1•
कविता----"मोह-जाल"
आज अचानक चली आई फिर, याद तुम्हारी द्वार प्रिये।
बिखर पड़ी अश्रुजल धारा, गई क्यूँ हिम्मत हार प्रिये।।
सब भाव जोड़ मन चितवन के, करके सब संचित अनुराग।
कभी चित्रकार कभी शिल्पकार बन, रही जोड़ती तार प्रिये ।।
सुंदर सुरभित तरूशिखा से, सजी ये बंदनवार मनोहर।
अनुकम्पा सजीले फूलों ने कर, बनाए हैं मधुबन हार प्रिये ।।
रही नयन सेज पर स्वप्न पिरोतीं, आशाएँ सुंदर संसार।
आई ह्रदय कुंज से बाहर झांकने, सुन साँसों की झनकार प्रिये।।
इन मृग नयनों की प्यास देखकर, निर्जन भी झूठे नीर बहाए।
दो प्यासे नयना चिर तृष्णा के, तुम बहा दो मधुमय धार प्रिये।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक रतन
2•
कविता----“वक़्त की मार”
मगन हो घूम रहा शैतान,
जिसकी धार सी है रफ़्तार।
करेगा कितनों को आघात,
ये तो वक़्त की मार बताए ।।
डरा सहमा सा हर इंसान,
किसके सर पे धरे इल्ज़ाम।
क़हर से कब होगा आज़ाद,
ये कोन किसे समझाए।।
इंसां चंद दिन का मेहमान ,
वक़्त ने तोड़ दिया अभिमान ।
सुबह का कब होगा आग़ाज़,
बैठा आस का दीप जलाए।।
रही सुबक यहाँ हर आस,
इंसां सुलगे दिन ओर रात।
तमाशा देख रही कायनात,
अरमां तार-तार हुए जाएँ ।।
विधना भला नहीं इंसाफ़,
कुदरत ये कैसा उपहास ।
होगा क्या इसका अंजाम,
ये कौन किसे समझाए।।
तड़पते सीने में जज़्बात ,
हो रही माटी से पहचान।
जग से जाती कितनी जान,
आँकड़े रोज़ हमें बतलाए।।
विधना का है अजब विधान,
करा दिया कुदरत का सम्मान।
ख़ुद से कर ले अब पहचान,
नादां वक़्त तुझे समझाए।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक रतन
3•
कविता——-“कुहू प्यारी”
चमन में हर सू बहार छाई,
गुलों की ख़ुशबू महक रही है।
मचल रही है हमारी धड़कन,
जवाँ मोहब्बत बहक रही है।।
हवा है मधम नशा नशा है,
हर एक डाली लचक रही है।
किसी की चाहत का दर्द लेकर,
कुहू प्यारी चहक रही है।।
चमकते जुगनू को देख कर यू ,
उम्मीद मेरी जगी जगी है।
के खुशनसीबी फलक से आकर,
जमीं पे जैसे चमक रही है।।
ये चांद तारे गवाह बने हैं,
तुम्हारी मेरी मोहब्बतों के।
ग़ज़ल की लय में तुम्हारी मेरी,
हर एक धड़कन बहक रही है।।
मचल रही मतवाली होकर,
कश्मकश में दिलबरी है।
आफ़त दरिया शबाब की,
अट-खेली करती छलक रही है ।।
धूप छाँव से ऑंख मिचौनी,
रुत अलबेली आकर खेले।
हवा की ख़ुशबू हुस्न से मिलकर,
आसमाँ में धनक रही है।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक रतन
4•
कविता-----“भ्रमित घूमते रहे क्यूँ मधुकर”
अनुपमेय कृति निसर्ग ने करके,
सृष्टि का सृजन कर दिखलाया ।
सगंम से पंच महाभूतों के,
रचाई तत्व प्राण की काया ।।
दिल धड़कन धुन गुंजित कर लेते,
भ्रमित घूमते रहे क्यूँ मधुकर ।।
हवा ने आग पानी संग मिलकर,
धरती को अंबर से मिलाया ।
परिधि में इन सबको रखकर,
मूल तत्व, समता में बँटवाया ।।
मन उपवन में रंग रस भर लेते,
भ्रमित घूमते रहे क्यूँ मधुकर ।।
बने शीत-लहर सुलगी ना तमस्,
नयन-ज्योति ने मन चमकाया ।
पानी जैसे बनकर तुमने ,
ख़ुद ही को रस्ता दिखलाया ।।
गम्भीर, मधुर कर्णप्रिय बन लेते,
भ्रमित घूमते रहे क्यूँ मधुकर ।।
सहन-शीलता धारण करके,
धरती सा तन-मन धन पाया ।
वेगवान, पर सहज सरल सा ,
मन वायु भाँति गतिमान बनाया ।।
शृंगारित, अंतर्मन कर लेते,
भ्रमित घूमते रहे क्यूँ मधुकर ।।
अंबर सी स्थिरता अपनाकर,
विशाल ह्रदय वाला कहलाया।
रचकर सबकी सृजनगाथा,
क़ुदरत ने सृष्टि को उपजाया ।।
रहा क्षणिक बसेरा, चंद जी लेते,
भ्रमित घूमते रहे क्यूँ मधुकर ।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक रतन
5•
कविता ——“समझ तब आया”
कुछ कह ना सका ये अन्तरमन ,
मुझको भी समझ ना आया।
जब दिल पर लागा तीर,
हुई बड़ी पीड,
समझ तब आया।।
बैठे थे कभी इन पलकों पर वो,
उस कण ने आँख को ख़ूब नचाया ।
उतार नज़र से यह किरकिरा ,
आख़िर झटके से आँसू ने पीछा छुड़ाया,
