चिरइ चुरमुन और चीनू दीदी
(कहानी पंकज सुबीर)
(6)
उस दिन झाँकी का वो समय कैसे कटा हम ही जानते हैं । शोएब तो पुराने टायरों से बनाये गये कालिया नाग के फन पर खड़ा हो गया और इधर हम सारे गोप ग्वाले उत्सुक थे ये जानने को कि आख़िर बात क्या हुई, और क्या क्या हुआ । मगर उसके लिये अगले दिन तक का इंतज़ार करना था क्योंकि झाँकी रात के नौ बजे ख़त्म होती थी । उसके बाद ग्रीन रूम में हमारे मेकअप उतारने का काम एक बार फिर चीनू दीदी ने किया। मेकअप और साज सज्जा करने तथा उतारने का काम दोनों ही बड़ी एहतियात से करना होता था । महँगी-महँगी मम्मियों की साड़ियाँ जिनकी धोती हमारी झाँकी के मुख्य पात्र पहनते थे उनको तथा दूसरी सामग्री को नुकसान न पहुँचे इसलिये इस काम के लिये चीनू दीदी को ही कहा गया था । बाकी के हम सब ने तो अपने अपने सामान खुद ही उतार लिये लेकिन शोएब को एक बार फिर से चीनू दीदी ने ही अनफोल्ड किया । उसकी धोती उतारी, अंगवस्त्र हटाया और कॉटन से पूरा शरीर साफ किया । खाली अंडरवियर पे खड़ा शोएब चुपचाप सब करवाता रहा । पूरी प्रक्रिया में घंटा आधा घंटा लगा, और उसके बाद हम सब अपने अपने घर चले गये ।
अगले दिन जो पता चला उससे हम सबने शोएब को गोद में उठा लिया । शोएब के अनुसार उसने चीनू दीदी जब उसकी धोती बाँध रहीं थीं उस समय.......। हम सबके मुँह पहले तो हैरत से खुले रह गये ‘हें.....? क्या सचमुच ?’
‘हाँ सचमुच पहली बार तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब धोती लपेटते समय, उसकी काँच बाँधते समय चीनू दीदी ने एक दो बार फिर से......... तो मुझे लगा कि ये तो जान बूझ कर कर रही हैं ।’ शोएब ने उत्तर दिया ।
‘फिर तूने क्या किया ?’ मनीष उत्कंठित था ।
‘पहले दिन ही सब कुछ कर लूँ ? हें ? सब स्कीम की ऐसी तैसी करवा दे तू .....? अभी नौ दिन हैं, नौ दिन में तो.....।’ शोएब ने कुछ झल्लाते हुए उत्तर दिया था ।
‘तुझे कुछ......?’ मोहन ने पूछा ।
‘हाँ हुआ, और जब हुआ तो पहले तो मुझे भी डेल (शर्म भरी खिसियाहट) आई, मगर मैं क्या करता, जब सामने वाले को कोई दिक्कत नहीं थी तो मैं भी क्यों सोचूँ ।’ शोएब ने उत्तर दिया ।
‘हाँ बेटा, खूब रूई से सफाई करवा रहा था।’ मनीष ने धौल जमाते हुए कहा और सारी मंडली पहले दिन की सफलता में डूबी खिलखिला उठी ।
पहले दिन की सफलता के चलते दूसरे एस अक्षर आज की झाँकी का प्रमुख रोल करने के लिये अपनी दावेदारी रखने लगे । लेकिन तय ये किया गया कि अब आगे की सारी लड़ाई शोएब को ही लड़ने दी जाये । एक से ज़्यादा सेनापति बनाने में कबाड़ा हो सकता है । फिर जब ये पहले ही तय हो चुका है कि कद्दू कटेगा तो सबमें बँटेगा, तो इस प्रकार की बातें करके मिशन चीनू दीदी को कमज़ोर करने की ज़रूरत नहीं है । हमने एस अक्षरों को दलील दी कि चूँकि शोएब ने ही हिम्मत करके शुरूआत की है इसलिये आगे हम सबको वो ही मंज़िल तक ले जायेगा ।
आज बाली वध की झाँकी थी और आज शोएब को राम बनना था । वनवासी राम का बहुत ज़्यादा मेकअप तो होना नहीं था । फिर भी कल की ही तरह नील को पूरे शरीर में लगा कर शोएब को नीला तो करना ही था । आज हम सब कुछ पास खड़े हुए ताकि कुछ बातें सुन सकें । जो सुना वो कुछ ऐसा था ।
