Vo wala whats app group in Hindi Adventure Stories by Neetu Singh Renuka books and stories PDF | वो वाला व्हाट्सएप ग्रुप

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वो वाला व्हाट्सएप ग्रुप


फोन की टिंग-टिंग-टुंग-टुंग की आवाज़ बराबर अंदेशा देती रहती थी कि न जाने मेरे कितने ग्रुपों में मेसज पॉप अप हो रहा है। कई ग्रुप तो साइलेंट पर किए हुए हैं। फिर भी कुछेक दोस्त हैं जिन्हें मैं हरगिज़ साइलेंट नहीं कर सकती। अव्वल तो ऑफिस और घर के इम्पोर्टेंट मेसज आते रहते हैं और दूसरे, कुछ दोस्त बड़े भावुक किस्म के हैं, उन्हें तुरंत रिप्लाई नहीं मिला तो जाने क्या-क्या सोच जाते हैं।
ऐसे ही एक बार मैंने ऑफिस गाईस ग्रुप को साइलेंट कर दिया था। क्या करती उनकी चिल्ल-पों खतम ही नहीं हो रही थी। जैसे ही टी.वी. पर नोटबंदी की सूचना क्या आई, एक ही मिनट में 70 मेसेज! उफ्। पर नतीजा तो मुझे ही भुगतना पड़ा। सबने ग्रुप में पिकनिक प्लान कर दिया और मैं जान ही नहीं पाई। पिकनिक जाने के समय सब मुझे फोन लगा रहे हैं और मुझे कुछ पता ही नहीं था। कितनी शर्मिंदगी की बात है। 
तो मैं कह रही थी कि अब बहुत सोच-समझकर ग्रुप साइलेंट करना पड़ता है। कहीं कुछ छूट न जाए। लेकिन सबसे ज़्यादा सोचना पड़ता है तब जब  कोई मेसेज या जोक फारवर्ड करना होता है। किस ग्रुप के मेम्बर कैसे हैं, यह ध्यान में रखना पड़ता है क्योंकि अगर किसी ग्रुप के टैस्ट के खिलाफ़ कुछ पोस्ट कर दो, तो बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। 
ग्रुप भी तो कितने सारे हैं उफ्‌! अब फारवर्ड का बटन दबाने के बाद अगर लक्षित ग्रुप की बजाय ऊपर या नीचे वाले ग्रुप का बटन दब जाए, तो फिर तो हाय तौबा। ऐसे ही हुआ था एक बार। अपने कॉलेज ग्रुप में तो हम नॉन-वेज जोक्स भी शेयर कर लेते थे पर मजाल की ऐसा कोई जोक फैमिली या ऑफिस या योगा या कॉलोनी या शॉपिंग लेड़ीज़ या पिकनिक या ऑफिस लेड़ीज़ या ऑफिस बस या ट्रेकिंग या स्पा या स्कूल डेज़ या उपासना ग्रुप में चला जाए।
पर हुआ था एक बार ऐसा। मेरे फैमिली ग्रुप में चला गया था। यह ग्रुप ऐसा है कि इसमें संयुक्त परिवार वाली पूरी फीलिंग आती है। इसमें मेरे ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ-फूफा के साथ-साथ उनके बच्चे तक शामिल हैं जो कि सब के सब मेरे भाई-बहन लगेंगे। सब इस ग्रुप में शादी, सगाई, गृह-प्रवेश, पूजा-हवन, त्यौहार, यात्रा के फोटो और साथ ही साथ किसी बच्चे या बड़े की विशेष उपलब्धि की जानकारी डालते रहते हैं। कभी-कभी तो कुछ न हो, तो किसके घर में क्या खाना बना है, उसकी फोटो तक डाल देते हैं और दूर बैठे हम लोग लार-टपकाने की इमोजी डालते रहते हैं। 
