Stokar - 24 in Hindi Detective stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | स्टॉकर - 24

Featured Books
  • The Omniverse - Part 7

    இந்நேரத்தில்… ஒரு மாற்று ஒம்னிவெர்ஸில்மாற்று ஒரு ஒம்னிவெர்ஸி...

  • உன் முத்தத்தில் உறையும் நெஞ்சம் - 1

    அத்தியாயம் -1 மும்பையில் மிகப்பெரிய பிரபலமான கல்யாண மண்டபம்....

  • The Omniverse - Part 6

    அடோனாயின் கடந்த காலம்அடோனா திரும்பி தனது தோற்றத்தின் ஒரு மறை...

  • The Omniverse - Part 5

    (Destruction Cube) அழித்த பிறகு,ஆதியன் (Aethion) பேய்கள் மற்...

  • The Omniverse - Part 4

    தீமையின் எழுச்சி – படையெடுப்பு தொடங்குகிறதுதற்போது, டீமன்களு...

Categories
Share

स्टॉकर - 24




स्टॉकर
(24)



कई बार जब इंसान हर तरफ से ठोकर खाता है तो फिर सही गलत के बारे में सोंचना बंद कर देता है।
सूरज सिंह का वही हाल था। वकालत के पेशे में कोई खास सफलता मिल नहीं रही थी। सिवा इतने के कि अपने छोटे से घर का किराया दे सके और रूखी सूखी खा सके। वह तो इससे संतुष्ट हो भी सकता था। लेकिन जानता था कि इस स्थिति में वसुधा को घर नहीं ला सकता है।
वसुधा का उसके मायके में रहना उसके असफल होने की निशानी था। उसे मालूम था कि यदि वह उसे अपने साथ लाकर नहीं रख पाया तो अपनी ससुराल और घरवालों सबकी नज़र में नाकारा साबित हो जाएगा।
हताशा के चलते सूरज सिंह शराब पीने लगा। जब कुछ अच्छा पैसा मिलता तो विलायती शराब पीता। जब ठीक ठाक कमाई नहीं होती तो देसी से काम चला लेता। नतीजा यह हुआ कि अब वह समय पर मकान मालिक का किराया नहीं चुका पाता था। राशन का उधार चढ़ा रहता था। लोग तकाज़ा करने के लिए आते थे।
इन सबके चलते सूरज सिंह और हताशा में घिरता जा रहा था। हताशा के अंधेरे में शराब ही उसे एक सहारा नज़र आती थी।
एक दिन सूरज सिंह देसी शराब के ठेके से निकल रहा था तब वह अपने गांव के एक दोस्त से टकरा गया। बहुत दिनों के बाद वह उस दोस्त से मिला था। लेकिन दोस्त का हुलिया देखने से लग रहा था कि उसकी कमाई अच्छी होगी। उसे देख कर दोस्त बोला।
"तुम सूरज हो ? यहाँ से निकल रहे हो ? यार तुम तो वकील बन गए थे। इस देसी शराब के ठेके पर क्या कर रहे हो ?"
सूरज सिंह समझ नहीं पाया कि उसका दोस्त उसकी हालत पर चिंता व्यक्त कर रहा है या ताना मार रहा है।
"नीलांबर तुम....तुम्हारा तो रंग ढंग ही बदल गया भाई।"
"बस....चल रहा है सब। पर तुम ये देसी शराब पीते हो ? खैर कोई बात नहीं। चलो मेरे साथ। बढ़िया ब्रांड की शराब पिलाता हूँ।"
कह कर नीलांबर ने उसका हाथ पकड़ा और पास खड़ी बौलैरो की तरफ ले गया।
"चलो मेरे घर चलो।"
बौलैरो में बैठा सूरज सिंह सोंच रहा था कि आखिर इस नीलांबर के पास इतना कुछ कैसे आ गया। उसने तो कब की पढ़ाई छोड़ दी थी। फिर ऐसा कौन सा रोजगार करने लगा कि इतनी बड़ी गाड़ी लेकर घूम रहा है।
