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रूम

सुबह के नौ बजे होंगे। छुट्टी का दिन था। फ़ोन की घंटी बजी। अंजान नंबर था। उठाया तो देखा उस तरफ कोई सौहाद्र था। कोई खास जानता नहीं था उसे, मुझे तो याद भी नहीं था, उसी ने याद दिलाया कि दो साल पहले मैंने इतिहास का एक कोर्स पढ़ाया था उसके क्लास में।

"तब से आपका प्रशंसक रहा हूँ।"

आगे बोला...

"सर एक बहुत जरूरी काम था आपसे। क्या आपसे घर आके मिल सकता हूँ..."

छुट्टी का दिन था। वैसे तो बोर हीं हो रहा था मैं। फिर भी कहा...

"परसों तो यूनिवर्सिटी खुल हीं रही है, वहीं आ जाओ सुबह में।"

बोला...

"नहीं सर थोड़ा पर्सनल काम है, घर में हीं मिलना चाहूंगा। सात्विक भैया से बड़ी तारीफ़ सुनी थी आपकी। आपसे बहुत उम्मीद है।"

सात्विक मेरा क्या पुरे यूनिवर्सिटी का बड़ा फ़ेवरिट टाइप स्टूडेंट था। अभी दो साल हुए वो नॉर्वे चला गया था पी एच डी करने। अच्छा लगा जानकार कि सात्विक ने मेरी तारीफ़ करी है। मैंने बोला...

"ठीक है फिर आ जाओ।"

वो बोला...

"सर आपके घर के बगल में हीं हूँ, दो मिनट में आता हूँ।"

दो मिनट क्या एक मिनट के अंदर कॉल बेल बज गयी। दरवाज़ा खोला तो देखा सामने खड़ा था और उसके साथ एक लड़की भी थी। मैंने अंदर बुलाया और शिष्टाचार के नाते पुछा...

"चाय पियोगे..."

उसने बोला

"सर आप बैठिये न चाय सुष्मिता बनायेगी।"

उसकी बेतकल्लुफ़ी से मैं थोड़ा सकपका गया। मैंने सुष्मिता की तरफ देख कर बोला...

"अरे नहीं नहीं और आपसे तो परिचय भी नहीं हुआ मेरा..."

उसने छूटते हीं कहा...

"सर ये सुष्मिता है और जाओ न अंदर चाय बनाओ..."

मैंने फिर कहा...

"नहीं नहीं मैं बनाता हूँ और वैसे तो मैंने अभी तुरंत पिया है, आप लोगों के लिए हीं पुछा मैंने।"

"सर मुझे चाय पीनी है, किचन में चाय का सामान तो है ना!!अच्छा चाय बनाती है ये सर इसे बनाने दीजिये ना।"

और उसने धीरे से कुछ इशारा किया, जिसका मतलब शायद ये था कि जो बात वो बोलना चाहता था, वो, वो उसके सामने नहीं बोलना चाहता था। मैंने फिर हाथ से इशारा करके किचन का रास्ता बता दिया।

उसके कमरे से जाते हीं वो खिसककर मेरे हीं सोफे में आ गया। धीरे से बोला....

"सर थोड़ी पर्सनल बात है, क्या आप पे पूरा भरोसा कर लूं।"

अब तो मुझे भी लगा आखीर देखूं माज़रा क्या है....

मैंने कहा

"बताओ क्या बात है, बाकी भरोसे के बारे में मैं ख़ुद क्या बोलूं।"

"वाह सर!! सही में, सात्विक भैया ने सच बोला था आपके बारे में कि जो आपके दिल में है, वही ज़ुबान पे हैं।"

फिर थोड़ा रुक कर उसने बोला

"सर आपको पता नही होगा मगर ये लड़की सुष्मिता, चौधरी राजेश्वर जी की दूसरी पत्नी से है। मैं इसे भगा के लाया हूँ।"

चौधरी राजेश्वर हमारे क्षेत्र के सांसद थे, दबंग आदमी थे। पिछले तीन बार से चुनाव जीत रहे थे और कोई कारण नहीं था कि वो अगली बार हारे। मैं अंदर से सकपका गया।

बोला...

"अरे सच में क्या!!! भगाया क्यों!!!"

बोला....

"सर क्या करें बचपन से प्यार है, चौधरी जी तो शादी को मानेंगे नहीं, जात पात की बात है। सात्विक भैया ने कहा शहर में एक आप हीं हैं जो कुछ मदद कर सकते हैं।"

मैंने पूछा...

"मैं क्या मदद कर सकता हूँ!! मैं तो यहाँ का रहने वाला भी नही हूँ, बस यूनिवर्सिटी में टीचर हूँ। मेरी क्या औकात, मैं चौधरी साहिब को कुछ समझाऊ या बोलू। फिर मेरी बात वो सुनेंगे भी क्यों !!!"

"सर अब ये बात तो बातचीत से सुलझेगी भी नहीं। हमें तो आपसे कुछ और मदद चाहिए।"

मुझे लगा कि अब ये पैसे मांगेगा। मैं छूटते कहा....

"पैसे तो मेरे पास बिलकुल नहीं है..!!"

उसने थोड़ी नाराज़गी दिखाते हुए कहा....

"सर हम आपसे पैसे लेने के लिए थोड़े ना आये हैं।"

तब तक वो चाय बना के आ गयी।

"फिर..."

"सर आप हमें बस कुछ देर अपने यहाँ शरण दे दे।"

मैं फिर सकपका गया।

"सर आप बिलकुल ना घबराएं। हम कोई महीने हफ्ते की बात नहीं कर रहें हैं। बस चार पांच घंटे। मेरा एक फ्रेंड एम्बुलेंस लेके आ रहा है, हमलोग उसी एम्बुलेंस में शहर से बाहर चले जायेंगे। फिर अपनी ज़िन्दगी।"

मैंने कहा...