तो मैं कह रही थी कि उस दिन गलती से एक नॉन-वेज जोक जो मैं कॉलेज ग्रुप में डालना चाहती थी, फैमिली ग्रुप में डाल गई। अभी फैमिली ग्रुप का आइकन दबाया ही था कि होश आ गया और मैंने तुरंत मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया। फिर मोबाइल ऑन कर डाटा आने से पहले ही डाटा ऑफ कर दिया और व्हाटसप अनइंस्टाल कर दिया। मेसेज नहीं गया।
उफ्‌! इस बार तो बच गई। मगर अब मुझे बहुत सावधानी रखनी पड़ती है कि वो वाले व्हाटसप ग्रुप में क्या डालना है और क्या नहीं और ये वाले व्हाटसप ग्रुप में क्या डालना है और क्या नहीं। बहुत सरदर्दी का काम है, खासकर तब जब आप इतने सारे ग्रुप के मेम्बर हों।  
तो मैं कह रही थी कि ग्रुप तो बहुत सारे हैं मगर इसका भी अपना ही एक मज़ा है। अपनी हर बात शेयर करने के लिए एक ग्रुप है। ऑफिस से जुड़ी बातों के लिए ऑफिस ग्रुप, घरेलू बातों के लिए फैमिली ग्रुप और बीती बातों के लिए कॉलेज ग्रुप और ना जाने किन-किन बातों के लिए कौन-कौन से ग्रुप। इतने सारे ग्रुप में बात कर के बहुत सुलझा हुआ महसूस करती हूँ।
लेकिन मुझे असली बात तो ‘स्वरा’ ग्रुप के एक मेम्बर के बारे में बतानी थी। दरअसल इसी बीच मुझे अपनी साहित्यिक बातों के लिए भी एक ग्रुप मिला या यों कहें कि मुझे बनाना पड़ा।
हुआ यों कि मुझे एक प्रतिष्ठित पत्रिका का प्रबंध संपादक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने इस सौभाग्य को हाथों-हाथ लिया और चटपट एक व्हाट्सप ग्रुप बना डाला। इस ग्रुप में मेरे मुख्य संपादक के अलावा संपादक मंडल के सभी सहयोगी तो थे ही, जुड़ते-जुड़ते रचनाकार तो रचनाकार पाठक भी जुड़ने लगे। इस प्रकार एक लंबा-चौड़ा ग्रुप तैयार हो चला। हाँलाकि इस पत्रिका के मुख्य संपादक सबसे ऊँचे स्थान पर विराजमान थे लेकिन प्रत्यक्ष रूप से मैं ही इस पत्रिका की कर्ता-धर्ता थी और उनसे केवल अनुमति ले लिया करती थी। 
इसी प्रकार इस पत्रिका के ग्रुप की एडमिन भी मैं ही थी। ग्रुप का नाम मैंने रखा था ‘स्वरा’ ग्रुप क्योंकि पत्रिका का भी यही नाम था। तो ‘स्वरा’ ग्रुप के बिन बोले नियम थे कि केवल और केवल साहित्यिक चर्चाएं होंगी। फिल्म से, अपने परिवार से जुड़ी बातें और फोटो शेयर नहीं की जाएं और जोक्स भी नहीं। 
जब कभी कोई इन बिन बोले नियमों का उल्लंघन करता था तो मुझे बोलना पड़ता था कि ‘कृपया इस मंच पर केवल साहित्यिक चर्चाएं की जाएं।’ और फिर हाथ जोड़ने का इमोजी डाल देती थी। मेरी इस सख़्ती और भी अन्य सख़्तियों के कारण मेरे मुख्य संपादक मुझे औरंगज़ेब कहा करते थे। 
कुछ अन्य सख़्तियों में पत्रिका को उच्च स्तरीय रखने की मेरी चेष्टा शामिल है। मैं अक्सर रचनाओं को उनके स्तरीय न होने के कारण छाँट देती थी। गाली-गलौज वाली और अश्लील रचनाएं भी। साथ ही धार्मिक रचनाओं को भी मैं इस पत्रिका से दूर ही रखती थी क्योंकि अपनी पत्रिका का किसी धर्म-विशेष के प्रति झुकाव नहीं प्रदर्शित करना चाहती थी। इसी चक्कर में अच्छी-अच्छी रचनाएं भी शामिल नहीं हो पाती थीं और इसी लिए औरंगज़ेब की उपाधि मिली थी मुझे।
