A Tree of Hope - 2 - patjhad in Hindi Fiction Stories by Pranav Pujari books and stories PDF | उम्मीदों का पेड़ - 2 - पतझड़

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उम्मीदों का पेड़ - 2 - पतझड़

माधव खून से लथपथ बेजान पड़ा था, जमीन भी शोक में लाल हो गई थी, भयावह दृश्य था। देखते ही देखते माधव के चारों ओर भीड़ इकट्ठा हो गई, पर किसी में पास जाने की हिम्मत न थी। भीड़ में से ही एक आवाज आई, "अरे एम्बुलेंस को फोन करो कोई"। ठेकेदार को जब यह खबर मिली, उसने तुरंत अस्पताल फोन कर एम्बुलेंस बुलाई और घटनास्थल पर खुद भी पहुँच गया। वो माधव के करीब गया, उसकी नाक के पास हाथ ले जाकर सांसें महसूस करने लगा, कुछ बची हुई थी अभी भी। दस मिनट के अंदर एम्बुलेंस भी आ गई और आनन-फानन में माधव को अस्पताल ले जाया गया।

ठेकेदार ने बीच रास्ते से ही शर्मा जी को फोन पर सारी घटना सुनाई। खबर सुनते ही शर्मा जी के हाथ-पांव फूल गए, घबराहट के मारे उनका गला सूख गया, माथे का पसीना चेहरे तक आने लगा। अब यह दुखद खबर शांति को कैसे दें, इसी सोच में डूबे हुए, वो उनकी खोली की ओर चल दिये। सूरज गेंद को हवा में उछालकर खेलने में मगन था, और शांति आंगन के एक कोने पर कपड़े धो रही थी। शर्मा जी ने जैसे-तैसे अपनी सारी हिम्मत जुटाई और शांति के पास पहुँचे। "शांति सुन", "जी बोलिए", "माधव के ठेकेदार का फोन आया था, वो छत से नीचे गिर गया, अभी अस्पताल ले जा रहें हैं उसे।" आखिरी के कुछ शब्द तो साफ़ निकले ही नहीं उनके मुँह से, पर शांति ने सुन लिए थे वो भी। शांति के पैरों तले जमीन खिसक गई, "कैसे", इतना बोलकर वो उठी, घर के अंदर गई और एक पोटली ले आई साथ में। शायद पैसे थे उसमें, वही पैसे जो वो और माधव इतने समय से हर रोज जोड़ रहे थे, अपने घर वापस जाने के लिए। बाहर आई, तो उसकी आँखों से आँसुओं की नदियाँ बह रही थी, बाल बिखरे थे, आधे तो चेहरे पर आ रहे थे और साड़ी में भी कोई सलीका नहीं था। उसका ये रूप देखकर शर्मा जी भी सहम गए। "चलिये अस्पताल चलते हैं", अपने आँसुओं को पोछते हुए वो बोली। शर्मा जी ने "हाँ" में सिर हिलाया, "सूरज मेरे घर पर रह लेगा तब तक", उनकी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया शांति ने। इस सारे वाकिये से अंजान सूरज खुशी-खुशी शर्मा जी के घर पर रुकने को मान गया, शर्मा जी के इकलौते नौकर के साथ।

अस्पताल तक का बीस मिनट का सफ़र भी कितना लम्बा था, शांति और शर्मा जी दोनों के लिए। शांति अपने आँसुओं के सैलाब को नहीं रोक पा रही थी, और शर्मा जी उसकी इस स्थिति को देखकर बुरी तरह से घबराये हुए थे। ठेकेदार अस्पताल में ही रुके थे, उसकी दूर की पहचान का कोई निजी अस्पताल था, तो माधव को आसानी से आईसीयू में भर्ती करा दिया गया। माधव की स्थिति के बारे में डॉक्टर ने ठेकेदार को जो कुछ भी बताया था, उसने शर्मा जी को एक-एक शब्द समझा दिया, डॉक्टरी भाषा के कुछ शब्दों को छोड़कर। कुल मिलाकर स्थिति काफी नाजुक थी और जल्द से जल्द ऑपरेशन की ज़रूरत थी। शर्मा जी ने कुछ बातें हटाकर और कुछ जोड़कर शांति को समझाने की कोशिश की। शांति बिना कुछ बोले सब सुनती रही, मानो हर बात पर हामी भर रही हो। "उनसे मिल सकती हूँ एक बार ?" ठेकेदार को देखते हुए उसने पूछा। ठेकेदार ने नर्स से इज़ाज़त ली और इशारे में शांति को माधव के पास जाने को कहा। शांति अपने आँसू थामकर तेज कदमों से माधव की ओर बड़ी। सिर और गर्दन पर बंधी पट्टी, नीली सूजी हुई आँखें, दांये कान पर सूखा खून, चेहरे पर जहाँ-तहाँ चोट के निशान, मुँह से बाहर झांकती साँस की नली और उससे जुड़े वेंटिलेटर की आवाज, ये दृश्य देखते ही वो डर गई। जिस रफ्तार से वह आईसीयू के अंदर गई थी, उसकी दोगुनी रफ्तार से दौड़ती हुई बाहर आई और पास पर लगे बेंच पर बैठ कर फूट फूट कर रोने लगी। शर्मा जी और ठेकेदार दोनों ही शांति को संभालने में असमर्थ थे। ठेकेदार ने शर्मा जी से विदा ली और चल दिये।

