1. तुम्हारे स्वर का सम्मोहन
तुम्हारे अनुराग की तरह,
तुम्हारे स्वर का सम्मोहन भी अद्भुत है,
अपनत्व की सघनतम कोमलता,
और सत्य की अकम्पित दृढ़ता का
ये संयोग तुम्हारे पास ही हो सकता है.
और स्वरों के इसी अपरिमेय सम्मोहन ने
मुझे उस एक क्षण में स्तंभित कर दिया I
उस दिन सब उदास थे,
सबको लगता था तुम चले जाओगे.
मुझे राग, अनुराग और विराग रहित,
नेत्रों से,अपलक अपनी ओर देखते हुए,
तुमने अपनी स्नेहमयी सम्मोहिनी वाणी में
सदा की तरह, भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ
मेरे निकट आकर कहा था,
मैं जहाँ आ गया वहाँ से कभी जाता नहीं,
वृन्दावन से भी नहीं जाऊंगा, क्योंकि
मैं तो इसके कण कण में बस गया हूँ.
ऐसे चित्रलिखित सी क्या देख रही हो,
ये जमुना जल मैं ही तो हूँ, संदेह हो
तो देखो, हमारे वर्ण भी एक जैसे हैं – श्यामल
वो कदम्ब भी मैं ही हूँ, और उसकी छाया भी.
यदि मैं ना होता तो क्या वृंदा होती यहाँ,
और क्या ये वृन्दावन कहलाता ?
अब तो मानती हो कि मैं आकर कभी जाता नहीं I
युग बीत गए #कृष्ण मैं आज भी उसी सम्मोहन में जी रही हूँ.
वैसे ही तुम्हारे साथ, जमुना तट पर, कदम्ब की छाया में.
2. तुम्हारे साथ चलते हुए
युग बीत चले,यूँ ही
तुम्हारे साथ चलते हुए।
अब तो स्मरण भी नहीं,
कब,कहाँ,क्यों और कैसे,
आरम्भ हुई थी ये यात्रा?
ये हमारे प्रेम की यात्रा है।
इसका न आरम्भ है,
न मध्य,और न ही अंत।
क्योंकि ये यात्रा ही तो
सम्पूर्ण सृष्टि की कारक है।।
3. हम दोनों में वाचाल कौन
तुमको अपनी बातों के लिए,
मेरी तरह शब्दों का,
आश्रय नहीं लेना पड़ता,
इसीलिए तुम कह जाते हो,
मन की न जाने कितनी बातें,
और किसी को भान भी नहीं होता
कि तुम इतने #वाचाल हो।।
मोरपंख से सजे, कुंतल,
जमुना की गहराई वाले नयन,
भुवनमोहिनी मुस्कान,
बाँसुरी की तान।।
लहराता पीताम्बर,
त्रिभंगी मुद्रा,और
चञ्चलता के शिखर पर भी,
संतृप्ति भरी शांति....
सब करते हैं,कुछ
विशिष्ट बातें,स्नेह की,
अपनेपन की,साथ की,
साहचर्य की,प्रेम की।
मैं उत्तर दूँ,शब्दों का आश्रय ले,
तो वृंदावन मुझे वाचाल कहेगा।।
4. तुम अद्भुत हो
तुम अद्वितीय नहीं हो।
तुम अद्भुत हो।
अद्वितीय होना,
कभी न कभी,
कहीं न कहीं,
किसी न किसी
रूप में,तुलनात्मक
बना देता है।
तुम तुलना से परे हो,
इसलिए तुम,
अद्वितीय नहीं,
अद्भुत हो।
5. कान्हा शीघ्र करो उपचार
तरसी आँखे,
ताकें हर पल,
कब कुंतल मेघ घिरेंगे?
सूना सा मन,
सोचे हर पल,
कब साँवरे कृष्ण मिलेंगे?
प्रीत बढ़ी,
ज्वर सी चढ़ी
हर न ले यह प्राण,
कान्हा #शीघ्र करो उपचार।।
छेड़ो कोई ,
मिलन रागिनी
लो बाँसुरी अब हाथ,
कान्हा शीघ्र करो उपचार।।
6. केवल तुम
चिलचिलाती धूप हो,
या बहा ले जाने को आतुर तूफान,
झर झर बरसता सावन हो
या बरसात की आस में
मन में दरारें पड़ गयी हों।
सुख का हिंडोला हो,
या दुख की मार।
मन ख़ुशी से झूम रहा हो
या भीड़ में घूम रहा हो
केवल तुम ऐसे हो,
जो कभी साथ नहीं छोड़ते कृष्ण
तुम अद्भुत हो कृष्ण, केवल तुम
7. योग्य तुम्हारे
कहो कान्हा,
बनूँ कैसे,
योग्य तुम्हारे?