अब उसी दिन विमल शर्मा की इतनी अच्छी कहानी मुझे छाँटनी पड़ी। कहानी बेशक बहुत अच्छी थी। ग्रामीण परिवेश पर इतनी बढ़ियाँ कहानी मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी थी। लेकिन... लेकिन मेरा औरंगज़ेबी मन उसमें लिखी गालियों को बर्दाश्त नहीं कर पाया। और वे गालियां निकाल देने से कहानी के पात्र अधूरे-अधूरे, कुछ अपंग से हो जाते थे। मजबूरन मुझे वह कहानी छाँटनी पड़ी।
तो मैं कह रही थी कि ‘स्वरा’ ग्रुप में केवल साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। बच्चन और बाबा नागार्जुन की कविताओं से लेकर कुमार विश्वास और उनकी चेली के यू ट्यूब विडीयो तक, सूरदास के ‘उर में माखन चोर गड़े हैं’ से मैत्रेयी पुष्पा के ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ तक, ग़ालिब के ‘डुबोया मुझको होने ने’ से मुन्नवर राणा का ‘लबों पर उसके कभी बद्दुआ नहीं होती’ तक। बड़ा आनंद आता था किसी-किसी अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न अर्थ जानकर और लोगों की उससे जुड़ी भावनाएँ जानकर। 
तो मैं कह रही थी कि ‘स्वरा’ ग्रुप में बहुत सारे लोग जुड़ गए थे, जिनमें पत्रिका के पाठक भी शामिल थे और मैं ऐसे ही एक पाठक श्रीलाल चतुर्वेदी के बारे में बताना चाह रही थी जो अपने आप को श्रीलाल शुक्ल से कम नहीं समझते थे। उम्र उनकी 72 साल थी मगर ग्रुप में उनकी मौजूदगी किसी किशोरी से कम नहीं थी। बार-बार मना करने के बावजूद अपनी सेल्फी डाल देते थे। 
इस बार उन्होंने अपनी पोती के साथ बर्लिन में ली हुई फोटो डाल दी। अब तो हद हो गई। कितनी बार समझाया कि इस ग्रुप में केवल साहित्यिक चर्चा होगी या पत्रिका से संबंधित चर्चा होगी और कुछ नहीं। भला उनकी पोती का पत्रिका या साहित्य से क्या संबंध? पिछली बार भी उन्होंने अपने बगीचे की तस्वीर डाल दी थी। एक फोटो तो नया कोर्ट पहना था, तब का डाल दिया। उफ्‌! मैं अब और बर्दाश्त नहीं करूँगी।
मैंने उनको ग्रुप से निकालने का निश्चय कर लिया और इसकी सूचना ग्रुप में दी। ग्रुप के सारे सदस्य सहम से गए क्योंकि धड़ाधड़ मेसेज आने वाले इस ग्रुप में दो घंटे तक चुप्पी छाई रही। मेरे इस कठोर निर्णय के आगे कोई भी कुछ बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। उन्हें डर था कि यदि कोई उस बुड्ढे के पक्ष में कुछ बोला तो उसे भी ग्रुप से बेदखल न कर दिया जाए।
अंत में वे खुद ही बोले - ‘मैं अपनी इस गलती के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। वादा करता हूँ कि आगे से यह गलती दुहराई नहीं जाएगी और उम्मीद करता हूँ मुझे ग्रुप से निकाला नहीं जाएगा।’  
