HOLD_ALL ke SHIKAR in Hindi Comedy stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | होल्डाल के शिकार

Featured Books
  • అరె ఏమైందీ? - 24

    అరె ఏమైందీ? హాట్ హాట్ రొమాంటిక్ థ్రిల్లర్ కొట్ర శివ రామ కృష్...

  • నిరుపమ - 10

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 9

                         మనసిచ్చి చూడు - 09 సమీరా ఉలిక్కిపడి చూస...

  • అరె ఏమైందీ? - 23

    అరె ఏమైందీ? హాట్ హాట్ రొమాంటిక్ థ్రిల్లర్ కొట్ర శివ రామ కృష్...

  • నిరుపమ - 9

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

Categories
Share

होल्डाल के शिकार

होल्डाल के शिकार

वर्ष 1965 में इलाहाबाद में ए. एस. पी. के पद पर नियुक्ति के कुछ दिनों बाद ही मुझे एपेंडिक्स का दर्द हुआ था। मेरे श्वसुर श्री राधेश्याम शर्मा, जो आगरा के एस. एस. पी. थे, ने आपरेशन हेतु तुरंत आगरा चले आने को कहा था। उन दिनों रेलगाड़ियों मे फर्स्ट, सेकंड और थर्ड क्लास हुआ करते थे। थर्ड क्लास में सफ़र करने की दशा में मैं नहीं था और फ़र्स्ट क्लास का किराया अपने बजट के बाहर की बात थी। इसलिये मैने सेकंड क्लास का टिकट खरीद लेने और डिब्बे में एक बर्थ छेंक लेने हेतु दो सिपाही पहले से भेज दिये थे। उन दिनों सेकंड क्लास में लेटकर सोने का प्राविधान नहीं होता था और जो यात्री पहले आकर बर्थ पर अपना होल्डाल बिछा देता था, वही बर्थ पर पैर पसारकर सोता था- बशर्ते वह दूसरे किसी तगड़े यात्री द्वारा धौंसिया लिये जाने लायक कमज़ोर इंसान न हो। इस कब्ज़ा जमाने अथवा किसी का कब्ज़ा हटाने के विषय को लेकर प्रायः डिब्बों में बहस-मुहावसा, गाली गलौज एवं धौल-धप्पड़ हो जाती थी। उन दिनों अंग्रेजी़ बोलने वालों की बड़ी धाक होती थी और अक्सर अंग्रेजी़ बोल सकने वाले मुसाफ़िर बहस प्रारम्भ होते ही अंग्रेजी़ बोलकर विरोधी मुसाफ़िर एवं टी. टी. दोनों को मूक बना देते थे और विजयी होकर होल्डाल पर सुख की नींद सोया करते थे।

गाड़ी छूटने के टाइम पर मैं जब स्टेशन पहुंचा, तो दोनो सिपाही एक बर्थ पर मेरा होल्डाल बिछाकर बाकायदा कब्ज़ा किये हुए थे. मुझे डाक्टर ने आपरेशन से पहले अधिक से अधिक आराम की सलाह दी थी. अतः मैं जूते उतारकर अपने होल्डाल पर लम्बायमान हो गया था। पहले तो कोई कुछ नहीं बोला था लेकिन जब गाड़ी चल दी और दोनों सिपाही मुझे ‘जयहिंद सर’ कहकर चले गये, तब सामने की बर्थ पर सपरिवार बैठे मियांजी अपने बात हवा में उछालते हुए से बोलने लगे थे,