‘हम्मम.... तुम्हारे होठों पर तो कुछ लगाने की ज़रूरत भी नहीं है, ये तो पहले से ही गुलाबी गुलाबी हैं ।’ कहते हुए चीनू दीदी कुछ देर तक शोएब के होंठों पर उँगली फेरती रहीं ।
‘कुछ कसरत वगैरह किया करो, नहीं तो पेट बाहर आ जायेगा ।’ उँगलियों से शोएब के पेट पर नील वाला पावडर लगाते हुए बोलीं ।
‘तुम्हारे गाल कितने साफ्ट हैं, बिल्कुल किसी रबर के खिलौने की तरह लगते हैं।’ चीनू दीदी की उँगलियाँ शोएब के गालों पर थीं ।
वनवासी राम को सूती कपड़े की धोती पहननी थी, आज कोई चमक धमक का सवाल ही नहीं था । जब चीनू दीदी शोएब को धोती पहना रहीं थीं तब हम सबकी निगाहें उधर ही लगीं थीं । हमने देखा कि सचमुच......। हम सबके मुँह आश्चर्य से खुले रह गये । हमें पीरिया की बात याद आई जो उसने शोएब से कही थी खुली बॉडी को लेकर । धोती पहनाने के बाद चीनू दीदी ने वनवासी वाली जटा जूट पहना कर और माथे पर यू आकार का तिलक लगाकर उसका मेकअप फाइनल कर दिया । उस दिन भी शोएब बहुत सुंदर लग रहा था, सचमुच के राम जैसा । चीनू दीदी ने भी यही कहा ‘नज़र न लग जाए..’ और धीरे से शोएब के गाल की पप्पी ले ली । क़िला फतह ।
इसी तरह करते करते झाँकी के दो तीन दिन और बीत गये । गणेश उत्सव अब अपने चरम पर पहुँच चुका था । और यहाँ से अब झाँकी स्थल पर दूसरे कार्यक्रमों का आयोजन भी शुरू होना था । दूसरे कार्यक्रमों से मतलब जो उन दिनों मनोरंजन के लिये आयोजित होते थे । इनमें रामलीला, कठपुतली का खेल और सबसे आकर्षण का केन्द्र होता था फिल्म का प्रदर्शन । झाँकी स्थल के सामने के मैदान के बीचों बीच एक बड़ा परदा बाँध दिया जाता था और उसी पर दिखाई जाती थी फिल्म । उस छोटे से क़स्बे में कोई टॉकीज़ नहीं था । बस एक फट्टा टॉकीज़ हर गर्मी में तीन महीने के लिये आता था, जिसमें फ्लाप से फ्लाप फिल्म भी सुपरहिट होती थी । तो फिल्मों को लेकर बड़ा उत्साह क़स्बे में था । फिल्म शो वाले दिन पूरा मैदान खचाखच भरा रहता था । एक तरफ मशीन रखी जाती थी । परदे के दोनों तरफ लोग बैठते थे, फिल्म तो दोनों तरफ से दिखती थी । झाँकी स्थल पर दो दिन पहले से एनाउंस होने लगता था फिल्म के बारे में । ‘कल, कल, कल, जी हाँ कल देखिये आदर्श बाल मंडल गणेश उत्सव समिति द्वारा दिखाई जा रही फिल्म मृगया, ये पिक्चर न देखी तो हसरत रहेगी, ज़ुबाँ पर हमेशा शिकायत रहेगी, शिकायत का मौक़ा न आने दीजिये और देख डालिये मृगया, मृगया, मृगया ’ ।
वो शायद पाँचवा दिन था जब हमारे झाँकी स्थल पर फिल्म ‘मृगया’ दिखाई गई थी । मिठुन उस समय खूब चल रहा था थोड़े दिन पहले ही उसकी ‘तराना’ सुपरहिट हुई थी, बस यही सोच कर आदर्श बाल मंडल समिति मृगया फिल्म बुक कर आई थी । मिठुन का नाम था सो काफी जनता आई थी उस फिल्म को देखने । उस दिन शोएब को शंकर जी बनाया गया था । शिव द्वारा कामदेव दहन की झाँकी बनी थी । उस दिन शोएब के पूरे शरीर में सफेद पावडर पोता था चीनू दीदी ने। पूरे शरीर में मतलब, लगभग पूरे शरीर में । पावडर का मतलब राख। शंकर जी आख़िर को पूरे शरीर में भस्म लगा कर ही तो रहते हैं । उस दिन शोएब को एक जानवरों की खाल की डिजाइन वाला अंडरवियर पहनाया गया था, क्योंकि ओरिजनल मृगछाल तो मिलनी नहीं थी । उसे बस यही पहन कर झाँकी में बैठना था । इसलिये पूरे शरीर में भस्म लगना ज़रूरी था ।