इस मैसेज के साथ एक हाथ जोड़ने वाला इमोजी भी जुड़ा था। मुझे बहुत बुरा लगा, इतने बुज़ुर्ग आदमी का हाथ जोड़ना और माफी माँगना। ग्रुप में सभी को लगा होगा, पर किसी ने कुछ कहा नहीं। मैं भी क्या कहूँ, कुछ सूझ नहीं रहा था। 
मैं असमंजस में थी। इतना तो तय था कि अब उनको ग्रुप से नहीं निकालना था मगर मैं कहूँ तो क्या कहूँ? मेरी इस दुविधा से मेरे एक सहयोगी संपादक ने उबारा। उन्होंने ग्रुप में ‘पिउ सौ कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा! हे कागा।’ पंक्ति डाल कर नागमती वियोग खंड पर और उसमें बारहमासा के प्रयोग पर चर्चा छेड़ दी, जिसमें सबने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 
इस प्रकार बात आई-गई हो गई। मुझे कुछ कहना नहीं पड़ा और मेरे बिना कहे ही सब समझ गए कि श्रीलाल जी ग्रुप में ही रहेंगे। पर मैंने नोटिस किया कि उस दिन के बाद से श्रीलाल जी बहुत सतर्क हो गए और फोटो डालना तो दूर, बहुत सोच-समझकर कुछ टिप्पणी तक किया करते थे। 
तो मैं कह रही थी कि वे थे तो श्रीलाल चतुर्वेदी मगर अपने आप को श्रीलाल शुक्ल से कम नहीं समझते थे क्योंकि मैंने उन्हें ग्रुप में पाठक के रूप में ऐड किया था मगर उनकी पूरी कोशिश रहती थी कि वे रचनाकार का दर्जा प्राप्त करें। उन्होंने बहुत कोशिश की कि उनकी कोई रचना पत्रिका में छपे। पर ऐसा हो न सका।
तो मैं कह रही थी कि वे रचनाकार का दर्जा प्राप्त करने की पूरी कोशिश करते रहे। उन्होंने कई कविताएं और लेख लिखे। मगर उनकी कविताएं पढ़कर मुझे लगता था जैसे किसी बच्चे ने जबरदस्ती की तुकबंदी बिठाकर कविता करने की कोशिश की हो, और तो और तुकबंदी बिठाने के चक्कर में कविता के विषय को भी कहीं से कहीं और पहुँचा दिया गया हो। 
उनके लेख भी स्तरीय नहीं होते थे कि उनको छपने के लिए दे सकूँ। उनके लेखों में वस्तुनिष्ठता कम थी और अपने ही बारे में बताने की ललक ज़्यादा। ऐसे में मेरा औरंगज़ेबी मन भला अपनी स्तरीय पत्रिका के लिए उनके लेख या कविताएँ कैसे स्वीकार कर लेता।
मैं संपादक मंडल का नाम ले लेकर उनकी रचनाएँ रद्द करती रही। एक समय के बाद तो मुझे बुरा भी लग रहा था। खासकर ग्रुप से उनको निकालने की धमकी देने के बाद से तो और ज़्यादा। मगर मैं पत्रिका के साथ भी कोई अन्याय नहीं कर सकती थी। 
तो मैं कह रही थी कि उनकी रचनाएँ रिजेक्ट करने में मुझे बहुत बुरा लग रहा था मगर उनके हौसले बहुत बुलंद थे। उन्होंने हार नहीं मानी और वे लगातार लिखते रहे। धीरे-धीरे उनकी लेखनी में थोड़ा-थोड़ा सुधार भी आया, मगर इतना नहीं कि पत्रिका में छापा जा सके। 
इस बीच कुछ दिनों के लिए ग्रुप में उनकी गतिविधि बंद हो गई। उनकी टिप्पणियाँ आना बंद हो गई और उनकी आड़ी-टेढ़ी कविताएं भी। दो-चार दिन तो मुझे लगा कि शायद कहीं व्यस्त हो। फिर जब दो हफ़्ते बीत गए तो मुझे लगा कि कहीं बूढ़ा आदमी मर-मरा तो नहीं गया।
