Kshitij Paar in Hindi Moral Stories by Priyadarshini books and stories PDF | क्षितिज पार

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क्षितिज पार

क्षितिज पार

घर में घुसते ही मिसेज सिंह ने महिम के गालों पर झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया जिससे दूध का पूरा गिलास उसके नन्हें हाथों से छिटक कर दूर जा गिरा । और समूचा संगमरमरी फर्श दूध से मिलकर और ज्यादा झक सफेद हो गया । उधर रसोई में बर्तन साफ कर रही मीरा के दिल में इस थप्पड़ ने हजारों सुइयां एक साथ चुभो दी। उसका कलेजा छलनी हो उठा।

ऐसा लगना बेज़ा भी तो न था। 4 साल का नन्हा महिम उसकी इकलौती संतान जो थी। जिसे उसने दूध के बदले अपने खून से सींच-सींच कर बड़ा किया था । मीरा अभी सोच ही रही थी कि अचानक एक गरजती आवाज़ ने उसके कानों में मानों पिघलता उड़ेल दिया। “मीरा ये सारा दूध अभी का अभी साफ करो । मुझे 2 मिनट में पूरा कमरा साफ़ चाहिए । और हां, इस महिमा के बच्चे को जरा संभाल कर रखा कर। ये इसके बाप का मुफ्तखाना नहीं की जो मर्जी आये उसे चट कर जाये। आइंदा से इस बात का ख्याल रखना”। इतना कहकर मिसेज सिंह पैर पटकती अपने कमरे में चली गई । मीरा जड़वत खड़ी रही। बेडरूम से आते टीवी के शोर ने उसके सिसकन को कहीं दबा दिया । आँखों के कोर से लुढकते आंसू उस बेइंतहा दर्द को बयां कर रहे थे जिन्हें मीरा ने पिछ्ले कई सालो से भोगा और सहा था। फर्श पर गिरे दूध को साफ़ करती वह अतीत के समंदर में चली गई जहाँ मीलों लम्बें दर्द के रेत पसरे थे।

अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब मीरा के पिता लंबी बीमारी से जूझते-जूझते अचानक एक दिन इस दुनियां को अलविदा कह गए। उसके कुछ महिनों बाद ही अनुकंपा आधार पर बड़े भैया ने बाबूजी की जगह ले ली। बाबूजी के जाने के बाद घर की बिगड़ती माली हालत भैया के नौकरी में आते हीं पटरी पर आने लगी थी । पर जाने क्यों, भाभी का रवैया अचानक बदल -सा गया था। कल तक बाबू जी के भय से चूं तक न करने वाली भाभी अब बड़े-बड़े बोल-वचन करने लगी थी । उनके जुल्म की इन्तहा बढ़ती ही जा रही थी । जिसमें माँ और बेटी दोनों ही पिस रही थी।

भैया को धीरे-धीरे अपने नियंत्रण में लेकर भाभी ने घर की सारी बागडोर अपने हाथों में ले लिया। । घर और संदूक की चाबियां माँ के हाथों से छीन ली गई । ऐसे में माँ की मिल्कियत जाती रही। माँ अब चुप और गुमसुम रहने लगी थी। भाभी के गुस्सैल और अख्खड़ रवैये ने माँ को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया। भाभी के सामने उनकी अब एक न चलती। और भैया ने तो जैसे ख़ामोशी की चादर ही ओढ़ ली थी। या यूं कहें जानबूझकर चुप रहने का ढोंग करने लगे थे। वे भाभी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते और बस उनकी हाँ में हाँ मिलाते। उनकी अनुमति के बगैर न एक कदम बढ़ाते, न एक शब्द बोलते। उनकी हालत मदारी के उस बंदर की तरह थी जो अपने मालिक की डुगडुगी की आवाज पर थिरकता और इशारा पाते ही चुप बैठ जाता। लेकिन राहत की बात ये थी की नौकरी के चलते उन्हें ज्यादातर समय बाहर ही रहना होता जिससे उन्हें भाभी की बिछाई बिसात पर चाल चलने का कम ही मौका मिलता। लेकिन जब घर आते तो भाभी द्वारा बांधी गई झूठ और फरेब की पट्टियां उन्हें सब काला ही दिखाती। या यूं कहें वे उजाले में कुछ देखना ही नहीं चाहते थे।

