Kabhi Socha n tha - 1 in Hindi Poems by महेश रौतेला books and stories PDF | कभी सोचा न था - १

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कभी सोचा न था - १

कभी सोचा न था

१.
अकेला हूँ

अकेला हूँ
शव में,श्मशान में
शिव में
तीर्थ में,तीर्थाटन में
तथागत की भाँति,
आँधी में,अँधियारे में
धूप में,धूल में
राह में,राह से आगे।
अकेला
धुँध की भाँति
कोहरे की तरह,
क्षीण आवाज में,
सुब-शाम सा
उगता-अस्त होता,
मन से गुनगुनाता
क्षणिक विश्वास लिये।
सच-झूठ को खींचता
मनुष्य बन
मौन हूँ।
*******
२.
अपनी खिड़की

अपनी खिड़की
स्वयं ही खोलनी है,
अपना आसमान
खुद ही खोजना है।
क्षितिजों की लाली में
नहा-धो
अपनी दहलीज पर
बार-बार आना है।
धूप-छाँव के साथ
हँसते-रोते
गहरी उम्मीद में आ जाना है,
बातों को बात समझ
बार-बाल पलटना है।
अपनी खिड़की
स्वयं ही खोल
उजाले तक झाँकना है।
*******
३.
आत्मा कुछ तो करेगी

आत्मा कुछ तो करेगी
सार-संक्षेप बटोर
कहीं तो मिलेगी,
अपने बच्चों के लिए
एक आसमान संजोयेगी,
अपने ही जन्मदिन पर
ढेर सारी खुशियों में
लोट-पोट हो जायेगी,
नदी के स्रोत से
सागर के वक्ष तक
सब कुछ बाँट
किसी सत्य को
कभी मारेगी,कभी बचायेगी,
कभी उपेक्षा भाव में आ
सुख-दुख को टाल जायेगी,
अँधकार के साथ
एक उजाला छोड़
असीम सार-संक्षेप के साथ
शान्त हो जायेगी।
*****
४.
अहाते में खड़ा

अहाते में खड़ा
लोगों को देख
खुश होता हूँ,
क्या पता
कोई पहिचान निकल आये
बातचीत का सिलसिला चल पड़े,
कुछ कहने के लिए
विषय मिल जाय,
फव्वारे की तरह
हँसी फूट पड़े,
जिन्दगी के पेड़ से
कुछ फूल मिल जायं
और जड़ें गहरी हो जायं।
*******
५.
एक दिन आता है

एक दिन आता है
वह बहुत कुछ ले,
अस्ताचल में चला जाता है।
इच्छाओं के भिखारी
आकाक्षाओं के याचक,
बेतरतीब खड़े
उल्टे-पुल्टे
विकलांग लगते हैं।
दिन आता है
सबका हिसाब दे,
अस्ताचल में चला जाता है।
पड़ाव बदलते हैं
साथी छूटते हैं,
रिश्ता विभाजित होता है,
ईश्वर का उजाला
रूह को पलटता है।
*****
६.
बेटी इस घर से

बेटी इस घर से
उस घर में जाती है,
और मेरे अन्दर कुछ
सुख छोड़ जाती है।
बेटी इस आँगन से
उस आँगन में जाती है,
और मेरे अन्दर कुछ
खुशी छोड़ जाती है।
बेटी इस क्षितिज से
उस क्षितिज तक उड़ती है,
और मेरे अन्दर एक
उड़ान भर जाती है।
बेटी स्वभावतः
इधर से उधर जाती है,
और मेरे लिये चुपचाप
शान्ति और सुषमा रख जाती है।
बेटी जब भी
मन में दिखती है,
मुझे एकांतिक
खुशी दे जाती है।
******
७.
चिड़िया कुछ सोचती है

चिड़िया कुछ
सोचती है
बैठी चेतना को
लम्बी उड़ान देती है।
आपस की बातों से
अपनी संस्कृति बनाती है,
बसंत में मधुर हो
लय जोड़ती है,
आसमान का स्वर समेट
अनजान वृत्तांत देती है।
ठंड में सिकुड़
पंख फड़फड़ाती है,
चिड़िया सोचती है
उड़ती चेतना को
डाल-डाल पर रख,
आसमान में उड़ा
कभी गुमसुम, कभी चहकती
उसे परिष्कृत करती है।
********
८.
चिड़िया इस पेड़ से