इस कशमकश में कुछ और दिन बीते कि कैसे पता करूँ कि उसे क्या हुआ? या फिर चुपचाप जाने दूँ, जो कुछ हुआ हो या नहीं। मुझे क्या लेना-देना? मेरा कोई सगा थोड़े न था। और पत्रिका के चलने के लिए भी कोई महत्वपूर्ण आदमी नहीं था। 
पर अपने आप को बहुत दिन तक भुलावा न दे सकी और तीन हफ़्ते बाद ग्रुप से उसका नंबर सेव कर उसे फोन लगाया। मगर फोन बंद था। 
मेरी उत्सुकता का समाधान तो नहीं मिला मगर एक इत्मीनान हुआ कि कोशिश तो की। और अच्छा हुआ कि किसी से बात नहीं हुई वरना क्या बोलती कि क्यों फोन किया या कौन हूँ, फोन कर कुछ भी पूछने वाली।
फिर मैंने उसे भूलने की कोशिश की, कुछ-कुछ भूल भी गई थी। मगर जहाँ-कहीं बूढ़े लोग नज़र आते, मुझे वो याद आ ही जाता।
उस दिन मैं पत्रिका की एक मीटिंग में बैठी थी और इस बात पर अपने मुख्य संपादक को मनाने की कोशिश कर रही थी कि क्यों न पत्रिका का वार्षिकोत्सव मनाया जाए, जिसमें रचनाकारों और पाठकों को आमंत्रित कर एक मंच पर मिलने का मौका दिया जाए। 
इसी बीच ग्रुप में एक मेसेज आया। ये मेसेज उसी बूढ़े का था। मुझे इत्मीनान सा हुआ पर मेसेज ठीक से देख नहीं पाई क्योंकि मीटिंग में थी। संपादक को मना नहीं पाई क्योंकि उत्सव के लिए पैसों पर बात अटक रही थी। 
ख़ैर! बैठक बिना समाधान के ही ख़तम हुई और बैठक के ख़तम होते ही मैंने ग्रुप के मैसेज पढ़े। अब तक ग्रुप में कई मेसेज डाले जा चुके और मुझे नीचे स्क्रोल करके उसका मेसेज पढ़ना पड़ा। 
उसने एक बहुत सुंदर कविता लिखकर पोस्ट की थी और उसे पत्रिका में छापने का अनुरोध किया था। कविता कुछ इस प्रकार थी -: 
       नटखट पनघट तट आयो री।
ठान, तान बंसी, आन मोहे, बजायो री॥
रुनुक-झुनुक तुरत तुनुक मोहे बुलायो री।
चंद छंद कह मंद-मंद मुस्कायो री॥ 

    मुझे कविता बहुत अच्छी लगी। इसे तीन ताल या कहरवा पर बिठाया जाए तो बहुत सुंदर गीत या भजन तैयार हो सकता था। मैंने उसे टैग करके उस कविता की मन भरकर तारीफ़ की। बूढ़ा भी खुश हो गया। उसने स्माइल वाली इमोजी डाली, और तो और ग्रुप के बाकी सदस्यों ने (जो शायद उसकी कविता पर कभी ध्यान भी नहीं देते होंगे) मेरी की हुई तारीफ पढ़कर उसकी कविता पढ़ी और खूब तारीफ की। वह बूढ़ा आदमी खुशी से लबालब भर गया। लोगों को धन्यवाद देते नहीं थक रहा था। 
मुझे भी अंदर ही अंदर बहुत राहत महसूस हुई और बुड्ढा भी इतना खुश लग रहा था जितना साहित्य अकादमी विजेता भी न होंगे। पर मुझे खेद के साथ उसे बताना पड़ रहा था कि संपादक मंडल उसकी कविता नहीं छाप सकेगा। मैं चाहकर भी उसकी कविता नहीं छाप सकती थी। अपने ही बनाए उसूलों में फँसकर रह गई थी। कविता धार्मिक थी। ग्रुप में चर्चा करने के लिए तो ठीक है मगर मेरे रहते धार्मिक रचनाएँ पत्रिका में जगह नहीं ले सकती थीं।