कालचक्र अपना पहिया घुमाता रहा और समय उसमे तेज़ी से सिमटता रहा। ज़वानी की दहलीज़ पर कदम रखती मीरा उन्हें खटकने लगी थी।

वो जल्द से जल्द उससे छुटकारा पाना चाहती थी। भाभी की बेसब्री आखिरकार रंग लाई। उनके दबाब में आकर भैया ने आनन-फानन में मीरा के हाथ पीले कर दिए। लाख मना करने पर भी वे नहीं माने थे। आखिरकार मीरा को विदा होकर एक ऐसे परिवार में जाना पड़ा जहाँ उसके रंगीन सपनें धून्धलें पड़ गये और ख्वाहिशें ज़मींदोज़ हो गईं ।

हालात कुछ ऐसे बने की एक बार जो मायके वापस आयी तो कभी दोबारा ससुराल लौट कर नहीं गयी। घर वापसी के इस क्रम में वो अपनी कोख में नन्हें महिम का बीज भी ले आयी थी। तब से मीरा यहीं थी, अपने बाबूजी के पास। महिम उसकी गोद में आ चुका था। तब से अब तक इन 4 सालों में मीरा ने जाने कितनी चोटें खाई थी। उन बेहिसाब ज़ख्मों ने उसका सीना छलनी कर दिया था। उस दर्द को याद कर वो आज भी सिहर उठती है।

लेकिन मीरा की ज़िंदगी पहले तो कभी ऐसी न थी। उसे याद है जब बाबूजी ज़िन्दा थे तब उसकी जिंदगी कितनी प्यारी और खूबसूरत हुआ करती थी। बिल्कुल परी लोक की तरह। कितनी खुश थी वो। उसका, भैया , बाबूजी और अम्मा का एक छोटा सा संसार था। उसे याद है, कैसे सुबह- सुबह माँ उसे बिस्तर से जगाकर दूध का गिलास पकड़ाती। बाद में बाबूजी उसे अपने साथ लंबी सैर पर ले जाते। दोनों के बीच खूब लंबी बातें होती। बाबूजी से दुनियां भर की बातें बताते। कभी प्यार से उसे गोद में उठाते तो कभी चिहुंक कर कंधे पर बिठा लेते।

मीरा अपने घर की रानी थी तब। कोई उसका कहा नहीं टालता । जब भी, जो भी फरमाइश करती, बाबूजी झट से पूरी करते। अम्मा तो फिर भी कभी- कभार झिड़क देती । पर बाबूजी कभी भूलकर भी उसे न डांटते। पूरे मोहल्लें में उसकी रौब थी। रक्षाबंधन पर उसके भैया का दिया तोहफ़ा ही सबसे अव्वल आता। नये फैशन के जूते और कपड़े सबसे पहले मीरा के पास ही पहुँचते। मीरा के इस रौब से उसकी सहेलियों को जलन होती।

समूचे कस्बे में मीरा, पहली ऐसी लड़की थी, जिसने हाई स्कूल का इम्तिहान पास कर कॉलेज में दाखिला लिया था। सबको मीरा पर गर्व था। लेकिन बाबूजी के जाते ही जैसे मीरा के इस परिलोक का अंत हो गया। उसके जीवन के इंद्रधनुषी रंग फुरर्र से कहीं गायब हो गए। भाभी के आगमन और बाबूजी के अवसान ने सब कुछ बदल कर रख दिया था। मां ने तो जैसे खामोशी की चादर ही ओढ़ ली थी । भाभी के दिए गहरे ज़ख्म, माँ को तिल- तिल कर मार रहे थे। मीरा की भी कमोबेश यही हालत थी। उसने खुद को जैसे एक छोटे से खोल में सीमित कर लिया था। अपनी इच्छाओं का दमन कर वो एक मृतप्राय मीरा बन चुकी थी।