शर्मा जी शांति के पास जाकर बैठ गए। "डॉक्टर ने कहा है कि जल्द ही ऑपरेशन करना पड़ेगा। मैं दवाईयों और खून का इंतजाम करता हूँ, तुम हिम्मत रखो, सब सही होगा।" शांति ने बिना कोई जवाब दिये अपनी पैसों से भरी पोटली शर्मा जी को थमा दी। "इसे तुम रखो, बाद में एक साथ सब दे देना। मैं अभी आता हूँ," कहकर वो चले गए। शांति को कुछ नहीं सूझ रहा था, बस माधव का वो चोटिल चेहरा ही उसकी नजरों के सामने बार-बार आ रहा था और उसे याद करते ही वो फिर से रोने लगती। वो एक बार फिर आईसीयू में गई, माधव के पास बैठी और उसका हाथ पकड़कर बैठ गई, बस उसके चेहरे को निहारते हुए।

करीब एक घंटा बीत गया ऐसे ही और शर्मा जी भी वापस आ गए। "सारी तैयारी हो चुकी है, कुछ ही देर में डॉक्टर साहब आ जाएँगे और ऑपरेशन शुरु हो जाएगा। ईश्वर पर विश्वास रखो वो सब अच्छा करेगा", शर्मा जी की यह बात मानो शांति के लिए जले पर नमक छिड़कने के समान थी। ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुनना जो छोड़ दिया था। "धन्यवाद आपका" शांति बोली, "कुछ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर चाहिए तुम्हारे, उसे कर आओ, फिर ऑपरेशन की औपचारिकताएँ पूरी हो जाएँगी", शर्मा जी की इस बात पर शांति उठकर नर्स के पास चली गई। पढ़ना-लिखना तो आता था नहीं उसे, तो उसने अंगूठे का इशारा किया। शांति दस्तावेज़ों पर अंगूठा लगा ही रही थी कि नर्स ने उसे सहमति पत्र समझाना उचित समझा। "इसमें लिखा है कि ऑपरेशन के दौरान मरीज की जान भी जा सकती है और अगर ऐसा कुछ होता है, तो समस्त जिम्मेदारी हमारी होगी, अस्पताल प्रशाशन की नहीं", नर्स ने उसे बताया। सुनकर शांति के हाथ कांपने लगे, पर उसके पास और कोई चारा नहीं था माधव को वापस पाने का तो उसने अंगूठा लगा ही दिया।

आधे घंटे बाद डॉक्टर और उनकी टीम आई, माधव को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया, और ऑपरेशन शुरु हो गया। शांति की धड़कनें काफी तेज थी। तीन घण्टों तक चले ऑपरेशन में वो एक पल न बैठी, बस दीवार के सहारे खड़ी रही, अपनी ही सोच में डूबी हुई। रात के करीब साढ़े आठ बजे ऑपरेशन पूरा हुआ और माधव को फिर से आईसीयू में भेज दिया गया। शांति भी माधव के साथ-साथ चली गई और शर्मा जी डॉक्टर से माधव की स्थिति पूछने लगे। "देखिये हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है। दिमाग में खून जमा हो गया था, वो तो निकाल दिया है, पर स्थिति अभी भी नाजुक ही है। ईश्वर ने चाहा तो सब अच्छा होगा", इतना कहकर डॉक्टर वहाँ से चले गए।

