धनी राम था एक मस्त पंसारी.
अगर माप-तौल में डंडी मारता था तो बच्चों को रूंगा (थोड़ा ज़्यादा) भी देता था.
उसकी दुकान में घरेलू इस्तेमाल का सारा सामान बिकता था. नून, तेल, गुड़ से लेकर दाल-चावल-गेहूं और झाड़ू ,दातून तक.
लाला अकेला सारी दुकान संभालता था. कंजूस था इसलिए नौकर-चाकर नहीं रखता था.
सुबह आठ बजे दुकान खुलती थी और रात को आठ बजे बंद होती थी.
दोपहर एक बजे लाला धनी राम के घर से चार डिब्बों वाले टिफिन कैरियर में खाना आता-पूरी, सब्जी, दाल, चावल, अचार और छाछ.
लाला गद्दी पर चौकी लगाता. डिब्बा खोलता. बड़े चाव से खाना खाता. फिर तसल्ली से एक लंबी डकार लेता और डिब्बा समेट कर, चश्मा माथे पर चढ़ाकर, मुंह खोलकर, दुकान को खुला रखकर ही सो जाता.
हां सोने से पहले एक पुरानी सिलेट पर चॉक की खड़िया से लिखता-
दुकान
बंद
है
लाल के खर्राटे शुरू करते ही एक दूसरी दुनिया शुरू हो जाती .
सबसे पहले मोटे कांच वाला चश्मा पहने एक नटखट लड़की दबे पांव आती. चॉक-खड़िया उठाती और लाला की सिलेट पर तीन अक्षर और जोड़ती, जिससे लाला का लिखा यूं बन जाता-
दुकान दार
बंद र
है
और भाग जाती.
उसके बाद एक मोटा चूहां प्रकट होता और सामान के बोरे-डिब्बों पर अपनी पूंछ फटकारते हुए बोलता-
ये दुकान मेरी है.
जो चाहे खाऊंगा,
जो चाहे बेचूंगा
मगर पहले लाला का बचा खाना खाऊंगा.
यह कहकर वह लाला के टिफिन बॉक्स की तलाशी लेने लगता.
उसकी बात सुनकर बोरों में बैठे-लेटे दाने-मटर, चना, गेहूं, धनिया, मिर्च, आलू, प्याज, बादाम, अखरोट सब हो-हो कर हंस पड़ते.
तभी एक गौरय्या फुर्र-फुर्र करके आती.
एक मेज पर पैर टिकाती और सबको डांट कर जोर से बोलती -चुप्प!
तुरंत सन्नाटा छा जाता.
गौरय्या अपने पंख फुलाकर, डरावनी दिखने की कोशिश करते हुए फिर बोलती, ‘‘ खा जाऊंगी! कच्चा!! और साथ-ही-साथ, बाजरे की बोरी में चोंच मारकर चार बाजरे निगल जाती.
दानों की दुनिया में हाहाकार मच जाता. सब के सब मटर के दाने की तरफ देखने लगते.
मटर का दाना, खड़ा होकर दया का गीत गाने लगता.
उड़द, मटकी और अरहर के दाने एक साथ विलाप राग छेड़ते.
तब गौरय्या परेशान होकर पूछती, ‘‘ मैंने, ऐसा क्या कहा, कि तुम सब रोने लगे. ये तो सरासर ज़्यादती है.’’
ऐसा हर रोज होता. दाने चुप हो जाते और गौरय्या चुन-चुन कर दाने चुगती. कुछ दाने पोटली में भरती और लाला के जागने से पहले ही फुर्र से उड़ जाती.
मगर एक दिन ऐसा नहीं हुआ.
गौरय्या ने अपना डायलॉग दोहराया और चने का दाना तन कर खड़ा हो गया और पूरी आवाज में बोला, ‘‘ ज़्यादती हमारी नहीं तुम्हारी है?’’
गौरय्या ने चौंक कर पूछा, ‘‘ क्या कहा?’’
बाकी सभी दानों ने एक साथ कहा, ‘‘ सच कहा.’’
इससे चने के दाने का हौंसला बढ़ गया, वह बोला, ‘‘ तुम हमेशा मनमानी करती हो, रोज हमें खाती फिरती हो. कभी तो बदला चुकाने की सोचो. हमारी आजादी की सोचो. हमारा नामोनिशान मिटने से बचाओ.’’
गौरय्या चकराई ‘‘ मगर कैसे?’’
सब चुप हो गए. तभी लाला की बची जलेबी खाकर खुश हुआ चूहां बोला, ‘‘ तरीका मैं बताता हूं! हर बोरी से एक दो दाने ले जाओ और बाहर नदी किनारे मिट्टी में बो दो.