तुम निश्च्छल मन,
में ईर्ष्या वश,
आऊं कैसे,
निकट तुम्हारे?
तुम बंसी धुन,
में कर्कश स्वर,
बैठूँ कैसे
अधर तुम्हारे?
तुम शांत चित्त
में चंचल मन,
थामूं कैसे
हाथ तुम्हारे?
तुम सदानंद,
में अतृप्त मंद
झांकू कैसे,
हृदय तुम्हारे?
प्रतिपल सोचूँ,
तुम ही कह दो,
जैसी भी हूँ,
मैं ही हूँ एक,
योग्य तुम्हारे ।।
8. कटु वचन
कहे न जाने,
कटु वचन,
कितनी कितनी बार,
साथ हमारे,
जब गिरधर थे,
समझे न इक बार।।
छीनी बाँसुरी,
रुष्ट हो गए,
छोड़ी करनी बात,
कैसा कटु व्यवहार किया,
अपने कान्हा के साथ?
झर झर बरसें,
नयन आज,
जब स्मृति अकुलाए,
कहे गए,
जो कटु वचन,
कभी न वापस आएं।
8. मैं तेरी आभारी कान्हा
ऐसे कैसे कह दूँ,
आभारी हूँ तुम्हारी?
तुमने ऐसा कुछ किया क्या?
कभी कालिंदी तट पर,
कभी कदंब मूल पर,
मैं बार बार रूठी
तुमने बार बार मनाया।
तो इसके लिए आभार मानूँ क्या?
ये तो हमारी,प्रीत की रीत थी।
मैं तो इसलिए रूठा करती थी,
जिससे तुम्हें मनाने का आनन्द मिल सके।
तुमने कभी दुर्वासा के क्रोध से,
कभी कौरवों के पाप से,
मेरी बार बार रक्षा की।
कई बार मुझे राह दिखाई।
तो इसके लिए आभार मानूँ क्या?
ये तो तुम्हारा सखा धर्म था।
तुमने अपना धर्म निभाया,
तुमने मुझे सखी कहा,
तो मैंने तुम्हें पुकार लिया।
तुम मेरी पुकार सुनते ही आ गए
तो इसके लिए आभार मानूँ क्या?
तुमने मेरे समर्पण को स्वीकार किया,
राणा के विष से मेरी रक्षा की।
तो इसके लिए आभार मानूँ क्या?
जब तुम ही मेरे सर्वस्व हो,
तो मेरी रक्षा और कौन करता गिरधर
अब मैं इसके लिए,आभार मानूँ क्या?
मैं ये रूठने मनाने के आनंद,
रक्षा करने और राह दिखाने
का कर्तव्य पूरा करने के लिए मैं
तुम्हारी किंचित भी #आभारी नहीं हूँ।
में आभारी हूँ,तुम्हारे उस बड़प्पन की
जो मुझे अपना अंश मानता है।
जो मुझे अपना विस्तार कहता है।
हाँ माधव,मैं आभारी हूँ तुम्हारी
क्योंकि मैं तुमसे ही जन्मी हूँ,
क्योंकि तुममें ही विस्तृत हूँ,और
क्योंकि मैं तुम में ही विलीन हो जाऊंगी।।
कान्हा,मैं सच में तुम्हारी आभारी हूँ।।
9. विलक्षण
तुम नहीं,
तुम्हारी सरलता
विलक्षण है।
तुम नहीं,
तुम्हारा स्नेह
विलक्षण है।
तुम नहीं,
तुम्हारा अपनापन
विलक्षण है।
तुम नहीं,
तुम्हारा होना
विलक्षण है।
तुम नहीं,
तुम्हारा साथ
विलक्षण है।
तुम नहीं,
तुम्हारी अनुभूति
विलक्षण है।
तुम नहीं,
तुम्हारा मुझ को,
आवृत कर लेना
विलक्षण है।
मैं नहीं,
मेरा तुम में होना
विलक्षण है।
10. तुम
तुम,
तुम्हारा साथ,
तुम्हारा हाथ,
तुम्हारी बात।
तुम,
तुम्हारी आंखें,
तुम्हारी दृष्टि,
तुम्हारे स्वप्न।
तुम,
तुम्हारे अधर,
तुम्हारी मुस्कान,
तुम्हारी बाँसुरी।
तुम,
तुम्हारा स्नेह,
तुम्हारा ताप,
तुम्हारी शीतलता।
तुम,
तुम्हारे स्वर,
तुम्हारे गीत,
तुम्हारा संगीत।
तुम,
तुम्हारा रूठना,
तुम्हारी अकुलाहट,
तुम्हारा मानना।
तुम,
तुम में डूबना,
तुम में तैरना,
तुम में घुल जाना।
यही तो जीवन है कृष्ण ।।