Darbadar in Hindi Classic Stories by ARUN SINGH books and stories PDF | दरबदर

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दरबदर

अंकुर-गांव का एक जवान लड़का, हट्टा कट्टा, हाइट पांच फिट आठ इंच।शहर पहुँच कर पैसे कमाने की ललक-इसलिए आ गया शहर।अब क्या करे, क्योंकि पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं,पैसे कमाने के लिए काम तो चाहिए ही।इधर-उधर हाथ पांव मारा और कम्प्यूटर में छह महीने का कोर्स कर लिया- कोर्स इन कम्प्यूटर आपरेशन एंड अप्लीकेशन।एक सेठ की आफिस में कम्प्यूटर आपरेटर की नौकरी मिल गई।काम यही कुछ-यहां की फाइल वहाँ और वहाँ की फाइल यहाँ,जरा सेठ की खिदमतदारी,जी हुजूरी-यस सर,यस बास।तकलीफ भी क्या! बस इतने से काम का पंद्रह हजार रुपये वेतन।मस्त आंखों पर गोगल्स फिर बाइक पर सवार होकर लौंडा निकलता,तो लोग घुरते-"जरुर,लोंडे ने कोई बड़ा हाथ मारा होगा।"
अंकुर की मां के चेहरे पर खुशियाँ हिलोरें मारने लगी थीं।छोटी बहन पार्वती के अरमान बेलगाम होकर नृत्य करने लगे थे।अंकुर को अपने माँ-बाप और बहन की इच्छाओं को पूरा करने की एक ललक थी इसलिए वह हर महीने आठ दस हजार रुपये मनी आर्डर कर दिया करता।एक दिन अंकुर के पिता जी का फोन आया-"अंकुर बेटा, एक लाख इकट्ठा कर लेते तो दो कमरा बनवा लेता,पुराना मकान जरजर हो चुका है।बारिश में पानी टपकता है।"
एक दिन माँ का फोन आया-"बेटा,कुछ पैसे भेजता तो पार्वती के लिए कुछ गहने बनवा लेती,आखिर उसकी शादी भी तो करनी है।उन्नीस साल की हो गई है।तुम्हारे बाबूजी लड़का देखने गए हैं।लड़का पसंद आ गया तो इसी साल पार्वती को ब्याह देंगे।"
अंकुर के दीमाग में चिंताओं की लहरें उठने और गिरने लगी थीं।
उसे याद है-"बाबूजी कैसे तेज दोपहरी में खेतों में काम करते हैं-पसीने से भींगे हुए,पांवों में फटी हुई बेवाइयां,बदन पर फटे हुए कपड़े।कितनी मेहनत करते हैं वे।बस इसलिए की मैं पढ़ लिख लूं, मेरी बहन पढ़ लिख ले।हम पढ़ लिख कर आदमी बन जाएं।पर क्या बना मैं? एक मामूली सा कम्प्यूटर आपरेटर, एक क्लर्क।"
सोचा-"सेठ से बात करता हूँ।शायद कुछ मदद कर दें।"
अंकुर बड़ी ही उम्मीद के साथ सेठ के पास गया था,पर सेठ ने तो साफ साफ बोल दिया-"भाई कोई मदद नहीं कर सकता, ईमानदारी से काम करो और सैलरी ले जाओ।बस।इससे ज्यादा की उम्मीद मत रखना मुझसे।"
अंकुर बेहद निराश हो गया था।वह दो दिनों तक आफिस नहीं गया।खाना पीना छोड़ दिया।यही सोचता रहा-इस नौकरी से वह अपने माता पिता की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाएगा।कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़नी पड़ेगी, पर कैसे? किसके पास जाऊं? कोई तो नहीं है मेरा यहाँ,इस शहर में।नींद आई-सो गया।तभी मोबाइल की रिंग बजने लगी।आंख मलते हुए देखा-यह तो सेठ का फोन है।दो दिनों से आफिस नहीं गया,डांटेंगे।डरते हुए फोन उठाया-"सर तबियत ठीक नहीं है,इसलिए आफिस नहीं आ पाया।
सेठ-"कोई बात नहीं, तुम फटाफट आफिस पहुँचों,बहुत जरूरी काम है, तुम्हारी सारी जरुरतें मैं पूरी कर दूंगा।"सेठ ने फोन काट दिया।अंकुर सोचने लगा-"अब आया ना ऊंट पहाड़ के नीचे.... हूँ!गांधी जी का असहयोग आंदोलन सफल हो गया।"
अंकुर बाइक पर सवार होकर आफिस पहुंचा।डोरबेल बजाया।सेठ ने खिड़की से झांककर देखा-बाहर अंकुर खड़ा है।दरवाजा खोला और अंकुर को अंदर खींच लिया।आफिस के अंदर का मंजर बहुत भयावह था-फर्श पर खून बिखरा हुआ था और पास में सेठ के बिजनेस पार्टनर रुपेश भाई की डेड बाडी पड़ी थी।सेठ-"घबराओ नहीं,तुम्हारे बैंक एकाउंट में मैं तीस लाख रुपये डाल दूंगा।बस तुम्हें पुलिस के सामने इतना बोलना है कि रूपेश की हत्या तुमने की है।"अंकुर का सिर चकराने लगा।ऐसा लग रहा था कि वह बेहोश होकर गिर पड़ेगा।
अंकुर ने हत्या का गुनाह अपने सिर पर ले लिया।
आज कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई है।पर माता पिता बेहद खुश हैं।क्योंकि सेठ ने उनके एकाउंट में चालीस लाख रुपये डाल दिए हैं।माँ बेटे को समझा रही है-"बेटा चिंता थूक दे,सेठ तुम्हारा  केस ऊपर वाले कोर्ट तक लड़ेंगे।तुम्हें कुछ नहीं होगा।वह तुम्हें बचा लेंगे।घबराआओ नहीं-अब हमारा मकान भी बन जाएगा और पार्वती का ब्याह भी हो जाएगा।"
अंकुर चुप है, शांत है, चारों ओर सन्नाटा, भावहीन चेहरा-बस पथराई आंखों से मां की गहरी आंखों में झांक रहा है।जहाँ पहली बार उसे खुशियों के कुछ हिचकोले नजर आए थे।कैसे वह इन्हें मिटा दे।
माँ बेटे के सिर पर हाथ फिराती हुई उठी और वहाँ से जाने लगी।