मासूम गंगा के सवाल
(लघुकविता-संग्रह)
शील कौशिक
(7)
नाम की डुबकी
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पाप और पुण्य की
अवधारणाओं से दूर
गंगा की दिव्य अनुभूति से
अभिभूत हो
लगा ली एक डुबकी
उन सभी के नाम की
जो आ नहीं पाते यहाँ
पर उनकी आकांक्षाओं में
सदैव शामिल होती है
गंगा की डुबकीI
सार्थकता नदी की
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दोनों हाथ जोड़ कर
खड़ी थी गंगा किनारे
सकुचा रही थी
कैसे धरूँ पैर
गंगा के उजले तन पर
तभी पानी की
एक तेज लहर आई
पौड़ी पर रखे
मेरे पैरों को भिगो गई
सार्थकता अपनेपन की दर्ज करा गईI
बहते सपने
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जब-जब भी आँखों में
आँजती हूँ अंजन
तुम याद आती हो गंगा
और याद आते हैं तुम्हारे किनारे भी
किनारों के बीच बहते पानी से
बहने लगते हैं सपने
काजल की सीमाओं में
बंधी मेरी आँखें
और किनारों में बंधी तुम
ये बंधन हमारी किस्मत में
क्यों बदा है सखीI
कविता हो गया
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ममत्व, त्याग, वात्सल्य की
त्रिवेणी गंगा मैय्या के
सान्निध्य में
किसका मन न निर्मल हो जाए भला
मेरा मन भी गंगा के जल-सा
निरंतर प्रवाहशील
मानो सरिता हो गया
फिर मन से निकला
हर अहसास
कविता हो गयाI
हम कदम गंगा के
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गंगा नदी के साथ
हमकदम हो चली कुछ देर
हो गई मैं भी उर्जावान
मानो उतर आई उसकी
तीव्रता और गहराई
बनकर मेरा ही एक हिस्सा
अब जब तक मैं जीवित रहूंगी
जीवित रहेगा गंगा का वह मंजर
तलाशेंगी नजरें
उसे ही बार-बारI
अलौकिक दृश्य
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गंगा के दैवीय तन पर
दूर तक फैली रोशनी
हवन के मन्त्रों का जाप
शंख की आवाज
हवाओं में चंदन की खुशबू
तट पर चहूँ ओर फैली
श्रद्धा की बयार
चारों दिशाओं से
जय-जयकार का घोष
कराता है अलौकिकता का अहसासI
वंचना लिखी
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मानव के नाम पर
जब वंचना लिखी
तो आग बरसाता आसमान
आँसू पीती धरती लिखी
तुम्हारे मन के आसमान पर
पीड़ा की लीक
अकेले रास्तों की भटकन लिखी
और लिखा
तुम्हारे मन का गीलापन
जब भी मैंने लिखा तुम्हेंI
अजनबी रास्तों पर
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गंगा तय करती है
गंगासागर तक का रास्ता
हर रोज़ अजनबी से ताकते हैं
रास्ते उसे
कहीं किसी मोड़ पर
खड़ा अकेला पेड़
सिहर उठता है
हर बार दुबली होती जाती
अंदर से रीतती जाती
नदी को देख करI
खफ़ा हुआ सागर
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कुछ खफ़ा हुआ सागर
इस बार गंगा से कहा उसने
मीठा जल लाने वाली
पहले तुम थी सदानीरा
लाकर प्रदूषित जल
अब घोट रही हो मेरी सांसे
बहुत पानी है मेरे पास भी
नहीं दे सकती अगर मिठास
तो न दो मुझे कचरा
और दुर्गन्धयुक्त पानीI
नदी की पीड़ा
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किनारों पर पछाड़ खाती
सर धुनती प्यास लेकर
जाती है नदी बहकर
बहुत दूर सागर के पास
अपने भीतर के जल का अक्स दिखा
लुभाता है सागर उसे
नहीं समझता वह
उसके भीतर की प्यास को
आद्रता को
उसके अंतर्मन की पीड़ा को
केवल नदी नहीं
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गंगा नदी
केवल नदी ही नहीं होती
वह है एक आत्मा
बहती है जो
हमारे दिल
और दिमाग से होकर
उसमें पानी ही नहीं बहता
बहती है करोड़ों लोगों की
आजीविका
और उनके सुनहरे सपनेI
चुलबुली लहरें
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किसी ने मुझे पुकारा हो जैसे
पीछे मुड़ कर देखा मैंने
वहाँ कोई नहीं था
थीं तो केवल
गंगा की चुलबुली लहरें
जो निरंतर आगे बढ़ती
कोलाहल करती
नन्हीं बच्ची-सी कर रही थी
आमंत्रित मुझे भी
अपने साथ बहने कोI
स्मृतियों का चंचल जल
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तुम्हारे बहते पवित्र जल में
न फफूंद उगती है
न काई जमती है
और न ही खिलती है कोई कुमुदिनी
तुम्हारी स्मृतियों का चंचल जल
रुकने ही नहीं दे रहा
मेरी कलम को
सोचती हूँ
कब मैं शांत स्थिर भाव लेकर
दूं विराम अपनी कलम कोI
गंगा को लिखना
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गंगा को लिखा मैंने
पृष्ठों के बीचों-बीच
फिर भी लगा जैसे रह गया है
अभी बहुत जरूरी कुछ लिखना
हाशिये रख छोड़े हैं
मैंने सुरक्षित
कहने के लिए
गंगा के मन की बात
मेरे अपने
प्रणम्य अंतर सम्बन्धों कीI
जब-जब लिखा तुम्हें
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मैंने जब भी लिखा तुम्हें
कड़ी धूप में
सफर के बाद की
छाँव लिखी
और लिखा तन-मन पर
ठंडक का अहसास
तुम्हारे जल में आनंदित होते जलचर
तुम्हारी लय का ईश्वरीय संगीत
अंकुरराती मौन की इबारत
और लिखी तुम्हारी गतिशीलताI
कहाँ लिख पाई
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बड़े मनोयोग से लिखा
गंगा तुम्हारे बारे में
उतर आये सभी रूप-रंग
समस्त भावनाएं
मेरी लेखनी में
निखर-निखर गई मेरी लेखनी
पर कहाँ बाँच पाई
मैं तुम्हेँ सम्पूर्णता में
मैं सोचती रहती हूँ
आज भीI
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समाप्त