Azad Katha - 2 - 110 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 110

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आजाद-कथा - खंड 2 - 110

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 110

खोजी ने जब देखा कि आजाद की चारों तरफ तारीफ हो रही है, और हमें कोई नहीं पूछता, तो बहुत झल्लाए और कुल शहर के अफीमचियों को जमा करके उन्होंने भी जलसा किया और यों स्पीच दी - भाइयों! लोगों का खयाल है कि अफीम खा कर आदमी किसी काम का नहीं रहता। मैं कहता हूँ, बिलकुल गलत। मैंने रूम की लड़ाई में जैसे-जैसे काम किए, उन पर बड़े से बड़ा सिपाही भी नाज कर सकता है। मैंने अकेले दो-दो लाख आदमियों का मुकाबिला किया है। तोपों के सामने बेधड़क चला गया हूँ। बड़े-बड़े पहलवानों को नीचा दिखा दिया है। और मैं वह आदमी हूँ, जिसके यहाँ सत्तर पुश्तों से लोग अफीम खाते आए हैं।

लोग - सुभान अल्लाह! सुभान-अल्लाह!!

खोजी - रही अक्ल की बात, तो मैं दुनिया के बड़े से बड़े शायर, बड़े से बड़े फिलास्फर को चुनौती देता हूँ कि वह आ कर मेरे सामने खड़ा हो जाय। अगर एक डपट में भगा न दूँ तो अपना नाम बदल डालूँ।

लोग - क्यों न हो।

खोजी - मगर आप लोग कहेंगे कि तुम अफीम की तारीफ करके इसे और गिराँ कर दोगे, क्योंकि जिस चीज की माँग ज्यादा होती है, वह महँगी बिकती है। मैं कहता हूँ कि इस शक को दिल में न आने दीजिए; क्योंकि सबसे ज्यादा जरूरत दुनिया में गल्ले की है। अगर माँग के ज्यादा होने से चीजें महँगी हो जातीं तो गल्ला अब तक देखने को भी न मिलता। मगर इतना सस्ता है कि कोरी चमार, धुनिये-जुलाहे सब खरीदते और खाते हैं। वजह यह कि जब लोगों ने देखा कि गल्ले की जरूरत ज्यादा है, तो गल्ला ज्यादा बोने लगे। इसी तरह जब अफीम की माँग होगी, तो गल्ले की तरह बोई जायगी और सस्ती बिकेगी। इसलिए हर एक सच्चे अफीमची का फर्ज है कि वह इसके फायदों को दुनिया पर रोशन कर दे।

एक - क्या कहना है! क्या बात पैदा की।

दूसरा - कमाल है, कमाल!

तीसरा - आप इस फन के खुदा हैं।

चौथा - मेरी तसल्ली नहीं हुई। आखिर, अफीम दिन-दिन क्यों महँगी होती जाती है?

पाँचवाँ - चुप रह! नामाकूल? ख्वाजा साहब की बात पर एतराज करता है! जा कर ख्वाजा साहब के पैरों पर गिरो और कहो कि कुसूर माफ कीजिए।

खोजी - भाइयो! किसी भाई को जलील करना मेरी आदत नहीं। गोकि खुदा ने मुझे बड़ा रुत्बा दिया है और मेरा नाम सारी दुनिया में रोशन है; मगर आदमी नहीं, आदमी का जौहर है। मैं अपनी जबान से किसी को कुछ न कहूँगा। मुझे यही कहना चाहिए कि मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नालायक, सबसे ज्यादा बदनसीब और सबसे ज्यादा जलील हूँ। मैंने मिस्र के पहलवान को पटकनी नहीं दी थी, उसी ने उठाके मुझे दे मारा था। जहाँ गया, पिटके आया। गो दुनिया जानती है कि ख्वाजा साहब का जोड़ नहीं; मगर अपनी जबान से मैं क्यों कहूँ। मैं तो यही कहूँगा कि बुआ जाफरान ने मुझे पीट लिया और मैंने उफ तक न की।

एक - खुदा बख्शे आपको। क्या कहना है उस्ताद।

दूसरा - पिट गए और उफ तक न की?