शांति माधव को फिर वैसे ही निहारे जा रही थी, इसी उम्मीद में कि वो फिर से आँखें खोलकर उससे बात करने लगेगा। पर माधव तो गहरी नींद में था। शांति को कोई बदलाव नहीं लग रहा था, जिस स्थिति में माधव ऑपरेशन से पहले था, वैसा ही बाद में भी था। शर्मा जी उसके पास आए और बोले "डॉक्टर का कहना है कि हालत अभी भी ज्यादा अच्छी नहीं है, होश कभी भी आ सकता है, या फिर शायद कभी न आए," ये सुनकर शांति फिर से ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, जो इतनी देर से उसने आँसू बचा कर रखे थे, मानो सारे बहा दिए हों। शर्मा जी ने बड़ी मुश्किल से उसे शांत कराया और बाहर ले गए। "अब तुम घर जाओ, सूरज अकेला है, तुम्हारी राह देख रहा होगा, कल सुबह आ जाना। मैं आज यहीं रुकता हूँ।" "नहीं आप चले जाईये, मैं रुकूंगी", "फिर सूरज को कौन समझाएगा ? आज मैं रुकता हूँ, कल तुम रुक जाना, अब जाओ," शांति की बात को काटते हुए शर्मा जी बोले। "हाँ" में सिर हिलाकर शांति घर को निकाल गई। अब खुद को सूरज के सामने कैसे सम्भालेगी, उसे क्या जवाब देगी की उसके पिताजी कहाँ हैं, यही सोचती हुई वो घर पहुँची, पर सूरज तब तक सो चुका था। वो शर्मा जी के घर से गोद में उठाकर उसे अपने घर पर ले आई और सुला दिया। भूख कुछ थी नहीं, बिना खाये वो भी सूरज के साथ ही लेट गई, पर माधव के चेहरे ने उसे पूरी रात सोने ना दिया।

तड़के सुबह वह अस्पताल को चल दी, शर्मा जी 'कुछ घण्टों में लौटूंगा' कहकर घर वापस आ गए। शांति फिर माधव के पास उसे निहारते हुए, उसकी हथेली रगड़ते हुए, वहीं बैठी रही। अच्छे-बुरे सभी खयाल उसके मन में आए। अब उसकी दुनिया सिर्फ़ खयालों तक ही सिमट कर रह गई थी, हकीकत से तो उसे डर लगने लगा था।

वापस घर पर आई तो सूरज मुँह फुलाए बैठा था, "क्या हुआ रे", शांति ने पूछा। "बाबा ने कहा था कल मेले जाएँगे, वो भी नहीं आए, आप भी नहीं आईं, मेले भी नहीं गए और अब मेला खतम हो गया," मुँह लटकाते हुए सूरज बोला। "बेटा, तेरे बाबा को काम से कहीं दूर जाना पड़ा, मुझे भी नहीं बताया, अब जब वो वापस आएँगे ना, तो दोनों उनकी खूब पिटाई करेंगे, ठीक ?" शांति अपने अन्दर के सैलाब को छुपाते हुए बड़ी मुश्किल से बोली। "हम्म", सूरज अपनी गेंद लेकर फिर आंगन में चला गया। शांति यही सोचने लगी कि कब तक सूरज से यूँ झूठ बोलेगी, जब तक माधव सही नहीं हो जाता, या फिर जब तक... , उसके आँसुओं की धार फिर बहने लगी। रो-रोकर उसकी आँखें पूरी सूज गई थी, पर आँसू थे कि रुकने को तैयार ही नहीं थे।


बीस दिन बीत गए ऐसे ही, सर्दियों की शुरुआत हो चुकी थी। माधव की स्थिति में कुछ खासा सुधार नहीं था। जमापूँजी तो कब की खत्म हो चुकी थी, अस्पताल का खर्चा उठाने के लिए शांति ने अब घर-घर जाकर चूल्हा-चौका करना शुरु कर दिया था। उनके लाख मना करने पर भी, शर्मा जी के दिये पैसे भी चुका दिये गए थे। पर इस महीने का घर का किराया देना अभी बाकी था। काम और माधव की देखभाल के चक्कर में, उसका ध्यान सूरज पर कम ही जाता। पूरा दिन बीतने के बाद, रात को ही वो सूरज से चार बातें कर पाती। अकेलेपन में सूरज का वो बचपना भी कहीं गुम हो गया था। ना कोई जिद, ना कोई नखरे, अब वो अपनी माँ के साथ सिर्फ़ कुछ पल बिताने में ही खुश था। समय की जरूरत के हिसाब से इंसान ढल ही जाता है।