पर बूढ़े ने हार नहीं मानी। वो एक से एक कविता लिखने लगा। उसकी नई कविताओं के आगे तो रीतिकाल के कवि लोग दाँतों तले उँगली दबा लें। उँगली इस लिए नहीं दबा लेंगे क्योंकि कविता में न केवल कवि केशव सी निपुण छंदबद्धता थी बल्कि इसलिए कि नारी सौंदर्य का जितना सूक्ष्म वर्णन इस बूढ़े ने किया था वह वे केवल सोचकर रह गए होंगे। बूढ़ा कितना रंगीला है, बाप रे बाप! इतना रंगीला कि मैं उसकी कविता बता भी नहीं सकती।
पर इतना होने पर भी मैं उसकी कविता छपने के लिए नहीं दे सकती। मुझे अफसोस है। पर मुझे एक बात अच्छी लगी। बहत्तर साल की उम्र में भी यह बूढ़ा कितना हौसलेमंद है। एक और उससे भी बड़ी बात कि अब मुझे इस बूढ़े को देखने का भी मौक़ा मिलेगा।
हाँ तो मैं कह रही थी कि पत्रिका की पिछली बैठक में मैं अपने मुख्य संपादक को वार्षिकोत्सव के लिए मना तो नहीं पाई मगर यह ख़्याल तो उनके दिमाग़ में उतार ही दिया कि अगर ऐसा हो जाए तो पत्रिका की प्रतिष्ठा में तो चार-चाँद लगेंगे ही, साथ में हमें अपने रचनाकारों को प्रोत्साहतकर और अच्छे लेख मिला करेंगे। इसी उधेड़बुन में उन्होंने एक प्रायोजक भी ढूँढ लिया जो कार्यक्रम का ख़र्चा उठाएगा और बदले में हम उसके उत्पाद के विज्ञापन को अपनी प्रतिष्ठित पत्रिका में जगह देकर उसका प्रचार-प्रसार करेंगे। 
तो मैं कह रही थी कि वार्षिकोत्सव आयोजित हुआ और मुझे उस बूढ़े को भी देखने का मौका मिला। बूढ़ा भी बहुत उत्साहित था। मुझसे मिलकर उसने पत्रिका के बारे में ढेरों सवाल पूछे। वह हॉल के चक्कर लगा-लगाकर कुर्सी पर बैठ जाता। फिर चक्कर लगाकर दो-चार लोगों से मिलता-जुलता और फिर अपने घुटने पकड़कर कुर्सी पर बैठ जाता।
मैं एक कोने में अपनी कोल्ड ड्रिंक का ग्लास थामे खड़ी थी कि शुभेंदु सिन्हा जी मेरे पास आए और मुझे खोया हुआ देखकर उसी ओर देखने लगे। उन्होंने भी उस बूढ़े को नोटिस किया। सिन्हा जी हमारी पत्रिका के संरक्षकों में से एक हैं और मेरे काम से भी प्रसन्न रहते हैं। उनका कृपापात्र बने रहना मुझे भी पसंद है। 
तो मैं कह रही थी कि शुभेंदु सिन्हा जी ने बूढ़े को नोटिस किया और नोटिस करके हँस दिए। मेरा ध्यान भंग हुआ और मैंने उनकी हँसी का कारण पूछा। उनकी हँसी का कारण जानकर पहले तो मैं भी हँसी पर कुछ देर बाद ऐसी घटना घटी की मैं स्तब्ध हुए बिना नहीं रह पाई।
तो मैं कह रही थी कि सिन्हा जी बूढ़े पर हँस रहे थे क्योंकि अपने बर्लिन प्रवास के दौरान उन्होंने इस बूढ़े को देखा था। बर्लिन में इनके मकान के सामने वाले मकान में जो दम्पति अपनी बेटी के साथ रहता था, उनके साथ कुछ दिन यह बूढ़ा भी रहने आया था। यह बूढ़ा उनकी बेटी का दादा था। रहने तो वो हमेशा के लिए आया था मगर कुछ ही दिन में भारत लौटा दिया गया।