खोजी - भाइयों! गोकि मैं अपनी शान में इज्जत के बड़े-बड़े खिताब पेश कर सकता हूँ; मगर जब मुझे कुछ कहना होगा तो यही कहॅूगा कि मैं झक मारता हूँ। अगर अपना जिक्र करूँगा तो यही कहूँगा कि मैं पाजी हूँ। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे जलीज समझें ताकि मुझे गुरूर न हो।

लोग - वाह-वाह! कितनी आजिजी है! जभी तो खुदा ने आपको यह रुतबा दिया।

खोजी - आजकल जमाना नाजुक है। किसी ने जरा टेढ़ी बात की और धर लिए गए। किसी को एक धौल लगाई और चालान हो गया। हाकिम ने 10 रुपया जुर्माना कर दिया या दो महीने की कैद। अब बैठे हुए चक्की पीस रहे हैं। इस जमाने में अगर निबाह है, तो आजिजी में। और अफीम से बढ़ कर आजिजी का सबक देने वाली दूसरी चीज नहीं।

लोग - क्या दलीलें हैं! सुभान अल्लाह!

खोजी - भाइयों, मेरी इतनी तारीफ न कीजिए, वरना मुझे गुरूर हो जायगा। मैं वह शेर हूँ, जिसने जंग के मैदान में करोड़ों को नीचा दिखाया। मगर अब तो आपका गुलाम हूँ।

एक - आप इस काबिल हैं कि डिबिया में बंद कर दे।

दूसरा - आपके कदमों की खाक ले कर ताबीज बनानी चाहिए।

तीसरा - इस आदमी की जबान चूमने के काबिल है।

चौथा - भाई, यह सब अफीम के दम का जहूरा है।

खोजी - बहुत ठीक। जिसने यह बात कही, हम उसे अपना उस्ताद मानते हैं। यह मेरी खानदानी सिफत है। एक नकल सुनिए - एक दिन बाजार में किसी ने चिड़ीमार से एक उल्लू के दाम पूछे। उसने कहा, आठ आने। उसी के बगल में एक और छोटा उल्लू भी था। पूछा, इसकी क्या कीमत है? कहा, एक रुपया। तब तो गाहक ने कान खड़े किए और कहा - इतने बड़े उल्लू के दाम आठ आने और जरा से जानवर का मोल एक रुपया? चिड़िमार ने कहा - आप तो हैं उल्लू। इतना नहीं समझते कि इस बड़े उल्लू में सिर्फ यह सिफत है कि यह उल्लू है और इस छोटे में दो सिफतें हैं। एक यह कि खुद उल्लू है, दूसरे उल्लू का पट्ठा है। तो भाइयो! आपका यह गुलाम सिर्फ उल्लू नहीं, बल्कि उल्लू का पट्ठा है।

एक - हम आज से अपने को उल्लू की दुम फाख्ता लिखा करेंगे।

दूसरा - हम तो जाहिल आदमी हैं, मगर अब अपना नाम लिखेंगे तो गधे का नाम बढ़ा देंगे। आज से हम आजिजी सीख गए।

खोजी - सुनिए, इस उल्लू के पट्ठे ने जो-हो काम किया, कोई करे तो जानें; उसकी टाँग की राह निकल जायँ। पहाड़ों को हमने काटा और बड़े-बड़े पत्थर उठा कर दुश्मन पर फेंके। एक दिन 44 मन का एक पत्थर एक हाथ से उठाकर रूसियों पर मारा तो दो लाख पच्चीस हजार सात सौ उनसठ आदमी कुचल के मर गए।

एक - ओफ्फोह! इन दुबले-पतले हाथ-पाँवों पर यह ताकत!