समझ तब आया ।।
कुछ साथी बीते मौसम के,
थे जोक से चिपके हुए दिल से।
लहू रिसने लगा जब सीने से ,
किस हद तक हमें सताया,
समझ तब आया ।।
तूफ़ानी झोंका लगा ज़ोर से
तब होश ठिकाने आया।
यह कैसी उसकी प्रीत,
पीछे से तीर चुभाया ,
समझ तब आया ।।
कुछ कहता था मुझसे मेरा मन ,
पर मैं क्यूँ समझ न पाया।
जब दिल पर लागा तीर,
हुई बड़ी पीड,
समझ तब आया।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक “रतन”
6•
कविता—-“तेरे बिना”
घर नहीं लगता है घर, अब ये मेरा तेरे बिना।
क्या करूँ कैसे लगे, ये मन भला तेरे बिना।।
घर मेरा रौशन था तुमसे,घर की रौनक थे तुम्हीं ।
मेरे दिल का हाल अब, किसने सुना तेरे बिना।।
जीत लेते थे कभी तुम, मुस्कुराहट से मुझे।
अब नहीं आता, तब्बसुम का मज़ा तेरे बिना।।
एक ही कतरे पे, पलकों के तड़प जाते थे तुम।
अब ये दरिया, एक पल भी ना थमाँ तेरे बिना।।
एक पल में, बीत जाता था जो हँसते खेलते।
अब बड़ा दुश्वार है, वो रास्ता तेरे बिना।।
चुग के दाने उड़ गए, गाते हुए पछीं सभी ।
अब ये गुळशन हो गया, वीरान सा तेरे बिना।।
बुलबुलों के गीत और ये, झिलमिलाती तितलियाँ।
दिल जलाता है ये मौसम, दिल जला तेरे बिना ।।
तू नहीं मौजूद तो, वो मुस्कुराहट भी नहीं ।
तू बता कैसे बनूँ मैं, बेवफ़ा तेरे बिना ।।
उड़ गई मैना, तो तौते ने कहा आँसू लिए ।
भूल जा ऐ “रतन” ना मर जाएगा तेरे बिना ।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक “रतन”
7•
कविता —-“तन्हाई “
गुज़रे हैं जो ज़माने वहीं बन गए फ़साने ।
जी को रास आ रहे हैं फ़िज़ाओं के नए तराने।।
बह चले दरिया-ए-अश्क़ पलकों के किनारे ।
जब यादों के घेरों ने घेरे बिछुड़ें मीत पुराने ।।
सजाई भीड़ फिर भी तन्हा कोई संगी ना सहारे।
तन्हाई अक्सर ढूँढें सुकून-ए-दिल के बहाने।।
सदक़े वार-ए-ज़िंदगी मिली घनघोर घटाएँ ।
रही पत्तों सी ज़िंदगी मिले चंद पल ही सुहाने।।
गुलज़ार जिसको जाना थी पुरख़ार की राहें।
फिर रेज़ा रेज़ा फूंक फूंक लगे कदम उठाने ।।
बिछुड़के जाँ पे बन गई जब छूटे थे किनारे ।
तूफ़ानी लहर बनाएगी ग़ाफ़िल के नए फ़साने।।
मिलने को कहाँ मिले हैं दरिया के किनारे ।
कश्ती चाक हो गई जब ढूँढें जीने के बहाने।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक “रतन“
8•
कविता--------“अकेले-अकेले”
दें मजबूरियाँ नाम नाकामियों को,
आहें भर लेते है बनके सीधे साधे।
ज़रूरत से ज़्यादा मिले जब किसी को,
सम्भलते नहीं सबसे खनकते जवाहरे।
हक़ीक़त मे हम सब अकेले अकेले,
नहीं कोई ऐसा जो किसी को संभाले।
खिलें फूल जब तक जुड़े शाख से हों,
सूख जाते हैं मुरझा के गर्दिश के मारे।
रहें दूरियाँ जब तक भ्रम में है दुनियाँ,
जो नज़दीक आए खुले राज़ सारे।
भरम तोड़ देते हैं नज़दीक आकर,
यही आसमां के चमकते सितारे।
जो छूटे हैं रिश्ते वो टूटे से तारे,
कहाँ जुड़ सकेंगे ये क़िस्मत के मारे।
रह ना सकोगे तन्हाइयों में अकेले,
कब तक रहोगे अकेले तकते नज़ारे।
ना तोड़ना ये दिल किसी के हवाले,
मिलेगा कहाँ जो टूटे दिल को सम्भाले।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक “रतन”
9
कविता——-पंछी
परिन्दे साथ मिलकर उड़ रहे जो, आसमान में ।
चमन में रहने को है अलग सबका, आशियाँ पंछी।।
उड़कर चल दिए हैं देखने दिलकश नज़ारों को।
करके चंद दिन का यहाँ बसेरा, चले कहाँ पंछी।।
कुछ देर तक तो चले थे मिलके, राहों में साथ साथ।
जाने कहाँ फिर खो गया, बिछुड़के कारवाँ पंछी ।।
सफ़र से लौटकर जाएँ कहाँ, वो शाखें ही उजड़ गई।
किया था हौसला मैंने भी कभी, था ख़ुद पे गुमाँ पंछी।।
नादान, हुआ जब चमन से जुदा, माजरा ऐसा न था।
अब ढूँढता फिरता जहां में, अपने ही निशाँ पंछी।।
समाप्त🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳गीता कौशिक “रतन”
कैरी, नार्थ करोलाइना, अमेरिका
011-9198888807