अक्सर छुप-छुप कर बेबसी के आंसू रोती। फिर मन को सांत्वना दे खुद ही चुप हो जाती।

भाभी के इशारों पर दिन भर कठपुतली बने रहना उसकी नियति बन गयी थी। उसके नाज़ुक कंधों पर घर का सारा बोझ आ गया था। दिनोदिनों भाभी के बढ़ते अत्याचार ने मीरा की मासूमियत को कही दफ़न कर दिया था। अब वो ज्यादातर समय चुप रहती । कोई प्रतिकार न करती। घर में काम के घंटों को दोनो माँ- बेटी के बीच बांट दिया गया था। सुबह के नाश्ते से लेकर दोपहर के खाने का सारा जिम्मा मीरा के कंधों पर था । और शाम का खाना माँ ने संभाल लिया था । इसके अलावा भाभी की किट्टी पार्टियों में परोसी जाने वाली चाय -बिस्कुट और नाश्ते का जिम्मा माँ के कंधों पर था। इसमें चूंक का मतलब था भाभी का कोपभाजन बनना । बेचारी सारे दिन गर्मी में मर- मर कर रसोई संभालती और गलती से कभी कुछ कमी रह जाती तो बुरी तरह तिरस्कृत होती । मीरा,मां की बेबसी देख मन ही मन दुखी होती, लेकिन चाह कर भी कुछ न कर पाती।

दिन पंख लगाकर उड़ते रहे।

इसी बीच चिंकी, एक नन्ही परी बनकर भाभी की गोद में आ गयी। महिम और चिंकी साथ- साथ बड़े हो रहे थे। दोनो थे तो हमउम्र लेकिन उनकी हैसियत में ज़मीन -आसमान का फर्क था। महीम को जहां कभी कोई दूध नसीब नही होता वही चिंकी भर-भर कर ढूध पीती । चिंकी की आलमारी तरह-तरह के ड्रेस और महंगे खिलौनों से अटे पड़े थे । वहीं महीम को मीरा के बनाए कपड़ों के खिलौनों से ही संतोष करना पड़ता। चिंकी एक नामी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ती लेकिन महिम मां का पल्लू पकड़ें सारे दिन स्कूल जाने की ज़िद करता।

मीरा ने इतने सालो में जैसे एक साथ जीवन की कई यात्राएं पूरी कर ली थी। उसके जीवन की रेलगाड़ी बिना स्टेशन के भागती ही जा रही थी । जिसका न कोई अंत था ,न पड़ाव । ज़िंदगी कड़वाहट भरे जायके ने उसे असमय बूढा कर दिया था। बेरंग और नीरस ज़िन्दगी की लाश जाने कब से अपने बेजान कंधों पर ढोये जा रही थी वो।

फर्श साफ़ करते करते कांच का एक टुकड़ा मीरा की उंगलियों में धंस गया जिससे अचानक उसकी तंद्रा टूटी । अतीत की तंग और अँधेरी गलियों से वो बाहर आ चुकी थी। पलकों पर लुढ़क आए आंसू कब के सूख चुके थे । वह उठने ही लगी थी कि तभी भाभी की कर्कश आवाज कानों को चीरती उस तक पहुची। “मीरा मैं चिंकी को लेकर कुछ दिनों के लिए अपने मायके जा रही हूं। तुम मेरे पीछे यहां सब संभाल लेना। और हां,खबरदार जो मेरे पीछे ज्यादा जीभचटोर बनें। वापस आकर मैं एक- एक चीज़ का हिसाब लूंगी "।

भाभी की इन बातों से मीरा को गहरा धक्का लगा। उसका मन आत्मग्लानी से भर उठा। वितृष्णा और क्षोभ को दबाकर उसने भरे गले से चिंकी को गोद में उठाकर चूमा और बोली,“बेटा जल्दी घर वापस आना । तुम्हारे बगैर तुम्हारी बुआ का मन बिल्कुल नहीं लगेगा । भाभी ने फटाक से चिंकी को खींचकर मीरा से अलग किया और बाहर चली गयी। भाभी के इस दुर्व्यवाहार से मीरा आहत हो उठी।

कुछ दिनों बाद भाभी ने चिंकी के बीमार होने की खबर घर भिजवाई। पता चला उसे कोई बड़ी बीमारी हुई थी। और उसे शहर के किसी बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया थी। उसकी हालत बहुत खराब थी। बचने के आसार कम थे। मीरा को अस्पताल का पता मालूम न था । आनन-फानन में माँ को साथ लेकर पूछते-पूछते अस्पताल पहुची। वहाँ चिंकी की नाज़ूक हालत देख उसका कालेज जी को आ गया। तभी गलियारे से आती आवाज़ ने उसे चौकन्ना कर दिया। भाभी, डॉक्टर से गिड़गिड़ाते हुए कह रही थी,”डॉक्टर साहब, "मेरी चिंकी को बचा लीजिए। मैं उसके बगैर जी नहीं सकती। प्लीज डॉक्टर साहब कुछ कीजिये। भगवान के लिये उसे बचा लिजिए । ”