खोजी - क्या कहा? दुबले-पतले हाथ-पाँव! यह हाथ-पाँव दुबले-पतले नहीं। मगर बदन-चोर है। देखने में तो मालूम होता है कि मरा हुआ आदमी है; मगर कपड़े उतारे और देव मालूम होने लगा। इसी तरह मेरे कद का भी हाल है। गँवार आदमी देखे तो कहे कि बौना है। मगर जाननेवाले जानते हैं कि मेरा कद कितना ऊँचा है। रूम में जब दो-एक गँवारों ने मुझे बौना कहा, तो बेअख्तियार हँसी आ गई। यह खुदा की देन है कि हूँ तो मैं इतना ऊँचा; मगर कोई कलियुग की खूँटी कहता है, कोई बौना बनाता है। हूँ तो शरीफजादा; मगर देखनेवाले कहते हैं कि यह कोई पाजी है। अक्ल इस कदर कूट-कूट कर भरी है कि अगर फलातून जिंदा होता, तो शागिर्दी करता। मगर जो देखता है, कहता है कि यह गधा है। यह दरजा अफीम की बदौलत ही हासिल हुआ है।

अब तो यह हाल है कि अगर कोई आदमी मेरे सिर को जूतों से पीटे, तो उफ न करूँ। अगर किसी ने कहा कि ख्वाजा गधा है, तो हँस कर जवाब दिया कि मैं ही नहीं, मेरे बाप और दादा भी ऐसे ही थे।

एक - दुनिया में ऐसे-ऐसे औलिया पड़े हुए हैं!

खोजी - मगर इस आजिजी के साथ दिलेर भी ऐसा हूँ कि किसी ने बात कही और मैंने चाँटा जड़ा। मिस्र के नामी पहलवान को मारा। यह बात किसी अफीमची में नहीं देखी। मेरे वालिद भी तोलों अफीम पीते थे और दिन भर दुकानों पर चिलमें भरा करते थे। मगर यह बात उनमें भी न थी।

लोग - आपने अपने बाप का नाम रोशन कर दिया।

खोजी - अब मैं आप लोगों से चंडू की सिफत बयान करना चाहता हूँ। बगैर चंडू पिए आदमी में इनसानियत आ नहीं सकती। आप लोग शायद इसकी दलील चाहते होंगे। सुनिए - बगैर लेटे हुए कोई चंडू पी नहीं सकता और लेटना अपने को खाक में मिलाना है। बाबा सादी ने कहा है -

खाक शो पेश अजाँ कि खाक शबीं।

(मरने से पहले खाक हो जा।)

चंड की दूसरी सिफत यह है कि हरदम लौ लगी रहती है। इससे आदमी का दिल रोशन हो जाता है। तीसरी सिफत यह है कि इसकी पिनक में फिक्र करीब नहीं आने पाती। चुस्की लगाई और गोते में आए। चौथी सिफत यह है कि अफीमची को रात भर नींद नहीं आती। और यह बात पहुँचे हुए फकीर ही को हासिल होती है। पाँचवीं सिफत यह है कि अफीमची तड़के ही उठ बैठता है। सबेरा हुआ और आग लेने दौड़े। और जमाना जानता है कि सबेरे उठने से बीमारी नहीं आती।

इस पर एक पुराने खुर्राट अफीमची ने कहा - हजरत, यहाँ मुझे एक शक है। जो लोग चीन गए हैं। वह कहते हैं कि वहाँ तीस बरस से ज्यादा उम्र का आदमी ही नहीं। इससे तो यही साबित होता है कि अफीमियों की उम्र कम होती है।

खोजी - यह आपसे किसने कहा? चीन वाले किसी को अपने मुल्क में नहीं जाने देते। असल बात यह है कि चीन में तीस बरस के बाद लड़का पैदा होता है।

लोग - क्या तीस बरस के बाद लड़का पैदा होता है! इसका तो यकीन नहीं आता।

एक - हाँ-हाँ होगा। इसमें यकीन न आने की कौन बात है। मतलब यह कि जब औरत तीस बरस की हो जाती है, तब कहीं लड़का पैदा होता है।

खोजी - नहीं-नहीं; यह मतलब हीं है। मतलब यह है कि लड़का तीस बरस तक हमल में रहता है।

लोग - बिलकूल झूठ! खुदा की मार इस झूठ पर।

खोजी - क्या कहा? यह आवाज किधर से आई? अरे, यह कौन बोला था? यह किसने कहा कि झूठ है?