उस दिन सूरज को खांसी और तेज बुखार था, शरीर आग छोड़ रहा था। वह पूरा दिन बस बिस्तर पर पड़ा रहा, कुछ खाया भी नहीं था उसने। देर शाम शांति वापस आई तो सूरज की ऐसी हालत देखकर घबरा गई। वो तुरंत एक कटोरे में ठंडा पानी और एक गमछा ले आई, और बार-बार पानी में बिघाकर सूरज के माथे पर रखने लगी। बुखार कुछ कम तो हुआ, पर अभी भी बना हुआ था। देर हो चुकी थी, तो उसने अगली सुबह ही सूरज को अस्पताल ले जाने का फैसला किया।

अगली सुबह, माधव को अस्पताल में देखकर, शांति जल्दी ही घर पर वापस आ गई। उसने सूरज को तैयार किया और पास के सरकारी अस्पताल की ओर निकल गई। अभी भी सूरज बुखार में तप रहा था। डॉक्टर ने कुछ दवाईयाँ लिखी, और नियमित रूप से उन्हें लेने के लिए कहा। घर पहुँचने पर शांति ने सूरज को खाना खिलाकर दवाईयाँ दे दी, "बेटू ये रोज खानी हैं हाँ, तभी तो फिर से पहले जैसा चुस्त-दुरुस्त बनेगा, अच्छा बच्चा है ना मेरा", सूरज ने 'हाँ' में सिर हिलाया। उसके सोते ही शांति फिर काम के लिए निकल गई।

कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। शांति की दिनचर्या अब और व्यस्त थी, वह सूरज का पूरा ध्यान नहीं रख पा रही थी। बुखार तो उतर चुका था, पर सूरज की खांसी और बड़ गई थी। खाने को तो वह बस चखता था और कमजोरी इतनी थी कि घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया। एक दिन खाने का निवाला मुँह में डालते समय, शांति ने सूरज के मुँह में खून देखा। उसके तो डर के मारे पसीने छूट गए। वह तुरंत सूरज को लेकर अस्पताल गई। डॉक्टर ने उसे अस्पताल में ही भर्ती करने की सलाह दी, निमोनिया हो गया था सूरज को। घबराई हुई शांति ने हामी भर दी और सूरज बच्चों के जनरल वार्ड में भर्ती करा दिया गया। उस नन्हीं सी जान को इतने इंजेक्शन लगते देख, शांति की रूह कांप जाती और आँखें नम हो आती।

एक ओर माधव, दूसरी तरफ सूरज, दोनों की देखभाल के लिए शांति ने कुछ दिन काम से छुट्टी ले ली। सूरज को भी उसी निजी अस्पताल में भर्ती करने का खर्चा नहीं उठा सकती थी वो। शर्मा जी शहर से कहीं बाहर गए हुए थे, तो उनकी मदद भी गैरहाजिर थी। जब सूरज सोया रहता, शांति घर जाकर खाना बना आती और एक चक्कर माधव को देख आती। वैसे तो कई समय से वो ईश्वर के दर पर गई ही नहीं थी, पर एक बार फिर उसने ईश्वर से फरियाद करना शुरु कर दिया, और कर भी क्या सकती थी वो।

दो दिन बीत गए थे पर सूरज की तबीयत जस की तस बनी हुई थी। रात को सूरज को खाना खिलाकर, शांति उसे सुला ही रही थी, कि सूरज बहुत धीमी आवाज में कुछ बोला, "बाबा कब आएँगे ?" सुनते ही शांति की आँखों में आँसू आ गए, पर उसने एक भी बूँद चेहरे पर ना आने दी। "जब तू एकदम अच्छा हो कर घर चलेगा ना मेरे साथ, तभी आएँगे। वो नाराज हैं, तुझसे भी, मुझसे भी, कि उनके दूर जाते ही उनके छुटकू की तबीयत कैसे खराब हो गई। इसलिये तू जल्दी से ठीक हो, फिर उनसे मिलने चलेंगे, ठीक ? अब सो जा," सूरज को पुचकारते हुए वो बोली।