मुझे अचानक वो तस्वीर याद आई जो बूढ़े ने अपनी पोती के साथ खींचकर ग्रुप में डाली थी। उसके लिए वो क्षण इतने अनमोल थे कि वो उन्हें बाँटे बिना नहीं रह सका। वो वहाँ अपने बेटे-बहू के साथ रहने गया था मगर उसने उनकी नाक में इतना दम कर दिया कि उसे वापस भारत भेजना पड़ा। 
सिन्हा सर हँस-हँसकर बता रहे थे कि कैसे उसने अपनी बहू की मदद करने के उत्साह में डिसवाशर तोड़ दिया और जाने वैक्युम क्लीनर के साथ क्या किया कि वो भी बिगड़ गया। किसी दिन कुत्ते को घुमाने गया तो कुत्ता कंट्रोल के बाहर हो गया और कुत्ते ने किसी को काट लिया जिसका हर्जाना भरने के बाद उस दम्पति ने  तय कर दिया कि जनाब भारत में ही भले।
सिन्हा सर जिस तरह चुटकियाँ ले-लेकर बूढ़े की बर्लिन वाली तस्वीर आँखों के सामने खींच रहे थे, मुझसे पेट पकड़कर हँसे बिना नहीं रहा गया।
तो मैं कह रही थी कि अभी तो मैं पेट पकड़कर हँस रही थी मगर कुछ देर बाद ऐसी घटना घटी की मेरी आँखें अकस्मात ही नम हो गईं। हुआ यों कि शुभेंदु सिन्हा जी तो अपने किसी अन्य परिचित से बतियाने निकल लिए मगर इसी बीच बूढ़ा मेरी ओर लपका। उसे आता देख पहले तो मैंने अपना मुँह दूसरी ओर कर लिया क्योंकि मेरी हँसी थम ही नहीं रही थी और उसके मुँह पर हँसने की अशिष्टता मैं करना नहीं चाहती थी। 
उसने मेरे पीछे खड़े होकर मुझे आवाज़ दी। मेरे पास नज़रअंदाज़ करने का कोई कारण नहीं था। मजबूरन मुझे मुखातिब होना ही पड़ा। बड़ी मुश्किल से मैंने अपनी हँसी रोककर उसका सामना किया तो उसने मुझसे पत्रिका की ओर से होने वाली सालाना कविता प्रतियोगिता के बारे में प्रश्न किया।
यह सुनकर मेरी हँसी तो गायब हो ही गई उल्टा मेरी कनपटी गुस्से से सुर्ख होने लगी। ऐसा नहीं था कि बूढ़े ने कोई बेतुका सवाल पूछा था या इस सवाल का जवाब देने में मेरी शान घटती थी या फिर वह मुझसे कोई गोपनीय जानकारी माँग रहा था। 
मुझे गुस्सा दरअसल यह सोचकर चढ़ रहा था कि यह जानकारी मैं पहले ही हमारे व्हाट्सअप ग्रुप में डाल चुकी हूँ। वैसे तो जब देखो तब वह ऑनलाइन रहता है और हर तरह के कमेंट डालता रहता है, और इतनी काम की बात जो मैंने ग्रुप में पोस्ट की तो अनदेखा बन रहा है। मेरे साथ टाइम काटने के लिए इसे और कोई वाहियात बात नहीं मिली। 
अपने गुस्से को कोल्ड्रिंक की अगली घूंट के साथ भीतर ही भीतर निगलते हुए मैंने उसे वह सूचित किया जो वो पहले से जानता है और वह यह कि ग्रुप में यह जानकारी उपलब्ध है। 
बूढ़े ने बड़ी ही विनम्रता से यह जानकारी मुझे दी कि उसे पता नहीं था और मैं उससे इसी उत्तर की अपेक्षा कर रही थी। मगर उसने और आगे भी कुछ कहा जिसकी मैं अपेक्षा नहीं कर रही थी। 