चिड़िया इस पेड़ से
उस पेड़ में जाती है,
और मेरे अन्दर कुछ
सुख छोड़ जाती है।
चिड़िया इस मुँडेर से
उस मुँडेर पर जाती है,
और मेरे अन्दर कुछ
खुशी छोड़ जाती है।
चिड़िया इस क्षितिज से
उस क्षितिज तक उड़ती है,
और मेरे अन्दर एक
उड़ान भर जाती है।
चिड़िया स्वभावतः
इधर से उधर जाती है,
और मेरे लिये चुपचाप
शान्ति और सुषमा रख जाती है।
चिड़िया जब भी
फुदकती दिखती है,
मुझे एकांतिक
खुशी दे जाती है।
******
९.
चलते-चलते मीलों चलते
तुमसे मिलना अच्छा लगता,
छोटी-छोटी बातों में
हिल-मिल जाना अच्छा लगता।
आगे-आगे सबसे आगे
सृजन करना अच्छा लगता,
भोली भाली बातों से
दिल को भरना अच्छा लगता।
गहरी-गहरी आँखों का
अपलक होना अच्छा लगता,
सोयी-सोयी रातों से
सुबह का उजाला अच्छा लगता।
चलते-चलते मीलों चलते
आगे चलना सच्चा लगता,
धीरे-धीरे जीवन पलटना
बर्षों जैसा अच्छा लगता।
आधा अधूरा सपना चलता
लोगों जैसा प्यारा लगता,
पल-पल का आना जाना
ईश्वर जैसा सुन्दर लगता।
रूक-रूक कर चलना फिरना
तपस्या सा ऊँचा लगता,
मन के आगे उनका होना
पहले जैसा अच्छा होता,
जाने से पहले मुझको
तुम से मिलना अच्छा लगता।
******
१०.
हमारी आस्थाएं

हमारी आस्थाएं
ईश्वर से जुड़
बड़ी हो जाती हैं।
हमारा मन ईश्वर से मिल
स्वस्थ हो जाता है,
कुम्भ से अमृत
जब भी छलका हो,
गंगा धरती पर जब भी निकली हो,
श्रीकृष्ण का जन्म
जब भी हुआ हो,
श्रीराम जब भी पुरुषोत्तम रहे हों,
हमारी आस्थाएं
ईश्वर से जुड़
बड़ी हो जाती हैं।
*******
११.
गाँव की पगडण्डी को

गाँव की पगडण्डी को
मेरे अन्दर रह जाने दो
रिश्तों की उथल-पुथल को
जितना हो सुलझा लो।
मेहनत से झुकी पीठ को
मन के अन्दर आ जाने दो,
शस्य-श्यामला धरती की
साँसों को खुलने दो।
नम होती आँखों को
दिल में सचमुच जाने दो,
राह देखती नजरों को
आशा प्लावित होने दो।
कोहरे से लदी पहाड़ी
मेरे अन्दर रह जाने दो,
टेड़ी-मेड़ी पगडण्डी को
सीधी-सादी राह बना दो।
******
१२.
हे कृष्ण(१)

हे कृष्ण
मुझे शुद्ध कर दो,
बेजान हूँ तो
जानदार कर दो।
क्रूर हूँ तो
दयावान बना दो,
अपवित्र हूँ तो
पवित्र कर दो।
शत्रु हूँ तो
मित्र बना दो,
लयहीन हूँ तो
लय दे दो।
अशान्त हूँ तो
शान्ति थमा दो,
शुद्र हूँ तो
विराट बना दो।
कर्महीन हूँ तो
कर्मशील कर दो,
मर्त्य हूँ तो
अमर्त्य बना दो।
विरल हूँ तो
अविरल कर दो,
अविचार हूँ तो
विचार बना दो,
जड़ हूँ तो
चेतन कर दो।
********
१३.
हे कृष्ण (२)

हे कृष्ण
पुरानी बातें अब भी होती हैं,
गंधारी दृष्टिवान हो
आँखों में पट्टी बाँधे है।
शकुनि जुआ खेलते हैं
चौरस बिछी है,
कौरव इधर,पांडव उधर हैं।
अपशकुन होते हैं
अन्धे को राजा बना
न्याय नीचे आ
पुत्र-मोह में फँस गया है।
कौरवों की सेना बड़ी है
पांडव अकेले हैं,
अज्ञातवास में भी
कौरवों का आतंक है।
महाभारत होगा तो
निर्दोष भी मरेंगे,
रिश्ते टूटेंगे
अभिमन्यु चक्रव्यूह के सातवे द्वार पर
निहत्था हो,
षड्यंत्र के तहत मारा जायेगा।
गर्भस्थ शिशुओं की हत्या से
ईश्वर का खून होगा,
तुम शिकायत से परे
आदि-अन्त की चौकसी पर
कौरवों को सेना दे,
स्वयं पांडवों की ओर खड़े रहोगे।
******
१४.
हे कृष्ण(३)

हे कृष्ण
तुम्हारा स्मरण ही मुझे
मुक्त कर दे,
तुम्हारी बातें ही मुझे
सात्विक बना दें,
तुम्हारी याद ही मुझे
सुविचार दे दे,
अकेला स्नेह ही
बँधनों को खोल दे,
ऐसा आशीर्वाद दे दो-
कि आत्मा योगी हो जाय,
जीवन स्वादिष्ट बन जाय,
मोक्ष का आनन्द
दुनिया में फैल जाय।
*******
१५.
हे कृष्ण (४)