जल्दी ही बरसात शुरू हो जाएगी. ये सब नए रूप में जी उठेंगे ’’.
गौरय्या सर हिलाकर बोली, ‘‘ आयडिया तो अच्छा है, चलो आज से ही ऐसा शुरू करती हूं.’’
और इस तरह गौरय्या हर बोरी, हर डिब्बे से एक-दो दाने चुन कर उन्हें नदी किनारे की जमीन पर दबाने लगी.
कई दिनों के बाद जब काम पूरा होने को था, एक बारीक सा दाना, जो कि उस दुकान का सबसे छोटा और सबसे बदरंग दाना था, गौरय्या के पास आकर बोला, ‘‘ मुझे भी ले चलो.’’
गोरय्या उसे देख हंस कर बोली, ‘‘ मगर तुम हो कौन?’’
वह दाना बोला, ‘‘ मैं हूं अनजाना, मुझे अपने नाम, जाति और गुण का कोई पता नहीं.’’
यह सुनकर बाकी दाने खिलखिलाकर हंस पड़े. लगे उसका मजाक उड़ाने, मगर गौरय्या को उस पर दया आ गई, वह बोली, ‘‘ ठीक है चलो तुम्हें भी ले जाती हूं.’’
गौरय्या की बात सुनकर और तीन बेढंगे, बदसूरत दाने भी आ गए और बोले, ‘‘ यहां हमसे ना कोई बोलता है, न खेलता है, हमें भी ले चलो.’’
गौरय्या बोली, ‘‘ चलो तुम भी’’
फिर वह दानों की तरफ मुड़कर बोली, ‘‘ मैं जा रही हूं अपनी बहन के घर रहने उसकी आंखों का ऑपरेशन हुआ है. उसका घर संभालने. लौटूंगी तीन महीने बाद. तब फिर तुमसे होगी मुलाकात.
यह कंकर गौरय्या फुर्र से उड़ गई.
फिर आए बरसात के दिन. झमाझम पानी बरसा. मौसम बदला. हवा चलने लगी. ठंड बढ़ने लगी. लाला लंबा कोट पहन पर आने लगा.
और कई महीनों के बाद गौरय्या के फिर से दर्शन हुए.
उसी समय. दोपहर में. जब लाला खर्रांटे भर रहा था.
गौरय्या एक मेज पर आ कर बोली, ‘‘ खुशखबरी लाई हूं. चने, मटर, मूंग, अरहर, धनिया मिर्च सबने नया जन्म लिया है. हरे-हरे सुंदर पौधों के रूप में. जब हवा चलती है तो झूमते हैं. वे मिट्टी से पानी, खाद चूस कर बड़े हो रहे हैं और बहुत खुश हैं. वे पत्ते हिला-हिला कर तुम्हें धन्यवाद कहते हैं. कुछ दिनों बाद उनमें फूल खिलेंगे, फिर फलिया आएंगी. उनमें नए दाने भरेंगे और वे और बढ़ेंगे. फैलेंगे’’
यह सुनकर दाने खुशी से खिलखिला उठे.
सिर्फ़ कोने में पड़ा एक दाना उदास पड़ा रहा.
गौरय्या उसकी तरफ मुड़कर बोली, ‘‘ अरे अनजाना के भाई, अब उदास मत रहो. तुम्हारी पहचान हो गई. तुम्हारा भाई अब बरगद का पौधा बन गया है. वह तेजी से बढ़ता जा रहा है. बड़े-बड़े पत्ते और मोटी-मोटी शाखाएं निकल रही है.’’
चने का दाना तैश में आकर बोला, ‘‘ ऐसा कैसे, हमारे सौवें हिस्से जितने, काले-बदरंग दाने के अंदर इतना बड़ा वृक्ष कैसे?
गौरय्या मुस्कराकर बोली, ‘‘ यही तुम सब के लिए सीख है. जिसे तुमने हमेशा अनदेखा किया वह अंदर से कितना विशाल हो सकता है. याद रखो, बरगद केवल कद-काठी में ही विशाल नहीं होता है, बल्कि दिल से भी बहुत उदार होता है.
वह अनेक पक्षियों, पशुओं को आश्रय देता है.
फल देता है. हवा को शुद्ध करता है.
छांव देता है. और हजार-हजार वर्ष तक जिंदा रहता है.’’
यह सुनकर चने का दाना अपनी जगह से उठा और आगे बढ़कर अनजाना के भाई को गले से लगा लिया.
यह देखकर सभी दानों के आंखों से आंसू आ गए और सब एक सुर में खुशी का गीत गाने लगे.
तभी सबने देखा, चूहां लाला के सिर पर खड़े होकर ठुमक-ठुमक कर नाच रहा है.