जाने लगा। आगे चलकर यही सज्जन सुविख्यात पुरातत्त्ववेत्ता बने। साथ में उसी कालेज के एच थाम्पसन भी होते थे। बाद में यह प्रसिद्ध कृषिविज्ञानी, ग्रेट रेलवे के चेयरमैन और संसद सदस्य भी बने। लगता है कि भृंगी-कीटों के संग्रह की मेरी रुचि में ही भविष्य में मेरे जीवन की सफलता की सूत्र छिपा हुआ था।