“कुत्ता दूसरों पर गुर्राता है. बस मालिक के लिये वफ़ादार होता है ....आदि-आदि।’’ अन्य यात्री भी उनसे सहमत से प्रतीत हो रहे थे. जब मेरी समझ में आया कि मियां जी द्वारा हवा में उछाले उन ‘सुभाषित’ उद्गारों का सम्बंध मुझसे है तो मुझे संकोच अनुभव हुआ और मैं सोचने लगा कि मैं बर्थ पर लेटा रहूं या बैठ जाऊं । मुझे कुछ कुछ यह समझ में आया कि सिपाहियों ने मेरे लिये किसी खाली बर्थ पर कब्जा़ नहीं किया था, वरन् मियां जी, जो दो बर्थेां पर होल्डाल बिछाये हुए थे, को एक बर्थ से बेदख़ल करके किया था. तभी टी. टी. आ गया और उसे देखकर मियां जी एकदम खामोश हो गये। मेरा टिकट चेक करने के बाद जब उसने मियां जी से टिकट मांगा तो पता चला कि उनकी छः सवारियों के पास दो फ़ुल और दो हाफ टिकट ही हैं- एक उनका अपना, एक बेग़म साहिबा का, दो किशोर आयु के बच्चों का हाफ़-हाफ़ टिकट ही लिया था और 7-8 वर्ष तक के दो बच्चों को पांच वर्ष से कम का मानकर टिकट लिया ही नहीं था. टी. टी. बहुत हुज्जत के बाद भी उन मियां जी और उनके वाचाल परिवार से जुर्माना नहीं वसूल पाया, परंतु उसने उनकी ऐसी लानत-मलामत कर दी कि उनकी बोलती बंद हो गई थी. फिर मैं निर्द्वंद्व होकर अपने होल्डाल पर आराम से सोता हुआ सुबह आगरा पहुंचा था।

होल्डाल बिछाकर बर्थ पर धड़ल्ले से कब्ज़ा करने के अधिकार का शिकार कभी कभी पुलिस अधिकारी स्वयं भी हो जाते थे। इस विषय में पुलिस ट्रेनिंग कालेज मुरादाबाद में नियुक्त एक एस. पी. साहब ने एक मज़ेदार आपबीती सुनाई थी। एक रात्रि वह फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे में मुरादाबाद से लखनऊ की यात्रा कर रहे थे। बरेली स्टेशन पर वह सोते से घबराकर जाग गये थे क्योंकि उनके पैरों पर एक भारी भरकम होल्डाल पटक दिया गया था। आंख मलते हुए उन्होंने देखा कि पूरे डिब्बे में पुलिस वालों का हड़कम्प मचा हुआ था। जब वह इस हरकत पर कुछ बोले तो एक मोटा तगड़ा आर्म्ड पुलिस का सिपाही गुर्राने लगा,

‘‘हां हां हटाते हैं - सी. ओ., लाइन साहब का होल्डाल है।’’

यह सुनकर एस. पी. साहब मन ही मन मुस्कराये, परंतु उनको अपना परिचय देना अटपटा लगा और उन्होंने चुपचाप अपने पैर समेट लिये। फिर वह आगे का नज़ारा देखने लगे। पता चला कि बरेली में पीछे से आने वाले एक यात्री को उतरना था जिसकी बर्थ सी. ओ. लाइन साहब को मिलनी थी, परंतु वह यात्री बेख़बर सो रहा था। चूंकि फर्स्ट क्लास में बर्थ नम्बर नहीं होता था अतः पुलिस वाले भ्रमित थे कि सी. ओ. साहब की बर्थ कौन सी है, और उन्होंने इन एस. पी. साहब को दुबला पतला निरीह यात्री समझकर उनकी बर्थ पर सी. ओ. साहब का होल्डाल पटक दिया था।

होल्डाल के शिकार एक अन्य बहुत दुबले पतले आई. पी. एस. आफ़ीसर, जो प्रथम प्रोन्नति पर एक जनपद के एस. पी होकर ट्रेन से गये थे, भी हुए थे। उस समय देखने में वह बिलकुल टीनएजर लगते थे। उस दिन उनके फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे में और कोई यात्री नहीं था। सुबह जब ट्रेन गंतव्य स्टेशन पर पहुंची, तो वह अपने होल्डाल से उठकर डिब्बे के गेट पर खड़े हो गये थे। एस. पी. साहब को रिसीव करने आया रोबीला पुलिस इंस्पेक्टर उन्हें ढकेलकर डिब्बे के अंदर घुस गया था और होल्डाल को खाली देखकर उनसे पूछ बैठा था,

‘‘बेटा, एस. पी. साहब क्या बाथरूम में हैं?’’

 ***