उस दिन के लिये हम सबने जो योजना सुबह से बना रखी थी उस पर तुरंत अमल किया । हम सब उस दिन कुछ जल्दी जल्दी तैयार हो गये थे, हमें वैसे भी कुछ करना तो था नहीं तैयार होने में । हम तो सब तो शिव के गण बने थे, केवल मुखौटे तो लगाने थे । जल्दी जल्दी तैयार होकर हम सब एक एक करके ग्रीन रूम से सटक लिये । एक बंदा कनात के पास पहरेदारी पर लग गया और बाकी के झाँकी में चले गये । पहरेदारी इसलिये कि कनात को हटा कर कब कौन अंदर आ गया इस बात का पता ग्रीन रूम के अंदर वालों को नहीं लगता था । जैसा बताया गया कि कमरा बहुत लम्बा था उसके एक सिरे पर ये कनात थी और दूसरे सिरे पर मेकअप होता था । कनात वाले हिस्से में अँधेरा भी रहता था, इसलिये पहरेदारी तो बहुत ज़रूरी थी । हमारी सुबह की प्लानिंग थी, चीनू दीदी और शोएब को कमरे में अकेला छोड़ना । पीरिया की बात पर हमें पूरा भरोसा था । उसीने तो कहा था कि शोएब जो लड़की तेरी बॉडी देख लेगी वो तुझ पे मर मिटेगी, तुझे ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत भी नहीं है । और हम जानते थे कि पीरिया कभी झूठ नहीं बोलता था, ज्ञानी लोग कभी झूठ नहीं बोलते क्योंकि उनके मुँह से वे नहीं उनका ज्ञान बोलता है । तो अब ग्रीन रूम में चीनू दीदी और शोएब दोनों अकेले थे । कमरे में जलता हुआ पच्चीस वॉट का पीला धुँआला बल्ब, केवल वाइल्ड अंडरवियर पहन कर खड़ा हुआ एक लड़का और उसके सारे शरीर पर पावडर लगाती हुई एक लड़की । इधर हम सब बाहर गणेश जी के सामने हाथ जोड़ जोड़ कर मन्नत माँग रहे थे ‘हे भगवान आज, बस आज.....बस आज ही....।’ क़मर हसन जो उस दिन शंकर जी का बैल ‘नंदी’ बना था वो तो गणेश जी को बाक़ायदा धमका-धमका के मनौती मान रहा था । धमकाने का विशेष अधिकार उसके पास उस दिन तो वैसे भी सुरक्षित था, आख़िर को गणेश जी के पिताजी का वाहन बना था वो ।
मगर कामदेव को दहन करने के लिये बनाई जा रही झांकी में भला कामदेव क्यों सपोर्ट करते । उस दिन आदर्श गणेश मंडल और हमारी टोली दोनों एक साथ नाकाम रहे । हमारे आने के कुछ ही देर बाद हमारे शंकर जी भी सनिंकल के साथ झाँकी स्थल पर आ गये। हमारे शंकर जी रुँआसे से कामदेव दहन के लिये झाँकी पर आये और रूई के कैलाश पर्वत पर बैठ गये जहाँ उनके सिर में हस्पताल की ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ाने वाली नली फिट कर दी गई, गंगा निकालने के लिये। इधर तो उनकी आँखों से ही गंगा निकलने को अब तब कर रही थी। शंकर जी अपने आँसुओं को बरबस रोकते हुए तपस्या में बैठ गये । बाद में पता चला कि हम लोगों के बाहर निकलते ही वहां सनिंकल आ गये थे । श्री सनी शर्मा जो मनीष के चाचा थे, जिनके मारे हम सब बच्चों की रूह फना रहती थी। उनके घर में कुछ अंग्रेज़ी प्रेम के चलते चाचाओं को अंकल बुलाने का रिवाज़ था तो ये सनी अंकल हमारे भी सनी अंकल हो गये थे । बाद में शब्दों की संधि के कारण सनिंकल हो गये । आदर्श बाल मंडल गणेश उत्सव समिति के कार्यकर्ता । पढ़ने लिखने में इतने तेज़ कि हम सबके घर वाले हमें सनिंकल की मिसाल दिया करते थे ‘सनी अंकल को देखो, कुछ सीखो उनसे ।’ हम सबके मन में ख़ौफ़ इसलिये रहता था उनको लेकर कि जब तब वे हमारी ख़बर भी लिया करते थे, कभी डाँट-डपट कर तो कभी मार पीट कर । अत्यंत प्रतिभावान, गुणी, विद्वान और पढ़ाकू, चश्मिश सनिंकल को हम सबके माता पिता ने लायसेंस दे रखा था, हम सबको कभी भी कहीं भी डाँटने-पीटने का लायसेंस । हममें से हर एक उनके हाथों पिट चुका था । उन्हीं सनिंकल ने अचानक आकर हमारी जमी जमाई ढैया बिगाड़ दी थी, झाँकी में देर हो रही है कहते हुए शोएब को आनन-फानन में तैयार करवा कर यहाँ ले आये थे ।
उधर दूसरी असफलता मिली गणेश उत्सव को । उस दिन जो फिल्म दिखाई गई ‘मृगया’ वो हमारे क़स्बे के दर्शकों के सिर के ऊपर से निकल गई, यहाँ तक कि वे लोग अपने मिठुन को भी नहीं पहचान पाये । जब फिल्म ख़त्म हुई तब दर्शक विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि फिल्म सचमुच में ही ख़तम हो गई है । दरअसल एक तो फिल्म छोटी थी और दूसरा क़स्बे के दर्शकों के हिसाब से अंत हुआ भी नहीं था । असल में वो कला फिल्म थी, और कला फिल्म वहाँ ख़त्म होती थी जहाँ नहीं होना चहिये । दर्शक पागल हो गये, उन्होंने हंगामा कर दिया कि अधूरी फिल्म दिखा रहे हैं। दूसरी पेटी लगाई ही नहीं है, दूसरी पेटी छिपा ली है (उस समय फिल्में पेटियों में आती थीं )। एनाउंस किया गया था कि पिक्चर में मिठुन है, मगर पूरी फिल्म में मिठुन एक बार भी नहीं आया । अभी तो कुछ हुआ ही नहीं फिल्म कैसे ख़त्म हो सकती है । मगर सच यही था कि दोनों फिल्में कुछ हुए बिना ही ख़त्म हो गईं थीं । मृगया भी और हमारे शंकर जी की भी । जैसे तैसे दर्शकों को मना कर, हाथ जोड़ कर घर भेजा गया । और इधर हम सब भी भारी क़दमों से अपने अपने घर रवाना हुए ।
गणेश उत्सव में झाँकी का अंतिम दिन था, अगले दिन गणपति विसर्जन के साथ उत्सव का समापन हो जाना था । उसके बाद हमारे और चीनू दीदी के बीच में फिर से अम्माजी को आ जाना था । उधर आदर्श बाल मंडल ने अपना दो दिन पहले के पाप को धोने के लिये इस बार ‘मेरा गाँव मेरा देश’ फिल्म का आयोजन किया था । पूरे शहर में हाथ ठेले से उसका धुँआधार प्रचार चल रहा था । भोंगे पर ‘मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाये’ बजा बजा कर हँगामा मचाया जा रहा था । सुपरहिट मूवी थी, इसलिये दर्शकों की भारी संख्या उमड़ने की पूरी संभावना थी । आदर्श बाल मंडल इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था । पिछली गर्मी में फट्टा टॉकीज़ में डाकुओं की फिल्म ‘खोटे सिक्के’ ज़बरदस्त हिट हुई थी, सो मंडल ने भी डाकुओं की ही फिल्म लाने का निर्णय लिया था । इधर हम लोगों के लिये भी ये आख़िरी मौका था । हम सबकी अभी नहीं तो कभी नहीं वाली स्थिति थी । इसीलिये हमने विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की मनौतियाँ मान लीं थीं । पीपल वाले भेरू के ओटले पर चवन्नी की मीठी चिरोंजी, जिन बाबा के टेकरे पर चंदन वाली अगरबत्ती लगाने या फूटी बावड़ी वाली दरगाह पर बीस पैसे के बताशे चढ़ाने जैसी ।
***