लघुकथा--
तपती रेत पर
--राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
‘’जब भी मुँह खोलेगी आग उगलेगी।‘’
‘कोई ना भी बोले; तो भी दीवालों से बुदबुदा कर सारा वातावरण तनावग्रस्त और उत्तेजित कर देगी। एक ही शब्द बोलकर! कोई भी, कुछ भी, अस्वभाविक घटना कर बैठेगी; किसी को कुछ ज्ञात नहीं हो पायेगा कि हादसे का मूल कारण क्या है....!! सारा दोष उत्तेजित होने वाले के सर पर, सभी प्रकार के दुष्प्रभावों के प्रति जिम्मदेार, प्रामाणिक रूप में।‘
‘’उलूल-जलूल हरकतें निर्वीकार रूप में सहन करलो-तो ठीक...। यह सिलसिला निरन्तर चला आ रहा है। जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आये, मगर उसमें रत्तीभर भी परिवर्तन नही आया। अनेकों ऐसे अवसर भी आये जिनमें अच्छे-अच्छे कुटिल चरित्र भी अपने-आप पश्चाताप की भट्टी में तपा कर तौबा कर लेते हैं। मगर अब ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं है, जिसके करम ही फूटे हों, उसका कोई क्या कर सकता है! झुलसते रहो, अनवरत धधकती आग में। सारी सम्भावनाएँ समाप्त!!!
वह अपनी भ्रष्टबुद्धि के बल पर सबको अपने अनुकूल हेंडिल करना चाहती है। बेहुदी, अप्रासंगिक हुकुम को कौन मानेगा? कड़ा विरोध सुनिश्चित है। तो फिर अपनी हरकतों से सम्पूर्ण वातावरण को श्मशान सा बना देगी। असल में उसको दूसरों को तकलीफ में मजा आता है। लो तड़पो और मत मानों मेरे छिछोरे विचार। ओछे हथकंडे..।
पूरी रोजमर्रा की आवश्यक सामग्री अपने कब्जे में कर लेगी फिर मिजाज के मुताबिक प्रदाय करेगी। इस एहसान के साथ कि मेरे से मुँह लगना, मुझे नकारना। नजर अंदाज करना, कितना मेहंगा पड़ सकता है। अब आया समझ में, इसलिये सम्मोहित होकर कठपुतली की तरह नाचो, मेरी उंगलियों पर या मेरी मेहरबानियों पर; समझे!! इस कारस्तानियों पर चाहे कितनी भी मेहंगी वस्तु बरबाद हो जाये, उसके ठेंगे पर। उसे तो प्रसन्नता का आभास हो ही जायेगा। सम्भवत: किशोरावस्था में ही किसी स्तर पर दिमाग स्थिर हो गया। उस वक्त तक, जो बुद्धि विकास हुआ बस वहीं के वहीं रूक गया। इस सीमा तक जो ग्रहण हो गया; वही आज तक चला आ रहा है। हालात अब दूसरे हैं, मगर उन्हें टेकल करने की बुद्धि उतनी ही है, जितनी उस समय के हालात के लिये पर्याप्त थी।
उम्र और हालातों के अनुसार निरन्तर बुद्धि विकास होना ही आवश्यक है तभी सफल जीवन को जिया जा सकता है। अन्यथा नहीं होगा, बन्दर के हाथ में उस्तरा। जो जख्मी ही करेगा, कष्ट ही देगा। किसी भी तरह की राहत की कोई उम्मीद करना अपने-आपको नर्क में डालना ही है। जैसे कि हम पड़े हुये हैं। नर्क ही हो गई जिन्दगी। सब कुछ क्षमताओं के बाद भी शारिरिक सुख मिला ना मानसिक सुख का आभास हुआ। तपती हुई रेत पर चलते रहे, चल रहे हैं... चलते रहेंगें....।
♥♥इति♥♥
संक्षिप्त परिचय
नाम:- राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
जन्म:- 04 नवम्बर 1957
शिक्षा:- स्नातक ।
साहित्य यात्रा:- पठन, पाठन व लेखन निरन्तर जारी है। अखिल भारातीय पत्र-
पत्रिकाओं में कहानी व कविता यदा-कदा स्थान पाती रही हैं। एवं चर्चित
भी हुयी हैं। भिलाई प्रकाशन, भिलाई से एक कविता संग्रह कोंपल, प्रकाशित हो
चुका है। एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।
सम्मान:- विगत एक दशक से हिन्दी–भवन भोपाल के दिशा-निर्देश में प्रतिवर्ष जिला स्तरीय कार्यक्रम हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं समृद्धि के लिये किये गये आयोजनों से प्रभावित होकर, मध्य-प्रदेश की महामहीम, राज्यपाल द्वारा भोपाल में सम्मानित किया है।
भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर उ.प्र. में संस्थान के महासचिव माननीय डॉ. श्री राष्ट्रबन्धु जी (सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार) द्वारा गरिमामय कार्यक्रम में सम्मानित करके प्रोत्साहित किया। तथा स्थानीय अखिल भारतीय साहित्यविद् समीतियों द्वारा सम्मानित किया गया।
सम्प्रति :- म.प्र.पुलिस से सेवानिवृत होकर स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क:-- 145-शांति विहार कॉलोनी, हाउसिंग बोर्ड के पास, भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.) पिन-466001,
व्हाट्सएप्प नम्बर:- 9893164140] मो. नं.— 8839407071.
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