मासूमियत और भोलेपन के कारण, बच्चे सब कुछ मान जाते हैं। किसी ख्वाब का एक बीज भी लगाओ अगर, हक़ीक़त का पूरा बगीचा तैयार हो जाता है। यही तो खासियत है बचपन की, एक विश्वास पर ही पूरी दुनिया टिकी होती है। पर असल जिंदगी इतनी खूबसूरत कहाँ, कल का छोड़ो, आज का कुछ पता नहीं होता। सूरज के सवालों का वो कब तक ऐसे ही जवाब देगी, शांति को कुछ पता ना था। उसे चैन से सोता देखकर शांति भी सुकून में थी, और उसे निहारते हुए वो खुद भी उसके पास लगी कुर्सी पर सो गई।

सुबह जब उसकी नींद खुली, सूरज सोया हुआ था। शांति घर की ओर निकल गई, सूरज के उठने तक खाना भी बना लाएगी और माधव के पास भी होकर आ जाएगी। घर पहुँची तो शर्मा जी मिल गए, बीती रात ही वो घर पहुँचे थे। खाना बनाते हुए उसने पिछ्ले दिनों का वृत्तांत शर्मा जी के समक्ष रख दिया। शर्मा जी ने दिन में ही सूरज से मिलने का फैसला किया। काम निपटाकर, शांति जल्दी से माधव के पास पहुँची तो उसे डॉक्टर और अस्पताल कर्मियों से घिरा देख वो डर गई। वहाँ पास जाने की हिम्मत न थी उसकी। कुछ देर बाद जब सब आईसीयू से बाहर आए, तो उसने नर्स से पूछा, "क्या हुआ ?", "माफ़ कर दीजिये, हम उन्हें नहीं बचा सके, एक घंटे में आप उनका शरीर यहाँ से ले जा सकते हैं"। नर्स के इतना कहते ही शांति के पैरों तले जमीन खिसक गई, वो धड़ाम से वहीं पर गिरी। नर्स ने उसे उठाया, बेंच पर बिठाकर पानी का गिलास दिया, पर उसके हाथ से वो गिलास भी छूट गया और सारा पानी जमीन पर फैल गया। "मैडम सम्भालिये खुद को", नर्स का वाक्य पूरा होने से पहले ही शांति उठकर चल दी, सूरज के पास। उसके मन में कोई विचार नहीं थे, बस आँखों से आँसुओं की नदियाँ बह रहीं थी, जिसे वो बार-बार पोछे जा रही थी। पर पानी था कि रुक ही नहीं रहा था।

अस्पताल की इमारत तक पहुँचते ही उसने चेहरे को पानी से धोया, अपने पल्लू से साफ़ किया और सूरज के पास जाने लगी। "उठ जा खाना खा ले", शांति ने सूरज को हिलाते हुए कहा, पर सूरज मानो गहरी नींद में था। "बेटू कुछ खा ले, फिर सो जाना", इस बार थोड़े प्यार के साथ बोली थी शांति, लेकिन फिर भी सूरज न उठा। शांति घबराने लगी, उसके पसीने छूटने लगे, उसने अब ज़ोर से सूरज को झगझोरा, सूरज तो फिर भी बेजान पड़ा रहा।

शांति ने सूरज को उठाने की सारी कोशिशें छोड़ दी, वह बस पास की कुर्सी पर बैठी रही। पूरी तरह से टूट चुकी थी वो। आँसू की एक बूँद न थी उसकी आँखों में अब, रो-रो कर आँसुओं का दरिया सूख चुका था उसका। उसे बस माधव की एक बात याद आ रही थी, जो उसने घर गांव का घर छोड़ते हुए कही थी, "मैं वादा करता हूँ सब पहले जैसा हो जाएगा"। शांति अब भावशून्य थी, वह उठी, खाने का डिब्बा कुर्सी पर रखा और सूरज को गोद में उठाकर वार्ड से जाने लगी। पास के एक व्यक्ति ने यह जानकारी एक अस्पताल कर्मी को दी, पर किसी के कुछ कर पाने तक सबकी नज़रों से ओझल होकर, शांति कहीं दूर निकल गई।

दिन में शर्मा जी सूरज को पूछते हुए अस्पताल पहुँचे, तो उन्हें पूरी घटना का पता चला। उन्होंने माधव के अस्पताल जाकर, घर जाकर, हर जगह जाकर देखा, जहाँ शांति मिल सकती थी, पर शांति और सूरज, किसी का कुछ भी पता ना चला, न उस दिन, ना कभी और।