पिछली बार सूरज सिंह नीलांबर से अपने गांव में मिला था। उसने कुछ ही दिन पहले सहाय साहब के यहाँ नौकरी शुरू की थी। तब वह उत्साह से भरा हुआ था। उसने बड़ी शान से नीलांबर को बताया था कि वह एक दिन सहाय साहब से भी बड़ा वकील बनेगा। तब नीलांबर कोई छोटी सी नौकरी कर रहा था। इतने दिनों में स्थिति बदल चुकी थी।
नीलांबर के घर पहुँच कर तो सूरज सिंह और भी आश्चर्य में पड़ गया। यह एक अच्छे अपार्टमेंट में फ्लैट था। अच्छी साज सज्जा थी। नीलांबर ने नौकर को बुला कर कुछ आदेश दिया। सूरज सिंह ने पूँछा।
"तुम्हारी तो शादी हो चुकी है। भाभी और बच्चे कहीं गए हैं क्या ?"
"वो लोग तो घर पर हैं।"
"मतलब गांव में हैं ?"
"नहीं यार....दूसरा मकान है। ये तो बस दोस्तों के साथ मौज मस्ती के लिए है।"
"मतलब एक और मकान है तुम्हारा।"
"हाँ....अब इस छोटे से फ्लैट में बीवी बच्चों का गुज़र कैसे होता।"
नौकर दो ग्लास, आइस बकट, सोडा और रॉयल स्टैग व्हिस्की की बॉटल लाकर रख गया। सूरज सिंह नीलांबर के साथ बैठ कर व्हिस्की पीने लगा।
अपने गिलास से एक सिप लेने के बाद नीलांबर बोला।
"अब बताओ भाई....सहाय साहब तो बड़े वकील हैं। सैलरी ठीक नहीं देते हैं क्या ? देसी पीते हो।"
सूरज सिंह जानता था कि इसे सब पता होगा। पर उसे यह एहसास दिलाने के लिए पूँछ रहा है कि देखो तुम्हारी वकालत की पढ़ाई काम नहीं आई। पर उसे जवाब तो देना था।
"उनकी नौकरी तो मैंने कबकी छोड़ दी थी। बड़े वकील की छाया में अपनी पहचान बनाने का अवसर कम दिख रहा था। अब अपनी प्रैक्टिस है।"
नीलांबर ने फिर एक सिप लिया और धीरे से बोला।
"हम्म......."
कुछ क्षण दोनों चुप रहे। सूरज सिंह अपना ड्रिंक पीने लगा। पहली बार वह इतनी मंहगी व्हिस्की पी रहा था। अब तक विलायती के नाम पर उसने ऐट पीएम क्लासिक और बॉनी स्पेशल का ही स्वाद चखा था। वो भी तब जब उसे लगता था कि अच्छी कमाई हुई है। वह चाह रहा था कि नीलांबर चुपचाप पीता रहे। कोई सवाल ना करे। पर नीलांबर तो शायद इसीलिए उसे अपने घर लाया था कि बात बात पर उसे असफल होने का एहसास करा सके।
"अच्छा अब खुद अपने मालिक हो। हाँ कुछ समय लगता है जमने में। खैर ये बताओ कि भाभी जी कैसी हैं। अब तो बच्चा भी हो गया होगा। साल से तो ऊपर हो गया ब्याह को।"
सूरज सिंह को ये सवाल अच्छे नहीं लग रहे थे। पर कर भी क्या सकता था। उसने गिलास खाली कर फिर से भरने का इशारा किया।
"वसुधा....तुम्हारी भाभी....मायके में है।"
"अच्छा तो खुशखबरी मिलने वाली है। हाँ भाई पहला बच्चा है। भाभी मायके में होंगी।"
नीलांबर ने गिलास दोबारा भर दिया था। सूरज सिंह को पूरा यकीन था कि वह सब जानता है। बस मौका मिलने पर सबकी तरह वह भी सुना रहा है। सूरज सिंह ने अपना गिलास उठाया। दो तीन बड़े बड़े घूंट भरे। गिलास मेज़ पर रख कर बोला।
"बच्चा नहीं होने वाला है। मुझे छोड़ कर चली गई है। मैं एक असफल आदमी हूँ ना। इसलिए सब मुझे सुनाते हैं। पत्नी कहती है कि जिस दिन मेरी ख्वाहिशें पूरी करने के लायक हो जाओ मुझे ले जाना। बाप कहता है कि मुझे पढ़ाने में इतनी रकम बेकार की। मैं तो अपनी गृहस्ती संभालने के लायक भी नहीं बना।"