उसने बताया कि आज सुबह ही जाने कैसे उसका व्हाट्सअप अनइंस्टाल हो गया और उसे इंस्टाल करना नहीं आता। मैंने उसका फोन देखा तो सचमुच उसके फोन से व्हाट्सअप का ऐप गायब था। उसके अनुरोध पर और अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी समझते हुए मैंने उसका ऐप फिर से बहाल कर दिया।
तो मैं कह रही थी कि मैं बुड्डे का ऐप बहाल कर रही थी। जब मैं उसके घिस चुके स्क्रीन वाले मोबाइल और हार्ड बटन वाले फोन से जूझ रही थी तब वह किस्सा सुना रहा था कि कैसे एक बार पहले भी उसका ऐप ऐसे ही गायब हो गया था और वो करीब दो महीने तक कुछ नहीं कर पाया था। उसके किस्से से मुझे भी वे दिन याद आए जब ग्रुप में उसकी गतिविधि नहीं पाकर मैं आशंकित थी।
ख़ैर, तो मैं कह रही थी कि मैं बूढ़े का ऐप इंस्टाल कर रही थी। जैसे उसका ऐप इंस्टाल हुआ मुझे जबरदस्त झटका लगा। झटका लगा यह देखकर कि बूढ़े के व्हाट्सअप में ‘स्वरा’ ग्रुप के अलावा और कुछ भी नहीं है। किसी भी व्यक्ति का प्रोफाइल नहीं है, न किसी परिवार वाले का और न ही किसी अजनबी का ही। 
कुछ क्षणों के लिए तो मैं सुन्न हो गई। मुझे अपनी निजी अभिव्यक्ति के लिए जाने कितने ग्रुपों की ज़रूरत पड़ती है। हर प्रकार की बात शेयर करने के लिए हर प्रकार का ग्रुप। मगर बूढ़े के व्हाट्सअप  में तो केवल हमारा ही यह ग्रुप है और किसी अन्य व्यक्ति का प्रोफाइल तक नहीं और इसीलिए तो वो इतना उत्साहित होकर अपने जीवन से जुड़ी अनमोल तस्वीरों और बातों को ग्रुप में शेयर करता था।
थोड़ी देर के लिए मुझे अपने आप से घृणा हो गई कि कैसे मैंने उसे उसकी निजी अभिव्यक्तियों के लिए धमकाया, ग्रुप से निकाल देने की चेतावनी दे डाली थी। 
इस समय उन्हें देखकर न तो मुझे हँसी आ रही थी और न क्रोध ही। उसके प्रति मेरा नज़रिया एकदम बदल चुका था। श्रीलाल चतुर्वेदी जी के अकेलेपन के बारे में अब मैं बहुत कुछ जान गई थी, जो शायद उस हॉल में उपस्थित कोई व्यक्ति नहीं जानता होगा। इसलिए अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी समझकर मैंने ध्यान दिया कि पूरे कार्यक्रम के दौरान वे अकेले न रहें। उनका अपने कुछ परिचितों से भी परिचय कराया।
उस कार्यक्रम के ख़तम हो जाने के बाद भी मैं अपनी पत्रिका के ग्रुप में कड़ाई से पेश आती हूँ और किसी को उसमें निजी बातें पोस्ट नहीं करने देती हूँ। मगर मैंने उन्हें व्हाट्सअप में उनके निजी प्रोफाइल पर ऐड कर लिया है और उन्हें उनके व्यक्तिगत विचार रखने के लिए वहीं प्रोत्साहित करती हूँ।
तो मैं कह रही थी कि मैं ग्रुप में अभी भी सख़्त हूँ मगर पत्रिका के मामले में नहीं रही पाई और अपने ही उसूलों को ताक पर रखते हुए और बिना यह सोचे कि बाकी रचनाकार और संपादक सहयोगी और यहाँ तक कि हमारे मुख्य संपादक मुझे क्या-क्या न सुनाएँगे, मैंने आगामी अंक में उनकी ‘नटखट पनघट तट ...’ वाली कविता छापने का मन बना लिया है। 
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