"क्या चौधरी जी को पता है ये घर से भाग चुकी है।"

"अभी तक तो नहीं। मगर पता तो चल हीं जाएगा एक दो घण्टे में, क्योंकि एक घण्टे में इसकी सगाई है, चौधरी साहिब को हमारी बात मालूम है, वो इसके घर आ हीं रहे होंगे।"

मैं इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहता था। मैंने पूछा...

"आखिर मुझसे क्या चाहते हो...."

"सर आप हमें आज 6 बजे तक अपने घर में छुपा ले।"

"ओह्ह लेकिन अगर चौधरी साहिब को इसका पता चल गया तो वो मुझे छोड़ेंगे नहीं।"

"इसका एक उपाय है सर, मेरे पास 1 बजे के शो की एक टिकेट है। आप हाल में जाकर ये फिल्म देख लीजिए। आप अपने घर का दरवाज़ा बाहर से बंद कर दे। आप जब तक फिल्म देख कर आएंगे हम यहाँ से जा चुके होंगे।"

मैं बड़े उहा पोह में फँस गया। समझ में नहीं आया क्या करूँ। एक बारगी तो मन किया कि सीधे बोल दू चले जाओ मेरे घर से फिर पता नहीं क्या दिल में आया कहा....

"ठीक है लेकिन अगर चौधरी जी को जो ये बात पता चल गयी तो मेरी तो खैर नहीं।"

वो बोला....

"सर मर जायेंगे आपका नाम नहीं लेंगे। भरोषा कीजिये।"

"एक बार सात्विक से बात कर लूं। उसका नंबर है तुम्हारे पास।"

उसने कहा...

"सर अभी तो नॉर्वे में रात के दो बज रहे होंगे। अभी बात करेंगे आप। नंबर तो है मेरे पास।"

और उसने छूटते फ़ोन लगा दिया और फ़ोन लाउडस्पीकर में कर दिया। घंटी बज के फ़ोन कट गया। उसने दुबारा नंबर लगाया। फिर घंटी बज के रह गयी।

"सर आप तो जानते हीं हैं उनकी नींद..."

जनता तो खैर मैं नहीं हीं था मगर अब मैंने निर्णय कर लिया था कि इस चक्कर में पडूंगा नहीं।

मैं थोड़ा सोफे में पीछे की तरफ़ लुढ़क गया और सोचने लगा कि क्या बोल के मना करूँ। डरा हुआ मैं दिखना नहीं चाहता था। इससे पहले की मैं गला साफ़ कर कुछ बोलता देखा, जो हैंडबैग वो अपने साथ लाया था उससे उसने एक व्हिस्की की बोतलें निकाली।

बोला...

"सर बुरा ना माने तो हमारी तरफ से आपको ये हमारी तरफ़ से शादी की गिफ्ट।"

मैं पीने वाला प्राणी था। ये बात सभी जानते थे। बोतल टीचर्स की थी। उसने कहा...

"सर अभी तो आपके पास टाइम है, एक ड्रिंक हमारे साथ पीजिये।"

मैं जब तक हाँ हूँ करता उसने सुष्मिता को कहा। वो ग्लास ले आयी। उसने तीन ड्रिंक बनाये।

ड्रिंक के दरमियाँ उसने अपनी प्रेम कहानी सुनायी। बताया कैसे वो सांसद साहिब के सचिव के चाचे का लड़का था। कैसे दोनों ने बचपन साथ में बिताया और ये और वो। मोटा मोटी कहानी बिलकुल बोरिंग थी। मगर किसी भी लड़की की प्रेम कहानी, अगर लड़की के सामने व्हिस्की पीते हुए सुनो तो अच्छी हीं लगती है।

कहानी कुछ खींच के उसने दूसरी ड्रिंक भी बना दी। मैंने देखा करीब साढ़े ग्यारह बज गए थे। लगता है व्हिस्की का हीं असर था कि कुछ देर सोच के मैं बोला....

"ठीक है!! मैं ताला लगा देता हूँ, मेरे पास दूसरी चाभी है, मगर तुम इस चाभी का क्या करोगे।"

बोला

"सर अपने पास रखूँगा, आपकी तरफ़ से शादी का तोहफा समझकर।"

मैं ताला बंद कर के सिनेमा हाल की तरफ चल दिया। शाम को घर लौटा। ताला खोला, तो देखा दोनों वहां नहीं थे। व्हिस्की की बोतल आधी से ज्यादा, बल्कि खत्म हीं थी।

एक दिन पूरा उहा पोह ने बीत गया। लोकल न्यूज़ के सारे पन्ने पलट डाले। ख़बर तो कुछ थी नहीं। सार्थक का नम्बर ऑफ़ था। सात्विक का नंबर लेना मैं भूल गया था। किसी तरह एक दिन कटा।

अगले दिन यूनिवर्सिटी गया तो वहां भी सब नार्मल हीं लगा। मुझे लगा कोई शायद मेरे इस बहादुरी को जानता हीं नहीं।

थोड़ा अफ़सोस भी हुआ मुझे। सोचा चलो किसी को तो बताऊँ। तभी सामने देखा सार्थक अपने कुछ दोस्तों के साथ खड़ा था।मैं लपक कर बाहर निकला। उसकी तरफ देखा तो वो बड़ी बेशर्मी के साथ हँस रहा था। बल्कि मुझे देख कर तो उसने थम्बस अप भी किया। दूर से तो लगा कि शायद आँख भी मारा हो।

मुझे काटो तो खून नहीं। दिल थोड़ा शांत हुआ तो सोचा....

"साला ताला तो बदलना पड़ेगा ..."