हे कृष्ण
मुझे सुदर्शन चक्र दे दो
जिससे मैं आश्वस्त रहूँ,
तुम्हारे पास ही खड़ा
तमस को काट सकूँ।
ब्रह्मांड कितना ही बड़ा हो
अपनी सत्ता को
सुलझा सकूँ,
तमस,राजस,सात्विकता में
अपनी भूमिका को
विभक्त कर सकूँ।
हे कृष्ण
मुझे सुदर्शन चक्र दे दो,
जिससे मैं सशक्त रह सकूँ,
तुम्हारी भाषा के
सहज,सरल सार से
मैं खड़ा रह,
समय के रूखे स्वभाव में
सुकुमारता ला
आश्वस्त रह सकूँ।
********
१६.
हे कृष्ण(५)

हे कृष्ण
जब तक रहूँ
जगमगाता रहूँ,
तिरंगे की तरह
लहराता
एक लक्ष्य को भेद सकूँ,
दिवाली के दिये की तरह
जलता रहूँ,
उजाला बन
दूर से भी दिखाता रहूँ,
गंगा की बहती लहरों से
पवित्रता खींच
उज्ज्वल बना रहूँ।
*****
१७.
हे कृष्ण(६)

हे कृष्ण
तुम्हारी विशाल व्यथा का
महाभारत साक्षी है,
तुम्हारे अभिन्न ज्ञान की
गीता अभिव्यक्ति है।
तुमने जहाँ से देखा
जैसे भी देखा
चेतना के विद्रोह को
अमर कर दिया,
दुख से भी प्यार होता है
ऐसा महाभारत रच दिया।
बन्दीगृह में जन्म ले
ग्वालों के संग
आततायियों का अन्त
तुम्हें विराट बनाते हैं।
समय के आकलन के साथ
तुम्हारी खुशी
हमारी खुशी की साक्षी हैं।
*******
१८.
ईश्वर के साथ-साथ

ईश्वर के साथ-साथ
हमको कुछ रच देना है,
राह जहाँ पर तंग पड़ी है
उसको चौड़ा करना है,
स्नेह-प्यार का क्षण जो है
उसको जी भर जी लेना है,
भूले-भटके परिचय से
पहिचान हमारी होनी है,
जहाँ-जहाँ पर पगडण्डी है
उसके ऊपर चलना है,
मन की बातें मन में रख कर
कभी अव्यक्त हो जाना है,
शुभचिंतक ये घड़ियां लेकर
ईश्वर के मन को पढ़ना है,
कुछ बातें जाग गयी हैं
कुछ अब तक सोयी हैं,
झगड़े थे कि खत्म नहीं हैं
फिर भी आगे वक्त खुला है।
*******
१९.
ईषावास्योपनिषद से-

" वह पूर्ण है,यह पूर्ण है
पूर्ण से पूर्ण चलता है,
पूर्ण से पूर्ण निकाल
पूर्ण बचता है।
ईश्वर पूर्ण है
ब्रह्मांड से पूर्ण है,
पूर्ण से पूर्ण बनता है,
अनन्त से अनन्त निकाल
अनन्त ही बचता है।
पूर्ण से पूर्ण जनमता है
इसी पूर्ण में
आदि अन्त रहित
सब रहते हैं।
हम इस पूर्ण से निकल
उस पूर्ण को खोजते
इस पूर्ण में विसर्जित हैं।
परमाणु और अणु
जो पूर्ण में हैं,
पूर्ण से निकल
पूर्ण ही बचते हैं।"
*******
२०.
इस शहर की बातों को

इस शहर की बातों को
मेरे अन्दर रह जाने दो,
मन के सारे भावों को
मेरे अन्दर आ जाने दो।
जहाँ खड़े थे साथ-साथ हम
वैसे क्षण फिर आने दो
जहाँ मिली थी स्नेह राह की
फूल वहाँ तुम रख छोड़ो।
जहाँ उठे थे प्रश्न समय के
उनके उत्तर कह डालो,
जिस जगह पर मर्यादा थी
उसका संसर्ग हो जाने दो।
इस शहर की बातों को
जितना हो,सभ्य बना लो,
देश यहीं से संसार यहीं से
शुद्ध जीवन की आश बना लो।
आस्था शुद्ध यहाँ बने जो
उसको अपने पास बुला लो,
इस शहर के गीतों को
अपने अन्दर आ जाने दो,
लय के सारे शब्दों को
निस्वार्थ भाव से रहने दो।
**********
२१.
इसी सत्य में

इसी सत्य में
इसी झूठ में
कहीं ईश्वर रहते हैं।
इसी गाँव में
इसी शहर में
कहीं ईश्वर बसते हैं।
इसी मन्दिर में
इसी मस्जिद में,
इसी चर्च में
इसी पूजा में
कहीं ईश्वर आते हैं।
इसी सुबह में
इसी सन्ध्या में
कहीं ईश्वर रहते हैं।
इसी पुण्य में
इसी प्रणय में
कुछ ईश्वर होते हैं।
नदी-तीर्थ पर
सच्च-झूठ को
कुछ ईश्वर पीते हैं।
******