कुछ मंहगी व्हिस्की का सुरूर था। कुछ उसके दिल का दर्द। वह बहक गया था।
"तुम भी मुझे यहाँ बातें सुनाने के लिए ही लाए हो। मुझे अब आदत पड़ गई है। बहुत कोशिश की पर सफल नहीं हो सका। फूटी किस्मत कहो या मेरा नकारापन। जो जी में आए कह लो।"
नीलांबर ने बात संभालने की गरज़ से कहा।
"बुरा मत मानो....मैं तो बस यूं ही पूँछ रहा था।"
"बुरा मान कर, कर भी क्या लूँगा। फिर गलत भी क्या है। अब तो मेरे दिल ने भी मान लिया है कि मैं असफल हूँ।"
अपना गिलास फिर खाली कर सूरज सिंह ने नीलांबर की तरफ सरका दिया। उसने गिलास फिर भर दिया।
"चलो तुम चार बात सुना रहे हो तो मेरी औकात से ऊपर पिला भी रहे हो। नहीं तो मकान मालिक आज गालियां देकर गया है। तुम ना मिलते तो वो देसी पाउच पीकर पड़ा होता।"
कह कर सूरज सिंह ने अपना गिलास उठाया और इस बार एक सांस में खाली कर दिया।
"मेरी छोड़ो....तुम बताओ....बहुत तरक्की कर ली। क्या करते हो।"
नीलांबर अपना पेग धीरे धीरे पी रहा था। उसने एक सिप लिया। फिर बोला।
"मैं जो कर रहा हूँ वह तुम्हें पसंद नहीं आएगा। एक तो तुम कानून के आदमी हो। फिर बचपन से तुम्हें पिस्तौल से चिढ़ है।"
सूरज सिंह कुछ समझ नहीं पाया। नीलांबर उसका असमंजस समझ गया।
"बस ये समझ लो पैसे लेकर लोगों का काम करता हूँ। अच्छे पैसे मिल जाते हैं।"
सूरज सिंह को अभी भी कुछ समझ नहीं आया था। उसने कहा।
"इसमें मुझे पसंद ना आने वाला क्या है ?"
नीलांबर ने अपने लिए एक और ड्रिंक बनाते हुए कहा।
"दरअसल मैं पैसे लेकर लोगों की हत्या करता हूँ।"
उसकी बात सुन कर सूरज सिंह का नशा उतर गया। उसने हकलाते हुए कहा।
"मतलब तुम सुपारी किलर हो।"
"हाँ वही...."
सूरज सिंह कुछ देर चुप रहा। फिर बोला।
"तुम्हें ये काम करते ज़रा भी बुरा नहीं लगता है। मेरा मतलब ये गलत काम है।"
नीलांबर ने एक सिप ली। फिर हौले से मुस्कुरा कर बोला।
"दुनिया में बहुत हैं जो गलत काम करते हैं। डॉक्टरी के पेशे में कुछ डॉक्टर लोगों के अंग निकाल कर नहीं बेंचते हैं। उनकी छोड़ो तुम्हारे पेशे में सब वकील क्या सच्चाई की लड़ाई ही लड़ते हैं।"
नीलांबर ने अपना गिलास रख कर कहा।
"अगर तुम्हें किसी बड़ी पार्टी का केस मिले। जिससे अच्छे पैसे मिलने हों। पर आदमी गुनहगार हो। तो तुम क्या केस नहीं लड़ोगे ?"
सवाल सीधा सा था। हाँ या ना में जवाब दिया जा सकता था। पर सूरज सिंह कुछ नहीं बोल सका। अभी जिस सही गलत की बात वो कर रहा था। वह उसके बीच में ही झूल रहा था।
"जवाब नहीं दे पाए ना। क्योंकी तुम जानते हो कि पैसा कितना ज़रूरी है। पैसा है तो हर कोई इज्ज़त देता है। वरना...."
नीलांबर ने जानबूझ कर अपनी बात बीच में छोड़ दी। सूरज सिंह उस वरना के आगे जानता था। वह शांत बैठा रहा।
तभी नीलांबर को किसी ने फोन किया। उसने अभी आता हूँ कह कर काट दिया।
नीलांबर ने सूरज सिंह को उसी देसी शराब के ठेके पर छोड़ दिया।