एक - हुजूर, उस कोने से आवाज आई थी।

दूसरा - हुजूर, यह गलत कहते हैं। इन्हीं की तरफ से आवाज आई थी।

खोजी - उन बदमाशों को कत्ल कर डालो। आग लगा दो। हम, और झूठ! मगर नहीं, हमीं चूके। मुझे इतना गुस्सा न चाहिए। अच्छा साहब हम झूठे, हम गप्पी, बल्कि हमारे बाप बेईमान, जालसाज और जमाने भर के दगाबाज। आप लोग बतलाएँ, मेरी क्या उम्र होगी?

एक - आप कोई पचास के पेटे में होंगे।

दूसरा - नहीं-नहीं, आप कोई सत्तर के होंगे।

खोजी - एक हुई, याद रखिएगा हजरत। हमारा सिन न पचास का, न साठ का। हम दो ऊपर सौ बरस के हैं। जिसको यकीन न आए वह काफिर।

लोग - उफ्फोह, दो ऊपर सौ बरस का सिन है।

खोजी - जी हाँ, दो ऊपर सौ बरस का सिन है।

एक - अगर यह सही है तो यह एतराज उठ गया कि अफीमियों की उम्र कम होती है। अब भी अगर कोई अफीम न पिए, तो बदनसीब है।

खोजी - दो ऊपर सौ बरस का सिन हुआ और अब तक वही खमदम है कहो, हजार से लड़ें, कहो, लाख से। अच्छा अब आप लोग भी अपने-अपने तजरबे बयान करें। मेरी तो बहुत सुन चुके; अब कुछ अपनी भी कहिए।

इस पर गट्टू नाम का एक अफीमची उठ कर बोला - भाई पंचों, मैं कलवार हूँ। मुल शराब हमारे यहाँ नहीं बिकती। हम जब लड़के से थे, तब से हम अफीम पीते हैं। एक बार होली के दिन हम घर से निकले। ऐ बस, एक जगह कोई पचास हों, पैतालिस हों, इतने आदमी खड़े थे। किसी के हाथ में लोटा, किसी के हाथ में पिचकारी। हम उधर से जो चले, तो एक आदमी ने पीछे से दो जूता दिया, तो खोपड़ी भन्ना गई। अगर चाहता तो उन सबको डपट लेता, मगर चुप हो रहा।

खोजी - शाबाश! हम तुमसे बहुत खुश हुए गुट्टू।

गुट्टू - हुजूर की दुआ से यह सब है।

इसके बाद नूरखाँ नाम का एक अफीमची उठा। कहा - पंचो! हम हाथ जोड़ कर कहते हैं कि हमने कई साल से अफीम, चंडू पीना शुरू किया है। एक दिन हम एक चने के खेत में बैठे बूट खा रहे थे। किसान था दिल्लगीबाज। आया और मेरा हाथ पकड़ कर कानीहौज ले चला। मैं कान दबाए हुए उसके साथ चला आया।

इसके बाद कई अफीमचियों ने अपने-अपने हाल बयान किए। आखिर में एक बुड्ढे जोगादारी अफीमी ने खड़े हो कर कहा - भाइयों! आज तक अफीमियों में किसी ने ऐसा काम नहीं किया था। इसलिए हमारा फर्ज है कि हम अपने सरदार को कोई खिताब दे। इस पर सब लोगों ने मिलकर खुशी से तालियाँ बजाईं और खोजी को गीदी का खिताब दिया। खोजी ने उन सबका शुक्रिया अदा किया और मजलिस बरखास्त हुई।

***