देखिये हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। हम जितना भी कर सकते थे, कर चुके। अब जो करना है आपको करना है । क्योंकि चिंकी के पास अब बहुत कम वक़्त है," डॉक्टर ने कहा।

मीरा को समझते देर न लगी कि चिंकी बहुत बड़ी मुसीबत में है। अगर जल्दी कुछ नहीं किया गया तो उसकी जान भी जा सकती है।

उसके कदम स्वतः ही डॉक्टर के केबिन की ओर बढ़ चले। डॉक्टर से मिलकर पता चला कि पिंकी को किडनी की कोई गंभीर बीमारी है। उसके दोनों किडनी पूरी तरह काम करना बंद कर चुके थे।

अगर उन्हें तुरंत नहीं बदला गया तो किसी भी पल पिंकी की जान जा सकती थी। मीरा को तुरंत फैसला पर उतरना था। एक पल भी गंवाये बिना उसने अपना फैसला डॉक्टर को सुनाया । सुनकर डॉक्टर हतप्रभ था। पहले तो उसने मीरा को समझाने की बहुत कोशिश। और उसेअपने फैसले पर दोबारा विचार करने को कहा । पर जब मीरा नहीं मानी तो डॉक्टर को अपनी राय बदलनी पड़ी।

उसे मीरा के अनुरोध को स्वीकारना पड़ा। मीरा ने उनके बीच की बात को गोपनीय रखने की गुजारिश की। डॉक्टर ने एक बार फिर मीरा को समझाने की कोशिश की लेकिन मीरा ने तो जैसे ठान ही रखा था की किसी भी कीमत पर वो अपना इरादा नहीं बदलेगी।

ये मीरा के जीवन का सबसे बड़ा फ़ैसला था । उसने माँ को फोन कर अस्पताल आने को कहा। उधर अस्पताल प्रशासन ने भी डोनर मिलने की बात कहकर मिसेज सिंह को जल्दी ही अस्पताल बुला लिया। उनके बार-बार पूछने पर भी पर भी डॉक्टर ने डोनर के बारे में कुछ नहीं बताया। अगले कुछ घंटे चिंकी के लिए भारी थे । उसका एक- एक पल कीमती था । अंदर चिंकी की खराब किडनियों को बदला जा रहा था,बाहर मिसेज सिंह की सांसे उपर-नीचे हो रही थी। कई घंटों की लंबी खामोशी के बाद अचानक ऑपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला । सफ़ेद रूई के फाहों में लिपटी चिंकी स्ट्रेचर पर दिखी। उसके धड़कते सीने को देख मिसेज सिंह की जान में जान आई। उन्होंने नम आंखों से डॉक्टर का शुक्रिया किया । इस पर डॉक्टर ने कहा, " मिसेज सिंह, शुक्रिया मेरा नहीं उस माँ का कीजिये जिसने अपने जिगर के टुकड़े को आपकी चिंकी के लिए दांव पर लगा दिया"।

तभी स्ट्रेचर पर एक जानी पहचानी बॉडी देख मिसेज सिंह बेतहाशा दौड़ पड़ी । नज़दीक पहुंच वो सन्न रह गयी। उनका कलेजा मुंह को आ गया। आंखें फटी की फटी रह गई । चेहरे का रंग पीला पड़ गया। वो मन ही मन खुद को कोसने लगी। जिस मीरा को ताउम्र वे अपमान और ज़िल्लत के सिवा कुछ दे नहीं पाई। आज उसी मीरा ने अपने जीवन का सबसे कीमती गहना उन्हें तोहफे में दे दिया था । मीरा का कद उनसे कई गुना बड़ा हो गया था । अपने त्याग और बलिदान से मीरा ने उन्हें उम्र भर के लिए ऋणी बना दिया था । उसने अपनी झोली मिसेज सिंह के लिये खाली कर दिया था। यह जीवन का उत्सर्ग था।

मिसेज सिंह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाह रही थी ताकि वो अपने गुनाहों की माफी मीरा से मांग सके। वो तेज़ी से घर की ओर भागी । लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। मीरा और मां के कदम हमेशा हमेशा के लिए किसी अंजान सफ़र पर निकल चुके थे। चिंकी को जिंदगी की नई रोशनी देकर नन्हा महिम दूर क्षितिज में कहीं अस्त हो चुका था।

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लेखिका---डॉ दर्शनी प्रिय